tag:blogger.com,1999:blog-4323557767491605220.post2711940172838913095..comments2024-03-29T08:04:38.866+05:30Comments on समय के साये में: और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 2Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/06584814007064648359noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-4323557767491605220.post-11105825821524584162012-06-25T22:03:31.040+05:302012-06-25T22:03:31.040+05:30वर्ड प्रेस पर ही समय की टिप्पणी:
प्रिय सिद्धार्थ,...वर्ड प्रेस पर ही समय की टिप्पणी:<br /><br />प्रिय सिद्धार्थ,<br />वस्तुगत वास्तविकता दिमाग़ से पैदा हुए ईश्वर और सर्वव्यापी ईश्वर में कोई भेद नहीं करती।<br /><br />अलग-अलग दिमाग़ों की अलग-अलग सीमाएं हैं। अलौकिक शक्तियों के वज़ूद की काल्पनिकता में उलझे दिमाग़, इन तक नहीं पहुंच पाने को दूसरे दिमागों की सीमाएं समझते हैं। वहीं वस्तुगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले दिमाग़, काल्पनिकता के इस गड़बड़झाले से नहीं उबर पाने की कमजोरियों को दूसरे दिमागों की सीमाएं समझते हैं।<br /><br />ईश्वर की तरह ही, सर्वव्यापकता भी दिमाग़ों की काल्पनिकता की ही उपज है। मनुष्य से इतर, बाकी प्राणीजगत की कल्पनाहीन परिस्थितियों और दिमाग़ो को किसी हितबद्ध ईश्वर की आवश्यकता पैदा नहीं हुई या नहीं होती।<br /><br />वस्तुगत विज्ञान में वाद नहीं हुआ करते। वादों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक हुआ करता है। वैज्ञानिक तथ्यों को व्याख्याओं और हितबद्धताओं में बांधने का काम दर्शन का है। प्रत्यक्षवाद एक दार्शनिक धारा ही थी जिसने वैज्ञानिक तथ्यों की व्याख्या का एक विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत और विकसित करने की कोशिश की। यह ठोस ( आनुभाविक ) विज्ञानों को सच्चे ज्ञान का एकमात्र स्रोत मानती है और दार्शनिक अध्ययन के संज्ञानात्मक मूल्य को अस्वीकार कर देती है।प्रत्यक्षवादियों ने ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में सैद्धांतिक परिकल्पना को अस्वीकार कर दिया। कोम्त से शुरू होते हुए, मिल, स्पेन्सर, माख़, कर्नाप, राइख़ेनबाख़ आदि दार्शनिकों ने इसे विकसित किया।<br /><br />कहने का तात्पर्य यह है कि विज्ञान प्रत्यक्षवाद मात्र पर नहीं चल रहा, बल्कि प्रत्यक्षवाद एक दार्शनिक अवधारणा है, जिसकी अपनी हितबद्धताएं थीं। उसकी व्याख्याएं नये वैज्ञानिक तथ्यों के आगे घुटने टेक सकती हैं, परंतु विज्ञान अपनी सीमाओं को निरंतर लांघते हुए निरंतर विकसित हो रहा है। वह प्रकृति के सामने मनुष्य के बौनेपन से शुरुआत करते हुए निरंतर इस बौनेपन को समृद्ध करता जा रहा है। मनुष्य जाति के एकत्रित विशाल ज्ञान के आगे व्यक्तिपरकताएं, आत्मपरकताएं बौनी ही साबित होने को अभिशप्त होती हैं।<br /><br />विज्ञान की विशेषता उसकी सार्वभौमिकता होती है। वह विशिष्टता से नहीं, सामान्यता से जुड़ता है। जब विज्ञान किसी के हिस्से का होने लगता है, तब वह विज्ञान कम रह जाता है और मान्यता अधिक। उन्हें ओछा साबित होने दीजिए, परंतु मनुष्य द्वारा प्रकृति के संज्ञान से उत्पन्न वास्तविकताएं, जो उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं, किसी भी तरह की काल्पनिकताओं से नकारी नहीं जा सकती।<br /><br />पचाने में मशक्कत अभीष्ट है। खासकर प्रचलित परंपराओं और अपनी मान्यताओं के विरुद्ध जाती सी लगती चीज़ों में। अक्सर दिमाग़ों का हाज़मा अच्छा नहीं होता। :-)<br /><br />शुक्रिया।Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/06584814007064648359noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4323557767491605220.post-71888353298233988872012-06-25T22:01:15.888+05:302012-06-25T22:01:15.888+05:30वर्ड प्रेस पर सिद्धार्थ जोशी की टिप्पणी:
Sidharth...वर्ड प्रेस पर सिद्धार्थ जोशी की टिप्पणी:<br /><br />Sidharth Joshi commented on और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 2<br /><br />"ईश्वर उन नर नारियों के दिमाग़ की पैदाइश नहीं है जिन्होंने अनन्त दूरदर्शी प्रथम कारणों की परिकल्पना की, बल्कि उन दिलों की खोज है जो हितबद्ध ईश्वर के लगातार हस्तक्षेप के लिए लालायित थे।"<br /><br />"प्रत्यक्षवाद का तर्क है कि विज्ञान को उन्हीं चीज़ों तक अपने आपको सीमित रखना चाहिए जिनका हम अवलोकन कर सकते हैं।"<br /><br />पहले कथन के बारे में मेरी सोच यह है कि घोस्ट इन द मशीन के रास्ते से आगे आ रहे स्त्री पुरुषों से इससे अधिक की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी। ऐसे में दिमाग से पैदा हुए ईश्वर या सर्वव्यापी ईश्वर में अंतर्द्वद्व सहज था।<br /><br />दूसरे कथन के बारे में कुछ दिन पहले मेरी एक मनु शर्मा नामक के एक ज्योतिषी से बात हुई। वह मेधावी विद्यार्थी अभी ज्योतिश में पीएचडी कर रहा है। उसने सरलता और सहजता से कहा कि प्रत्यक्षवाद पर चल रहा विज्ञान भौतिक के नए नियमों के सामने सौ साल पहले ही घुटने टेक चुका है। ऐसे में प्रयोगशाला में प्रयोग प्रेक्षण और परिणाम से परे की जितनी चीजें सामने आती जा रही हैं, विज्ञान उनता ही बौना सिद्ध हो रहा है। ऐसे में कई वैज्ञानिक पारंपरिक दर्शन को किसी भी कीमत पर ओछा सिद्ध कर अपने हिस्से के विज्ञान को बचाने में जुटे हैं।<br /><br />जितनी सहजता से मनु ने कहा, उतनी ही सहजता से मैं निगल गया... (बाद में पचाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी।)Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/06584814007064648359noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4323557767491605220.post-15396298876522181092012-06-03T20:20:19.958+05:302012-06-03T20:20:19.958+05:30मानव -वैचारिकता का एक जगमगाता पड़ाव -प्रस्तुति फिल...मानव -वैचारिकता का एक जगमगाता पड़ाव -प्रस्तुति फिलासफी आफ साईंस की पुट लिए है !Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4323557767491605220.post-32096808463898416302012-06-03T06:41:53.932+05:302012-06-03T06:41:53.932+05:30मूल लेख पढ़ चुका हु लेकिन हिन्दी में बात ही कुछ और...मूल लेख पढ़ चुका हु लेकिन हिन्दी में बात ही कुछ और है! धन्यवाद इस महत्वपूर्ण लेख को हिन्दी में प्रस्तुत करने के लिए !Ashish Shrivastavahttps://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com