शनिवार, 29 जून 2013

अभिशप्तता और नियति की अवधारणा

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



अभिशप्तता और नियति की अवधारणा

यानी हम सब साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध करेगे। इतनी जल्दी समतामूलक समाज तो बन नहीं रहा, तब तक हम और बाध्य-गुलाम बनते जायें। यानी हम कुछ दशकों तक तो निश्चय ही इन सबको झेलने अभिशप्त रहें?

हां, हम और आप अभिशप्त हैं और रहेंगे। क्योंकि आपको यह अब दिखने लग गया है। जिनकों अभी भी यह नहीं दिखता है, नहीं समझ में आता है उनको ऐसी कोई अभिशप्तता नहीं नज़र आती। उनके अनुसार तो सब कुछ ठीक है, मज़े में है। दुनिया बेहतर है, तो फिर इसे बदले जाने की क्या आवश्यकता है।

आप यह समझेंगे कि जो हम कई बार कह चुके हैं, कि किसी के सोचने से दुनिया नहीं बदल जाती। उत्पादन प्रणलियों का विकास और उसका अवरुद्ध होना ही भविष्य की राह तय किया करता है। आज के संचार और असमान विकास के इस युग में आप किसी स्थान और काल के सापेक्ष, वैचारिक रूप से इस अवस्था में पहुंच सकते हैं कि आप इसे समझ सकें और व्यवस्था के कोख में पल रही परिवर्तन की बयार को जारी रखने और तेज़ करने में अपना योगदान कर सकें, पर वास्तविक निर्णायक परिवर्तन तो परिस्थितियों और क्रांतिकारी तत्वों की वॄहत स्तर की कार्यवाहियां ही करेंगी।

तब तक जैसे समाज के कुछ हिस्से शोषण को अभिशप्त हैं, हम भी देखने को अभिशप्त हैं, हां यह अभिशप्तता, समझ और ग्लानि हमें मुक्ति की दशा-दिशा की राह पर चलने को प्रेरित करती है, शोषण के मूल की पहचान और उससे संघर्ष के लिए, सर्वहारा वर्ग के संघर्षों में शामिल होने के लिए, उनकी अटूट पक्षधरता अपनाने के लिए, उनकी चेतना से जुडने और और उसे सही दिशा में लाने के प्रयासों से जुड़ने को मजबूर करती है। और इसकी वास्तविक परिणतियां भी परिस्थितियां ही तय कर रही होती हैं, कोई कितना भी चाह ले, हाथ-पैर मार ले। यदि कोई इस प्रक्रिया को नहीं समझता है और इसी तरह हवा में हाथ-पैर मारने के वैचारिक रूमान में होता है, तो जाहिरा-तौर पर वह कुछ समय बाद थक-हार कर वह पस्त हो जाता है, निराशा में आ जाता है, विचारधारा पर संशय करने लगता है, कुछ नहीं होने वाला ऐसा ही चलने वाला है के विचार से भर उठता है, और अपनी यथास्थिति में ‘वापस’ आ जाता है।

लोग शोषण को अभिशप्त रहे, पर लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद अंग्रेज दो सौ साल तक बने रहे, हज़ारों वैयक्तिक और छुटपुट सामूहिक क्रांतिकारी गतिविधियां और बलिदान होने को अभिशप्त हुए, पर लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद क्रांति नहीं सत्ता का पूंजीवादी हस्तांतरण हुआ। आज़ादी के साठ से ऊपर साल हुए, शोषण-दमन जारी रहा, आबादी का बड़ा हिस्सा बर्बादी को अभिशप्त रहा है, पर लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद यह जारी ही है। और जब तक क्रांति यानि समाज और व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के संघर्षों, उनकी हारों और असफलताओं की श्रृंखलाओं के बाद की निर्णायक और स्थिर जीत हासिल नहीं हो जाती, ऐसा ही चलता ही रहेगा, यही अभिशप्तता जारी रहेगी, हमारी लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद।

