शनिवार, 27 जुलाई 2013

ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - २

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - २

हाँ, निश्चित रूप से समाज, सामाजिक संगठन, संस्थाएं, व्यवस्थाएं, आदि सरल रूप से कठिनतर की ओर विकसित हुऐ हैं...
ईश्वर की अवधारणा का सामान्यीकृत रूप निश्वित रूप से सभी मानव समूहों व धर्मों में एक ही सा है... पर जब आप कहते है कि 'एक अलौकिक शक्ति, परम चेतना, परम आत्मा, जिसने इस ब्रह्मांड़, दुनिया को रचा' तब कभी कभी एक सवाल यह भी कौंधता है मेरे दिमाग में कि पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियों में एकमात्र मानव ही तो है जिसने कुछ रचा-बनाया... और तभी से वह 'हर चीज को किसने बनाया-रचा ? 'यह सवाल भी पूछने लगा... अगर मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता... तो क्या यह 'रचनाकार कौन ?' सवाल मानव मस्तिष्क का एक विशिष्ट फितूर सा नहीं माना जाना चाहिये... रही बात 'परम नियंत्रण' की... तो हर दौर का मानव यह बात कर कहीं न कहीं अपनी बेबसी में संतोष सा ही कर रहा होता है, खास कर उन चीजों के लिये जिन को वह कंट्रोल नहीं कर पा रहा होता या जिन पर उस का जोर नहीं चलता... चाहे यह प्राकृतिक आपदायें हों या असाध्य बीमारी... वह अपनी हार को परम आत्मा के परम नियंत्रणाधीन एक वृहद योजना का हिस्सा सा मान स्वयं को सांत्वना सी देता है...

निश्चित रूप से ईश्वर की अवधारणा में परिवर्तन हुऐ हैं और इसका क्रमिक विकास भी हो रहा है... मुझे तो अपेक्षाकृत नये सिख धर्म  में भी इस अवधारणा का थोड़ा परिष्कृत रूप दिखता है... और मुझे यह भी लगता है कि क्रमिक विकास होते होते एक दिन मानव जाति इस अवधारणा को नकार भी देगी...

हमारे द्वारा उछाले गये कई सवालों पर आपकी प्रतिक्रिया ने अधिकतर चीज़ें साफ़ कर दी हैं। यह भी साफ़ हुआ कि आपकी इस मामले पर समझ के बारे में हमारे पूर्वाग्रह कुछ ग़लत अनुमानों की दिशा ले रहे थे। जाहिर हुआ कि आपके पास, अपने अध्ययनों, तार्किक चिंतन के परिप्रेक्ष्य में चीज़ों की एक साफ़ और बेहतर समझ मौजूद है।

जाहिरा-तौर पर यह निश्चित हुआ कि ईश्वर की अवधारणा, आद्यरूपों से इसके क्रमिक विकास, और आगे की परिणतियों की संभावनाओं पर भी आपकी समझ एकदम अद्यतन और साफ़ है और हमारे द्वारा संवाद को इस दिशा में मोड़ने की कोई जरूरत नहीं थी। जहां से बात शुरू हुई थी, बात फिर वहीं पहुंच जाती है कि ईश्वर का जनक कौन है? आपने एक सरलीकृत समाधान पेश किया था, जिसको ही आगे बढ़ाते हुए हमने भी एक सरलीकृत समाधान पेश किया था। दोनों ही अलग-अलग छोरों को व्यक्त करते से लग रहे थे, परंतु वस्तुस्थिति यह है कि दोनों ही सारतः कहीं ना कहीं आपस में जुडते हैं। दरअसल चीज़ें हमेशा द्वंद में होती हैं, और उनके अंतर्विरोधों, संघर्षों और एकता में ही चीज़ों का वस्तुगत ज्ञान प्राप्त हो सकता है। हम शनैः शनैः इसको समझने की कोशिश करेंगे ही।

चूंकि, सहज रूप से समस्याओं के वैचारिक समाधान, मस्तिष्क की पैदाइश लगते हैं, और यह पूर्णतः ग़लत भी नहीं होता, परंतु यदि हम प्राथमिक मूल पर जाने की, उसे तय करने की कोशिश करते हैं तो शायद वस्तुस्थिति थोड़ी सी अलग हो उठती है। चलिए, आपने जो बात कही है, उसी को उदाहरणस्वरूप उठाते हुए, इसे आगे बढ़ाते हैं। आपने जो कहा था वह यह था, "कभी कभी एक सवाल यह भी कौंधता है मेरे दिमाग में कि पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियों में एकमात्र मानव ही तो है जिसने कुछ रचा-बनाया... और तभी से वह 'हर चीज को किसने बनाया-रचा ? 'यह सवाल भी पूछने लगा... अगर मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता... तो क्या यह 'रचनाकार कौन ?' सवाल मानव मस्तिष्क का एक विशिष्ट फितूर सा नहीं माना जाना चाहिये..."

