शनिवार, 29 अगस्त 2009

आख़िर दर्शन क्या है? क्यों है?

हे मानवश्रेष्ठों,
समय ने पिछली बार चाहा था कि मानव-मन या चेतना की उत्पत्ति और विकास की प्रक्रिया को यहां थोड़ा सार रूप में प्रस्तुत किया जाए।
परंतु अब बात चल निकली है, और जाहिर है कुछ संदर्भों, दृष्टिकोणों और शब्दावली का व्यापक प्रयोग किया जाएगा, तो यह ज़्यादा बेहतर रहेगा कि बात उन्हीं से शुरू की जाए।

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चूंकि इस हेतु समय को आपके साथ दर्शन के क्षेत्र की यात्रा करनी है, अतएव यह समुचित रहेगा की दर्शन की चर्चा ही यहां सबसे पहले की जाए। तो चलिए दर्शनशास्त्र से शुरूआत करते हैं।
समय मानवजाति के अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ यहां समेकित कर रहा है।
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मनुष्य के सामने सदा से ही ये प्रश्न उपस्थित रहे हैं कि विश्व में उसका स्थान क्या है, मानव जीवन का लक्ष्य, उद्देश्य और मूल्य क्या हैं? यह दुनिया आगे कैसी होगी? क्या इस संसार से उत्पीड़न और अन्याय कभी गायब हो पाएंगे? मनुष्य की नियति में क्या बदा है, युद्धों का महाविनाश या शांतिपूर्ण जीवन? मनुष्य के वर्तमान नाभिकीय युग में ये प्रश्न, मुख्यतः मानवजाति की संभावनाओं का प्रश्न और भी तीव्रता से सामने आता है। आख़िर मनुष्य अपने समय की समस्याओं और अंतर्विरोधों से कैसे निबटें? विज्ञान और तकनीकि की उपलब्धियों को मनुष्य की बेहतरी के लिए कैसे इस्तेमाल करें? और यह मनुष्य की बेहतरी ही खु़द अपने आप में क्या है?

कोई भी सचेत सक्रिय व्यक्ति ऐसे प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश किए बिना नहीं रह सकता है। किंतु विज्ञान और तकनीक स्वयं इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकते हैं, और मुख्य बात इन प्रश्नों के हर समय के लिए मान्य उत्तर खोजना और उन्हें मात्र कंठस्थ कर लेना नहीं है। इस बात में पारंगत होना कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि तेज़ी से बदलती हुई इस दुनिया में ऐसे उत्तर कैसे खोजे जाते हैं, कौनसे दृष्टिकोण और पद्धतियां इसके लिए ज़्यादा उपयुक्त रहती हैं, इन उत्तरों की सचाई को कैसे परखा जाता है और फिर उनके अनुरूप कर्म कैसे किए जाते हैं।

इसके लिए दर्शन का ज्ञान आवश्यक है।
यह ज्ञान एक विशेष शास्त्र से प्राप्त होता है, जिसे दर्शनशास्त्र कहा जाता है।
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दर्शन का उद्‍भव प्राचीन यूनान में हुआ। पाईथागौरस ने सर्वप्रथम philosophy पद का उपयोग किया था। ‍इस तरह पाश्चात्य भाषाओं में दर्शन का पर्याय ‘फ़िलॉसॉफ़ी’, दो यूनानी शब्दों- प्रेम और बुद्धिमता से मिलकर बना है, यानि इसका अर्थ है बुद्धिमता के प्रति प्रेम।

मनुष्य के आसपास की दुनिया असीम है और वह इसकी पहेलियों को हल करने का प्रयत्न धीरे-धीरे और क़दम दर क़दम चलकर ही कर सकता है। दर्शन में इस असीम का, हर विद्यमान वस्तु के स्रोतों तथा कारणों का संज्ञान प्राप्त करने के लिए अनवरत खोज में जुटने और और हर उपलब्धि पर संदेह करने के प्रयास मूर्त होते हैं। प्राचीन यूनान के महान दार्शनिक अफ़लातून ने कहा था कि दर्शन का स्रोत आश्चर्य और अचंभे में है।

प्राचीन काल में दर्शन तथा इसके उद्देश्यों के बारे में कई विविधतापूर्ण विचारों का आविर्भाव हुआ। महान यूनानी चिंतक अरस्तु का मत था कि सारे विज्ञान एक विशिष्ट लक्ष्य का अनुसरण करते हैं, केवल दर्शन ही सब विज्ञानों में स्वतंत्र है क्योंकि यह स्वयं अपने ख़ातिर अस्तित्वमान है, वहीं एक और सुप्रसिद्ध चिंतक सिसेरो ने इसकी सर्वथा उल्टी बात का दावा किया और कहा कि दर्शन जीवन का ऐसा ध्रुवतारा है जिसके बिना न तो मनुष्य का अस्तित्व हो सकता है, न स्वयं मानव जीवन का।