अब कोई इन परिस्थितियों से निराश हो सकता है, जल्दबाजी में आत्मघाती कार्यवाहियों में लिप्त हो सकता है, या सही समझ विकसित करके, मानवजाति की अवश्यंभावी नियति की आशाओं से लबरैज़ होकर इस धीमी ही सही पर संघर्षों की प्रक्रिया का भागीदार बन सकता है, अपने लिए कुछ व्यावहारिक और तात्कालिक कार्यभार निश्चित कर उन्हें पूरा करने और इस श्रृंखला का अंग बनने की आत्मसंतुष्टि तलाश सकता है। कुछ किये जाने की, वास्तव में कुछ करने की आवश्यकताओं को यथार्थ में परिणत कर सकता है। या ऐसे ही किसी यथास्थितिवादी सुधारवादी छुटपुट गतिविधियों में अपनी उर्जा खपा सकता है। या फिर एक साथ भी, जरूरत के हिसाब से इन सभी में अपना कुछ ना कुछ योगदान दे सकता है। सब यथार्थ की उसकी परिस्थितियों और समझ पर अवलंबित है, कि कहां तात्कालिक राहत हासिल की जा सकती है, और कहां एक दूरगामी लक्ष्य की चेतना से उन्हें जोड़ा जा सकता है।

पहले हम कहते हैं कि अगर हम बेहतर परिवेश चाहते हैं तो हमारी जिम्मेदारी बनती है और यह भी कह रहे हैं कि जो होगा वह, समय, स्थिति-समाज-परिस्थिति करेंगे। …हालांकि इस बात को हम समझने की बात स्वीकार कर सकते हैं। लेकिन भाग्य भरोसे जैसी बातें पसन्द नहीं आतीं। ऐसे घोर नियतिवादी-भाग्यवादी और ज्योतिषीय विश्वास से भरे शब्द तो पारम्परिक-निष्क्रिय लोग हर जगह कहते हैं। माने उद्यम या संघर्ष का कोई अर्थ नहीं रह जाता इन शब्दों को स्वीकारने पर। ऐसी बातें भगवान-भरोसे छाप वाली हैं। पसन्द नहीं आईं।

आपने पूरी बातचीत के इस मुख्य बिंदु को तो अपनी प्रतिक्रिया की प्रक्रिया से बिल्कुल ही गायब कर दिया। "और जब तक क्रांति यानि समाज और व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के संघर्षों, उनकी हारों और असफलताओं की श्रृंखलाओं के बाद की निर्णायक और स्थिर जीत हासिल नहीं हो जाती, ऐसा ही चलता ही रहेगा, यही अभिशप्तता जारी रहेगी, हमारी लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद।" यह इसलिए भी पुनः बताया कि आप आगे यह भी. "माने उद्यम या संघर्ष का कोई अर्थ नहीं रह जाता इन शब्दों को स्वीकारने पर" लिख गये।

चलिए इस बहाने इस नियति पर भी कुछ बात करलें। जैसे कि हर काल्पनिकता, अवधारणा के वास्तविक भौतिक आधार हुआ करते हैं वैसे ही यह नियति की अवधारणा भी शून्य से नहीं उपजी है। वास्तविक जीवन में मनुष्य इस तरह की कई परिघटनाओं से बाबस्ता होता है जहां कार्य-कारण संगतता के चलते उसे इस चीज़ का बोध होने लगता है कि कुछ निश्चित कारण, कुछ निश्चित घटनाओं, संवृत्तियों को जन्म देते है। यानि कि कुछ निश्चित परिस्थितियों और संयोगों में, किन्हीं निश्चित परिणामों का पूर्वानुमान किया जा सकता है। ऐसा हुआ है, तो यह तो होगा ही। ऐसा तो होता ही है। हर रात की सुबह होगी, पूर्ण चांद तब निकलेगा, गर्मियों के बाद बारिश होगी, उसके बाद सर्दियां आएंगी, पानी डालने से आग बुझ जाती है, हर बच्चा एक समय बूढ़ा होगा, मृत्यु निश्चित है, आदि-आदि।