ईश्वर दुनिया का रचियता है, यह जवाब इस सवाल से पैदा होता है कि इस दुनिया का रचयिता कौन है? इस आत्मसात्कृत संज्ञान से प्रेरित होते हुए कि हर रचना या सृजन का एक कर्ता होना चाहिए, यह सवाल कि ‘दुनिया का रचयिता कौन है?’, मानव मस्तिष्क में इस आनुभाविक तथ्य और चेतना से पैदा होता है, कि प्रकृति से अलग उसके आसपास की कई चीज़ों की रचना के कर्ता के रूप में वह स्वयं को अपने मस्तिष्क में प्रतिबिंबिंत करता है। मस्तिष्क में इस प्रतिबिंबन का मतलब यह हुआ कि वास्तव में भौतिक रूप से वे क्रियाएं संपन्न हो रही थी ( जैसा कि आपने कहा भी है, अगर मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता...)। चीज़ों की रचना, प्रकृति में सचेत परिवर्तन के यह क्रियाकलाप, विशुद्ध रूप से उसकी पारिस्थितिक, जीवनीय आवश्यकताओं से संबंधित थी। यानि कि फिर क्या यह नहीं कहा जा सकता कि यह उसकी यथार्थ परिस्थितियां ही थीं, जो उसकी इस वैचारिक श्रृंखला और निष्कर्षों के मूलभूत कारणों में थीं? क्या इस सवाल को मानव मस्तिष्क का ‘एक विशिष्ट सा फितूर’ मानने की बजाए, हमें इस ओर नहीं देखना चाहिए, नहीं सोचना चाहिए कि अपनी रचना और उसके कर्ता के रूप में उसकी स्वयं की उपस्थिति की, यानि ‘यह सवाल’ उसके विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों की एक स्वाभाविक परिणति सा लगता है, ना कि उसके मस्तिष्क में अचानक से उठे एक फितूर का परिणाम।

यानि की इसे इस तरह भी क्या नहीं देखा जाना चाहिए कि मानव के क्रम-विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों में उपजे और विकसित हुए उसके इसी रचनात्मक क्रियाकलापों, उनका मस्तिष्क में प्रतिबिंबन, इनसे उत्पन्न मानसिक क्रियाकलाप, बिंबों के लिए निश्चित ध्वनियां, और फिर इन्हीं शब्दों और छायाबिंबों के जरिए किया जाने वाला मूर्त चिंतन, और क्रियाकलापों के परिणामों की चेतना प्राप्त करते हुए, अपनी क्रियाओं के भावी परिणामों का पूर्वकल्पन, फिर प्राप्त कल्पना की क्षमता से अमूर्त चिंतन की संभावनाओं की दुनिया में प्रवेश, जो सामने नहीं है उसकी कल्पना, उस पर विचार, सवाल, संभावित-काल्पनिक जवाब, ये प्रक्रियाएं चल निकलती हैं।

दार्शनिक तौर-तरीक़ो से इसे ऐसा भी कहा जाता है कि पदार्थ मूलभूत है, उसके विकास की उच्चतर और जटिल अवस्थाओं में चेतना उत्पन्न और विकसित होती है। चेतना का विकास होने के बाद, यह अपने आगे के विकास क्रम में, स्वयं पदार्थ को नियंत्रित करने का प्रयास करती है। यानि कि अब एक द्वंद का रिश्ता बन जाता है। परिस्थितियों के प्रतिबिंबन से उनकी चेतना प्राप्त होती है, और यह चेतना अपने क्रम में अपने हितार्थ परिस्थितियों का नियमन तथा नियंत्रण करने की कोशिश करती है, परिस्थितियों को बदलने की कोशिश करती है। फिर परिस्थितियों में परिवर्तनों के प्राप्त परिणामों से पुनः चेतना समृद्ध होती है, परिस्थितियों में और अनुकूल परिवर्तनों को प्रेरित होती है, कोशिश करती है। यह प्रक्रिया अपने विकास-क्रम पर चल निकलती है और निरंतर बेहतर, विकसित और परिष्कृत होती रहती है।

( अगली बार लगातार.....)



