शनिवार, 28 जून 2014

निषेध के निषेध का नियम का सार

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत तीसरे नियम ‘निषेध के निषेध का नियम पर चर्चा करते हुए ‘निषेध के निषेध’ की अवधारणा को समझने का प्रयास किया था, इस बार हम ‘निषेध के निषेध का नियम का सार" प्रस्तुत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



निषेध के निषेध का नियम - चौथा भाग
निषेध के निषेध का नियम का सार

अभी तक की विवेचना के आधार पर, अब हम निषेध के निषेध ( negation of the negation ) के द्वंद्वात्मक नियम की प्रमुख प्रस्थापनाओं ( prepositions ) को निरूपित ( formulate ) कर सकते हैं। यह नियम प्रकृति, समाज और चिंतन में विकास की दिशा का निर्धारण ( determines ) करता है।

हेगेल  के कृतित्व से उपजे इस नियम को परंपरानुसार निषेध के निषेध का नियम कहते हैं, किंतु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भौतिकवादी द्वंद्ववाद ( materialist dialectics ) में इसे परस्पर अपवर्जक निषेधों ( mutual exclusive negations ) का एक युग्म ( pair ) नहीं, बल्कि विकास की ऐसी असीम प्रक्रिया माना जाता है, जिसमें द्वंद्वात्मक निषेध, पुरातन ( old ) से नूतन ( new ) की ओर रास्ते को खोलते हैं और साथ ही पुरातन से नूतन के संबंध ( link ) को तथा उनके बीच सातत्य ( continuity ) को सुनिश्चित बनाते हैं। इस नियम की मुख्य प्रस्थापनाएं साररूप में इस प्रकार हैं:

( १ ) विकास के दौरान ऐसा नूतन लगातार उत्पन्न होता रहता है, जो पहले विद्यमान नहीं था और जो पुरातन का द्वंद्वात्मक निषेध होता है।

( २ ) निषेध के दौरान हर मूल्यवान और जीवंत ( viable ) चीज़ संरक्षित ( preserved ) रहती है और परिवर्तित रूप में नूतन में सम्मिलित ( include ) होती है। पुरातन के केवल उसी अंश का उन्मूलन ( elimination ) होता है, जो गतावधिक ( outlived ) हो गया है और विकास में बाधा डालता है।

( ३ ) विकास में पहले की बीती अवस्थाओं की एक निश्चित वापसी और पुनरावर्तन ( repetition ) होता है, किंतु एक नये और उच्चतर स्तर ( higher level ) पर और इसीलिए उसका स्वरूप वृत्ताकार या रैखिक नही, सर्पिल ( spiral ) होता है।

( ४ ) विकास की प्रक्रिया के दौरान पुराने से नये में संक्रमण ( transition ) के समय वस्तुगत स्वरूप की प्रगतिशील तथा पश्चगामी ( प्रतिगामी ) प्रवृत्तियां ( progressive and regressive tendencies ) होती हैं। सारी घटना का परिवर्तन प्रगतिशील होगा या पश्चगतिक, यह इस बात पर निर्भर होता है कि इन द्वंद्वात्मक्तः संबंधित दो प्रवृत्तियों में से कौनसी प्रभावी ( dominant ) है।

जब हम निषेध के निषेध के नियम की तुलना द्वंद्ववाद के अन्य बुनियादी नियमों ( विरोधियों की एकता और संघर्ष का नियम तथा परिणाम से गुण में रूपांतरण का नियम ) से करते हैं, तो उनको परस्पर जोड़नेवाले गहरे संबंध को आसानी से देखा जा सकता है। ‘अंतर्विरोधों के समाधान’, ‘गुणात्मक छलांग’ तथा ‘द्वंद्वात्मक निषेध’ जैसे प्रवर्गों ( categories ) के साथ तुलना में यह बात स्पष्टतः सामने आती है। वास्तव में कोई भी गुणात्मक छलांग ( qualitative leap ) सारतः घटना के प्रमुख आंतरिक अंतर्विरोधों ( internal contradictions ) का समाधान ( resolution ) होती है। इसी प्रकार, एक द्वंद्वात्मक निषेध यह बतलाता है कि पुराने गुण से नये में छलांगनुमा ( leap-like ) संक्रमण में संरक्षण या निरंतरता का और साथ ही उन्मूलन और विनाश का एक घटक विद्यमान होता है। इस तरह द्वंद्ववाद के मुख्य नियम विकास के स्रोतों, रूप और दिशा के बारे में पूर्ण ज्ञान प्रदान करते हैं और इसी से उनकी आंतरिक एकता निर्धारित होती है।