इन्हीं वास्तविक नियमसंगतियों के अनुभव के चलते, मनुष्य ने कई और भी जगहों पर, खासकर रहस्यमयी, अपरिचित, या ऐसे कार्यों के संबंध में जो उसके जीवन से संबद्ध थे और उसके अस्तित्व के लिए महत्त्वपूर्ण थे, इन्हीं नियमसंगतियों जैसा ही कुछ आरोपित करना चाहा। उस लगता था कि जिस तरह कई परिघटनाओं की नियति को यदि वह समझता है तो कारण और परिस्थितियों में बदलाव लाकर, परिणामों को बदल सकता है, उसी तरह और भी कई आवश्यक या उसके अस्तित्व के लिए खतरनाक परिघटनाओं को वह बदल सके। इसलिए उनके कारण जानने के प्रयत्न शुरू हुए, ताकि निश्चित कार्य-परिणाम प्राप्त किए जा सकें। जहां ये उसके क्रियाकलापों और सफलताओं के दायरे में आए वे नियम, ज्ञान बनते चले गए। जहां वास्तविक परिणतियां संभव नहीं हो पाईं, वहां रहस्यमयी कारणों की कल्पना करते हुए मनुष्य अंततः ईश्वर के परम कारण तक जा पहुंचा। कई कार्य-परिणामों के लिए वह प्रारब्ध, नियति और भाग्य के कारण तक जा पहुंचा। यानि कि यह सोचना, कि ऐसा क्यूं हुआ, क्योंकि यही नियति थी, यही प्रारब्ध था, यही भाग्य में लिखा था, आदि-आदि।

आज हम जानते हैं कि वास्तविक नियमसंगतियों की परिघटनाओं के पीछे कई तरह की प्राकृतिक नियमबद्धताएं काम करती हैं। प्राकृतिक परिघटनाओं में भी और सामाजिक परिघटनाओं में भी। इन्हीं को समझते हुए ही मानवजाति आज के विज्ञान और विकास तक पहुंची है। इसलिए हमें प्राकृतिक और सामाजिक परिघटनाओं को समझते समय नियमसंगतियों की व्याख्याओं की इस द्वेधता को ध्यान में रखना चाहिए। यानि कि ऐसा ना हो कि हम वास्तविक नियमसंगतियों को भी इसी काल्पनिक नियति या प्रारब्ध के हवाले कर उनकी सच्चाई से किनारा करलें, या किन्हीं परिघटनाओं में नियति और भाग्य के ( या उस जैसे ही किसी अन्य ) काल्पनिक कारणवाद को स्वीकार कर चीज़ों की भाववादी व्याख्याओं में उलझकर रह जाएं।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

रविवार, 23 जून 2013

मशीन और तकनीकी विकास की समस्या

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



मशीन और तकनीकी विकास की समस्या
कहीं पढ़ कर लगा कि मार्क्स की धारा यंत्र को, मशीन को अधिक महत्त्व देती है। और यह विकास क्रम में गलत भी नहीं है। लेकिन इसका असर प्राकृतिक संसाधनों पर और मानव पर तो नकारात्मक पड़ता रहा है, पड़ रहा है। अब या तो विज्ञान और मानव जितनी समस्याएं पैदा कर रहे हैं, उतनी रफ़्तार से समाधान नहीं हो रहा है।


एक कथन और साथ ही उसका प्रतिकथन भी। मार्क्स मशीन को अधिक ही महत्त्व देता है, और ग़लत भी नहीं है। विज्ञान का प्रभाव नकारात्मक है, और यदि उसकी समस्याओं का रफ़्तार से समाधान हो जाए तो शायद ठीक रहे। आपका अध्ययन चल रहा ही होगा। कई चीज़ें स्वतः ही साफ़ होती जाएंगी। समय तो लगना ही है, पढ़ने में भी और बहुत सा समझने और सोच का हिस्सा बनाने में।

मशीन पहले आती है, उसके ज़रिए संगठित उत्पादन पहले शुरू होता है, पूंजीपति आते हैं, कारखाने आते हैं, मज़दूर आते हैं, फिर समस्याएं आती हैं, इनके समाधान के लिए सोच-विचार शुरू होता है, तब कहीं जाकर परिदृश्य में मार्क्स आते हैं। मशीन पैदा ही मनुष्य ने अपनी सहूलियत के लिए की, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि औजार पैदा हुए, हथियार हुए। यह सही तरीके से इस्तेमाल की जाए तो समाज के लिए अपने मूल से ही अत्यंत उपयोगी है। 