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 20 जुलाई 2013

ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - १

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - १

आप जब कहते हैं, कि, "ईश्वर की अवधारणा, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक उपज है, जिस तरह की मनुष्य का मस्तिष्क भी इन्हीं की उपज है।" तो मुझे आपसे असहमत होना पड़ेगा... मानव मस्तिष्क का विकास नि:संदेह मानव के विकास का स्वाभाविक परिणाम है... जैव विकास के सर्वोच्च स्तर पर खड़ा मानव... प्रकृति से व जैविक शत्रुओं से अपनी रक्षा करने में अक्षम... यह दिमाग ही था, जो वह पूरी दुनिया पर छा गया... और यह भी उतना ही सही है कि पूरी दुनिया पर छा जाने की उसकी कोशिशों के चलते ही उसका दिमाग भी विकसित हुआ... सोचा जाये तो मानव जैविक विकासक्रम की उस शाखा के शिखर पर है जो अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये अपने दिमाग पर निर्भर है... एक कपि का चार पैरों से चलना छोड़ दो पैरों पर खड़ा होना... अगले दो पैरों का हाथ बन बारीक कामों के लिये मुक्त होना... हाथों के अंगूठे का उंगलियों से ९० डिग्री के कोण पर आ जाना ताकि चीजों पर बेहतर पकड़ और पकड़ी चीजों पर बेहतर नियंत्रण हो सके... सामूहिक शिकार व भोजन संग्रह करना... इस काम की आवश्यकताओं के चलते भाषा का विकसित होना... समूह में रहने के कारण नियमों का बनना आदि आदि... मस्तिष्क निश्चित रूप से मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक उपज है... पर यही बात ईश्वर की अवधारणा के लिये कहना, जो यकीनी तौर पर मानव विकासक्रम में बहुत बाद में आयी... भाषा के विकसित हो जाने के बाद... और अलग अलग मानव समूहों में अलग अलग तरीके से आयी... कितना सही है यह... क्या यह समूहों के नेतृत्व का अपनी नाकामियों के लिये ठीकरा फोड़ने व अपने नेतृत्व को एक लेजिटिमेसी देने के लिये गढ़ा मिथक नहीं था...

यह बात निश्चित हुई कि आप जैव-अजैव जगत के क्रम-विकास की अवधारणाओं से भली-भांति परिचित हैं और उनसे संजीदगी के साथ मुतमइन हैं। ईश्वर की अवधारणा के संदर्भ में आप असहमत हैं और इसके पीछे आपके पास इसके वाज़िब कारण हैं। अपनी बात को हम शनैः शनैः रखेंगे ही, आपके साथ बातचीत को आगे बढ़ाते हुए। असहमति संवाद के लिए एक आवश्यक तत्व है। अपने भावी संवाद की जुंबिशें इसी से तय होंगी। आप असहमतियों को इसी तरह, और सहमति के बीच के संशयों को भी इसी स्पष्टता के साथ रखते रहिए।

इसी संदर्भ में, जैव-अजैव जगत के क्रम-विकास का तो तय हुआ पर हम आपके विचार, जैव जगत से विकसित हुए मानव-समाज के विकास के बारे में भी जानना चाहेंगे। क्या आपको लगता है कि समाज, सामाजिक संगठनों, संस्थाओं, व्यवस्थाओं, आदि का भी क्रमिक विकास हुआ है? क्या ये भी सरल रूप से कठिनतर रूपों की ओर विकसित हुए हैं?

आपने सही कहा है, यह एक तथ्य है ही कि वर्तमान रूप में अस्तित्वमान ईश्वर की अवधारणा निश्चित ही विकास-क्रम में बहुत बाद की चीज़ है। आपने ईश्वर की अवधारणा को अलग-अलग मानव समूहों में अलग-अलग तरीके से आया हुआ कहा है, जो कि इसके विशिष्ट स्वरूपों के संदर्भ में पूरी तरह ग़लत भी नहीं है। पर यदि हम इसके विशिष्ट स्वरूपों यानि कि नामों, संज्ञाओं, विशेष परंपराओं और आस्थाओं को कुछ देर के लिए त्याज्य दें, और फिर इसके सामान्य स्वरूप को देखें, इसका सामान्यीकरण करें तो हमारे पास क्या बचता है? एक अलौकिक शक्ति, परम चेतना, परम आत्मा, जिसने इस ब्रह्मांड़, दुनिया को रचा इसकी सारी विशेषताओं के साथ, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, जिसके कि पास दुनिया के सारी चीज़ों का, उनके व्यवहारों और भाग्यों का, परम नियंत्रण है। जिसे आराधना से खुश किया जाना चाहिए, उसकी कृपा के लिए प्रार्थना में रहना चाहिए। क्या अब यह सामान्यीकृत रूप भी आपको अलग-अलग मानव-समूहों में अलग-अलग ही लगता है? क्या यही रूप कमोबेश रूप से हर समूह और इसके सांस्थानिक रूपों यानि धर्मों में लगभग समान रूप से ही नहीं पाया जाता है?

