हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार हमने जीवन के क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति से संबंधित अवधारणाओं पर नज़र ड़ाली थी। इस बार हम यथार्थता के सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन में अंतर को समझने की कोशिश करेंगे। चेतना की उत्पत्ति के मद्देनज़र इनसे गुजरना एक पूर्वाधार का काम करेगा।
चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन
क्या तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उत्पत्ति का यह मतलब है कि उच्चतर जानवरों में चिंतन क्षमता तथा तर्कबुद्धि होती है और वे सचेत व्यवहार कर सकते हैं?
सरलतम एककोशिकीय अंगियों में यथार्थता ( reality ) का परावर्तन (Reflection, a reflex action, an action in return) अत्यंत आदिम रूप में होता है। यदि एक एककोशिकीय अंगी, अमीबा युक्त एक पात्र में अम्ल के सांद्रण ( concentration ) को बढ़ा दिया जाए, तो अमीबा उस तरफ़ को चला जाएगा, जहां अम्ल का सांद्रण कम है। यदि वह संयोगवश भोजन से टकरा जाता है, तो उसे अपने शरीर के किसी भी भाग से गड़प जाता है। इस तरह अमीबा अपने व्यवहार और गति के लिए कोई निश्चित दिशा और लक्ष्य तय नहीं करता।
उत्तेजनशीलता ( Excitability ) के आधार पर यथार्थता के प्रति मात्र निष्क्रिय अनुकूलन ही संभव हो सकता है। निष्क्रिय अनुकूलन का अर्थ है कि एक जीवित अंगी अपने अस्तित्व के लिए केवल पर्यावरण मे उपलब्ध अनुकूल दशाओं को ही चुनता है, किंतु उनकी रचना करना तो दूर, उन्हें खोजता तक नहीं है। पौधों सहित सभी बहुकोशिकीय अंगियों में भी उत्तेजनशीलता होती है। खिड़की पर रखा जिरेनियम का पौधा प्रकाशित पक्ष से अप्रकाशित पक्ष को हार्मोनों की गति के जरिए अपनी पत्तियों को उस दिशा की ओर मोड़ लेता है, जहां से उसकी जीवन क्रिया के लिए आवश्यक अधिक सौर प्रकाश उस पर पड़ता है। यह भी एक तरह का चयनात्मक ( Selective ), फिर भी निष्क्रिय अनुकूलन है, क्योंकि जिरेनियम न तो प्रकाश की खोज में जाता है और न ही प्रकाश की कमी होने पर उसकी रचना करता है।
जब तंत्रिकातंत्र अधिक जटिल हो गया और मस्तिष्क की उत्पत्ति हो गई, तो धीरे-धीरे निष्क्रिय से सक्रिय अनुकूलन में संक्रमण होने लगा। उच्चतर जानवरों में ( पक्षियों और ख़ास तौर से स्तनपायियों में ) सक्रिय अनुकूलन अपने निवास के लिए अनुकूल दशाओं की खोज से संबंधित होता है और व्यवहार के जटिल रूपों के विकास की ओर ले जाता है।
उच्चतम स्तनपायियों में व्यवहार के और भी अधिक जटिल रूप पाये जाते हैं। मसलन, कई शिकारी जानवर अपने क्षेत्र की हदबंदी कर देते हैं और दूसरों को उसके अंदर शिकार नहीं करने देते। एक अनुसंधानकर्ता ने अपने प्रेक्षण के दौरान देखा कि एक भूखी मादा भेडिया एक जंगली हंस का ध्यान आकृष्ट करने तथा झील के तट पर पानी से कुछ दूर उसे अपनी तरफ़ खींचने के लिए घास में उलट-पलट कर, तथा अगल-बगल करवटें लेकर नाचते हुए एक ‘शौकिया नृत्य प्रदर्शन’ कर रही है, उसने हंस को पानी से बाहर काफ़ी दूर तक अपनी ओर आकृष्ट किया और जब उनके बीच की दूरी काफ़ी कम हो गयी, तो अपने शिकार पर झपट्टा मार दिया।
हम जानते हैं कि चींटियां और मधुमक्खियां अत्यंत जटिल संरचनाएं बनाती है, बीवर नामक जीव छतदार बिल और बिल तक जाने के लिए पानी के नीचे से रास्ता ही नहीं बनाते, बल्कि असली बांध भी बनाते हैं, इससे भी बड़ी बात यह है कि वे पानी के बाह्य प्रवाह के लिए तथा तलैया में स्तर के अनुसार नियंत्रण रखने के लिए एक निकास द्वार भी छोड़ देते हैं। इन सब बातों से जानवरों के कथित तर्कबुद्धिपूर्ण, सचेत व्यवहारक की बात कहने का आधार मिलता है, पर वास्तव में यह परावर्तन के अत्यंत विकसित रूपों के आधार पर, पर्यावरण के प्रति उच्चतर जानवरों के सक्रिय अनुकूलन मात्र का मामला हो सकता है।
