रविवार, 19 नवंबर 2017

अधिरचना की प्रणाली में राजनीतिक पार्टियां

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार यहां समाज की अधिरचना की प्रणाली में राज्य पर चर्चा चल रही थी, इस बार हम समाज की अधिरचना की प्रणाली में राजनीतिक पार्टियों पर चर्चा करेंगे

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



अधिरचना की प्रणाली में राजनीतिक पार्टियां
( political parties in the system of the superstructure )

राज्य की भांति राजनीतिक पार्टियां भी समाज के वर्ग विभाजन का फल हैं। पार्टियां, निश्चित वर्ग या उसके संस्तरों द्वारा गठित सर्वाधिक संगठित तथा सचेत समूह होती हैं जो उनके हितों को व्यक्त करते हैं। पार्टियों का सबसे महत्वपूर्ण विभेदक लक्षण ( distinguishing feature ), जो अधिरचना की प्रणाली में उनका स्थान निर्धारित करता है, यह है कि वे अपने वर्ग के राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों के बारे में जानती हैं, उन्हें ठोस आधार प्रदान करती हैं और सत्ता संघर्ष में उसकी दूरगामी तथा तात्कालिक कार्यनीतियों का विकास करती हैं, समाज के जीवन के समुचित आदर्शों को पेश करती तथा उनका औचित्य ( justification ) साबित करती हैं और अवाम के बीच अपने प्रभाव के वास्ते संघर्ष में अपनी शक्तियों को संगठित व लामबंद ( mobilise ) करती हैं।

सारे वर्ग समाजों में किसी न किसी तरह की राजनीतिक पार्टियां विद्यमान होती हैं, किंतु पूंजीवादी तथा समाजवादी समाजों की अधिरचना में उनका सबसे अधिक महत्व का स्थान होता है। पूंजीवादी लोकतंत्र, विभिन्न पूंजीवादी पार्टियों के उत्थान के लिए सबसे अधिक अनुकूल दशाओं का निर्माण करता है। आधुनिक पूंजीवादी देशों में, इन पार्टियों में से कुछ घोर प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी स्थिति अपनाती हैं, कुछ अन्य अधिक उदार राजनीतिक अवस्थिति को वरीयता देती हैं। पूंजीवादी समाज में कई राजनीतिक पार्टियों का अस्तित्व, जिसे राजनीतिक बहुत्ववाद ( political pluralism ) कहते हैं, ऐसा आभास देता है, मानों मेहनतकशों ( working people ) के पास चुनाव के लिए कई विकल्प हैं। किंतु वास्तव में ये पार्टियां, राजनीतिक कार्यों तथा समस्याओं से निबटने के साधनों तथा तरीक़ों में भिन्न होने के बावजूद प्रचलित आर्थिक आधार तथा पूंजीवादी राज्य को सुदृढ़ बनाने का ही प्रयत्न करती हैं

कुछ पूंजीवादी देशों में मेहनतकशों द्वारा कठोर वर्ग संघर्ष में हासिल प्राथमिक लोकतांत्रिक अधिकार ( भाषण, सभा करने तथा संगठन बनाने के अधिकार ) उन्हें अपनी ही राजनीतिक पार्टियों का गठन करने में समर्थ बना देते हैं। अपने सैद्धांतिक कार्यक्रम के रूप में वैज्ञानिक समाजवाद को नियमतः अमान्य समझने वाली विभिन्न सामाजिक-जनवादी और समाजवादी पार्टियां सतही सामाजिक सुधारों की नीति पर चलती हैं। इसका यह मतलब है कि सत्ता प्राप्त करने के बाद भी ऐसी पार्टियां सिर्फ़ सीमित सुधार करती हैं, जिनका मक़सद वर्ग संघर्ष को ‘मृदु’ बनाना होता है। वे पूंजीवाद की बुनियाद - बड़े निजी स्वामित्व - को हाथ भी नहीं लगातीं। यह इस बात का स्पष्टीकरण है कि ऐसी पार्टियां सत्ता प्राप्ति के बाद भी मेहनतकशों का समर्थन क्यों नहीं हासिल कर पाती और अवाम के बीच अपने प्रभाव को धीरे-धीरे क्यों गंवा देती हैं।

आज की दुनिया में राजनीतिक पार्टियों की भूमिका, देश या प्रदेश विशेष की तीक्ष्ण सामाजिक समस्याओं के समाधान में उनके योगदान से तथा भूमंडलीय समस्याओं पर उनके दृष्टिकोण से निर्धारित होती है। इन समस्याओं में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं शांति और नाभिकीय निरस्त्रीकरण के लिए संघर्ष, पारिस्थितिक विनाश की रोकथाम, अधिक न्यायोचित व्यवस्था की उपलब्धि, मानवाधिकारों तथा भिन्न-भिन्न सामाजिक-आर्थिक प्रणालियोंवाले देशों के बीच लचीले, समान सहयोग की स्थापना के लिए संघर्ष। समाज के सामाजिक रूपांतरण ( transformation ) के लिए मेहनतकशों के संघर्ष के हितों को व्यक्त करनेवाली प्रगतिशील पार्टियों की भूमिका का प्रश्न अधिकाधिक महत्व ग्रहण कर रहा है। इन पार्टियों की दूरगामी तथा तात्कालिक कार्यनीतियों की भूमिका ठोस ऐतिहासिक दशाओं तथा उनके सामान्य वैचारिक और सामाजिक-राजनीतिक समादेशों ( precepts ) से निर्धारित होती है।