इस बारे में भी आपसे जानना है कि क्या ईश्वर की अवधारणा अलग-अलग समूहों में लगभग ही स्थिर रही है या इसमें भी परिवर्तन हुए हैं? क्या यह इसी वर्तमान रूप में अस्तित्व में आई और स्थिर हो गई? क्या ऐसा हो सकता है कि किन्हीं और आद्य रूपों से इसका विकास हुआ हो? क्या आज भी उपस्थित कई आदिवासी समूहों में, जनजातियों में ईश्वर की अवधारणाओं के ऐसे ही रूप अस्तित्वमान दिखते हैं? क्या इस बात की जरा सी भी संभावना हो सकती है कि इस अवधारणा का भी क्रमिक-विकास हुआ हो?

आप जरा उपरोक्त सवालों पर थोड़ा सा अपने विचार रखिए। फिर चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 13 जुलाई 2013

ईश्वर की अवधारणा की व्यापक स्वीकार्यता

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर की अवधारणा की व्यापक स्वीकार्यता

आप सही समझे, कि, मैं अपने इर्द गिर्द की दुनिया में ईश्वर नाम की इस अवधारणा की सर्वव्यापी व सबको प्रभावित करती उपस्थिति पाता हूँ... मैंने इस अवधारणा के बारे में जो नतीजा निकाला है वह भी आपको बता ही दिया है मैं जब भी ईश्वर के बारे में सोचता हूँ तो मुझे यही नतीजा मिलता है, पर आपके समक्ष यह जिज्ञासा रखने का कारण यह है कि मैं संशय में हूँ... कारण कई हैं... पहला, मुझे कुछ और मजबूत आधार व तर्क चाहिये... दूसरा, ठीक अपनी ही जैसी पृष्ठभूमि, शिक्षा, सामाजिक परिवेश व अनुभव रखने वाले अधिकाँश को मैं आस्तिक पाता हूँ व उनमें से कोई ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में कोई प्रश्न या द्वंद भी नहीं रखता, उनके लिये ईश्वर ठीक उसी तरह साफ साफ मौजूद है जैसे सूर्य,तारे, समंदर और आसमान, मेरे परिवार में भी सभी ऐसे ही हैं, मुझमें इन लोगों से यह भिन्नता क्यों है, क्या मेरी विचार प्रक्रिया सामान्य से हट कर तो नहीं...क्यों जो मैं देख-समझ पाता हूँ वह नहीं देख-समझ पाते, और, क्यों जिस तरह के अनुभवों की बात वे करते हैं, मुझे नहीं मिलते... विचार प्रक्रियाओं में इतनी बड़ी भिन्नता क्यों...

हम इसी मंतव्य के साथ संवाद शुरू कर ही चुके हैं, जाहिरा-तौर पर हम निश्चित ही इस मामले में और समृद्ध होंगे। यह और भी आसान हो जाएगा, यदि आप अपने संशयों, आधारों एवं तर्कों की कमी-बेशी पर, जहां आपको लगता है कि यहां इसे और मजबूत होना चाहिए, या इस बारे में कुछ और अधिक जानने-समझने की आवश्यकता है। और यह आप चलते हुए संवाद के बीच में अलग से भी प्रस्तुत करते रहें तो बेहतर, जैसे भी जब भी किसी बात पर कुछ सूझे, आप पेश कर सकते हैं।

हालांकि यह भली-भांति परिलक्षित हो रहा है कि आप चीज़ों को बेहतरी से देखने और उनके पीछे झांकने का एक उम्दा सामर्थ्य रखते हैं, फिर भी हम चाहेंगे कि इन लिंको पर की हल्की-फुल्की सामन्यीकृत सामग्री से एक बार गुजर लें। हो सकता है आपको वहां कुछ इशारे मिलें, जो कि इन सवालों से जूझने के लिए कुछ सामान्यीकृत आधार पैदा कर सकें।


मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने जीवन-यापन के लिए, सहजवृत्तिक व्यवहार-संरूपों पर अवलंबित नहीं है। वह लगभग शून्य से शुरू करता है, और सभी चीज़ें, जैसे चलना, बोलना, व्यवहार के तरीकें, आदि, अपने परिवेशगत लोगों से सीखता है। इन्हीं से वह आस्थाओं, परंपराओं, विचारों आदि को भी ग्रहण करता है। उसके पास अपना कुछ नहीं होता, इसी पृष्ठभूमि से प्राप्त यही व्यवहार-संरूप उसके अपने बन जाते हैं। सामान्यतः सभी अपने परिवेश के अनुकूलन में होते हैं, इसीलिए सामान्यतः सभी आस्तिक आधारों के साथ होते हैं।

एक और बात साथ चल रही होती है। व्यष्टि, अपने आसपास की चीज़ों के प्रति असीम जिज्ञासाओं से भरा, हर चीज़ को जांचने-परखने, जानने-समझने की प्रक्रिया में होता है। यह अनुकूलन की प्रक्रिया के साथ ही चल रही होती है। बोलना शुर करते ही, यानि भाषा के साथ परवान चढ़ते हुए, उसके सवाल परिवेश के माथे चढ़कर बोलने लगते हैं। सामान्यतः हर परंपरा पर, आस्था के हर आधारों पर सवाल उठाए जाते हैं। परिवेश विभिन्न तरीकों से इसका कठोर निपटारा करता रहता है। समान्यतः मनुष्य के जिज्ञासू स्वभाव को कुचल दिया जाता है, या जिज्ञासाओं को तात्कालिकऔर काल्पनिक समाधानों की श्रृंखलाओं से लबरैज कर दिया जाता है और उसे अनुकूलित होने को अभिशप्त कर दिया जाता है। कहने का मतलब यह है कि परिवेश द्वारा आस्तिक, बाक़ायदा तैयार किए जाते हैं।

अब एक और बात परिदृश्य में उभरती है। आधुनिक हालात में, बात यहीं नहीं रुकती, मानवजाति के अद्युनातन ज्ञान के साथ कदमताल बैठाने के लिए, एक औपचारिक शिक्षा प्रणाली अस्तित्व में है। इसके लिए वह बाहर निकलता है, परिवेश व्यापक बनता है, समाज की परिधियों में पहुंचता है। साथ ही आधुनिक शिक्षा प्रणाली के साये में पहुंचता है। ये सब मिलकर उस पर अपना प्रभाव डालते हैं। यह आप जानते ही हैं कि सामान्यतः यह सब बाहरी प्रभाव भी उसके आस्तिक अनुकूलन में मदद ही करते हैं। बाहरी समाज, शिक्षक सब इसी आस्तिक अनुकूलनता के साथ होते हैं। यहां भी शुरुआती तौर पर उसी तरह सवाल उठाए जाते हैं, मिल रही शिक्षा के साथ दुनिया से तालमेल मिलाने की कोशिश की जाती हैं, पर इस बाहरी परिवेश द्वारा भी, और साथ ही आंतरिक परिवेश द्वारा भी सवालों पर बरगलाने का रास्ता अख़्तियार किया जाता है। अधिक से अधिक यह हो पाता है कि व्यक्ति के दिमाग़ में दो खाने बन जाते है, एक शिक्षा-विज्ञान को ऊपरी तरह रट-रटाकर अपने लिए रोजगार पाने के जरिए का, और दूसरा उसी सामंती, आस्तिक संस्कारों से लबरैज जिनसे कि वास्तविक दुनियादारी चल रही है, आपसदारी चल रही है। जहां सभी के जैसा ही होना अधिक सहज और आसान हो उठता है, स्वाभाविक सा हो उठता है।