मशीन मुनाफ़ाखोर व्यवस्था में समस्या बन कर उभरती है। इसके पास उत्पादन की मात्रा और गुणवत्ता को अकल्पनीय रूप से बढ़ाने का अवसर होता है। परंतु जब इसे पूंजीपति समाज के हितार्थ नहीं, वरन अपने मुनाफ़ों के लिए इस्तेमाल करता है तो वह इसे समाज के बड़े हिस्से के लिए विनाश का पर्याय बना देता है। पर्यावरण पर यदि विपरीत असर पड़ रहा है, तो एक समाजोन्मुखी शक्ति इसका प्रचलन बंद कर सकती है, परंतु यदि एक मुनाफ़ाखोर के पास इसकी सुविधा हो, तो वह अपने व्यक्तिगत नुकसान को बचाने के लिए, अपना मुनाफ़ा जारी रखने के लिए इसके उपयोग को जारी रखने के लिए कोई ना कोई तिकड़म लगाता रहेगा।

मशीनों और तकनीक का तेज़ विकास, जैसा कि इस वर्तमान व्यवस्था के अन्तर्गत परिणामित हो रहा है, प्रकृति और पर्यावरण के विनाश के लिए लक्षित नहीं है, यह उत्पादन को बढ़ाने और समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए होता है। मशीने और तकनीक जितनी उन्नत होती जाएंगी, मनुष्य की बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने में मानवजाति को अधिक सक्षम करती जाएंगी। बात इस प्रक्रिया के समाजोन्मुखी नियोजन की है जो इसी ओर लक्षित हो यानि जरूरतों को पूरा करने के लिए परंतु पर्यावरण की कीमत पर कतई नहीं।

आग खतरनाक थी, पहिया जोखिम भरा था, चाकू मार सकता था, आदि-आदि। पर इन्हें मनुष्य ने तैयार किया था और अपने फायदे के लिए उपयोग किया। इनका दुरुपयोग भी हो सकता था और हुआ पर मानवजाति ने अपने अस्तित्व के लिए, जोखिमों के बावज़ूद इन सबको साधा। बात साधने की है, संसाधनों के समाजोन्मुखी नियोजन की है।

यानि बात यूं कही जा सकती है कि वर्तमान मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था, मशीनों और तकनीक का, प्राकृतिक संसाधनों का अपने फायदे के लिए, पर्यावरण के नुकसान, समाज के नुकसान की परवाह किए बिना, जमकर दोहन कर रही है और संपूर्ण मानवजाति के अस्तित्व को खतरे में डाल रही है। मार्क्स जैसे लोगों ने इसको समझा और इसे और पूरी प्रणाली को समझने और समझाने की कोशिश की और समाज के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया को सामने रखते हुए इस व्यवस्था के अवश्यंभावी समाजोन्मुखी विकल्प पेश किए।




इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 15 जून 2013

मानसिक और शारीरिक श्रम

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



मानसिक और शारीरिक श्रम

मानसिक और शारीरिक श्रम क्या हैं ?  दोनों में क्या अन्तर है ?  दोनों में महत्व किसका अधिक है। सुझाएँ। 

श्रम का मतलब है, मनुष्य द्वारा अपने किसी विशेष प्रयोजन के लिए प्रकृति में किया जा रहा सचेत परिवर्तन। श्रम का उद्देश्य निश्चित समाजिकतः उपयोगी उत्पादों को पैदा करना है। जाहिर है, इसके लिए उसे अपने पूर्व के अनुभवों के आधार पर पहलें मानसिक प्रक्रिया संपन्न करनी पड़ती है, आवश्यकता क्या है, उसकी तुष्टि के लिए क्या करना होगा, किस तरह करना होगा, एक निश्चित योजना और क्रियाओं, गतियों का एक सुनिश्चित ढ़ांचा दिमाग़ में तैयार किया जाता है तत्पश्चात उसी के अनुरूप मनुष्य प्रकृति पर कुछ निश्चित साधनों के द्वारा कुछ निश्चित शारीरिक क्रियाएं संपन्न करता है।