प्रकृति, समाज तथा चिंतन के विकास के इन सबसे सामान्य नियमों का विराट व्यावहारिक तथा राजनीतिक महत्त्व भी है। इनमें पारंगता हमें सारी घटनाओं को उनके आंतरिक, पारस्परिक संयोजन तथा उनकी पारस्परिक कारणता में देखना सिखाती है। ये बताते हैं कि व्यावहारिक जीवन में उत्पन्न होनेवाली समस्याओं को अधिभूतवादी ( metaphysical ) ढंग से, अन्य से पृथक ( isolated ) रूप में देखना-समझना एक सही नज़रिया नहीं है। अंतर्संबंधित ( interconnected ) समस्याओं और कार्यों को सतत गति तथा विकास में भी देखना चाहिए, क्योंकि स्वयं जीवन, यानि उन्हें जन्म देनेवाली वास्तविकता भी परिवर्तित और विकसित हो रही है।

द्वंद्ववाद के ये नियम सिखलाते हैं कि हमें जीवन के अंतर्विरोधों को नजरअंदाज़ ( ignore ) नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें खोजना, उनका उद्‍घाटन करना तथा उनके समाधान की प्रक्रिया को बढ़ावा देना चाहिए, क्योंकि आंतरिक, बुनियादी अंतर्विरोधों का समाधान ही किसी भी विकास का असली स्रोत होता है। जब हमारा सामना क्रमिक, कभी-कभी महत्त्वहीन, गुणात्मक परिवर्तनों से होता है, तो हमें इस बात पर लगातार ध्यान देना चाहिए कि वे देर-सवेर आमूल गुणात्मक परिवर्तनों को जन्म दे सकते हैं। साथ ही गुणात्मकतः नयी घटनाओं का उद्‍भव पुरानी घटनाओं के पूर्ण उन्मूलन का द्योतक नहीं होता। पूर्ववर्ती विकास के दौरान रचित हर मूल्यवान और जीवंत चीज़, छलांग और निषेध की प्रक्रिया में संरक्षित रहती है तथा और भी अधिक विकसित होती है। समाज के सही वैज्ञानिक, राजनीतिक नेतृत्व का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यह जानना है कि पुरातन में नूतन के बीजों को कैसे देखा जाये, उन्हें समय रहते कैसे समर्थन दिया जाये तथा विकसित होने एवं उचित स्थान पर पहुंचने में कैसे सहायता दी जाये।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 21 जून 2014

निषेध का निषेध

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत तीसरे नियम ‘निषेध के निषेध का नियम पर चर्चा करते हुए ‘द्वंद्वात्मक निषेध’ को समझने का प्रयास किया था, इस बार हम ‘निषेध के निषेध’ की अवधारणा पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



निषेध के निषेध का नियम - तीसरा भाग
निषेध का निषेध

विकास प्रक्रिया ( development process ) की दार्शनिक व्याख्या में द्वंद्वात्मक निषेध ( dialectical negation ) को ही, केवल निषेध ( negation ) ही कह दिया जाता है, परंतु इसका विशिष्ट अभिप्राय यही होता है। निषेध के सबसे महत्त्वपूर्ण अनुगुण ( properties ) और विशिष्ट लक्षण क्या हैं? 

सबसे पहले, निषेध सार्विक ( universal ) है। यह प्रकृति और समाज में, किसी भी विकास में अंतर्भूत ( immanent ) होता है, ऐसे विकास का एक आवश्यक पहलू है। जैव प्रकृति में शताब्दियों के दौरान हुए विकास में, पुरानी जैविक जातियां उन नयी जातियों से निषेधित हो जाती हैं, जो पुरानी जातियों की बुनियाद पर पैदा होती हैं और उनसे अधिक जीवनक्षम ( sustainable ) होती हैं। समाज के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में नये और उच्चतर समाजों द्वारा पुरानों का प्रतिस्थापन है - आदिम-सामुदायिक समाज का दास-प्रथा वाले समाज से, दास-प्रथा वाले समाज का सामंती से, सामंती समाज का पूंजीवादी समाज से और पूंजीवादी समाज का समाजवादी समाज से। संज्ञान के क्षेत्र में भी, कुछ वैज्ञानिक प्रस्थापनाएं उन अन्य प्रस्थापनाओं के लिए स्थान छोड़ देती हैं, जिनमें वास्तविकता ( reality ) के संपर्कों का अधिक सही परावर्तन ( reflection ) होता है।