उपरोक्त बात से अब यह निकालना और समझना शायद आसान हो उठे, कि जिज्ञासा और दमन-अनुकूलन के इस अंतविरोध के बीच, शिक्षा की इस परिपाटी और वास्तविक ज्ञान के आत्मसात्करण के इस द्वंद में, कुछ विशिष्ट, विरल पारिस्तिथिक, और वयक्तिगत अवदान ऐसे भी संभव हो सकते हैं जो इस अनुकूलन में व्यवधान पैदा करते हों, जिज्ञासाओं के वैज्ञानिक शमन और शिक्षा को ज्ञान से जोड़ने तथा व्यवहार में परखने की राह से जोड़ते हों। ऐसे में ही इस तरह की वैयक्तिक जुंबिशे भी परवान चढ़ सकने की संभावनाएं भी हो सकती हैं जो इस प्रक्रिया को और आगे भी परवान चढ़ाए, अपने को अधिक अद्यतन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करने की राह पर ले जाएं। यानि कि इन परिस्थितियों में ही इसके बीज मौजूद होते हैं, क्योंकि समाज में , परिवेश में, सभी तरह की धाराएं प्रवाहित हो रही हैं। कौन किससे अछूता रह जाए, और कौन कब किसके चपेट में आ जाए, यह उसकी विशिष्ट पारिस्थितिकी और संयोगों पर निर्भर करता है।

आप इसमें से अपनी अवस्थिति को देख-परख सकते हैं। आप अपनी ज़िंदगी में बारीकी से झांककर, शायद उन तत्वों, व्यक्तियों, परिस्थितियों, संयोगों की पहचान कर सकते हैं जो कि आपकी इस सामान्य से हटकर विचार प्रक्रिया के आधार रखने में अपना योगदान कर चुकी हैं। जिनकी विशिष्टता और आपके लिए सांयोगिक उपलब्धता ने, आपको अपने जैसी लगभग समान पृष्ठभूमि, शिक्षा, सामाजिक परिवेश व अनुभव रखने वाले हमसायों से थोड़ा भिन्न बना दिया है। सामान्यतः एक जैसी लगती परिस्थितियों के बीच भी, कई विशिष्ट सक्रियताएं और प्रभाव एवं इनसे पैदा हो गई कई वैयक्तिक विशिष्टताएं, इन्हें आदर्श रूप में इतना भी एक जैसा नहीं रख पाती, और इतने भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व गढ़ा करती हैं।

सामान्यतः यह पारिस्थितिक अनुकूलन ही, किसी भी व्यक्ति की, उसके व्यक्तित्व की पहचान बन जाता है। वह इसी अनुकूलन के साथ रहने और जीने का आदी हो जाता है, उसकी यह अनुकूलित विचार-प्रक्रिया, इसी अनुकूलन के साथ सहजता अनुभव करती है। उसके जैसे ही बहुत से लोगों के बीच, एक सांमजस्यता, एक जैसी आपसदारी पैदा करती है। साथ ही जीवन की आर्थिकी और सामाजिकता उनके बीच इस तरह की नाभीनालबद्धता पैदा कर देती है कि वह अपने संशयों को ( अगर उठते भी हैं तो ) तिलांजलि देना, या व्यक्तिगतता के साथ दबाए रखने को अभिशप्त होता है। उनको अभिव्यक्त करना सामाजिक रूप से उसके लिए फायदे का सौदा नहीं रहता, ना ही सामान्य रूप से इन संशयों के समाधान उपलब्ध होते हैं जिनसे कि वह दो चार हो कर इन्हें सुलझाने की कोशिश भी कर सके। वह रूढ़ होता जाता है, और सामान्य सामूहिक चेतना के हिसाब से ही अपनी व्यवहार-सक्रियता को ढ़ाल लेता है। ऐसे में यदि यह सब उसके जीवन की गणित में भी जुड़ता है, उसके वैयक्तिक अहम् का हिस्सा भी बन जाता है तो वह सचेतन रूप से ऐसी धाराओं के विरोध में भी उतरता है जो इन संशयों को उभारते हैं, इस अनुकूलनता के खिलाफ़ विचार व्यक्त करते हैं। वह उनके खिलाफ़ अपनी तार्किकी गढ़ता है, विशिष्ट अनुभवों का घटाघोप भी रचता है।