यानि किसी भी उत्पाद को तैयार करने में, उत्पादन में मानसिक तथा शारीरिक क्रियाएं अंतर्गुथित होती हैं। पहले की उत्पादन प्रक्रियाओं में उन दोनों प्रक्रियाओं की सभी क्रियाएं एक ही मनुष्य द्वारा संपन्न की जाती थी, परंतु आज की विकसित उत्पादन प्रक्रियाओं में, जबकि उत्पादन का समाजीकरण होता जा रहा है, किसी भी उत्पाद की संपूर्ण प्रक्रियाओं का विलगीकरण हो जाता है, और यह प्रक्रिया कई टुकड़ो में बंट जाती है। मानसिक प्रक्रियाएं, शारीरिक प्रक्रियाएं अलग होती है, और इनके भी कई टुकड़े हो जाते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि उत्पादन प्रक्रियाओं में मानसिक तथा शारीरिक श्रम अलग होते जाते हैं। ये भी और हिस्सों में बंट कर अलग-अलग व्यक्तियों के श्रम योगदान में परिवर्तित हो जाते हैं।

इस तरह आजकल मानसिक और शारीरिक श्रम काफ़ी दूर हो गये हैं, कई बार तो लगता भी नहीं कि ये किसी एक ही उत्पादन प्रक्रिया से जुड़े हैं। अब यह समझा जा सकता है कि इनमें क्या अंतर है। ये सामाजिकतः उपयोगी उत्पादन प्रक्रियाओं के दो भिन्न पहलुओं को परावर्तित करते हैं। एक में मानसिकतः प्रधान और दूसरी में शारीरिकतः प्रधान सार्थक क्रियाएं संपन्न की जाती हैं।

अगर हमने यह समझ लिया है कि ये आपस में अंतर्गुथित हैं, तो महत्त्व का सवाल ही बाकी नहीं रह जाता। परंतु समाज में प्रचलित मानसिकताओं और दृष्टिकोणों के अनुसार इनको विभिन्न सामाजिक संरचनाओं में अलग-अलग महत्त्व दिया जाता है। जहां शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से देखा जाता है वहां मानसिक श्रम को जाहिरा तौर पर ऊंचा दर्ज़ा प्राप्त होता जाता है। समाज के साधनसंपन्न लोग उत्पादन प्रक्रियाओं के मानसिकतः पहलू पर अपना आधिपत्य और एकाधिकार बनाए रखने की कोशिश करते हैं, ताकि बाकियों को हेय शारीरिक श्रम में लगाए रखा जा सके और वे उससे बचे रह सकें। पढलिखकर ऊंचे ओहदों और कार्यों को लपकने के लिए चल रही गलाकाट प्रतिस्पर्धा में इसका प्रतिबिंबन आसानी से देखा जा सकता है, यह व्यवस्था उन्हें लूट के अधिक हिस्से का , लाभ का बनाए रखकर इसमें मदद करती है।

व्यापक रूप से देखा जाए तो श्रम की प्रक्रिया एक अभिन्न सी प्रक्रिया है जिसमें मानसिक और शारीरिक पहलू आपस में गहरे से अंतर्गुथित होते हैं। दरअसल इन्हें अलग-अलग रूपों में महसूस करके जो भ्रम रचा जाता है वह अपने को व्यापक सर्वहारा वर्ग से अलग और शासक वर्ग के साथ निकटता महसूस करने के लिए होता है। मानसिक श्रम करने वाले भी यदि उनके पास बुर्जुआ साधन नहीं है और वे अपने जीवनयापन के लिए अपना श्रम ( चाहे मानसिक श्रम ही ) बेचकर ही गुजारा कर सकते हैं तो वर्गीय दृष्टि से वे सर्वहारा वर्ग में ही आते हैं। परंतु वे थोड़ा अधिक फैंका हुआ हिस्सा पाते हैं, इसलिए अधिक साधन संपन्न हो जाते हैं और अपने को प्रभुत्वशाली वर्ग के पास पाते हैं, वैसा ही बन जाने या बन पाने के सपने रचते हैं, तो इसीलिए वे इस मानसिक श्रम के अलगाव का भ्रम रचते हैं जो उन्हें शारीरिक श्रम करने वालों से अलग, श्रेष्ठ होने का सुक़ून देता है। यह भ्रम व्यवस्था द्वारा फैलाया और पोषित किया जाता है, वह ऐसा मानसिक श्रम वालों को अधिक हिस्सा प्रदान करके किया करती है और उनकी प्रतिरोधी चेतना को कुंद करती है, सर्वहारा वर्ग में फूट डालती है, उनमें मानसिक परिपक्व नेतृत्व की संभावनाओं को कमजोर करती है।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 8 जून 2013

