शनिवार, 24 मई 2014

परिमाण से गुण में रूपांतरण का नियम - दूसरा भाग

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत दूसरे नियम परिमाण से गुण में रूपांतरण के नियम पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे और उसका सार प्रस्तुत करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



परिमाण से गुण में रूपांतरण का नियम - दूसरा भाग
( पिछली बार से जारी...)

परिमाणात्मक ( quantitative ) और गुणात्मक ( qualitative ) परिवर्तनों के अंतर्संबंध ( interrelation ) को व्यवहार में ध्यान में रखना चाहिए। कोई भी वांछित गुण ( desired quality ) केवल परिमाणात्मक तैयारियों के आधार पर ही हासिल किया जा सकता है, कि नये गुणों का आविर्भाव, एक निश्चित परिमाणात्मक संचय ( accumulation ) पर निर्भर होता है। इसी तरह एक नये परिमाण का रास्ता सामान्यतः नये गुण से होकर गुजरता है।

परिमाण से गुण में रूपांतरण का नियम ( law of transformation from quantity to quality ) सार्विक ( universal ) होते हुए भी विभिन्न ठोस दशाओं में विभिन्न तरीक़ो से प्रकट होता है। गुणात्मक परिवर्तनों की छलांगे ( leaps ), प्रकृति, कालावधि तथा महत्त्व में भिन्न-भिन्न होती हैं। पुराने गुण से नये में सीधे संक्रमण होने पर वे तीव्र हो सकती है तथा जब वह संक्रमण कई मध्यवर्ती अवस्थाओं में क़दम ब क़दम हो, तो वे शनैः शनैः हो सकती हैं। मसलन, सामाजिक क्रांति के दौरान राजनीतिक सत्ता का रूपांतरण सामान्यतः द्रुत गति से होता है, जबकि आर्थिक, सामाजिक और विचारधारात्मक रूपांतरण कई अवस्थाओं से गुजरते हुए आम तौर पर धीरे-धीरे होते हैं।

शनैः शनैः होनेवाले परिमाणात्मक तथा शनैः शनैः होनेवाले गुणात्मक परिवर्तनों में भेद करना जरूरी है। पहले में किसी एक चीज़ के गुण में बदलाव नहीं होता और वह एक निश्चित सीमा तक एक-सा बना रहता है, क्योंकि परिमाणात्मक परिवर्तन बुनियादी, गुणात्मक रूपांतरणों के लिए महज एक रास्ता भर बनाते हैं। दूसरे मामले में, वस्तु के गुण में ही सिलसिलेवार शनैः शनैः परिवर्तन होते हैं और उनके फलस्वरूप पुराने से सर्वथा भिन्न नया गुण पैदा हो जाता है। इस प्रकार, किसी भी विकास के दो पक्ष होते हैं - परिमाणात्मक और गुणात्मक परिवर्तन - और यह उनकी अटूट एकता है। विकास केवल परिमाणात्मक या मात्र गुणात्मक परिवर्तन नहीं, बल्कि दोनों की एक अंतर्क्रिया ( interaction ) है। सामाजिक जीवन में क्रमविकास ( evolution ) एक क्रांति ( revolution ) को प्रेरित करता है, जो अपनी बारी में क्रम-विकास को पूर्ण बनाती है।

अभी तक जो कुछ बताया गया है उसका समाहार करने के लिए हम द्वंद्ववाद के दूसरे महत्त्वपूर्ण नियम, परिमाण से गुण में रूपांतरण के नियम को, निम्न सार के रूप में निरूपित कर सकते हैं:

( १ ) प्रत्येक घटना या प्रक्रिया, परिमाण तथा गुण का एकत्व ( unity ) है, दूसरे शब्दों में, इसकी अपनी ही विशिष्ट गुणात्मक और परिमाणात्मक निश्चायकता ( definiteness ) होती है।

( २ ) परिमाणात्मक परिवर्तन क्रमिक ( gradual ), सुचारू ( smooth ) और एक ख़ास सीमा तक सतत ( continuous ) रूप में होते हैं, इस सीमा के अंदर वे गुण में परिवर्तन नहीं लाते। परिमाणात्मक परिवर्तन नियमतः विपर्येय ( reversible ) होते हैं और उनकी विशेषताएं है मान ( magnitude ), कोटि ( degree ) तथा तीव्रता ( intensity )। उन्हें माप ( measurement ) की समुचित इकाइयों ( units ) के द्वारा एक निश्चित संख्या से मापा तथा व्यक्त ( express ) किया जा सकता है।