इसीलिए हम अपने चारों तरफ़ ऐसे प्रयासों को देखते हैं जो अपनी इस आस्तिकता, अपने इस अनुकूलन पर आंच आते देखते ही सचेत हो उठते हैं। यह सहज भी है, व्यक्ति को अपनी वैयक्तिकता और व्यक्तिगत पहचान के आधारों पर जब चोट पहुंचती दिखती है तो वह इन्हें अपने संपूर्ण अस्तित्व पर ही खतरा समझता है, उसे अपना अस्तित्व ही खतरे में नज़र आने लगता है और वह भरसक, येन-केन प्रकारेण इसका प्रतिकार करने की कोशिशे करता है। यह उसका अधिकार भी है। इसीलिए वह अपनी इसी ऊलजलूली में कैसी भी तार्किकी गढ़ सकता है, अनुकूलित तर्क प्रणाली को काम में ले सकता है, इस तरह के कई आनुभाविक भ्रमों की रचना और अभिव्यक्ति कर सकता है जो कि, जैसा कि आपने कहा भी है वे आपसे नहीं मिलते। जब लक्ष्य अनुकूलन तथा अस्तित्व को बचाने से जु़ड जाते हैं, तो जाहिरा तौर पर उनकी और इस अनुकूलन के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले लोगों की विचार-प्रक्रियाएं भी अलग-अलग दिशा अख़्तियार कर लेती हैं। भिन्नताएं पैदा कर लेती हैं।

आपने काफी विस्तार से उत्तर दिया है, मेरे अधिकतर सवालों का जवाब मिला मुझे... मैं कुछ बेहतर अनुभव कर रहा हूँ...

आप चाहे तो इस मामले में रह गये संशयों को, सवालों को, अधिक मुतमइन ना कर सक पाने वाले समाधानों की कमजोरियों को, अधिक खोल कर रख सकते हैं। इस पर संवाद को आगे बढ़ा सकते हैं।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 6 जुलाई 2013

ईश्वर का जनक कौन है?

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर का जनक कौन है?

आपको हमेशा पढ़ता हूँ और जितना पढ़ता हूँ उतना ही अपने अज्ञान से रूबरू होता जाता हूँ... आप श्रद्धा जगाते हैं मुझमें और विश्वास भी, इंसान पर और इंसानियत पर भी...मेरी जिज्ञासा है...' ईश्वर का जनक कौन है ?'...यहाँ यह भी बता दूँ कि अभी तक का मेरा अध्ययन, अनुभव और निष्कर्ष मुझे हमेशा और हर बार एक ही उत्तर देते हैं वह यह कि ' ईश्वर मानव मस्तिष्क की पैदाईश है।'...आपका क्या कहना है ?...आप मुझ से हुऐ संवाद को कभी भी कहीं भी सार्वजनिक कर सकते हैं...

आपकी ही तरह हम भी अपने अज्ञान से रूबरू रहते हैं, और शायद यही बात हमें निरंतर अपने को अद्यतन, संशोधित और बेहतर करने को प्रेरित करती रहती हैं। हम एक ही प्रक्रिया के राही हैं इसलिए साथी हैं। हमारी साझी चिंताएं, प्रयास और सक्रियताएं हमारे बीच निस्संदेह आपसदारी और विश्वास बनाती हैं, गहराई से जोड़ती हैं। परंतु श्रृद्धा जैसी अवधारणाएं, इस प्रक्रिया को अवरोधित ही करती हैं, इनसे बचा ही जाए तो बेहतर।

हम भी आपके लिखे से अक्सर गुजरते रहे हैं, और आपकी कुशाग्रता से प्रभावित होते रहे हैं। आप संवाद हेतु प्रस्तुत हुए हैं, आपका शुक्रिया। निश्चित ही यह हमें एक-दूसरे से सीखने और समझने की राह प्रशस्त करेगा। आज पहले आपकी छोटी सी पर एक बेहद व्यापक जिज्ञासा पर कुछ स्पष्टीकरण आपसे चाहेंगे, कुछ सवाल भी। यह संवाद को आगे बढ़ाने और एक निश्चित दिशा देने में सहायक रहेंगे।

ईश्वर का जनक कौन है, यह पंक्ति यह घोषणा करती है आप इस मान्यता में हैं कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन आप इस ईश्वर नाम की अवधारणा की बेहद गंभीर उपस्थिति पाते हैं इसलिए प्रश्न उठाते हैं कि फिर इसका जनक कौन है? इसके जनक के मुआमले में भी आपने यह स्पष्ट किया है कि आपको अपने अध्ययन और अनुभवों ने इस निष्कर्ष तक पहुंचाया है कि यह ‘मानव मस्तिष्क’ की पैदाइश है।