दूसरे, निषेध विरोधियों ( opposites ) की एकता व संघर्ष में अंतर्निहित है। एक अंतर्विरोध ( contradiction ) के विरोधी पक्षों का भिन्न-भिन्न महत्त्व होता है और वे किसी वस्तु या घटना के विकास में भिन्न-भिन्न भूमिकाएं अदा करते हैं। इनमें एक वस्तु या घटना को परिवर्तित करने की और संधान ( colligation ) में होता है और फलतः प्रगतिशील भूमिका ( progressive role ) अदा करता है। दूसरा वस्तु या घटना के स्थायित्व को व्यक्त करता है और इसलिए रूढि़पंथी भूमिका ( orthodox, conservative role ) अदा करता है। निषेध उस आंतरिक अंतर्विरोध का समाधान है, क्योंकि उसमें पुरातन, रूढिपंथी पक्ष पर काबू पा लिया जाता है और नूतन, प्रगतिशील पक्ष प्रभावी हो जाता है।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि निषेध के बिना कोई विकास नहीं होता। कोई भी, किसी भी क्षेत्र में अस्तित्व के अपने पूर्ववर्ती रूपों का निषेध किये बगैर विकसित नहीं हो सकता है। द्वंद्वात्मक निषेध का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण यह है कि यह किसी भी विकास-प्रक्रिया में ही अंतर्निहित ( inherent ) होता है और कभी भी बाह्य या बाहर से समाविष्ट ( incorporated ) किया हुआ नहीं होता।

इस द्वंद्वात्मक निषेध की प्रक्रिया क्या है? यदि बीज से उत्पन्न पौधे के नीचे ज़मीन खोदी जाए तो बीज वहां नहीं मिलेगा। वह कहां गया? नये पौधे की पैदा होने की प्रक्रिया में पहले छोटी-छोटी हरी पत्तियां और नन्हीं-नन्हीं जड़ें उस सामग्री से बनती हैं, जो बीज में मौज़ूद रहती हैं। इस पौष्टिक सामग्री को ढके रहने वाला बाहरी छिलका सचमुच नष्ट हो जाता है और नई वनस्पति की संरचना में शामिल नहीं होता। इस प्रकार बीज के विलोपन की प्रक्रिया में हालांकि एक भाग नष्ट हो जाता है, मगर दूसरा, महत्त्वपूर्ण भाग परिवर्तित रूप में सुरक्षित रहता है : वे अंकुर में परिवर्तित हो जाते हैं। फिर ज्यों ही नन्हीं सी जड़े प्रकट होती हैं, वे आसपास की मिट्टी से अपने लिए पौष्टिक पदार्थ लेने लग जाती हैं, पत्तियां भी हिस्सा लेने लगती हैं और इस तरह एक पौधा प्रकट हो जाता है, जो निश्चित ही बीज का निषेध है। लुप्त बीज की जगह पैदा हुए इस पौधे में बीज से लिए गए पदार्थ ही नहीं, बल्कि आसपास की मिट्टी से लिए गए पदार्थ भी मौज़ूद होते हैं।

द्वंद्वात्मक निषेध में आंतरिक कारक ( internal factors ) निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। परंतु उसकी तैयारी के क्रम में, बाह्य कारकों ( external factors ) की भी काफ़ी बड़ी भूमिका हो सकती है। मसलन, अपर्याप्त गर्मी या नमी बीज के विकास को तथा अंकुरित होकर उगनेवाले पौधे से उसके निषेध को विलंबित ( delayed ) कर सकती है या रोक भी सकती है। द्वंद्वात्मक निषेध पुरातन ( old ) का विलोपन ही नहीं करता, बल्कि नूतन ( new ) को प्रभावी भी बनाता है। पुरातन नूतन द्वारा कभी भी पूर्णतः नष्ट नहीं किया जाता, द्वंद्वात्मक निषेध पुरातन के सकारात्मक तत्वों को संरक्षित ( preserved ) रखता है और अतीत के विकास की उपलब्धियां नूतन द्वारा स्वांगीकृत ( assimilated ) हो जाती हैं। द्वंद्वात्मक निषेध का सार यही है कि निषेध किए गये चरण में से कुछ छोड़ दिया जाता है, कुछ ग्रहण कर लिया जाता है ( चाहे परिवर्तित रूप में ही सही ) और कुछ ऐसा नया जोड़ा जाता है, जो पहले बिल्कुल नहीं था।

एक जीव नस्ल के विलोपन और उसके स्थान पर दूसरी नस्ल के आविर्भाव की प्रक्रिया में भी ये तीन तत्व प्रत्यक्षतः पाए जाते हैं। जीवों तथा वनस्पतियों की असंख्य जातियों का, जो करोड़ों वर्षों तक एक दूसरे का स्थान लेती रहीं, अध्ययन करने के बाद भी जीवाश्मविज्ञानियों को इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है कि कोई जाति एक बार विलुप्त हो जाने के बाद पुनः उत्पन्न हुई हो। प्रकृति में पूरी तरह आवृति किसी की नहीं होती। यद्यपि बाद में उत्पन्न जातियों में लुप्त जातियों के कुछ लक्षण होते हैं, फिर भी वे हमेशा अपने पूर्वजों के कुछ लक्षणों से वंचित और कुछ सर्वथा नये लक्षणों से युक्त होती हैं। लंबी अवधियों में इन भिन्न लक्षणों का संचय ( accumulation ) पुनः नयी जातियों के आविर्भाव का कारण बनता है। वैज्ञानिक तथ्य इस तत्वमीमांसीय दृष्टिकोण का पूर्णतः खंडन करते हैं कि विकास बारंबार आरंभिक बिंदु पर पहुंचनेवाले एकसमान चक्रों की पुनरावृत्ति, अर्थात चक्राकार गति है।