उच्चतर जानवरों में सक्रिय अनुकूलन, अपने निवास के लिए अपने परिवेशी पर्यावरण का सक्रिय उपयोग, अधिक अनुकूल दशाओं की खोज तथा अपनी जीवन क्रिया के लिए, चाहे सीमित पैमाने पर ही क्यों ना हो, पर्यावरण को अपने अनुसार अनुकूलित करने में निहित होता है। किंतु उनके क्रियाकलापों में कोई योजना नहीं होती और वे बाह्य वास्तविकता को आमूलतः रूपांतरित नहीं करते।
जानवरों के व्यवहार के अनेक रूप, क्रमविकास के लाखों वर्षों के दौरान विकसित होते हैं और आनुवंशिकता द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होते हैं। व्यवहार के इन अंतर्जात ( inborn, inbred ) रूपों को सहजवृत्ति कहते हैं और वे अत्यंत जटिल हो सकती हैं। किंतु जीवन की दशाओं में तीव्र परिवर्तन होने पर ये जानवर, अपनी ही सहजवृत्तियों के ‘बंदी’ हो जाते हैं और अपने को नयी स्थितियों के अनुकूल बनाकर उन्हें बदलने में अक्षम होते हैं। इसके अलावा वे उन दशाओं को निर्णायक ढ़ंग से बदलने तथा उन्हें अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित करने की स्थिति में नहीं होते।
इस बात को स्पष्ट करने के लिए हम अत्यंत संगठित कीटों के जीवन से एक उदाहरण लेते हैं। चीड़ के पेड़ों पर रहने तथा जुलूस की शक्ल में चलनेवाले पतंगों की शुंडियां भोजन की तलाश में एक सघन कालम बनाकर आगे बढ़ती हैं। प्रत्येक शुंडी अपने आगेवाले को अपने रोयों से छूते हुए उसके पीछे-पीछे चलती है। शुंडियां महीन जालों का स्रावण करती हैं, जो पीछे से आनेवाली शुंडियों के लिए मार्गदर्शक तागे का काम देता है। सबसे आगेवाली शुंडी सारी भूखी सेना को चीड़ के शीर्षों की तरफ़, नये ‘चरागाहों’ की तरफ़, ले जाती है।
प्रसिद्ध फ़्रांसीसी प्रकृतिविद जान फ़ाब्रे ने अगुआई करने वाली शुंडी के सिर को कालम के अंत की शुंडी की ‘पूंछ’ की तरफ़ लगा दिया। वह फ़ौरन मार्गदर्शक तागे से चिपक गई और, इस तरह, ‘सेनापति’ शुंडी मामूली ‘सिपाही’ में तब्दील हो गई, तथा उस सबसे पीछे वाली शुंडी के पीछे-पीछे चलने लगी, जिससे वह जुडी हुई थी। इस तरह कालम का सिरा और दुम परस्पर जुड गये और शुंडियों ने एक ही स्थान पर एक मर्तबान के गिर्द अंतहीन चक्कर काटने शुरू कर दिये। सहजवृत्ति उन्हें इस मूर्खतापूर्ण स्थिति से छुटकारा दिलाने में असमर्थ सिद्ध हुई। भोजन पास ही रख दिया गया लेकिन किसी भी शुंडी ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। एक घंटा बीता, दूसरा बीता, दिन गुजर गये और शुंडियां, मंत्रमुग्ध जैसी चक्कर पर चक्कर लगाती रहीं। वे पूरे एक सप्ताह तक चक्कर लगाती रहीं, इसके बाद कालम टूट गया, शुंडियां इतनी कमजोर हो गयीं कि अब वे जरा भी आगे नहीं बढ सकीं।
स्पष्ट है कि शुरूआत में जो सवाल पेश किया गया था, उसका सिर्फ़ नकारात्मक उत्तर ही दिया जा सकता है। अर्थात तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उपस्थिति मात्र से ही, चिंतन क्षमता और तर्कबुद्धियुक्त सचेत व्यवहार पैदा हो पाना संभव नहीं हो जाता।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
पिछली बार हमने जीवन के क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति से संबंधित अवधारणाओं पर नज़र ड़ाली थी। इस बार हम यथार्थता के सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन में अंतर को समझने की कोशिश करेंगे। चेतना की उत्पत्ति के मद्देनज़र इनसे गुजरना एक पूर्वाधार का काम करेगा।
चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन
क्या तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उत्पत्ति का यह मतलब है कि उच्चतर जानवरों में चिंतन क्षमता तथा तर्कबुद्धि होती है और वे सचेत व्यवहार कर सकते हैं?