( ३ ) प्रदत वस्तु या प्रणाली में, इस अंतर्निहित ( inherent ) परिमाप की सीमा से परे के परिमाणात्मक परिवर्तन ऐसे आमूल गुणात्मक परिवर्तनों को जन्म देते हैं, जिनके फलस्वरूप नये गुण का जन्म होता है।

( ४ ) गुणात्मक परिवर्तन एक छलांग ( leap ) में या निरंतरता में क्रमभंग ( break in continuity ) की शक्ल में होते हैं, किंतु छलांग का एक तात्क्षणिक ( instantaneous ) विस्फोट के रूप में होना जरूरी नहीं है। यह कमोबेश काफ़ी समय भी ले सकती है।

( ५ ) छलांग के ज़रिये उत्पन्न नये गुण ( quality ) की विशेषताएं है उसके नये परिमाणात्मक अनुगुण ( properties ) या प्राचल ( parameters ), और परिमाण तथा गुण के एकत्व का एक नया परिमाप।

( ६ ) परिमाणात्मक परिवर्तनों के गुणात्मक में तथा विलोमतः संक्रमण ( transition ) का स्रोत विरोधियों ( opposites ) की एकता और संघर्ष तथा अंतर्विरोधों ( contradictions ) की वृद्धि और उनका समाधान है।

इस तरह, परिमाण से गुण में रूपांतरण का नियम यह दर्शाता है कि विकास के दौरान एक गुणात्मक अवस्था से दूसरी में संक्रमण कैसे होता है। दूसरे शब्दों में, यह नियम विकास के अत्यंत महत्त्वपूर्ण मोडों की विशेषताओं का चित्रण करता है। यह नूतन की उत्पत्ति की प्रक्रिया के एक प्रमुख पक्ष को प्रकाश में लाता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 10 मई 2014

परिमाण से गुण में रूपांतरण का नियम - पहला भाग

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत दूसरे नियम की दिशा में परिमाण तथा छलांग की संकल्पना पर चर्चा की थी, इस बार हम दूसरे नियम ‘परिमाण से गुण में रूपांतरण के नियम’ पर चर्चा करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



२. परिमाण से गुण में रूपांतरण का नियम - पहला भाग
( परिमाणात्मक परिवर्तनों से गुणात्मक परिवर्तनों में संक्रमण )

परिमाण से गुण में रूपांतरण का नियम ( law of transformation from quantity to quality ) विकास के तरीक़े को, उस प्रक्रिया की क्रियाविधि को दर्शाता है। यह वस्तुओं और प्रक्रियाओं के परिणामात्मक ( quantitative ) व गुणात्मक ( qualitative ) पक्ष जैसे विरोधियों ( opposites ) के अंतर्संबंध ( interrelation ) को व्यक्त करता है। हम यहां पहले भी ‘क्रमविकास क्या होता है’ के अंतर्गत इन परिवर्तनों पर काफ़ी चर्चा कर ही चुके हैं। एक बार पुनः उसका समाहार कर लेते हैं।

किसी भी चीज़ के परिमाणात्मक और गुणात्मक पहलू घनिष्ठता से अंतर्संबंधित होते हैं। इस संबंधों का रूप द्वंद्वात्मक ( dialectical ) होता है। अपनी अटूट एकता में वे किसी भी चीज़ या घटना के दो पक्षों के रूप में एक दूसरे पर आश्रित ( dependent ) होते हैं। किसी एक वस्तु या घटना के परिमाणात्मक और गुणात्मक पक्षों की एकता को परिमाप कहते हैं। परिमाप की संकल्पना का यह तात्पर्य है कि कोई एक निश्चित परिमाण ही एक गुण के तदनुरूप होता है। गुण में परिवर्तन के बग़ैर परिमाण केवल कुछ निश्चित सीमाओं तक ही बदल सकता है, जो वस्तु की परिमाप होती हैं। जब परिमाण में परिवर्तन उन परिमापों तक पहुंच जाते हैं, तो परिमाप गडबड़ा जाता है और वस्तु का गुण बदलने लगता है। मसलन, सामान्य वायुमंडलीय दबाब के अंतर्गत ० डिग्री से १०० डिग्री तक का तापमान पानी की तरलावस्था का परिमाप है। जब तापमान शून्य से नीचे जाता है, तो पानी जमकर बर्फ़ बन जाता है, ठोस अवस्था में परिवर्तित हो जाता है। और जब पानी को १०० डिग्री से अधिक तापमान तक गर्म किया जाता है, तो वह वाष्प बन जाता है, यानि गैसीय अवस्था में परिवर्तित हो जाता है।

सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं ( socio-economic formations ) का अनुक्रमण ( succession ) भौतिक नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक प्रक्रिया है, किंतु फिर भी परिमाणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तनों की द्वंद्वात्मक कड़ी उनमें भी पायी जाती है। आदिम-सामुदायिक प्रणाली ( primitive communal system ), उत्पादक शक्तियों के अत्यंत धीमे विकास के प्रभावांतर्गत शनै- शनैः बदली। जब परिमाण में ये परिवर्तन एक विशेष सीमा पर पहुंच गये और उत्पादन संबंधों ( relations ) और उत्पादक शक्तियों ( forces ) के बीच सामंजस्यहीनता ( disharmony ) पैदा हो गयी, तब विकास अवरुद्ध हो गया और गुणात्मक परिवर्तनों की प्रक्रिया शुरू हुई, इसके फलस्वरूप सामुदायिक-गोत्रीय ( communal-clan ) प्रणाली के सारे सामाजिक संयोजन और संबंध टूट गये। पुराना आधार तथा उस पर निर्मित अधिरचना खंड-खंड हो गयी और समाज में गुणात्मक परिवर्तन हो गये, और निजी स्वामित्व वाले उत्पादन संबंधों और विरोधी वर्गों के आधार वाली एक नयी दास-प्रथात्मक सामाजिक अधिरचना प्रकट हुई। इतिहास की दृष्टि से यह पहली सामाजिक क्रांति ( social revolution ) है। इसी तरह आगे दासप्रथात्मक समाज से, एक नयी गुणात्मक अवस्था, सामंती ( feudal ) समाज अधिरचना में रूपांतरण संभव हुआ। उत्पादन संबंधों और उत्पादक शक्तियों के नये अंतर्विरोधों ( contradictions ) की तीव्रता तथा बढ़ती ने सामंती समाज पर असर डाला और परिमाणात्मक परिवर्तनों में संपरिवर्तन ( conversion ) की प्रक्रिया फिर हुई और बुर्जुआ क्रांतियों के रूप में पूंजीवादी ( capitalist ) विरचनाओं का जन्म हुआ। पूंजीवादी समाज में अंतर्निहित अंतर्विरोधों की परिमाणात्मक वृद्धि ने एक क्रांतिकारी, गुणात्मक संक्रमण ( transition ) यानी नयी, समाजवादी ( socialist ) विरचनाओं को जन्म दिया। समाज के रूपांतरण की यह प्रक्रिया अभी भी जारी है और शनैः शनैः सामाजिक-सामुदायिक हितों के अनुकूल नियोजित आर्थिक प्रणाली और समतामूलक समाज की स्थापना का लक्ष्य निकटतर होता जा रहा है।

चिंतन ( thought ) और चेतना ( consciousness ) के विकास में भी परिमाण और गुण के द्वंद्वात्मक संबंध भी सामने आते हैं। एक नवजात शिशु में बोलने, सोचने और सुस्पष्ट भाषण द्वारा अपने विचार व्यक्त करने की क्षमता नहीं होती। उसके जीवन के पहले वर्षों के दौरान समुचित आदतों का क्रमिक संचयन ( gradual accumulation ) होता है। पहली गुणात्मक छलांग ( leap ) इस अवधि के बाद लगती है और सुस्पष्ट भाषण में व्यक्त होती है - बच्चा अलग-अलग शब्दों का उच्चारण करने लगता है। बाद में उसके चिंतन में इतना परिवर्तन होता है कि बच्चा अपनी कामनाओं , भावनाओं और बाह्य जगत के बारे में अपने प्राप्त ज्ञान को व्यक्त करने के लिए कमोबेश सम्मिश्र तार्किक युक्तियों या अनुमानों का संबंधित अनुक्रमिक ढंग ( sequential manner ) से उच्चारण करने लगता है और, इस तरह, चिंतन की रचना की एक मूलतः नयी अवस्था में प्रवेश करता है।