समाज के विकास में भी नये चरण के आविर्भाव का मतलब पुराने समाज के सभी लोगों, उनके द्वारा निर्मित सभी तकनीकों तथा उनके द्वारा अर्जित सभी जानकारियों का विलोपन नहीं है। यदि सब नष्ट हो जाता है, तो सामाजिक विकास का नया चरण शुरू न होता। नये चरण के समारंभ के लिए आवश्यक है, पुरानी, अनुपयोगी सामाजिक रीतियों, उनके रक्षक राज्य तथा उनकी समर्थक विचारधारा का उन्मूलन ( abolition ), पुराने लोगों का नये समाज में सम्मिलन ( inclusion ) और पूर्ववर्ती चरण में प्राप्त उत्पादन-तकनीकी उपलब्धियों एवं वैज्ञानिक जानकारियों का समुचित उपयोग, गुणात्मक रूप से भिन्न नये उत्पादन संबंधों, नये राज्य तथा नयी विचारधारा का निर्माण ( construction ) और विज्ञान तथा तकनीक की नयी उपलब्धियों के आधार पर अधिक विकसित उत्पादक शक्तियों का सृजन ( creation )।

इस प्रकार हम देखते हैं कि विकास की प्रक्रिया में कोई भी चरण शाश्वत नहीं है। हर चरण देर-सवेर ख़त्म हो जाता है और अगले चरण द्वारा उसका ‘निषेध’ कर दिया जाता है। द्वंद्वात्मक निषेध ( किसी वस्तु या प्रक्रिया के स्वभावगत नियमों के अनुसार होने वाला विकास के चरणों का परिवर्तन ) निषेध किए गये चरण के कालातीत लक्षणों का विलोपन ही नहीं, अपितु उसके कुछ लक्षणों का सुरक्षित रहना और साथ ही ऐसे नये लक्षणों का आविर्भाव भी है, जो पहले कतई नहीं थे। इन्हीं सब कारणों से विकास के चरणों का परिवर्तन अग्रगामी होता है। यद्यपि कोई भी चरण पूरी तरह कभी नहीं दोहराया जाता, फिर भी अधिक बाद के चरणों में काफ़ी पहले के चरणों के लक्षण बदले हुए रूप में दिखाई दे जाते हैं, जिसके फलस्वरूप विकास सर्पिल ( spiral ) बनता है।

विकास की ऊपर वर्णित सभी विशेषताएं निषेध का निषेध ( negation of the negation ) कहलाती हैं। यानि विकास किसी भी प्रक्रिया में केवल एक नहीं, बल्कि कई निषेधों के निषेध, यानि अनेक अनुक्रमिक ( successive ) निषेध होते हैं। वास्तव में, एक गुणात्मक अवस्था से दूसरी अवस्था में होने वाला प्रत्येक संक्रमण ( transition ) पूर्ववर्ती अवस्था का द्वंद्वात्मक निषेध होता है, जिसमें प्रत्येक मूल्यवान ( valuable ) तथा जीवंत ( viable ) चीज़ संरक्षित होती है, प्रतिधारित ( retained ) होती है और बदले हुए गुण में समाविष्ट हो जाती है। इस संरक्षण ( preservation ) और प्रतिधारण ( retention ) को ही सामान्यतः सातत्य ( continuity ) कहते हैं। प्रत्येक नये द्वंद्वात्मक निषेध को सर्पिल की एक नयी कुंडली ( loop ) के रूप में देखा जा सकता है। फलतः सातत्य पुरातन का सीधा-सादा पुनरावर्तन ( repetition ) नहीं है और यांत्रिक उन्मूलन ( mechanical abolition ) भी नहीं है। यह दो विरोधी अनुगुणों की एकता का द्योतक है, अर्थात मूल्यवान तथा जीवंत अनुगुणों के संरक्षण तथा विकास को रोक रहे गतावधिक ( outlived ) अनुगुणों का अस्वीकरण ( rejection ) है। फलतः ‘सातत्य’ एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रवर्ग है, जो किसी भी विकासमान घटना में पुरातन और नूतन के बीच संबंध और अंतर को परावर्तित करता है।