यथास्थिति में बदलाव की आकांक्षा के प्रतीक

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



यथास्थिति में बदलाव की आकांक्षा के प्रतीक

आपसे विवेकानन्द के बारे में कुछ सुनने की इच्छा है। उनके विचार पर, उनकी सोच पर। उनकी समीक्षा आप करेंगे तो अच्छा लगेगा।....

विवेकानंद भारतीय मेधा, परंपरा और चिंतन के स्वतस्फूर्त विकास के प्रतीक बन कर उभरते हैं। जब वे तत्कालीन यथार्थ से रूबरू हुए, तो वास्तविकताओं ने उनके दृष्टिकोण को थोड़ा बहुत यथार्थवादी बना दिया। इसी वज़ह से वे श्रेष्ठताबोध के घटाघोप से उबर कर समाज की सच्चाइयों को समझने की यथासंभव कोशिश कर पाए, और यह जरूरत महसूस की, कि इस समाज को, इस व्यवस्था को थोड़ा बहुत ठीक किया जाना चाहिए।

विवेकानंद इतने लोकप्रिय आदर्श बनकर इसलिए उभरते हैं कि वे भारतीय परंपरा और दर्शन के ही परिप्रेक्ष्य में यथास्थिति में बदलाव की आकांक्षा की अभिव्यक्ति हैं। यह यहां की ठेठ अनुकूलित मानसिकताओं को रास आती है जहां पुराने को छोड़े बिना, उसी के अंदर से अपने विद्रोह की प्रवृत्ति को बल दिया जा सकता है। सामान्य युवा जो यथास्थिति को सही नहीं पाते, और इसकी जकड़न में कसमसा रहे होते हैं, उनके आस-पास परिवेश में सिवाय आध्यात्मिक गुटकों के सिवाय कोई दृष्टिकोणीय, वैचारिक चिंतन उपलब्ध नहीं होता, और ये गुटके कोई व्यावहारिक निष्कर्ष निकालने में असमर्थ होते हैं। इसी आध्यात्मिक परिवेश में से ही कहीं-कहीं उपलब्ध उन्हें विवेकानंद की पुस्तकें भी मिल जाती हैं जिनसे वे उसी आध्यात्मिक सुकून के संदर्भों में पढ़ते है पर यहां उन्हें अपनी बदलाव की, परिवर्तन की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति मिलती है, उनकी वैचारिक तार्किकता और पुष्टि मिलती है। यही कारण है कि स्वतस्फूर्त रूप से विकसित हुई अधिकतर परिवर्तनकामी मानसिकताएं विवेकानंद के आदर्शों के बीच से, और उनके ज़रिए ही आगे की राह ढूंढ़ने की कवायदों में लगती हैं।

विवेकानंद अपने विकसित होते चिंतन में समाजवादी विचारों तक पहुंचने और उनसे प्रभावित होने की अवस्थाओं तक पहुंचते हैं। परंतु स्वाभाविक विकास की यह प्रक्रिया, धारा उनकी असामयिक मृत्यु के कारण रुक गई।बाद में एक और ऐसी ही उन्नत मेधा परिदृश्य पर उभरती है जो इसी स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया से गुजरती है और अपनी वास्तविक परिणति तक पहुंचने में सफल हो पाती है। ये राहुल सांकृत्यायन हैं। पर वे विवेकानंद की तरह लोकप्रिय और आम नहीं हो सके क्योंकि वे आध्यात्मिक परिवेश में उपलब्ध नहीं थे, साथ ही वे आम मानस की मानसिकताओं से उलट उन सामान्यतः अपरिचित और आम मानस में बदनाम किए जा चुके भौतिकवादी और समानता के विचारों तक पहुंच गये थे जो वास्तव में परिवर्तनकारी, क्रांतिकारी थे।

विवेकानंद....आदि पर यथार्थवादी लगते हैं लेकिन समाजवाद तक वे पहुंचते हैं, इसमें संदेह है।....