फिर भी आप यहां यह जिज्ञासा रखते हैं और हम इस पर क्या कहना चाहते हैं, इसके लिए जिज्ञासू हैं तो इसके दो मतलब निकलते हैं। पहला तो यह कि आप ईश्वर से संबंधित अपनी मान्यताओं और निष्कर्षों पर पूरी तरह मुतमइन नहीं हैं, कुछ उलझाव हैं, कुछ सवाल हैं, कुछ ऐसी अस्पष्टताएं हैं जिनके कारण संदेह पूरी तरह ख़त्म नहीं होता, जिनके कारण ईश्वर की अवधारणा पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाती। स्पष्ट मान्यताएं बना लेने के बावज़ूद, इन मान्यताओं के लिए मजबूत आधार की गुंजाइश आप महसूस करते हैं, और जाहिरा तौर पर इन सबके बारे में आपसी-चर्चा करके आप इस अवधारणा पर अपने को अधिक मुतमइन करना चाहते हैं। दूसरा मतलब यह निकलता है कि आप अपने निष्कर्षों और मान्यताओं पर हमारी स्वीकृति पाना और अपनी मान्यताओं को सिर्फ़ पुष्ट करवाना चाहते हैं।

जाहिर है कि पहला ही मतलब, अधिक सही है तथा समीचीन है, और यही हमारे बीच संवाद का आधार है। इसलिए क्या यह उचित नहीं रहेगा कि आप अपनी इस व्यापक जिज्ञासा को कुछ खोले, इससे जुड़े हुए विशिष्ट पहलुओं और अपने सरोकारों को थोड़ा स्पष्ट करें। इससे हमारी बातचीत में आसानी हो जाएगी और हम संवाद को अधिक विषयगत और सीमित बनाए रख पाएंगे।

हम आपकी इस सामान्य जिज्ञासा का एक सामान्य उत्तर या हल प्रस्तुत कर सकते हैं। आप की ही तरह ईश्वर के अस्तित्व के नकार के साथ, वह कुछ इस तरह से होगा, "ईश्वर की अवधारणा, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक उपज है, जिस तरह की मनुष्य का मस्तिष्क भी इन्हीं की उपज है।"

जाहिर है उपरोक्त कथन, इस मान्यता से थोड़ा सा अलग हैं कि `ईश्वर मानव मस्तिष्क की पैदाइश है'। यह इस बात में अलग है कि वाक्यांश `ईश्वर मानव मस्तिष्क की पैदाइश है', जहां एक ओर ईश्वर के अस्तित्व के खिलाफ़ जाना चाह रहा है, वहीं यह उसकी ‘मस्तिष्क की पैदाइश’ के सामान्यीकृत स्पष्टीकरण के लिए उस भाववादी, प्रत्ययवादी ( idealistic ) विचारधारा या दर्शन को ही अपना आधार बना रहा है जिसकी की स्वाभाविक परिणति ईश्वर के अस्तित्व को ही प्रमाणित करती है, जो कि चेतना ( मानव मस्तिष्क जैसी ) को ही प्राथमिक और मूल मानती है। यानि जब हम ‘मानव मस्तिष्क’ यानि चेतना को अधिक तरजीह दे रहे होते हैं, उसे मूल या प्राथमिक मान रहे होते हैं, जिसके कि स्वतंत्र कार्यकलाप, समस्त वस्तुगतता पर हावी होते हैं, तो यही प्रत्ययवादी तर्क हमें परमचेतना के निष्कर्ष तक पहुंचाएगा ही, कि जिस तरह मानव परिवेश की वस्तुगतता मानव चेतना की पैदाइश है, उसी तरह इस ब्रह्मांड़ की वस्तुगतता के पीछे भी किसी चेतना, परम चेतना, ईश्वर जैसी किसी चेतना का हाथ अवश्य ही होगा।

वहीं हमारे द्वारा रखी गई बात के आधारों में हमने भौतिकवादी दर्शन की स्थापनाओं को रखने की कोशिश की है, जो कि चेतना को द्वितीयक तथा भूत (पदार्थ) को प्राथमिक और मूल साबित करता है। यह स्पष्टता के साथ कहा गया है कि मूल में, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की वे परिस्थितियां ही है जिनसे मनुष्य का मस्तिष्क और उसकी सभी अवधारणाएं जिनमें ईश्वर की अवधारणा भी शामिल है, विकसित हुई हैं। जाहिर है यह दर्शन के सवालों से भी माथापच्ची का मामला भी है, भौतिकवादी ( materialistic ) दर्शन के आधारों तक पहुंचने का भी।

जाहिर है हमने कई इशारे किए हैं, कई बाते लिख दी हैं जो कि हमारे भावी संवाद का आधार बनेंगी। आप इन सब बातों पर अपने को विस्तार से स्पष्ट कीजिए।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय
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