इस तरह हम देखते हैं कि जब परिमाणात्मक परिवर्तनों से परिमाप गड़बड़ा जाता है, तब पुराना गुण नये परिमाण के तदनुरूप नहीं रहता है और उनके बीच एक अंतर्विरोध पैदा हो जाता है। यह अंतर्विरोध बढ़ता चला जाता है और अंत में नये गुण की रचना तथा नये परिमाप के आविर्भाव से उसका समाधान ( solution ) होता है। इसे ही परिमाणात्मक परिवर्तन का गुणात्मक परिवर्तन में रूपांतरित होना कहते हैं। परिमाणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तन के बीच का संपर्क एक प्राकृतिक नियमनुवर्तिता है। परिमाण के गुण में रूपांतरित होने का यह नियम सार्विक ( universal ) है। जैसा हम देख चुके हैं, यह वस्तुजगत में भी काम करता है और मानव संज्ञान में भी। प्रकृति के बारे में हमारे ज्ञान के शनैः शनैः संचय से ही मानवजाति, विज्ञान और दर्शन के विकास की नयी गुणात्मक अवस्थाओं में पहुंच सकी है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 3 मई 2014

परिमाण की संकल्पना ( concept of quantity )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत दूसरे नियम के व्यवस्थित निरूपण की दिशा में गुण की संकल्पना को प्रस्तुत किया था, इस बार हम परिमाण तथा छलांग की संकल्पना पर चर्चा करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



परिमाण तथा छलांग की संकल्पना
( concept of quantity and leap )

गुण ( quality ) के अलावा चीज़ों तथा प्रक्रियाओं में एक निश्चित परिमाण ( मात्रा ) में होने की विशिष्टता भी होती है। हम अपने अनुभवों से जानते हैं कि इस तरह की घटनाओं तथा प्रक्रियाओं को, जो कुछ हद तक स्थायी ( constant ) व अपरिवर्तनीय ( invariable ) होती हैं, किसी अन्य में संपरिवर्तित ( converted ) किये बिना भी ऐसे बदला जा सकता है, जिससे वे पहले की ही तरह निज रूप में बनी रहती हैं। इस विशेषता को संकल्पना ‘परिमाण’ ( quantity ) से द्योतित किया जाता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति के जीवन के दौरान उसके रंगरूप में विभिन्न परिवर्तन आ सकते हैं, उसकी चमड़ी का रंग बदल जाता है. बाल सफ़ेद हो जाते है या गिर जाते है, वज़न बदल जाता है, चहरे पर झुर्रियों की संख्या और वितरण में परिवर्तन हो जाता है, आदि। इन परिवर्तनों को परिमाणात्मक ( मात्रात्मक ) कहा जाता है, क्योंकि व्यक्ति को देखने, विभिन्न कालों में लिये गये उसके छायाचित्रों पर नज़र डालने पर यह कहा जा सकता है कि यह वही चहरा है और एक ही व्यक्ति है और फलतः उसके गुणात्मक लक्षण अधिकांशतः संरक्षित है, उसमें कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है।

इस तरह हम देखते हैं कि समय के साथ किसी भी घटना या प्रक्रिया में कमोवेश उल्लेखनीय परिवर्तन होते हैं। उम्र के साथ व्यक्ति के रुधिर की संविरचना ( composition ) बदल जाती है, विभिन्न शरीरकार्यिक क्रियाएं ( physiological function ) प्रकट तथा ग़ायब होती हैं, विभिन्न अंगों का आकार परिवर्तित होता है, आदि। कारखानों में नयी मशीनें, नयी लाइनें, पूरी की पूरी कार्यशालाएं तथा कार्यदल बदल जाते हैं। लेकिन व्यक्ति और कारख़ाने की गुणात्मक निश्चायकता बनी रहती है। जिन संयोजनों ( connections ) तथा संबंधों ( relations ) के परिवर्तन, एक प्रणाली ( system ) के अलग-अलग अनुगुणों ( properties ) तथा लक्षणों ( characteristics ) में निश्चित सीमाओं के अंदर रद्दोबदल ( alteration ) कर देते हैं, किंतु उसकी गुणात्मक निश्चायकता ( qualitative definiteness ) को नहीं बदलते, उन्हें परिमाणात्मक कहा जाता है और उन्हें परावर्तित करने वाले प्रवर्ग को ‘परिमाण’ ( quantity ) या ‘परिमाणात्मक निश्चायकता’ ( quantitative definiteness ) कहते हैं

परिमाणात्मक निश्चायकता गुणात्मक की ही भांति वस्तुगत ( objective ) होती है। एक गुण के अंदर अलग-अलग अनुगुणों या लक्षणों में क्रमिक ( gradual ) परिमाणात्मक परिवर्तन हो सकते हैं। इस तरह परिमाण एक ऐसी निर्धार्यता है, जो प्रदत्त ( given ) गुण के विकास के मान, रफ़्तार तथा कोटि ( degree ) के बारे में बताती है। उन्हें नापा जा सकता है और उनकी तुलना की जा सकती है। नापजोख के परिणामों को हमेशा अंकों के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है, जिससे परिमाणात्मक परिवर्तनों के अध्ययन व वर्णन में गणित ( mathematics ) का अनुप्रयोग ( application ) किया जा सकता है। परिमाणात्मक परिवर्तनों का अध्ययन प्रकृति, समाज और चिंतन की अत्यंत भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं पर गणित को लागू करने का आधार हैं।