पहुंचने का मतलब यह था कि वे परंपरा से विकास के रूप में इस शब्द तक, इसकी जैसी-तैसी समझ और इस शब्द के प्रयोग तक पहुंचते हैं, उसके प्रभाव में अपनी मान्यताओं और विचारों को तौलने को मजबूर होते हैं। वे जिस पक्ष और परंपरा से थे, वे तो थे ही, उसके सारे घटाघोपों के साथ।

यथोचित श्रेय दिया ही जाना चाहिए, और सीमाएं भी समझनी चाहिए। यह सही ही है कि उनका कहा और लिखा कई आम चेतनाओं को तब भी मथ रहा था, अब भी मथता है, उनमें समाजोन्मुखी प्रवृत्तियां पैदा करता है, उनके लिए आगे के रास्ते खोलने की संभावनाएं रखता है।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 1 जून 2013

दिमाग़ और समझ से ही जीवन नहीं चला करता

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



दिमाग़ और समझ से ही जीवन नहीं चला करता

सिर्फ़ पैसे के लिए कोई भी काम करना मेरा दिमाग सही नहीं मानता।...आर्थिक जुगाड़ खुद का है नहीं अब रक।...मेरा दिमाग, मेरी समझ सब मुझे वैसे काम करने से रोकते हैं जहां साम्राज्यवाद हो। क्षेत्र ही नहीं समझ आता मुझे।...

अर्थ के बगैर कैसा आर्थिक जुगाड़। इस अंतर्विरोध से तो पार पाना ही होगा कि हमें इस व्यवस्था में रहते हुए ही इसके परिवर्तन का ताना-बाना बुनना पड़ता है।

हर कोई अच्छी तरह जानता है कि सिर्फ़ दिमाग़ और समझ से ही जीवन नहीं चला करता। जीवन तात्कालिक परिस्थितियों के दायरे में जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति से चला करता है, और दिमाग़ तथा समझ इन परिस्थितियों को और अधिक बेहतर बनाते जाने को प्रयत्नशील रहते हैं। पहली स्थिति हो सकता है दिमाग़ और समझ के माकूल नहीं हो, परंतु दूसरी स्थिति के लिए आधार है, उसके मूल में हैं। इसीलिए इसको छोड़ा या लांघा नहीं जा सकता, इसके साथ भी अपने दिमाग़ की चिरपरिचित संघर्षशीलता के साथ ही जूझना होगा।

मुद्रा, पैसा आधारभूत रूप से, श्रम उत्पादों की विनिमय क्षमताओं के प्रतीक हैं। ये संचित श्रम का ही एक रूप हैं। यानि हम सामाजिक श्रम विभाजन की एक व्यवस्था में, अपना एक निश्चित श्रम-योगदान करते हैं और बदले में अपने जीवनोपयोगी श्रम-उत्पादों का विनिमय कर सकने के लिए कुछ मुद्रा, पैसा पाते हैं।

व्यवस्थाओं का सारा गणित इसी सामाजिक उत्पादन और उसके वितरण के तरीकों पर टिका हुआ रहता है। अभी यह प्रक्रिया ठीक नहीं है, श्रम-योगदान के अवसर सभी को उपलब्ध नहीं है, उसके श्रम-अवदान की तुलना में मिलने वाला मुद्रा प्रतिदान सही अनुपात में नहीं है, किसी को जरूरत भर भी नहीं मिल पा रहा और कुछ हड़पने की अश्लीलताओं में हैं, अभी एक बड़ी श्रम-शक्ति को समाज की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन में लगाने की बजाए मात्र कुछ समूह-वर्ग विशेषों की सुख-सुविधाओं के उत्पादन में झौंका हुआ है, आदि-आदि।