कुछ लोगों का विश्वास था कि दर्शन को धर्म से पृथक नहीं किया जा सकता, कि यह धार्मिक मताग्रहों की बेहतर समझ में सहायक है। जबकि कुछ अन्य की राय थी कि यह संदेहों और तर्कबुद्धि पर आधारित है, अतः धर्म से मेल नहीं खाता क्योंकि धर्म आस्था पर आधारित होता है। दर्शन के सार तथा उद्देश्य के बारे में इस तरह से ही, आधुनिक चिंतकों तक के भी कई मत-मतांतर प्रचलित हैं, जिन पर यदि मौका मिला तो समय फिर कभी दर्शन के इतिहास की चर्चा के अंतर्गत बात करना चाहेगा।

फिलहाल दर्शन की अद्यतन समझ को जिस तरह से सामान्यीकृत कर दिया गया है उसे देखिए।
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यह विश्व प्रकृति और समाज से बना है। ज्ञान की अन्य प्रणालियां, मसलन, दैनिक अनुभव पर आधारित साधारण ज्ञान, राजनैतिक, वैज्ञानिक, तकनीकि ज्ञान, आदि वास्तविकता के अलग-अलग पहलुओ को परावर्तित करती हैं और दैनिक जीवन, उद्योग तथा राजनैतिक संघर्ष में, प्रकृति के संज्ञान के दौरान और अन्य मामलों में उनकी जरूरत पड़ती हैं। साथ ही मनुष्यजाति के इतिहास के प्रत्येक युग, प्रत्येक अवधि ने ऐसे कार्य और सवाल पेश किये हैं जो जीवन की सर्वाधिक बुनियादी समस्याओं को छूते हैं और जिनके समाधान पर संपूर्ण मानवजाति की और प्रत्येक व्यक्ति की नियति निर्भर है।

जनसाधारण के बुनियादी हितों को परावर्तित करने बाली इन समस्याओं को समझना, उनसे अवगत होना और उन्हें सटीकतः निरूपित करना अत्यंत कठिन है, और इससे भी अधिक कठिन है उनको हल करने के तरीक़ों और साधनों का पता लगाना। ऐसा करने के लिए विभिन्न विज्ञानों की उपलब्धियों के अत्यंत गहन ज्ञान, मनुष्यों के बुनियादी हितों को समझने और युगों के विभेदक लक्षणों तथा विशेषताओं को सही ढंग से निरूपित करने की योग्यता की जरूरत होती है।

जाहिर है कि इसके वास्ते ज्ञान की एक विशेष प्रणाली की, एक ऐसी प्रणाली की आवश्यकता है, जो वास्तविकता को उसके अलग-अलग पहलुओं और समस्याओं के बजाय एक साकल्य के रूप में देखने में सक्षम हो और जिसके केन्द्र में अपनी सारी आकांक्षाओं, प्रयासों, आशाओं, संदेहों तथा सवालों, अपने सारे अंतर्विरोधों, खोजों और भ्रमों सहित मनुष्य खडा़ हो।

फलतः दर्शन "अपने काल के बौद्धिक सारतत्व" के और "समसामयिक विश्व के दर्शन" की हैसियत से विश्व में मनुष्य के स्थान तथा अपने परिवेशीय जगत के प्रति उसके रुख़ के ज्ञान की एक विशेष प्रणाली है। वह मनुष्य के क्रियाकलाप के आधारों तथा उनकी नियमसंगतियों को जानने के प्रयत्न करता है।

जर्मनी के महान आधुनिक वैज्ञानिक दार्शनिक और चिंतक कार्ल मार्क्स ने दर्शन की व्याख्या करते हुए कहा था:
" चूंकि प्रत्येक सच्चा दर्शन अपने काल का बौद्धिक सारतत्व होता है, इसलिए वह समय अवश्यंभावि रूप से आता है जब दर्शन ना केवल आंतरिक दृष्टि से, ना केवल अपनी अंतर्वस्तु द्वारा, बल्कि अपने रूप के जरिए, बाह्य दृष्टी से भी अपने काल के वास्तविक जगत के संपर्क में आता है तथा उससे अंतर्क्रिया करता है। और तब दर्शन अन्य विशेष प्रणालियों के संदर्भ में सिर्फ़ एक विशेष प्रणाली भर नहीं रह जाता, बल्कि वह विश्व के संदर्भ में सामान्य दर्शन बन जाता है, समसामयिक विश्व का दर्शन बन जाता है। "
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आज इतना ही।
अगली बार चेतना के संदर्भ मे जारी इस चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।
इस श्रृंखला के बाद समय भारतीय दर्शन पर भी चर्चा करने की योजना रखता है।
आप यहां से गुजरते रहें।