सरलतम एककोशिकीय अंगियों में यथार्थता ( reality ) का परावर्तन (Reflection, a reflex action, an action in return) अत्यंत आदिम रूप में होता है। यदि एक एककोशिकीय अंगी, अमीबा युक्त एक पात्र में अम्ल के सांद्रण ( concentration ) को बढ़ा दिया जाए, तो अमीबा उस तरफ़ को चला जाएगा, जहां अम्ल का सांद्रण कम है। यदि वह संयोगवश भोजन से टकरा जाता है, तो उसे अपने शरीर के किसी भी भाग से गड़प जाता है। इस तरह अमीबा अपने व्यवहार और गति के लिए कोई निश्चित दिशा और लक्ष्य तय नहीं करता।
उत्तेजनशीलता ( Excitability ) के आधार पर यथार्थता के प्रति मात्र निष्क्रिय अनुकूलन ही संभव हो सकता है। निष्क्रिय अनुकूलन का अर्थ है कि एक जीवित अंगी अपने अस्तित्व के लिए केवल पर्यावरण मे उपलब्ध अनुकूल दशाओं को ही चुनता है, किंतु उनकी रचना करना तो दूर, उन्हें खोजता तक नहीं है। पौधों सहित सभी बहुकोशिकीय अंगियों में भी उत्तेजनशीलता होती है। खिड़की पर रखा जिरेनियम का पौधा प्रकाशित पक्ष से अप्रकाशित पक्ष को हार्मोनों की गति के जरिए अपनी पत्तियों को उस दिशा की ओर मोड़ लेता है, जहां से उसकी जीवन क्रिया के लिए आवश्यक अधिक सौर प्रकाश उस पर पड़ता है। यह भी एक तरह का चयनात्मक ( Selective ), फिर भी निष्क्रिय अनुकूलन है, क्योंकि जिरेनियम न तो प्रकाश की खोज में जाता है और न ही प्रकाश की कमी होने पर उसकी रचना करता है।
जब तंत्रिकातंत्र अधिक जटिल हो गया और मस्तिष्क की उत्पत्ति हो गई, तो धीरे-धीरे निष्क्रिय से सक्रिय अनुकूलन में संक्रमण होने लगा। उच्चतर जानवरों में ( पक्षियों और ख़ास तौर से स्तनपायियों में ) सक्रिय अनुकूलन अपने निवास के लिए अनुकूल दशाओं की खोज से संबंधित होता है और व्यवहार के जटिल रूपों के विकास की ओर ले जाता है।
उच्चतम स्तनपायियों में व्यवहार के और भी अधिक जटिल रूप पाये जाते हैं। मसलन, कई शिकारी जानवर अपने क्षेत्र की हदबंदी कर देते हैं और दूसरों को उसके अंदर शिकार नहीं करने देते। एक अनुसंधानकर्ता ने अपने प्रेक्षण के दौरान देखा कि एक भूखी मादा भेडिया एक जंगली हंस का ध्यान आकृष्ट करने तथा झील के तट पर पानी से कुछ दूर उसे अपनी तरफ़ खींचने के लिए घास में उलट-पलट कर, तथा अगल-बगल करवटें लेकर नाचते हुए एक ‘शौकिया नृत्य प्रदर्शन’ कर रही है, उसने हंस को पानी से बाहर काफ़ी दूर तक अपनी ओर आकृष्ट किया और जब उनके बीच की दूरी काफ़ी कम हो गयी, तो अपने शिकार पर झपट्टा मार दिया।
हम जानते हैं कि चींटियां और मधुमक्खियां अत्यंत जटिल संरचनाएं बनाती है, बीवर नामक जीव छतदार बिल और बिल तक जाने के लिए पानी के नीचे से रास्ता ही नहीं बनाते, बल्कि असली बांध भी बनाते हैं, इससे भी बड़ी बात यह है कि वे पानी के बाह्य प्रवाह के लिए तथा तलैया में स्तर के अनुसार नियंत्रण रखने के लिए एक निकास द्वार भी छोड़ देते हैं। इन सब बातों से जानवरों के कथित तर्कबुद्धिपूर्ण, सचेत व्यवहारक की बात कहने का आधार मिलता है, पर वास्तव में यह परावर्तन के अत्यंत विकसित रूपों के आधार पर, पर्यावरण के प्रति उच्चतर जानवरों के सक्रिय अनुकूलन मात्र का मामला हो सकता है।