परिमाण की उपरोक्त परिभाषा में एक महत्त्वपूर्ण पद, यानि ‘निश्चित सीमाएं’ ( certain limits ) शामिल है। इस पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। बात यह है कि परिमाणात्मक परिवर्तन, यानि संयोजनों, तत्वों तथा उपप्रणालियों में होनेवाले वे परिवर्तन जो एक घटना की गुणात्मक निश्चायकता को प्रभावित नहीं करते, वे ऐसी निश्चित सीमाओं के अंदर ही हो सकते हैं, जिनके परे ( beyond ) परिमाणात्मक परिवर्तन, गुणात्मक संयोजनों व संबंधों को भंग ( break ) या विखंडित ( rupture ) कर सकते हैं और मुख्य तत्व तथा उपप्रणालियों में गड़बड़ी ( disturbance ) पैदा कर सकते हैं। इन विशिष्ट सीमाओं के अस्तव्यस्त होने पर गुण भी गड़बड़ा जाता है। पुराने संयोजन और संबंध टूट जाते हैं और पूरी तरह से या आंशिक रूप से ग़ायब हो जाते हैं तथा भूतपूर्व ( former ) तत्व और उपप्रणालियां परिवर्तित हो जाती हैं। उनके स्थान पर नये मुख्य संयोजनों, संबंधों, उपप्रणालियों तथा तत्वों की स्थापना हो जाती है और फलतः एक नया गुण उत्पन्न हो जाता है। पुराने गुणात्मक संबंधों तथा संयोजनों का यह विघटन ( break ) और इन तत्वों व उपप्रणालियों का नयी से प्रतिस्थापन ( replacement ) छलांग ( leap ) कहलाता है

संकल्पना ‘छलांग’ भी दैनिक जीवन से ली गई है, लेकिन दर्शन में इसने एक विशेष अर्थ ग्रहण कर लिया है, जो कि किसी प्रकार के द्रुत परिवर्तन ( rapid shift ) या सामान्य कूद ( jump ) से नहीं है, बल्कि इसका अर्थ घटना के मुख्य स्थायी गुणात्मक संयोजनों के रूपांतरण ( transformation ) से होता है। बेशक, यह विघटन परिमाणात्मक परिवर्तनों की पूर्ववर्ती अवधि की तुलना में सापेक्षतः शीघ्रता से होता है। इसलिए हम परिमाणात्मक परिवर्तनों को समरस ( even ), क्रमिक ‘सुचारू’ ( smooth ) या धीमा भी समझते हैं और छलांगों या गुणात्मक परिवर्तनों को तात्क्षणिक ( instantaneous ) या ‘विस्फोटक’ ( explosive ) मानते हैं। किंतु ठोस मामलों में एक छलांग कमोबेश दीर्घकालिक ( protracted ) और जटिल ( complex ) हो सकती है। इसका ‘अल्पकालिक’ ( short-term ) स्वभाव सोपाधिक ( conditional ) होता है और इस अल्पकालिकता की बात केवल पूर्ववर्ती गुणात्मक परिवर्तनों के साथ तुलना के रूप में ही की जा सकती है। उदाहरण के लिए, एक भूवैज्ञानिक युग ( geological age ) से दूसरे में संक्रमण ( transition ) की अवधि लाखों वर्ष ही थी। वे केवल सापेक्षतः उन मंद परिमाणात्मक परिवर्तनों की अवधियों की तुलना में ही अल्पकालिक या तात्क्षणिक प्रतीत हो सकते हैं जिन्हें संपन्न होने में करोड़ो वर्ष लगे।

इस तरह दार्शनिक दृष्टिकोण से यह समझना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि ‘परिमाणात्मक परिवर्तन’ तथा ‘गुणात्मक परिवर्तन’ ( छलांग ) में परावर्तित प्रक्रियाओं के प्रमुख लक्षण प्रक्रिया की लंबाई या अवधि ( length or duration ) नहीं, बल्कि उसकी अंतर्वस्तु ( content ), उसका सार ( essence ) है। समाज में इन परिवर्तनों की समझ के लिए यह निष्कर्ष ( conclusion ) विशेष महत्त्वपूर्ण है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय
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