आलोचनात्मक और जिज्ञासात्मक संवादों का स्वागत है।

समय

शनिवार, 8 अगस्त 2009

चेतना की संकल्पना और विवेचना

हे मानवश्रेष्ठों,
इस बार समय, चेतना की संकल्पना पर मानवजाति द्वारा की गयी अद्यानूतन विवेचना को जस की तस रख रहा है।
थोड़ी सी गंभीरता और ध्यान की दरकार है।
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मनुष्य के मस्तिष्क में यथार्थ के प्रतिबिंब के तौर पर मन के कई स्तर होते हैं।

मन का उच्चतम स्तर चेतना है, यह मनुष्य की सक्रियता की सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों और अन्य लोगों के साथ निरंतर भाषाई संपर्क की प्रक्रिया में पैदा होती है। इस दृष्टि से चेतना वास्तव में सत्त्व का ज्ञान ही है।

चेतना की संरचना और उसकी महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक विशेषताएं क्या हैं?

इसकी पहली विशेषता तो इसके नाम से ही मालूम हो जाती है, जो परिवेशी विश्व के ज्ञान अथवा बोध का पर्याय है। चेतना की संरचना में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संज्ञानात्मक प्रक्रियाएं शामिल हैं, जिनसे मनुष्य अपने ज्ञान की निरंतर वृद्धि करता रहता है। इन प्रक्रियाओं में संवेदनों, प्रत्यक्षों, स्मृति, कल्पना और चिंतन को सम्मिलित किया जा सकता है। संवेदन और प्रत्यक्ष, जो मस्तिष्क पर उत्तेजित करने वाले कारकों के प्रभाव को सीधे परावर्तित करते हैं, चेतना में वैसा ही इन्द्रियजनित चित्र बनाते हैं, जैसा कि वह मनुष्य को दत्त क्षण में प्रतीत हो रहा होता है। स्मृति की बदौलत मनुष्य अतीत के बिंबों को चेतना में सुरक्षित रखता है। कल्पना उसे प्रदत्त क्षण में अनुपलब्ध वस्तुओं के बिंबात्मक प्रतिरूप बनाने की संभावना देती है और चिंतन मनुष्य को संचित ज्ञान का तार्किक इस्तेमाल करके समस्याओं को हल करने में समर्थ बनाता है। उपरोक्त मानसिक संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं में किसी एक के भी क्षतिग्रस्त अथवा विकृत होने से चेतना में भी अनिवार्यतः विकृति पैदा हो जाती है।

चेतना की दूसरी विशेषता उसमें कर्ता और वस्तु (विषय) के बीच, अर्थात जो मनुष्य के आत्म का अंग है उसके और जो मनुष्य के अनात्म का अंग है, उसके बीच स्पष्ट भेद किया जाना है। जैव जगत के इतिहास में मनुष्य पहला जीवधारी था, जिसने इस जगत से अलग होकर अपने को परिवेशी वस्तुओं के मुकाबले में रखा। वह अकेला जीवधारी है, जो अपना संज्ञान कर सकता है, अर्थात अपने अहं को अन्वेषण व अध्ययन का विषय बना सकता है। मनुष्य सचेतन ढंग से अपने कार्यों और अपने आप का मूल्यांकन करता है। आत्म का अनात्म से पृथक्करण, जो एक ऐसा अनुभव है जिससे बचपन में हर कोई गुजरता है, मनुष्य की आत्मचेतना के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण चरण है।

चेतना की तीसरी विशेषता मनुष्य के सोद्देश्य क्रियाकलाप का सुनिश्चितीकरण है। चेतना का एक कार्य मनुष्य की सक्रियता के उद्देश्यों का निर्माण है, जिसमें उत्प्रेरकों का बनना तथा उन्हें तौला जाना, संकल्पमूलक निर्णय लेना, विशिष्ट उद्देश्यों की ओर लक्षित कार्यों पर नियंत्रण रखना, आवश्यक सुधार करना, आदि भी सम्मिलित हैं। रोगवश या अन्य किसी कारण से सोद्देश्य क्रियाकलाप में बाधा डालनेवाली सभी मानसिक विचलनों को चेतना का विकार माना जाता है।