अनेक समाजवादी देशों तथा विकास के गैरपूंजीवादी रास्ते पर अग्रसर देशों में कम्युनिस्ट, मज़दूर तथा राष्ट्रीय क्रांतिकारी पार्टियों का, अधिरचना की प्रणाली में एक निर्णायक स्थान है। किंतु केवल एकपार्टी प्रणाली वाले समाजवाद का नमूना एकमात्र संभव नमूना नहीं है। ठोस ऐतिहासिक दशाओं में अन्य मॉडल भी संभव हैं, जिनमें वे भी शामिल हैं, जिनमें कम्युनिस्ट और मज़दूर पार्टियां, लोकतांत्रिक संस्थानों तथा आबादी के व्यापक संस्तरों के समर्थन पर भरोसा करते हुए अन्य राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक संगठनों के साथ फलप्रद सहयोग कर सकती हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 12 नवंबर 2017

अधिरचना की प्रणाली में राज्य - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार यहां समाज की अधिरचना की प्रणाली में राज्य पर चर्चा चल रही थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


अधिरचना की प्रणाली में राज्य - ३
( the state in the system of the superstructure - 3 )

उत्पादन के सुप्रचलित संबंधों से राज्य का प्रकार (type) निर्धारित होता है, इसके विपरीत, राज्य का रूप (form) ऐतिहासिक विकास की किसी भी अवस्था पर, वर्ग शक्तियों (class forces) के संबंधों, समाज के इतिहास की विशेषताओं और उसकी परंपराओं तथा ठोस घरेलू व विदेशी राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर होता है।

सबसे ज़्यादा आम क़िस्म के शोषक राज्य, राजतंत्र (monarchy) ( यानी एक व्यक्ति का शासन ), कुलीनतंत्रीय (aristocratic) या अल्पतंत्रीय (oligarchic) गणतंत्र ( जिनमें कुलीन जातियों या अत्यंत अमीर नागरिकों के छोटे-से समूह का नेतृत्व होता है ) और जनवादी गणतंत्र (democratic republic), जिसमें विधिक व कार्यकारी निकायों का चुनाव मतदाताओं की कमोबेश बड़ी संख्या द्वारा होता है। आज अधिकांश पूंजीवादी देशों में बुर्जुआ गणतंत्र की कई क़िस्में हैं। ग्रेट ब्रिटेन, स्वीडन तथा कुछ अन्य पूंजीवादी देशों में संरक्षित संवैधानिक राजतंत्र (constitutional monarchies), उनसे सिर्फ़ अपने बाहरी पारंपरिक रूपों में ही भिन्न हैं। उनमें गणतंत्र के राज्याध्यक्ष के कार्य एक वंशानुगत राजा ( या रानी ) द्वारा किये जाते हैं किंतु उनकी सत्ता नाम मात्र की होती है।

बुर्जुआ जनवाद (bourgeois democracy), पूंजी की सत्ता के उपयोग के लिए सबसे ज़्यादा सुविधाजनक है। वह मेहनतकशों (working people) को औपचारिक मताधिकार तो देता है, परंतु उनके चुने जाने के अवसरों तथा राज्य के प्रशासन में भाग लेनें की संभावना को अधिकतम सीमा तक घटा देता है। समसामयिक पूंजीवादी समाज में क़ानून के सामने औपचारिक समानता तो जाहिर की जाती है परंतु इसको वास्तविक आर्थिक समानता से पूरित नहीं किया जाता।

जब वर्गों (classes) के बीच अंतर्विरोध (contradictions) बहुत तीक्ष्ण हो जाते हैं, तो पूंजीपति वर्ग ऐसे नरम जनवाद (moderate democracy) को भी किनारे कर देता है और खुली सैनिक-पुलिस (open military-police) या फ़ासिस्ट तानाशाही (fascist dictatorship) के रूप ग्रहण कर लेता है। इस सदी के पूर्वार्ध में इटली तथा जर्मनी में फ़ासिस्ट राज्यों के उत्थान, उनके द्वारा छेड़े नये दूसरे विश्वयुद्ध का इतिहास विश्वसनीय ढंग से दर्शाता है कि ऐसे तानाशाही शासन बड़े इजारेदार पूंजीपतियों (monopoly capitalists) का हित-साधन करते हैं। कुछ देशों में, जहां बुर्जुआ जनवाद के मामूली तरीक़े काम नहीं देते, विद्यमान सैनिक-पुलिस राज्य भी उन्हीं अंचलों की सेवा करते हैं।

बुर्जुआ जनवाद की सारी क़िस्मों से भिन्न, समाजवादी जनवाद (socialist democracy) मेहनतकशों को व्यापक अधिकार ही नहीं देता, बल्कि समाज के प्रशासन के सारे स्तरों में उनकी भागीदारी के अवसरों की गारंटी भी करता है, जो जनगण का समाजवादी स्वशासन है। असली समाजवादी जनवाद इस बात में व्यक्त होता है कि प्रत्येक सचेत, सक्रिय नागरिक केवल विधिनिर्माण के, समाज के प्रशासन तथा उद्योग के प्रबंध में ही भाग नहीं लेता, बल्कि कार्यकारी निकायों के क़ानूनी कार्यों तथा निर्णयों पर भी सक्रियता से बहस करता है। समाजवादी जनवाद, समाजवादी राज्यत्व के विकास का रूप होने के कारण, साम्यवादी स्वशासन के रूपों में संक्रमण (transition) करने का रास्ता भी तैयार करता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम
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