शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

व्यवहार - संज्ञान का आधार और कसौटी - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की प्रक्रिया की संरचना पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम संज्ञान के आधार और कसौटी के रूप में व्यवहार को समझने की कोशिश शुरू करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



व्यवहार - संज्ञान का आधार और कसौटी - १
( practice - basis and criterion of cognition - 1 )

दर्शन में ‘व्यवहार’ ( practice ) संप्रत्यय का विशेष अर्थ है। मनुष्य के प्रकृति और समाज का रूपांतरण ( transformation ) करने वाले सोद्देश्य ( purposive ) सामाजिक क्रियाकलाप ही व्यवहार हैं। इसमें निम्नांकित चीज़ें शामिल हैं : पहली, भौतिक उत्पादन की प्रक्रिया ; दूसरी, वर्गों की, अवाम की सामाजिक-राजनीतिक, रूपांतरणात्मक क्रियाएं और तीसरी, वैज्ञानिक अनुसंधान और प्रयोग। व्यावहारिक सामाजिक क्रियाकलाप ही संज्ञान के प्रमुख, सारभूत आधार ( basis ) हैं। बाह्य जगत के साथ व्यावहारिक अंतर्क्रिया ( practical interaction ) के दौरान ही सच्चा वैज्ञानिक संज्ञान संभव है और व्यावहारिक आवश्यकताएं, जीवन की जरूरतें ही संज्ञान, विज्ञान के विकास को प्रणोदित ( propelled ) करती हैं। साथ ही, व्यवहार ही हमारे ज्ञान की सत्यता की कसौटी ( criterion ) भी है। व्यवहार विभिन्न संकल्पनाओं और सिद्धांतों को परखने ( testing ), उनकी सत्यता या मिथ्यापन को साबित करने ( proving ), ज्ञान को परिभाषित तथा प्रणालीबद्ध ( define and systematize ) करने का काम करता है।

जीवन में मनुष्य का प्रकृति, समाज या स्वयं मानव चिंतन की बहुत ही विविध परिघटनाओं ( phenomenon ) से साक्षात्कार होता है। आधुनिक समाज का ही उदाहरण लें। उसकी जटिल परिस्थितियों में ठीक दिशा ढूंढ़ने और काम करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति को सामाजिक विकास के नियमों का ज्ञान हो। यह स्पष्ट है कि सामाजिक संरचनाओं ( social structures ) के कार्य और परिवर्तन, वर्ग संघर्ष ( class struggle ) के नियमों और संस्कृति के विकास के नियमों के अध्ययन में, उन श्रम औज़ारों और यंत्रों का प्रयोग नहीं किया जा सकता, जो प्रकृति की वस्तुओं के रूपांतरण एवं अध्ययन में प्रयुक्त होते हैं। तब तो यह कहा जा सकता है कि वस्तुओं तथा औज़ारों से संबंधित कार्यकलाप सभी मामलों में संज्ञान का आधार और कसौटी नहीं बन सकता।

लेकिन हमें निष्कर्ष ( conclusion ) निकालने में इतनी उतावली दिखाने की कोई जरूरत नहीं। बात यह है कि श्रम और सारा वस्तु-औज़ार कार्यकलाप अपने आप में सामाजिक परिघटनाएं हैं। उन्हें संपन्न करने के लिए आवश्यक है कि लोग एक दूसरे के संपर्क में आयें, आत्मसंगठन के इन या उन रूपों का पालन करें, सूचनाओं का विनिमय ( exchange ) करें और संचित ( accumulated ) अनुभवों को सुरक्षित रखें, संप्रेषित ( communicate ) करें और बढ़ायें। इसलिए ‘व्यवहार’ या अधिक व्यापक संदर्भ में, ‘सामाजिक तथा उत्पादन संबंधी व्यवहार’ को हमें उन प्रक्रियाओं और कार्यों की समष्टि ( totality ) के अर्थ में लेना होगा, जो मनुष्य के वस्तु-औज़ार कार्यकलाप के आधार पर पैदा होते हैं और इस कार्यकलाप के अस्तित्व ( existence ) तथा विकास ( development ) के लिए आवश्यक परिस्थितियां बनाते हैं।

इस दृष्टि से विरोधपूर्ण ( antagonistic ) समाज में वर्ग संघर्ष, सामाजिक तथा उत्पादन संबंधी व्यवहार का एक महत्त्वपूर्णतम तत्व होता है, क्योंकि वह उत्पादक शक्तियों ( productive forces ) तथा उत्पादन संबंधों के विकास के आधार पर पैदा होता है और उसकी प्रगति ( progress ) तथा परिणाम पर सामाजिक उत्पादन की आगे प्रगति निर्भर होती है। वर्ग संघर्ष के दौरान विभिन्न राजनीतिक विचारधाराएं ( political ideologies ) ही प्रतिपादित नहीं की जातीं, उसके दौरान इसकी परीक्षा भी होती है कि ये विचारधाराएं इस या उस वर्ग के हितों को किस हद तक व्यक्त करती हैं, घोषित लक्ष्य सामाजिक विकास की आवश्यकताओं के कितने अनुकूल हैं और संघर्ष के जो रूप तथा साधन प्रस्तावित किये गये हैं, वे कितने कारगर ( effective ) हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

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