अंत में, चेतना की चौथी विशेषता परिवेश के प्रति एक निश्चित रवैया है। मनुष्य की चेतना का एक अनिवार्य अंग भावों की दुनिया है, जो जटिल वस्तुपरक और मुख्यतः सामाजिक संबंधों को प्रतिबिंबित करती है। मनुष्य जिन अंतर्वैयक्तिक संबंधों में भाग लेता है, उनके भावात्मक मूल्यांकन उसकी चेतना का मूल्यपरक पहलू होते हैं। कई अन्य मामलों की तरह यहां भी विकृतिविज्ञान सामान्य चेतना के सारतत्व को स्पष्ट करने में मदद देता है। कतिपय मानसिक रोगों में चेतना के विकार का लक्षण भावनाओं और संबंधों के क्षेत्र की गड़बड़ियां होती हैं: रोगी अपनी माँ से घृणा करता है, हालांकि पहले वह उसे बेहद प्यार करता था, या फिर वह अपने मित्रों और संबंधियों की बुराई करता है, इत्यादि।

चेतना के उपर्युक्त सभी विशिष्ट लक्षण भाषा के माध्यम से बनते और व्यक्त होते हैं और भाषा मन के विकास से अभिन्नतः जुड़ी हुई है। वास्तव में मनुष्य वाक् के जरिए, भाषा द्वारा होने वाले संप्रेषण के जरिए ही ज्ञान का संचय कर सकता है और मानवजाति द्वारा संचित तथा भाषा में अभिव्यक्त विचारों की संपदा से अपने को समृद्ध बना सकता है। भाषा एक विशेष वस्तुपरक प्रणाली है, जो मनुष्य के समाजिक-ऐतिहासिक अनुभव अथवा सामाजिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। व्यक्ति द्वारा आत्मसात् किये जाने पर भाषा एक तरह से उसकी वास्तविक चेतना बन जाती है।

एक सामाजिक उत्पाद होने के कारण चेतना केवल मनुष्य में पाई जाती है। पशुओं में चेतना नहीं होती।

मन का सबसे निचला स्तर अचेतन है, जिसे यों परिभाषित किया जा सकता है: अचेतन उन मानसिक प्रक्रियाओं, कार्यों और अवस्थाओं की समष्टि है, जो ऐसे प्रभावों पर निर्भर है जिनका कि मनुष्य को बोध नहीं है। चेतन मन के विपरीत अचेतन मन व्यक्ति के कार्यों का सोद्देश्य नियंत्रण अथवा उनके परिणामों का मूल्यांकन करने में असमर्थ होता है।

अचेतन के क्षेत्र में निद्रावस्था के दौरान घटित मानसिक व्यापार ( स्वप्न ) ; असंवेदित, किंतु असल में क्षोभकों द्वारा उत्पन्न अनुक्रियाएं ; जो क्रियाएं पहले चेतनाधारित थी किंतु स्वतः होने या बारंबार आवृति के कारण चेतन मन से विस्थापित हो गयीं ; सक्रियता के कतिपय उत्प्रेरक, जिनमें लक्ष्य की चेतना का अभाव है, और बहुत सी चीज़ें आती हैं। अचेतन परिघटनाओं में बीमार मनुष्य के मन में पैदा होनेवाली प्रलाप, विभ्रम, आदि कतिपय विकृतिमूलक प्रक्रियाओं को भी शामिल किया जाता है। अचेतन मन को चेतन मन का विलोम मानकर, अचेतन को पशु मानस का प्रतिरूप समझ बैठना ठीक न होगा। अचेतन भी मानव मन की चेतना जैसी ही चारित्रिक विशेषता है और वह भी मनुष्य के अस्तित्व की सामाजिक परिस्थितियों द्वारा निर्धारित होता है, हालांकि वास्तव में वह मनुष्य के मन में विश्व का केवल आंशिक तथा अपर्याप्त प्रतिबिंब है।

मन और मस्तिष्क, मन और परिवेश के सहसंबंधों की आगे की जांच के लिए और मानव सक्रियता के मानसिक नियमन तथा नियंत्रण के आगे विश्लेषण के लिए मन की, चेतना की उत्पत्ति के प्रश्न की अधिक विस्तार से विवेचना की आवश्यकता है। वास्तव में मन की मुख्य नियमसंगतियों और मानव चेतना के निर्माण के प्रश्नों का उदविकासीय दृष्टिकोण से विश्लेषण करके ही प्रकाश में लाया और ह्र्दयंगम किया जा सकता है।
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चेतना की उत्पत्ति तथा विकास की विस्तृत विवेचना फिर कभी।
अभी इतना ही।
आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं, और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय
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