इस तथ्य को कि द्वंद्वात्मक निषेध एक बहुआवर्तित ( multi-repetitive ) प्रक्रिया है, विकास की किन्हीं लंबी प्रक्रियाओं में स्पष्टता से देखा जा सकता है। बारंबार पुनरावृत निषेध ऐतिहासिक प्रक्रियाओं में भी होता है। प्रत्येक सामाजिक-आर्थिक विरचना ( socio-economic formation ), अपनी पूर्ववर्ती विरचना का द्वंद्वात्मक निषेध होती है। किसी भी विकासमान घटना या प्रक्रिया के सर्पिल की प्रत्येक कुंडली या घुमाव पर नूतन जन्म लेता है, पुराना भंग होता है और साथ ही द्वंद्वात्मक पुनरुत्पादन ( reproduction ) होता है, यानि पूर्ववर्ती विकास में रचित हर मूल्यवान चीज़ का सातत्य होता है और आगे की उन्नति ( advance ) सुनिश्चित होती है। निषेध तथा सातत्य की द्वंद्वात्मक एकता और द्वंद्वात्मक निषेध की रचनात्मक क्रिया इसी में प्रकट होती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 14 जून 2014

द्वंद्वात्मक निषेध

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत तीसरे नियम ‘निषेध के निषेध का नियम पर चर्चा करते हुए ‘विकास की दिशा और उसके सर्पिल स्वरूप’ पर बातचीत की थी, इस बार हम ‘द्वंद्वात्मक निषेध’ को समझने का प्रयास करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



निषेध के निषेध का नियम - दूसरा भाग
द्वंद्वात्मक निषेध

द्वंद्ववाद का तीसरा नियम - निषेध के निषेध का नियम ( the law of negation of the negation ) - विकास की प्रक्रिया में निषेध की भूमिका को स्थापित और व्याख्यायित करता है। इसके सार को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम निषेध की अवधारणा को समझ कर इस बारे में सुनिश्चित हो लें कि द्वंद्वात्मक निषेध ( dialectical negation ) का क्या अर्थ है और विकास की प्रक्रिया में उसका क्या स्थान है।

जब किसी बीज से अंकुर फूटता है, तो जो नन्हा सा पौधा पैदा होता है, वह देखने में इतनी सरल बनावटवाला और इतना कमजोर होता है कि हल्की सी चोट भी उसके अस्तित्व को ख़त्म करने के लिए क़ाफ़ी है। किंतु यदि वह बीज बरगद जैसे वृक्ष का हो, तो हम देखते हैं कि सदियां बीत जाती हैं, लोगों की कई पीढि़यां गुजर जाती हैं और वही नन्हा सा पौधा इतने विराट व ज़बर्दस्त वृक्ष में परिवर्तित हो जाता है कि हम उसकी मज़बूती, उसकी जड़ों, तने, टहनियों, पत्तों की जटिल बनावट देखकर दंग रह जाते हैं। हमारी धरती पर अरबों वर्ष पहले पैदा हुए एककोशीय जीव कितने मामूली, अल्पजीवी, कमज़ोर और बनावट तथा व्यवहार की दृष्टि से सरल थे और आधुनिक उच्च विकसित स्तनपायियों की शरीररचना, शरीरक्रिया, मानस तथा व्यवहार कितने अधिक जटिल और टिकाऊ हैं !

ऐसी बात क़दम-क़दम पर देखी जा सकती हैं। प्रकृति और समाज, दोनों का इतिहास इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि विकास पुरातन ( old ) के अवसान तथा नूतन ( new ) के उद्‍भव के साथ जुड़ा है। पृथ्वी की पर्पटी में नयी भौमिक संरचनाएं बनती हैं और वनस्पति और प्राणी जगतों में नये तथा अधिक पूर्णताप्राप्त रूप, पुराने रूपों को प्रतिस्थापित करते हैं। जीव शरीरों में कोशिकाएं पुनर्नवीकृत ( renewed ) होती हैं, यानि पुरानी कोशिकाओं का ह्रास ( deterioration ) होता है और नयी अस्तित्व में आती जाती हैं। मानव समाज भी अपनी आदिम अवस्था से वर्तमान अवस्था तक कितना लंबा फ़ासला तय कर चुका है ! मनुष्यजाति आदिम झुंड़ों, कबिलाई समाजों, दास प्रथा, सामंती और उजरती श्रम ( hired labour ) की व्यवस्था से गुजरती हुई एक लंबा रास्ता तय करके ऐसी अवस्थाओं में पहुंच गई है जहां समानता आधारित सामाजिक व्यवस्था एक जरूरत और हकीकत बनती जा रही है। एक समय था जब मनुष्य पूरी तरह प्रकृति की अनियंत्रित शक्तियों पर निर्भर था और आज उसने नाभिक ऊर्जा समेत इन शक्तियों को मनुष्य की सेवा करने पर बाध्य कर दिया है, कृत्रिम सागरों, वनों और यहां तक कि पृथ्वी के कृत्रिम उपग्रहों की रचना की है।

केवल प्रकृति और ही नहीं, बल्कि स्वयं मानव मन भी परिवर्तित होता है, विश्वदृष्टिकोण ( world outlook ), प्रयत्नों और मनोवेगों में भी फेर-बदल हो जाते हैं। इतनी ही स्तंभितकारी हमारे ज्ञान की प्रगति भी है, जो आज अपनी गहनता, व्यापकता और वृद्धि की रफ़्तार की दृष्टि से हमारे आदिम पूर्वजों के ज्ञान की अपेक्षा अकल्पनीय रूप से उत्कृष्ट ( excellent ) है। नूतन से पुरातन का प्रतिस्थापन ( replacement ) प्रकृति, समाज और चिंतन के क्रम-विकास का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है। द्वंद्ववाद सारी वस्तुओं और घटनाओं में उनके अवश्यंभावी अवसान ( निषेध ) के चिह्न देखता है, उद्‍भव और विनाश की प्रक्रिया से नूतन के आविर्भाव, निम्नतर से उच्चतर में निर्बाध गति को देखता है। निषेध, अर्थात नूतन द्वारा पुरातन का प्रतिस्थापन सर्वत्र होता है।

कभी-कभी किसी एक वस्तु या घटना के सामान्य विनाश को, जिससे वह ख़त्म हो जाती है और उसका विकास बंद हो जाता है, निषेध समझ लिया जाता है। मसलन, यदि एक बीज को पीस दिया जाये, फूलों को कुचल दिया जाये, यदि जंगल और उद्यान काट दिये जायें, तो यह विनाश के समकक्ष होगा। इतिहास में बेहतरी के संघर्षों, यहां तक की पूरी की पूरी सभ्यताओं, संस्कृतियों के सर्वनाश के तथ्य दर्ज हैं। किंतु निषेध को केवल विनाश तक सीमित करना अधिभूतवादियों की लाक्षणिकता है। बेशक, निषेध के ऐसे रूप भी होते हैं। परंतु विकास की प्रक्रिया में निषेध क्रमविकास का निराकरण नहीं करता, बल्कि उसकी दशाओं का निर्धारण करता है। यह पुराने रूपों, चरणों का ऐसा निषेध है, जिसके साथ नये रूपों, चरणों का आविर्भाव नाभिनालबद्ध है। यह विकास की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है, निषेध द्वारा प्रगति में एक सकारात्मक भूमिका अदा की जाती है। निम्नतर रूपों से उच्चतर रूपों की ओर प्रगति ( progress ), विकास के एक चरण के स्थान पर सारतः भिन्न अन्य दूसरे चरण के आने की अन्तहीन प्रक्रिया के फलस्वरूप होती है।

विकास का कोई चरण उसके स्थान पर आनेवाले दूसरे, नये चरण में परिवर्तित कैसे होता है?

अमीबा पर कई हज़ार डिग्री ताप का असर इस जीव का विलोपन ( निषेध ) कर देगा। इससे अमीबा के विकास का नया चरण पैदा नहीं होगा, उल्टे इससे जीवन बिल्कुल समाप्त हो जाएगा और उसके स्थान पर जड़ प्रकृति की भौतिक-रासायनिक प्रक्रियाएं ले लेंगी। अमीबा का स्वभावगत विकास क्रम अमीबा का विभाजन है ( जो कुछ निश्चित परिस्थितियों में होता है ), जिसके परिणामस्वरूप पुराना एककोशीय सूक्ष्मजीव लुप्त हो जाता है ( निषेध ) और उसके स्थान पर दो नई कोशिकाएं, नये सूक्ष्मजीव प्रकट हो जाते हैं। इसी तरह किसी बीज को चारे की तरह पशुओं को खिलाया जाए, या खाने की पौष्टिक चीज़ की तरह मनुष्य खा जाए, तो यह निश्चय ही उस बीज का निषेध, विलोपन होगा। इससे मात्र पशुओं या मनुष्यों के विकास में मदद मिलेगी और जहां तक बीज के स्वभावगत विकास का सवाल है, तो वह यहीं पर ख़त्म हो जाएगा। बीज के स्वभावगत विकास का क्रम यह है कि वह अपने पौधे या वृक्ष के रूप में परिवर्तित हो।

किसी वस्तु के स्वभावगत नियमों के अनुसार होनेवाले विकास के चरणों के अनुक्रम में, दूसरे चरण के आविर्भाव की प्रक्रिया में ही, पहले चरण के विलोपन को द्वंद्वात्मक निषेध कहते हैं। द्वंद्वात्मक निषेध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक पुराने गुण का पूर्ण उन्मूलन नहीं होता, बल्कि उसमें जो चीज़ सर्वाधिक मूल्यवान है व सारभूत है तथा घटना के और अधिक विकास को सुनिश्चित बनाने में समर्थ है, उसे संरक्षित रखा जाता है, उसकी पुष्टि की जाती है और वह नये गुण का अंग बन जाता है। इस तरह, एक द्वंद्वात्मक निषेध गुणात्मक संक्रमण ( qualitative transition ) के दौरान होता है। यह यांत्रिक मूलोच्छेदन से, बाह्य शक्तियों के हस्तक्षेप से पैदा हुए विकास चरणों के अनुक्रम से मूलतः भिन्न है, जो गति के दत्त रूप को नष्ट ही करता है। विकास प्रक्रिया की दार्शनिक व्याख्या में इस द्वंद्वात्मक निषेध को ही, केवल निषेध ही कह दिया जाता है, परंतु इसका विशिष्ट अभिप्राय यही होता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 7 जून 2014

विकास की दिशा और उसका सर्पिल स्वरूप

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत दूसरे नियम परिमाण से गुण में रूपांतरण के नियम’ का सार प्रस्तुत किया था, इस बार हम द्वंद्ववाद के तीसरे नियम पर चर्चा शुरू करेंगे और इसी के अंतर्गत ‘विकास की दिशा और उसका सर्पिल स्वरूप’ को समझने का प्रयास करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



निषेध के निषेध का नियम - पहला भाग
विकास की दिशा और उसका सर्पिल स्वरूप

अब हम द्वंद्ववाद ( dialectics ) के तीसरे नियम - निषेध के निषेध का नियम ( the law of negation of the negation ) - के व्यवस्थित निरूपण की ओर बढ़ेंगे। यह नियम विकास की प्रक्रिया में निषेध ( negation ) की भूमिका और विकास की दिशा से संबंधित है। इसलिए यह बेहतर होगा कि इस नियम को निरुपित करने से पहले हम विकास की दिशा और उसके सर्पिल स्वरूप ( spiral-like character ) की अवधारणा से परिचित होलें।

गति ( motion ) के एक विशेष प्रकार के रूप में, विकास की विशेषताएं उसके आंतरिक स्रोत तथा रूप ही नहीं, बल्कि उसकी दिशा भी है। विश्व में होनेवाले परिवर्तनों की एक निश्चित दिशा होने का विचार प्राचीन काल में उत्पन्न हुआ। कई चिंतक इतिहास को एक ही धरातल पर होनेवाले अनुवृत्तों का एक क्रम समझते थे। उन्होंने सोचा कि विकास एक सरल रेखा में, जन्म से प्रौढ़ता की, बुढ़ापे और मृत्यु की ओर चलता है और फिर सब कुछ नये सिरे से शुरू होता है। कभी-कभी गति को एक ऐसे बंद वृत्त के अंदर, एक ऐसे अंतहीन परिपथ में होनेवाला परिवर्तन माना जाता था, जिसमें हर वस्तु अपने प्रथम प्रस्थान-बिंदु पर फिर-फिर वापस लौटती है।

प्राचीन यूनानी गणितज्ञ और दार्शनिक पायथागोरस  और उसके शिष्यों ने एक सिद्धांत की रचना की, जिसके अनुसार प्रत्येक ७६,००,००० वर्ष बाद हरेक वस्तु पूर्णरूपेण अपनी ही भूतकालीन अवस्था में वापस आ जाती है। अफ़लातून  और अरस्तू  भी यह सोचते थे कि समाज का विकास एक वृत्ताकार पथ में आवर्ती ( recurring ) अवस्थाओं से गुजरते हुए होता है। प्राचीन चीनी दार्शनिक दोङ्‍ जोङ्‍ शू  का कहना था कि इतिहास चक्रों में आवर्तित होता है। १७वीं सदी के इतालवी चिंतक जियोवानी बतिस्ता वीको  ने इस परिपथ का एक विशेष सिद्धांत पेश किया, जिसके अनुसार समाज चक्रों में विकसित होता है, जिनमें प्रत्येक चक्र समाज के संकट तथा ह्रास में समाप्त होता है और उसके बाद सर्वाधिक आदिम रूप से प्रारंभ करते हुए एक नया चक्र शुरू हो जाता है।

इस तरह, अधिभूतवादी दृष्टिकोण ( metaphysical standpoint ) से विकास या तो वृत्ताकार गति है, जिसमें सारी अवस्थाएं पुनरावर्तित ( repeated ) होती हैं, या सीधी रेखा में गति है, जिसमें पुनरावर्तन repetition ) पूर्णतः अनुपस्थित होता है, किंतु साथ ही इन अवस्थाओं के बीच कोई पारस्परिक निर्भरता नहीं होती। पुरातन ( old ) और नूतन ( new ) के संपर्क टूट जाते हैं और अतीत तथा वर्तमान भविष्य के साथ जुड़े हुए नहीं होते।

सामाजिक विकास के बारे में अन्य दृष्टिकोण भी प्रचलित थे ; मसलन यह दावा किया जाता था कि समाज प्राचीन ‘स्वर्णिम युग’ से लगातार ह्रास की, पश्चगति की स्थिति में है। इस दृष्टिकोण को माननेवालों में प्राचीन यूनानी दार्शनिक हेसिओद  तथा सेनिका  शामिल थे, वे गति को पश्चगामी ( backward ) मानते थे। उच्चतर से निम्नतर की ओर बढ़ने की हरकत के रूप में गति की व्याख्या करनेवाले ऐसे ही अन्य सिद्धांत आज के युग में भी पेश किये जाते हैं। निस्संदेह, इतिहास में ऐसी अवधियां ( durations ) भी हो सकती हैं, होती हैं जब पश्चगामी शक्तियां हावी हो जाती हैं और समाज पीछे की ओर जाने लगता है। किंतु वे मरणोन्मुख या ह्रासमान ( diminishing ) रूपों से अधिक कुछ नहीं होती हैं और उनकी सफलता केवल अस्थायी ( temporary ) होती है। समाज के विकास में, किसी तात्कालिक अवधि में भले ही हम यह पा सकते हैं कि जैसे पश्चगामिता हावी है परंतु, मानव-समाज के इतिहास की लंबी अवधियों के अनुसार देखने पर हम पाते हैं कि अंततोगत्वा नूतन, पुरातन को अटल रूप में प्रतिस्थापित कर देता है और विकास की कुल परिणामी दिशा अग्रगामी ( forward ) ही होती है।

विकास प्रगतिशील ( progressive ) होता है, यह निम्नतर से उच्चतर की, सरक से जटिलतर की ओर जाता है। प्रकृति में अजैव से जैव जगत में संक्रमण ( transition ) होता दिखाई देता है। पृथ्वी पर तापमान तथा वातावरण की दशाओं के इष्टतम ( optimal ) मेल से जीवन का उद्‍भव संभव हुआ। संचित अनुभवात्मक जानकारी की मदद से वैज्ञानिकगण यह निष्कर्ष निकालने में कामयाब हो गये कि सजीव प्रकृति का क्रमविकास ( evolution ) सरल से जटिल की ओर होता है। इस संदर्भ में जे० लामार्क  द्वारा निरुपित सिद्धांत तथा चार्ल्स डार्विन  का क्रमविकास का सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण है।

द्वंद्वात्मक प्रगतिशील विकास की दिशा कैसी है? विकास की दिशा से तात्पर्य देशिक विस्थापन नहीं, बल्कि गुणात्मकतः ( qualitatively ) नयी परिघटनाओं ( phenomena ) के बनने से है। विकास की दिशा पुरातन से नूतन की ओर गति है। यह एक अविपर्येय ( irreversible ) प्रक्रिया है, फलतः नूतन घटना को फिर से पूर्ववर्ती में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। इसे एक सर्पिल गति ( spiral motion ) कहा जा सकता है। यह ऊपर की ओर एक सरल रेखा में नहीं, बल्कि सर्पिल वक्र रेखा में ऐसे होता है, मानो बारंबार पुनरावर्तित हो रहा है।

एक ऊर्ध्व सर्पिल ( vertical spiral ) की किसी एक कुंडली (  loop ) में यदि हम आरंभिक स्थिति में कोई एक बिंदु ‘क’ लें, और उससे सर्पिल में आगे की तरफ़ ऊपर बढ़ाते जाये, तो हम पाते हैं कि एक कुंडली से दूसरी कुंडली में संक्रमण करता हुआ बिंदु ‘क’ एक तरफ़, तो प्रारंभिक स्थिति से इस तरह से अधिकाधिक दूर होता जायेगा, मानो वह सीधी रेखा हो और वह प्रारंभिक स्थिति पर वापस कभी नहीं लौटेगा। दूसरी तरफ़, प्रत्येक कुंडली के साथ वह एक ऐसी स्थिति से गुज़रेगा, जो प्रारंभिक स्थिति का प्रक्षेपण ( projection), उसका वस्तुतः एक पुनरावर्तन ( repetition ) सा ही होगा, परंतु ऊपरी कुंडली की स्थिति में यानि उच्च स्तर पर, यानि यह उसका आंशिक उच्च स्तरीय पुनरावर्तन जैसा होगा।

इस तरह द्वंद्वात्मक प्रगतिशील विकास का स्वरूप सर्पिल होता है ; उसमें हमेशा कुछ नूतन होता है और साथ ही पुरातन की ओर एक प्रतीयमान ( ostensibly ) वापसी भी होती है। सर्पिल रूप इस तथ्य को स्पष्ट कर देता है कि उसका प्रत्येक घुमाव वस्तुतः निचले घुमाव को दोहराता है, पर साथ ही सर्पिल के अर्धव्यास में बढ़ती तथा चक्र का विस्तृततर होना विकास के परिमाण ( quantity ) में वृद्धि तथा उसकी गति में त्वरण ( acceleration ) का द्योतक है और इस तथ्य को दर्शाता है कि यह अधिकाधिक जटिल ( complex ) होता जा रहा है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय
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