अभी यह ग़लत है, फिर भी आखिर तो मानव-समाज की जीवनीय आवश्यकताओं की पूर्ति इसी से हो रही है। श्रम-अवदान से उत्पन्न पूंजी का बड़ा हिस्सा अभी बुर्जुआ वर्ग द्वारा हड़पा जा रहा है, पर जो भी हिस्सा समाज के एक बडे हिस्से के हाथ में आता है, उनका जीवन इसी से चल रहा है। दिमाग और समझ वाले मानव-श्रेष्ठों को वितरण में न्याय पैदा करने की जरूरत महसूस होती है, इस प्रक्रिया को बेहतर बनाने की आकांक्षाएं होती है, पर यह थोडे ही ना है कि इसे खत्म ही कर देना है, रोक देना है, इससे बचना है, दूर हो जाना है।

ठीक है हमारी पक्षधरताएं शोषित पक्ष के साथ जुड रही हैं, तो हम अपने श्रम-अवदान के लिए, जीवनोपयोगी पूर्ति लायक ही प्रतिदान चुनें, उसे अश्लील स्तर तक ना ले जाएं। परंतु सामाजिक श्रम-विभाजन की व्यवस्था में हमें अपना समुचित योगदान तो देना ही होगा, ताकि उत्पादन प्रक्रिया से जुड-कर हम अपने लिए आवश्यक साधन जुटा पाएं, और साथ ही अपनी पक्षधरता वाले वर्ग के लिए उस छोटे से हिस्से की आपूर्ति में भी योगदान कर पाएं जो कि इस शोषण-प्रक्रिया से गुजरकर उनके हिस्से तक पहुंच पाती है।

कहने का मतलब यह है कि हो सकता है हमारे योगदान के एक बड़ा हिस्सा पूंजीपति और साम्राज्यवादियों की जेब में जा रहा है, परंतु एक छोटा हिस्सा ही सही, हमारी और हम जैसों की आवश्यकताओं की पूर्ति में भी काम आ रहा है। इसलिए जिस भी तरह का जुगाड़ हो पा रहा है करिए, अगर चुनाव के विकल्प मौजूद हैं तो अधिक बेहतर यानि कम खराब विकल्प चुनिएं, सामाजिक उत्पादन और सेवाओं में अपना योगदान दीजिए, और इस प्रक्रिया का अंग बनकर, शोषकों के तबकों के आधार कमजोर कीजिए, उनकी कब्र खोदने के संघर्ष में जुडिए।

नौकरियां, चाहें सरकार के जरिए हों या निजी पूंजिपतियों के ज़रिए, उत्पादन अंतत समाज के काम ही आना है। शिक्षक को सरकार लगाए या निजी व्यक्ति, उसे पढ़ाना तो इसी समाज के बच्चों को है। कहीं ना कहीं, अंत में जाकर हर प्रक्रिया समाज की आवश्यकताओं से जुड़ती है। अभी की व्यवस्था में जैसी भी परिस्थितियां हैं, जिस भी तरह के रोजगार के अवसर हैं, समाज इन्हीं के हिसाब से अपनी उत्तरजीविता सुनिश्चित करता है। हम भी इसी समाज के अंग हैं, और इसकी इन प्रक्रियाओं से अपने-आपको विलग नहीं रख सकते। हमारी यही भागीदारी हमें संघर्ष की प्रक्रियाओं से जुड़ने और चलाते रह पाने की उर्जा प्रदान करती है। सामाजिक उत्पादन की इस प्रक्रिया से विलगाव अंततः इसे न्यायपूर्ण करने के संघर्षों से विलगाव ही है। हमारे द्वारा अपने व्यक्तिगत आदर्शों और मान्यताओं को, समाज से ऊपर मान लेना भी एक तरह का बौद्धिक-विलास, एक तरह से अपने अहम की पराकाष्ठा ही है जो किसी भी तरह से समाजोपयोगी नहीं हो सकती।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय
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