उच्चतर जानवरों में सक्रिय अनुकूलन, अपने निवास के लिए अपने परिवेशी पर्यावरण का सक्रिय उपयोग, अधिक अनुकूल दशाओं की खोज तथा अपनी जीवन क्रिया के लिए, चाहे सीमित पैमाने पर ही क्यों ना हो, पर्यावरण को अपने अनुसार अनुकूलित करने में निहित होता है। किंतु उनके क्रियाकलापों में कोई योजना नहीं होती और वे बाह्य वास्तविकता को आमूलतः रूपांतरित नहीं करते।
जानवरों के व्यवहार के अनेक रूप, क्रमविकास के लाखों वर्षों के दौरान विकसित होते हैं और आनुवंशिकता द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होते हैं। व्यवहार के इन अंतर्जात ( inborn, inbred ) रूपों को सहजवृत्ति कहते हैं और वे अत्यंत जटिल हो सकती हैं। किंतु जीवन की दशाओं में तीव्र परिवर्तन होने पर ये जानवर, अपनी ही सहजवृत्तियों के ‘बंदी’ हो जाते हैं और अपने को नयी स्थितियों के अनुकूल बनाकर उन्हें बदलने में अक्षम होते हैं। इसके अलावा वे उन दशाओं को निर्णायक ढ़ंग से बदलने तथा उन्हें अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित करने की स्थिति में नहीं होते।
इस बात को स्पष्ट करने के लिए हम अत्यंत संगठित कीटों के जीवन से एक उदाहरण लेते हैं। चीड़ के पेड़ों पर रहने तथा जुलूस की शक्ल में चलनेवाले पतंगों की शुंडियां भोजन की तलाश में एक सघन कालम बनाकर आगे बढ़ती हैं। प्रत्येक शुंडी अपने आगेवाले को अपने रोयों से छूते हुए उसके पीछे-पीछे चलती है। शुंडियां महीन जालों का स्रावण करती हैं, जो पीछे से आनेवाली शुंडियों के लिए मार्गदर्शक तागे का काम देता है। सबसे आगेवाली शुंडी सारी भूखी सेना को चीड़ के शीर्षों की तरफ़, नये ‘चरागाहों’ की तरफ़, ले जाती है।
प्रसिद्ध फ़्रांसीसी प्रकृतिविद जान फ़ाब्रे ने अगुआई करने वाली शुंडी के सिर को कालम के अंत की शुंडी की ‘पूंछ’ की तरफ़ लगा दिया। वह फ़ौरन मार्गदर्शक तागे से चिपक गई और, इस तरह, ‘सेनापति’ शुंडी मामूली ‘सिपाही’ में तब्दील हो गई, तथा उस सबसे पीछे वाली शुंडी के पीछे-पीछे चलने लगी, जिससे वह जुडी हुई थी। इस तरह कालम का सिरा और दुम परस्पर जुड गये और शुंडियों ने एक ही स्थान पर एक मर्तबान के गिर्द अंतहीन चक्कर काटने शुरू कर दिये। सहजवृत्ति उन्हें इस मूर्खतापूर्ण स्थिति से छुटकारा दिलाने में असमर्थ सिद्ध हुई। भोजन पास ही रख दिया गया लेकिन किसी भी शुंडी ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। एक घंटा बीता, दूसरा बीता, दिन गुजर गये और शुंडियां, मंत्रमुग्ध जैसी चक्कर पर चक्कर लगाती रहीं। वे पूरे एक सप्ताह तक चक्कर लगाती रहीं, इसके बाद कालम टूट गया, शुंडियां इतनी कमजोर हो गयीं कि अब वे जरा भी आगे नहीं बढ सकीं।
स्पष्ट है कि शुरूआत में जो सवाल पेश किया गया था, उसका सिर्फ़ नकारात्मक उत्तर ही दिया जा सकता है। अर्थात तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उपस्थिति मात्र से ही, चिंतन क्षमता और तर्कबुद्धियुक्त सचेत व्यवहार पैदा हो पाना संभव नहीं हो जाता।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय