शनिवार, 19 दिसंबर 2009

सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने जीवन के क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति से संबंधित अवधारणाओं पर नज़र ड़ाली थी। इस बार हम यथार्थता के सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन में अंतर को समझने की कोशिश करेंगे। चेतना की उत्पत्ति के मद्देनज़र इनसे गुजरना एक पूर्वाधार का काम करेगा।

चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन

क्या तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उत्पत्ति का यह मतलब है कि उच्चतर जानवरों में चिंतन क्षमता तथा तर्कबुद्धि होती है और वे सचेत व्यवहार कर सकते हैं?

सरलतम एककोशिकीय अंगियों में यथार्थता ( reality ) का परावर्तन (Reflection, a reflex action, an action in return) अत्यंत आदिम रूप में होता है। यदि एक एककोशिकीय अंगी, अमीबा युक्त एक पात्र में अम्ल के सांद्रण ( concentration ) को बढ़ा दिया जाए, तो अमीबा उस तरफ़ को चला जाएगा, जहां अम्ल का सांद्रण कम है। यदि वह संयोगवश भोजन से टकरा जाता है, तो उसे अपने शरीर के किसी भी भाग से गड़प जाता है। इस तरह अमीबा अपने व्यवहार और गति के लिए कोई निश्चित दिशा और लक्ष्य तय नहीं करता।

उत्तेजनशीलता ( Excitability ) के आधार पर यथार्थता के प्रति मात्र निष्क्रिय अनुकूलन ही संभव हो सकता है। निष्क्रिय अनुकूलन का अर्थ है कि एक जीवित अंगी अपने अस्तित्व के लिए केवल पर्यावरण मे उपलब्ध अनुकूल दशाओं को ही चुनता है, किंतु उनकी रचना करना तो दूर, उन्हें खोजता तक नहीं है। पौधों सहित सभी बहुकोशिकीय अंगियों में भी उत्तेजनशीलता होती है। खिड़की पर रखा जिरेनियम का पौधा प्रकाशित पक्ष से अप्रकाशित पक्ष को हार्मोनों की गति के जरिए अपनी पत्तियों को उस दिशा की ओर मोड़ लेता है, जहां से उसकी जीवन क्रिया के लिए आवश्यक अधिक सौर प्रकाश उस पर पड़ता है। यह भी एक तरह का चयनात्मक ( Selective ), फिर भी निष्क्रिय अनुकूलन है, क्योंकि जिरेनियम न तो प्रकाश की खोज में जाता है और न ही प्रकाश की कमी होने पर उसकी रचना करता है।

जब तंत्रिकातंत्र अधिक जटिल हो गया और मस्तिष्क की उत्पत्ति हो गई, तो धीरे-धीरे निष्क्रिय से सक्रिय अनुकूलन में संक्रमण होने लगा। उच्चतर जानवरों में ( पक्षियों और ख़ास तौर से स्तनपायियों में ) सक्रिय अनुकूलन अपने निवास के लिए अनुकूल दशाओं की खोज से संबंधित होता है और व्यवहार के जटिल रूपों के विकास की ओर ले जाता है।

उच्चतम स्तनपायियों में व्यवहार के और भी अधिक जटिल रूप पाये जाते हैं। मसलन, कई शिकारी जानवर अपने क्षेत्र की हदबंदी कर देते हैं और दूसरों को उसके अंदर शिकार नहीं करने देते। एक अनुसंधानकर्ता ने अपने प्रेक्षण के दौरान देखा कि एक भूखी मादा भेडिया एक जंगली हंस का ध्यान आकृष्ट करने तथा झील के तट पर पानी से कुछ दूर उसे अपनी तरफ़ खींचने के लिए घास में उलट-पलट कर, तथा अगल-बगल करवटें लेकर नाचते हुए एक ‘शौकिया नृत्य प्रदर्शन’ कर रही है, उसने हंस को पानी से बाहर काफ़ी दूर तक अपनी ओर आकृष्ट किया और जब उनके बीच की दूरी काफ़ी कम हो गयी, तो अपने शिकार पर झपट्टा मार दिया।

हम जानते हैं कि चींटियां और मधुमक्खियां अत्यंत जटिल संरचनाएं बनाती है, बीवर नामक जीव छतदार बिल और बिल तक जाने के लिए पानी के नीचे से रास्ता ही नहीं बनाते, बल्कि असली बांध भी बनाते हैं, इससे भी बड़ी बात यह है कि वे पानी के बाह्य प्रवाह के लिए तथा तलैया में स्तर के अनुसार नियंत्रण रखने के लिए एक निकास द्वार भी छोड़ देते हैं। इन सब बातों से जानवरों के कथित तर्कबुद्धिपूर्ण, सचेत व्यवहारक की बात कहने का आधार मिलता है, पर वास्तव में यह परावर्तन के अत्यंत विकसित रूपों के आधार पर, पर्यावरण के प्रति उच्चतर जानवरों के सक्रिय अनुकूलन मात्र का मामला हो सकता है।

उच्चतर जानवरों में सक्रिय अनुकूलन, अपने निवास के लिए अपने परिवेशी पर्यावरण का सक्रिय उपयोग, अधिक अनुकूल दशाओं की खोज तथा अपनी जीवन क्रिया के लिए, चाहे सीमित पैमाने पर ही क्यों ना हो, पर्यावरण को अपने अनुसार अनुकूलित करने में निहित होता है। किंतु उनके क्रियाकलापों में कोई योजना नहीं होती और वे बाह्य वास्तविकता को आमूलतः रूपांतरित नहीं करते।

जानवरों के व्यवहार के अनेक रूप, क्रमविकास के लाखों वर्षों के दौरान विकसित होते हैं और आनुवंशिकता द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होते हैं। व्यवहार के इन अंतर्जात ( inborn, inbred ) रूपों को सहजवृत्ति कहते हैं और वे अत्यंत जटिल हो सकती हैं। किंतु जीवन की दशाओं में तीव्र परिवर्तन होने पर ये जानवर, अपनी ही सहजवृत्तियों के ‘बंदी’ हो जाते हैं और अपने को नयी स्थितियों के अनुकूल बनाकर उन्हें बदलने में अक्षम होते हैं। इसके अलावा वे उन दशाओं को निर्णायक ढ़ंग से बदलने तथा उन्हें अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित करने की स्थिति में नहीं होते।

इस बात को स्पष्ट करने के लिए हम अत्यंत संगठित कीटों के जीवन से एक उदाहरण लेते हैं। चीड़ के पेड़ों पर रहने तथा जुलूस की शक्ल में चलनेवाले पतंगों की शुंडियां भोजन की तलाश में एक सघन कालम बनाकर आगे बढ़ती हैं। प्रत्येक शुंडी अपने आगेवाले को अपने रोयों से छूते हुए उसके पीछे-पीछे चलती है। शुंडियां महीन जालों का स्रावण करती हैं, जो पीछे से आनेवाली शुंडियों के लिए मार्गदर्शक तागे का काम देता है। सबसे आगेवाली शुंडी सारी भूखी सेना को चीड़ के शीर्षों की तरफ़, नये ‘चरागाहों’ की तरफ़, ले जाती है।

प्रसिद्ध फ़्रांसीसी प्रकृतिविद जान फ़ाब्रे ने अगुआई करने वाली शुंडी के सिर को कालम के अंत की शुंडी की ‘पूंछ’ की तरफ़ लगा दिया। वह फ़ौरन मार्गदर्शक तागे से चिपक गई और, इस तरह, ‘सेनापति’ शुंडी मामूली ‘सिपाही’ में तब्दील हो गई, तथा उस सबसे पीछे वाली शुंडी के पीछे-पीछे चलने लगी, जिससे वह जुडी हुई थी। इस तरह कालम का सिरा और दुम परस्पर जुड गये और शुंडियों ने एक ही स्थान पर एक मर्तबान के गिर्द अंतहीन चक्कर काटने शुरू कर दिये। सहजवृत्ति उन्हें इस मूर्खतापूर्ण स्थिति से छुटकारा दिलाने में असमर्थ सिद्ध हुई। भोजन पास ही रख दिया गया लेकिन किसी भी शुंडी ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। एक घंटा बीता, दूसरा बीता, दिन गुजर गये और शुंडियां, मंत्रमुग्ध जैसी चक्कर पर चक्कर लगाती रहीं। वे पूरे एक सप्ताह तक चक्कर लगाती रहीं, इसके बाद कालम टूट गया, शुंडियां इतनी कमजोर हो गयीं कि अब वे जरा भी आगे नहीं बढ सकीं।

स्पष्ट है कि शुरूआत में जो सवाल पेश किया गया था, उसका सिर्फ़ नकारात्मक उत्तर ही दिया जा सकता है। अर्थात तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उपस्थिति मात्र से ही, चिंतन क्षमता और तर्कबुद्धियुक्त सचेत व्यवहार पैदा हो पाना संभव नहीं हो जाता।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

जीवन का क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण की सैद्धांतिक अवधारणाओं के सार-संक्षेप पर एक नज़र ड़ाली थी। आज हम यहां जीवन के क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति से संबंधित अवधारणाओं से गुजरेंगे।

यहां एक बात कहने की जरूरत महसूस हो रही है।

सैद्धांतिक अवधारणाएं, इनसे अब तक अपरिचित मानवश्रेष्ठों के लिए थोड़ा दुरूह होती हैं, पर यही दुरूहता गंभीर दिलचस्पी रखने वाले मानवश्रेष्ठों के लिए इन्हें समझे जाने की जरूरत और इस हेतु सक्रिय प्रयासों का रास्ता भी प्रशस्त करती है। दुरूहताओं से सप्रयास जूझना, इनके संबंध में मानवश्रेष्ठों की समझ को अंदर से मथता है और प्राप्त संगतियां और निष्कर्ष उसकी समझ का हिस्सा बनते हैं, जिससे कि अंततः उसका व्यवहार निर्देशित होता है।

बिना इस प्रक्रिया के प्राप्त ज्ञान, - जो पहले से प्राप्त अनुकूलित प्रबोधन के साथ अंतर्क्रियाएं तथा अंतर्संबध नहीं पैदा कर पाता, इसका स्वाभाविक विकास नहीं कर पाता - आंतरिक मानसिक जगत के लिए सिर्फ़ सूचनाओं का जंजाल बनता है (जिन्हें स्मृति कई बार, अक्सर भुला भी देती है), वह समझ और व्यवहार का हिस्सा नहीं बन पाता, मनुष्य का अपना एक सार्विक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा नहीं कर पाता।

आखिर यह अकारण नहीं होता कि न्यूटन जैसा महान वैज्ञानिक अपने जीवन के अंत समय में धार्मिकता की ओर उन्मुख हो जाता है, चोटी के वैज्ञानिक भाववादी मानसिकताओं में उलझे रहते हैं, रॉकेटों, चंद्रयानों को नारियल फोड़ कर अंतरिक्ष में भेजा जाता है, बड़े-बड़े डॉक्टर अलौकिक चमत्कारिकता में विश्वास करते पाये जाते हैं, और कई प्रबुद्ध और समझदार से लगते लोग अपने कार्यक्षेत्र में भी और इससे बाहर की चीज़ों के साथ भी अमूमन अपनी सामंती परंपराओं से प्राप्त मानसिकता औए समझ के साथ सोचते और व्यवहार करते नज़र आते हैं।

कभी अवसर उपलब्ध हुआ और समय मिला तो सामाजिक-वैयक्तिक मनोविज्ञान की इन स्वाभाविक परिणितियों पर विस्तार से चर्चा की जाएगी, फिलहाल आपके मनोजगत में हलचल के लिए इतने ही इशारे पर्याप्त से लग रहे है। आखिर कहा भी तो जाता है कि समझदार को इशारा काफ़ी होता है।

चलिए अपने उसी विषय पर लौटते हैं, और चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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जीवन का क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति

परावर्तन का आगे का विकास जीवन के क्रमविकास से संबद्ध था। जीवन भूतद्रव्य के अस्तित्व तथा उसकी गति का एक विशेष रूप है। इसके बुनियादी भौतिक वाहक हैं प्रोटीन और न्यूक्लीय अम्ल, जो जीवित अंगियों की संतानोत्पत्ति तथा आनुवंशिकता के संचारण और नियंत्रण को सुनिश्चित बनाते हैं। जीवित अंगियों के विशिष्ट लक्षण हैं उपापचयन, वृद्धि, उत्तेज्यता ( क्षोभनशीलता ), स्वपुनरुत्पादन, स्वनियमन और पर्यावरण के प्रति अनुकूलित होने की क्षमता। सरलतम अंगी एककोशिकीय हैं। जीवन का और अधिक परिष्करण लंबी, जटिल, अंतर्विरोधी विकास की प्रक्रिया के जरिए हुआ। इस प्रक्रिया को जैविक क्रमविकास कहते हैं।

क्रमविकास के दौरान जीवित अंगी अधिक जटिल और परिष्कृत बनते गये। चूंकि पर्यावरण तथा जीवन की सारी दशाएं धीरे-धीरे बदलीं, इसलिए अंगियों की वही किस्में जीवित बची रहीं, जो इन परिवर्तनों के लिए सर्वोत्तम ढ़ंग से अनुकूलित थीं। पर्यावरण के प्रति अनुकूलन दो प्रक्रियाओं पर आधारित है: पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होने वाले अनुगुण तथा विशेषताएं ( आनुवंशिकता ) और परिवर्तनशीलता ( उत्परिपर्तन )। विभिन्न कारणों से प्रभावांतर्गत अंगियों की कई विशेषताएं सहसा छलांगनुमा ढ़ंग से परिवर्तित हो जाती हैं। यह परिवर्तन सारी जाति की दृष्टि से सांयोगिक हो सकते हैं। यदि कोई अनेपक्षित परिवर्तन उपयोगी सिद्ध हुआ ( बाह्य जगत के प्रति बेहतर अनुकूलन की क्षमता और आनुवंशिकता के द्वारा संचारण ) तो उस अंगी के वंशज पौधों व जानवरों की अन्य जातियों के साथ अस्तित्व के लिए संघर्ष में अधिक आसानी से जीवित बचे रहे।

जीवित अंगी बाह्य पर्यावरण की क्रिया के ही विषय नहीं हैं, बल्कि स्वयं भी उसको प्रभावित करते हैं। अपने जीवन के क्रियाकलाप के दौरान, पर्यावरण के प्रति अनुकूलित होते समय वे एक निश्चित क्रिया या निश्चित कार्य करते हैं। यह परावर्तन के सिद्धांत के नज़रिए से विशेष महत्वपूर्ण है, क्योंकि जीवित अंगियों में परावर्तन सिर्फ़ उनकी आंतरिक संरचनाओं में प्रतिकूल परिवर्तनों से ही नहीं, बल्कि उनकी जीवन क्रिया से भी संबद्ध हैं।

जीवन संघर्ष के दौरान अंगी अधिक जटिल तथा परिष्कृत होते गये और इसी प्रक्रिया में एककोशिकीय से बहुकोशिकीय अंगियों में संक्रमण हुआ। बहुकोशिकीय अंगियों की कोशिकाओं के समूह और अंग अलग-अलग कार्य करने के लिए विशेषीकृत हो गये। समय बीतने पर तंत्रिका कोशिका नाम की कोशिकाओं के समूह पैदा होते हैं, जो परावर्तन का कार्य करने के लिए विशेषीकृत होते हैं।

जीवित अंगियों में परावर्तन उत्तेजनशीलता के अनुगुण के रूप में प्रकट होता है, यानि पर्यावरण के असर के प्रति अनुक्रिया करने की अंगी की क्षमता के रूप में। इसमें वह एक निश्चित समयांतराल में अपने को इस ढ़ंग से परिवर्तित कर लेता है कि वह उस प्रभाव के प्रति बेहतर ढ़ंग से अनुकूलित होने और अपने को जीवित तथा सुरक्षित रखने में समर्थ हो जाता है। उत्तेजनशीलता का आधार भौतिक जैव-विद्युतीय प्रक्रियाएं होती हैं।

क्रम-विकास की अगली अवस्था में अधिक विकसित प्राणियों ( मत्स्य, कीट, जलस्थलचारी, स्तनपायी ) में एक जटिल बहुशाखीय तंत्रिकातंत्र बन गया। नये विशेषीकरण के फलस्वरूप कुछ तंत्रिका कोशिकाएं पर्यावरण के केवल प्रकाश के प्रभावों, कुछ केवल ध्वनि प्रभावों और कुछ यांत्रिक प्तभावों का ही प्रत्यक्षण करने लगीं। कोशिकाओं का एक विशेष समूह अन्य के बीच संबंध स्थापित करनेवाला मध्यस्थ बन गया यानि तंत्रिका आवेगों को अन्य अंगों तक संचारित करने, पूर्ववर्ती प्रभावों के बारे में सूचना संग्रह ( स्मरण ) करने तथा पर्यावरण से प्राप्त संकेतों का विश्लेषण तथा उनमें फेरबदल करने के विशेष कार्य करने लगा। उच्चतर जानवरों में इन विशेष तंत्रिका कोशिकाओं से एक विशेष अंग की रचना हुई, जो पर्यावरण के सारे परावर्तनों तथा उसके साथ अंतर्क्रिया के नियंत्रण का कार्य करने लगा। यह अंग मस्तिष्क है।

तंत्रिकातंत्र और ख़ासकर मस्तिष्क की उत्पत्ति के साथ परावर्तन एक नये और अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंच गया। बाह्य जगत के वस्तुगत प्रभावों के प्रति अनुक्रिया के रूप में प्रतिकूल संरचनात्मक परिवर्तन ऐसे कार्य संबंधी परिवर्तनों से संपूरित हो गये, जो अंगी को बनाए या सुरक्षित रखने के लिए ही नहीं, बल्कि अपने प्राकृतिक वास-स्थल के प्रति तथा उसके साथ अंतर्क्रिया करने के लिए भी बेहतर अनुकूलित थे।
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इस बार इतना ही।
अगली प्रस्तुतियों में, यथार्थता के निष्क्रिय और सक्रिय परावर्तन पर नज़र ड़ालेंगे, और चेतना की उत्पत्ति की ओर आगे बढ़ेंगे।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

रविवार, 29 नवंबर 2009

जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने अजैव जगत में परावर्तन के कुछ रूपों की चर्चा की थी।

इस बार जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर एक नज़र ड़ालेंगे। यह एक महत्ववपूर्ण और दिलचस्प पड़ाव है जो परावर्तन के जटिलीकरण और उससे चेतना की उत्पत्ति तथा जैविक परावर्तन के क्रमिक विकास की पड़ताल से जुड़ा है।

समय की योजना है कि इस पर मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान के बारे में यहां विस्तार से प्रचुर सामग्री समेकित और प्रस्तुत की जा सके, ताकि जिज्ञासू प्रवृत्ति के मानवश्रेष्ठों को इच्छित संदर्भ-संकेत मिल सकें।
समय निमित्त मात्र है।
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पृथ्वी में जीवन अरबों वर्ष पहले उत्पन्न हुआ, और इसकी उत्पत्ति में कोई चमत्कारिकता नहीं है। गर्म महासागर में तथा जलीय वाष्प से भरपूर वायुमंडल में हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, आक्सीजन और अन्य तत्वों की प्रचुरता थी। जटिल भौतिक-रासायनिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप उनसे कार्बनिक यौगिकों की रचना हुई। अनेक वैज्ञानिकों के कार्यों की बदौलत आधुनिक विज्ञान में इन यौगिकों को प्रयोगशाला में हासिल करने की विधियों का विकास हुआ।

अजैव से जैव पदार्थ में परिवर्तन की व्याख्या के लिए अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किये गए। ओपारिन ने सुझाया कि ज्यों ही कार्बन-आधारित जैव द्रव्य बन गये, जिनमें कार्बन के परमाणु विविध प्रकार से नाइट्रोजन, आक्सीजन, हाइड्रोजन, फ़ास्फ़ोरस और गंधक के परमाणुओं से जुड़े होते हैं, जैव पदार्थ की उत्पत्ति के लिए आधार तैयार हो गया। आधुनिक विज्ञान इस मत के समर्थन में काफ़ी प्रमाण प्रस्तुत करता है।

ओपारिन के सिद्धांत के अनुसार जैव द्रव्यों का निर्माण लगभग दो अरब वर्ष पहले पृथ्वी के वायुमंडल में मुक्त आक्सीजन की उत्पत्ति और तत्जनित प्रकाश-रासायनिक अभिक्रियाओं एवं प्रकाश-संश्लेषण की बदौलत शुरू हुआ था। आद्य महासागर बहुत कुछ जैव द्रव्यों के काढ़े जैसा था, जो समय के साथ विराट अणुओं वाले अत्यंत जटिल कार्बन-आधारित द्रव्यों में संश्लेषित हो गया। ( इसके विपरीत भी एक सिद्धांत है, जिसका प्रतिपादन आल्फ़ेद कास्तलेर ने किया और इसके अनुसार आणविक यौगिकों का व्यवस्थित स्वरूप सामान्य अवस्थाओं में बढ़ने की बजाए घटते ही जाता है। इस कारण इसकी अत्यंत कम संभावना है कि जैव योगिकों की उत्पत्ति पृथ्वी पर हुई होगी। दूसरे शब्दों में, इस सिद्धांत का प्रतिपादक जीवन के पृथ्वी से इतर मूल की प्राक्कल्पना का समर्थन करता है)

अस्थिर और सहजता से अपने घटकों में विखंड़ित होनेवाले अणु, अपने स्थिर अस्तित्व के लिए (स्थायित्व के लिए) अपने से बाहर के प्राकृतिक परिवेश के साथ सतत चयापचयी विनिमय पर ( यानि परिवेश के द्रव्यों के चयनात्मक आत्मसातीकरण और अपघटन के उत्पादों के उत्सर्जन पर ) निर्भर थे। इस तरह विराट अणु वास्तव में स्वयं अपना उत्पादन करने वाले तंत्रों में परिवर्तित हो गए, जो स्वोत्प्रेरक ढ़ंग से द्रव्यों की उनके प्राकृतिक परिवेश के साथ विनिमय की प्रक्रिया का नियमन करते थे।

इन अणुओं में और, सर्वोपरी, समस्त जीवित अंगियों के अंगों की रचना करने वाले प्रोटीन के अणुओं में, ऐसे अनुगुण थे, जो हमारे लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। बाहरी वस्तुओं के प्रभावांतर्गत वे विखंड़ित नहीं हुए, गुणात्मक भिन्न प्रणालियों में रूपांतरित नहीं हुए, बल्कि संरक्षित रहे और उनका अस्तित्व बना रहा। इसका यह अर्थ है कि इन अणुओं से विरचित पदार्थ के अंशों या तत्वों के पारस्परिक आंतरिक विन्यास में एक परिवर्तन हो गया। बाह्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप कणों तथा तत्वों के बीच उर्जा संपर्क परिवर्तित हुए, किंतु स्वयं पदार्थ की प्रणाली का अपने घटक अंगों और तत्वों में विखंड़न नहीं हुआ। जब ऐसे परिवर्तन लाने वाले कारकों की संक्रिया बंद हो जाती है, तो विषयी अपनी पहले वाली स्थिति में वापस आ जाता है।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि अजैवजगत और निर्जीव प्रकृति से जैवजगत तथा सजीव प्रकृति में संक्रमण की अवधि, परावर्तन के रूपों के विकास की एक नयी अवस्था थी। जटिल जैविक प्रणालियों के स्तर पर भी परावर्तन इस बात में देखा जाता है कि विषय ( बाह्य प्रभावों ) की क्रिया के प्रति विषयी अपनी कुछ आंतरिक संरचनाओं में बदलाव के जरिए अनुक्रिया करता है। जब क्रिया बंद हो जाती है, तो ये संरचनाएं अपनी मूल अवस्था पर लौट आती हैं और इस तरह परावर्तन के विषयी के लिए अस्तित्वमान रहना और विकसित होना संभव हो जाता है।

अतएव, यह सोचने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हैं कि परावर्तन के भ्रूण रूपों से युक्त ऐसी जैव संरचनाएं ही अनेक भूवैज्ञानिक युगों के दौरान विकसित होकर आज के जैव तंत्रों के पुरखे बनीं।

संद्रवावक्षेपों ( कोएसर्वेट ) के नाम से ज्ञात प्रोटीन के अणुओं की भांति, जो संभवतः आधुनिक जीवधारियों के आद्य प्ररूप थे, सभी प्रकार के जैव द्रव्य, बाह्य प्रभावों के परावर्तन के ढ़ंग के मामले में ही जड़ प्रकृति से भिन्न होते हैं। यह परावर्तन स्वयं पर्यावरणीय प्रभावों, उनकी तीव्रता तथा स्वरूप पर ही नहीं, अपितु जीवधारी की आंतरिक दशा पर भी निर्भर होता है। हर जीवधारी सभी बाह्य क्षोभकों ( उद्दीपकों, exciter ) के प्रति चयनात्मक, अर्थात सक्रिय रवैया अपनाता है और इस तरह जैव प्रकृति की एक गुणात्मक नयी विशेषता, स्वतःनियमन का प्रदर्शन करता है।

उदविकास की लंबी प्रक्रिया के फलस्वरूप वर्तमान अवयवियों ने क्षोभनशीलता (उद्दीपनशीलता) से लेकर संवेदन, प्रत्यक्ष, स्मृति और चिंतन यानि मानसिक जीवन की विभिन्न अभिव्यक्तियां तक, परावर्तन के अनेकानेक रूप विकसित कर लिये हैं।
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इस बार इतना ही।
अगली प्रस्तुतियों में, जैव जगत में परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर प्रमुखता से नज़र ड़ालेंगे, और थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।

आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

शनिवार, 21 नवंबर 2009

अजैव जगत में परावर्तन

हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार हमने पदार्थ के मूलभूत गुण के रूप में, परावर्तन ( Reflection, a reflex action, an action in return ) की चर्चा शुरू की थी।
इसी को आगे बढ़ाने और समझने के लिए आज हम अजैव जगत में परावर्तन के कुछ रूपों की चर्चा करेंगे।
समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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हमने जाना था कि, परावर्तन हर भौतिक वस्तु ( परावर्तन के विषयी ) का अपने साथ अंतर्क्रियाशील अन्य भौतिक वस्तुओं ( विषयों ) के प्रभाव के प्रति अनुक्रिया करने का एक विशेष गुण है।

परावर्तन का सरलतम रूप अजैव जगत में पाया जाता है, जो भूतद्रव्य ( Matter ) की गति के यांत्रिक, रासायनिक, भौतिक तथा कुछ अन्य रूपों में अपने आपको अभिव्यक्त करता है।

अजैव जगत में परावर्तन के इन रूपों की विशेषता को समझने के लिए हम चंद उदाहरणों पर ग़ौर करते हैं:

१. हम बिलियर्ड के बल्ले से गेंद पर चोट करते हैं। गेंद एक निश्चित दिशा में और एक निश्चित दूरी तक ऐसी रफ़्तार से लुढ़कती है, जो गेंद पर किये गए आघात बल पर निर्भर होती है।

२. दो प्राथमिक भौतिक कण, ऋण आवेश युक्त इलैक्ट्रॉन तथा धन आवेश युक्त पोज़ीट्रॉन निश्चित दशाओं में एक दूसरे से टकराते हैं और नष्ट हो जाते हैं, यानि दो फ़ोटोनों में अर्थात प्रकाश के क्वांटमों में तबदील हो जाते हैं।

३. जब क्षरण से अरक्षित लोहे की किसी वस्तु पर पानी गिर जाता है, तो ऑक्सीकरण की क्रिया से उस वस्तु में जंग लग जाता है।

४. कठोरतम चट्टानों से निर्मित पहाड़ भी धूप, पानी और रेत के कणों, वायु तथा कंकरों के प्रभाव से शनैः शनैः टूटता है, उसमें दरारें पड़ जाती हैं और वह घिस-पिटकर छोटे-छोटे टुकड़ों में और अंततः बालू में परिणत हो जाता है।

इन उदाहरणों में हम भूतद्रव्य की गति के विविध रूपों ( यांत्रिक, भौतिक, रासायनिक और तथाकथित भूवैज्ञानिक जो कि वास्तव में इन्हीं तीनों का सम्मेल है ) को देखते हैं।

पहले उदाहरण में में गेंद का सरल विस्थापन होता है। इस परावर्तन का विषयी ( गेंद ) स्वयं परिवर्तित नहीं होता। अन्य तीन उदाहरणों में बाह्य क्रिया का विषयी ( एक प्राथमिक कण, लोहे की वस्तु, पहाड़ ) वस्तुगत कारकों के प्रभाव के प्रति एक निश्चित ढ़ंग से अनुक्रिया हे नहीं करता, बल्कि उनके असर से विखंड़ित होकर किसी अन्य वस्तु में परिवर्तित हो जाता है ( एक फ़ोटोन, जंग, बालू में )।

इन सारे मामलों में परावर्तन का विषयी, बाह्य प्रभाव के प्रति एक निश्चित ढ़ंग से अनुक्रिया करता है। उनके साथ होने वाले परिवर्तन, बाह्य प्रभाव के स्वभाव के अनुरूप होते हैं।

यदि लोहे की वस्तु को बिलियर्ड़ के बल्ले से ठोकर मारी गई होती, तो उस पर जंग नहीं लगती और हाथी दांत की गेंद को पानी में भिगोया गया होता, तो वह अपने स्थान से विस्थापित न होती। परावर्तन का विषयी बाहरी प्रभाव के प्रति कैसी अनुक्रिया करता है, यह केवल विषय के स्वभाव पर ही नहीं, बल्कि विषयी के अपने अनुगुणों पर, उसकी भौतिक, यांत्रिक और रासायनिक विशेषताओं पर भी निर्भर करता है।

अजैव जगत में परावर्तन के उपरोक्त सभी उदाहरण, विविध विज्ञानों के दृष्टिकोण से, पदार्थ की गति के भिन्न रूपों से की अभिव्यक्ति से संबंधित हैं। दर्शन के दृष्टिकोण से ये उदाहरण एक विशेषता से एकीकृत हैं, अर्थात यह कि विषयी, विषय के प्रभाव के प्रति एक खास ढ़ंग से अनुक्रिया करता है, यानि परावर्तन की प्रक्रिया में भाग लेता है।

इस तरह, यह या तो स्थान परिवर्तित करता है ( उदाहरण-१ ), या किसी अन्य वस्तु में परिवर्तित होते हुए गहन गुणात्मक परिवर्तन से होकर गुजरता है ( मूल कण प्रकाश के क्वांटमों में, लोहा जंग में, पहाड़ बालू-मिट्टी में )। परावर्तन के दौरान विषयी का विनाश या गुणात्मक रूपांतरण अजैव जगत में परावर्तन की लाक्षणिक विशेषता है।
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आज इतना ही।
अगली बार जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर एक नज़र ड़ालेंगे, और थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

पदार्थ का मूलभूत गुण - परावर्तन

हे मानवश्रेष्ठों,
समय फिर हाज़िर है।
चेतना की उत्पत्ति पर चल रही श्रृंखला पर फिर लौटते हैं, और इस बार पदार्थ के मूलभूत गुण और उसके सिद्धांत को समझने की कोशिश करते हैं।

आज की चर्चा का यही विषय है। समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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मानव-मन या चेतना (Consciousness) की उत्पत्ति उन प्रश्नों में से है, जिन्होंने प्रकृति के नियमों का अध्ययन करने वालों को सबसे अधिक उलझन में ड़ाला है। १८ वीं शताब्दी में दार्शनिकों ने इस प्रश्न पर पुरजोर बहस की थी कि क्या भूतद्रव्य (Matter) के बिना चेतना का अस्तित्व संभव है और अगर नहीं है, तो वह आयी कहां से?

भौतिकवादी वैज्ञानिकों का मत है कि मन या चेतना की उत्पत्ति पदार्थ के विकास की दीर्घ प्रक्रिया के फलस्वरूप संपन्न हुई। पदार्थ की प्रकृति की जांच करते हुए उन्होंने उसकी गति के विभिन्न रूपों पर ध्यान केन्द्रित किया, क्योंकि गति ही पदार्थ के अस्तित्व का रूप है। पूर्णतः गतिशून्य और परिवर्तन रहित पदार्थ नाम की कोई चीज़ नहीं है। ब्रह्मांड़ में सारा पदार्थ, सारी जीव और जड़ प्रकृति सतत गति, परिवर्तन और विकास की अवस्था में है।

प्रत्ययवादियों (Idealistic) के उपरोक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए फ़्रांसीसी भौतिकवादी देनी दिदेरो ने अनुमान लगाया कि भूतद्रव्य के अपने आधार में ही एक विशेष अनुगुण है, जो मूलतः संवेदनों से मिलता जुलता है। इसी से संवेदन की क्षमता तथा बाद में चिंतन का जन्म हुआ। इस अनुमान के समर्थन में उन्होंने अंड़े और चूज़े का उदाहरण दिया कि अंड़े में संवेदन और विश्व के प्रत्यक्षण की क्षमता नहीं होती, जबकि उससे उत्पन्न होनेवाले चूज़े में होती है। फलतः उन्होंने तर्कणा की कि संवेदन की क्षमता अजैव भूतद्रव्य से उत्पन्न हुई।

चूंकि १८ वीं शताब्दी के विज्ञान को हमारे युग के विज्ञान के सापेक्ष जीवन और चेतना की उत्पत्ति के बारे में बहुत कम जानकारी थी इसलिए दिदेरो चेतना और भूतद्रव्य के संबंध के बारे में एक पूर्ण, प्रमाणित दार्शनिक सिद्धांत की रचना नहीं कर पाए।

बहुत बाद में जब मानवजाति का यह वस्तुगत ज्ञान और विकसित होता गया तो एक ऐसे ही सिद्धांत का विकास हुआ जिसे परावर्तन का सिद्धांत कहते हैं।

इस सिद्धांत के अनुसार, अपने जड़, अजैव रूपों से लेकर, पदार्थ के उद्‍विकास के सर्वोच्च तथा जटिलतम उत्पाद - मानव मस्तिष्क तक, सारे पदार्थ का एक सामान्य गुण है परावर्तन। परावर्तन (Reflection, a reflex action, an action in return) भूतद्रव्य (Matter) का एक सार्विक, मूलभूत, अविभाज्य (Integral) तथा वस्तुगत अनुगुण है। यह हर भौतिक वस्तु का अपने साथ अंतर्क्रियाशील अन्य भौतिक वस्तुओं के प्रभाव के प्रति अनुक्रिया करने का एक विशेष गुण है। यानि कि यह भौतिक वस्तुओं द्वारा बाह्य प्रभावों की प्रतिक्रिया है।

परावर्तन के रूप, भूतद्रव्य के रूपों पर निर्भर होते हैं, यह अपने को बाह्य प्रभावों के उत्तर में, इन प्रभावों की प्रकृति के अनुसार क्रिया करने में व्यक्त करता है। जड़ प्रकृति में गति, पिंड़ों अथवा द्रव्यों की यांत्रिक, भौतिक अथवा रासायनिक अन्योन्यक्रिया के रूप ले सकती है। भौतिक विश्व के दीर्घकालिक क्रमविकास तथा पदार्थ की गति के रूपों की बढ़ती जटिलता के दौरान जैव पदार्थ का आविर्भाव गति के रूपों में गुणात्मक परिवर्तन ले आता है। जीवधारियों में परावर्तन के जैव रूप पाये जाते हैं। जैव पदार्थ के उदविकास के दौरान, परावर्तन का यह अनुगुण अंततः मानव चेतना तथा चिंतन में विकसित हो गया। अतः यह कहा जा सकता है कि चेतना परावर्तन का उच्चतम रूप है

विश्व के भौतिक स्वभाव तथा उसके वस्तुगत द्वंदात्मक विकास के दृष्टिकोण और मत, परावर्तन के इस सिद्धांत के साथ घनिष्टता और अविभाज्य रूप से जुड़ा है। प्रत्ययवादी और अधिभूतवादी इस संयोजन को समझने में अक्षम हैं और इसी कारण से वे चेतना की उत्पत्ति के प्रश्न का ऐसा सही उत्तर नहीं दे सकते, जो विज्ञान से मेल खाता हो और प्रकृति और समाज की वस्तुगत समझ विकसित करने में सक्षम हो।

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आज इतना ही।
अगली बार अजैव और जैव जगत में परावर्तन के रूपों पर एक नज़र ड़ालेंगे, और उन्हें थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ खुराक - ३

हे मानवश्रेष्ठों,
समय यहां श्रृंखला के बीच में कुछ टिप्पणियों को देने की गुस्ताख़ी कर रहा है।
समय का उद्देश्य इन्हें यहां दस्तावेज़ीकृत करना है, और साथ ही उन मानवश्रेष्ठों तक इन्हें पंहुचाना है जो इनसे महरूम रहे हैं। उम्मीद है आपके दिमाग़ को कुछ खुराक मिलने की संभावनाएं तो हैं ही।
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विजयादशमी पर विशेष - रामसेतु... प्रविष्टि पर ‘बुराभला’ पर टिप्पणी:

...आपकी या श्रृद्धालुओं की आस्था पर जाहिरा तौर पर सवाल खडे़ नहीं किये जा सकते, आखिर यह व्यक्तिगत मामला है और सभी स्वतंत्र हैं कि वे ज्ञान और समझ के किस स्तर पर रहना पसंद करते हैं, उन्हें कहां सुभीता लगता है।

परंतु यहां आप इसे तार्किक औए वैज्ञानिक रूप के साथ रख रहे हैं और आस्था के लिए तार्किक ज़मीन तैयार कर रहे हैं, इसलिए यह नाचीज़ यह टिप्पणी करने की हिमाकत कर रहा है, आशा है मुआफ़ करेंगे और अन्यथा नहीं लेंगे।

अगर आप वाकई वैज्ञानिक तरीकों से इतिहास और मानवजाति के क्रमविकास को समझना चाहते हैं तो आपकों वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ लिखे इतिहास और ऐतिहासिक समझ से गुजरना पड़ेगा। ना कि तथ्यों और निष्कर्षों का मनचाहा मानसिक जाल बुनकर अपने को तुष्ट करने का रास्ता अख्तियार करना पड़ेगा। और निश्चिंत रहें, उसके बाद भी हमारे पास गर्व करने के लिए काफ़ी सामग्री होगी साथ ही ढ़ेर सारे सबक भी होंगे जिनसे भविष्य को संवारने का उचित रास्ता निकाल सकने की असीम संभावनाएं भी मौजूद रह सकें।

और वैज्ञानिक तरीके से संपुष्ट इतिहास की समझ कहती है, कि हमारे महान ग्रंथ वेदों का समय ही ईसा पूर्व १५००, यानि कि आज से ३५०० वर्ष प्राचीन हैं, और इनका संकलन और लिपिबद्धिकरण तो और बहुत बाद की चीज़ हैं।

हड़प्पा सभ्यता के नगरों के निर्माण का समय २७०० ईसा पूर्व, यानि आज से लगभग ४७०० वर्ष पूर्व का निश्चित हुआ है। जाहिर है सिंधु घाटी की यह सभ्यता वेदों की आर्य सभ्यता से भी प्राचीन है। इसकी खोज ने, जो कि आज से लगभग ८०-९० वर्ष पूर्व ही हुई है, आर्यों के यहीं के होने या बाहर से आने वाले विवाद को भी खत्म कर दिया, और यह निश्चित हो गया कि आर्य ईरान की तरफ़ से आए थे और उनसे पहले यहां सापेक्षतः उनसे बहुत विकसित सभ्यता मौजूद थी।

हमारे इतिहास को जब वैदिक नज़रिए से देखा जाता है, तो काल के उस हिस्से का अध्ययन पूर्ववैदिक और उत्तरवैदिक काल के रूप में किया जाता है। वेदों के समय की सभ्यता का स्तर वेदों से ही मिल सकता है, जिससे साफ़ संकेत मिलते हैं आर्य उस वक्त खानाबदोश अवस्थाओं के पशुपालक अवस्थाओं से गुजर रहे थे। उनके वेद कालीन देवता भी अलग थे, जिनमें इन्द्र सबसे प्रमुख थे, और आपकी जानकारी के लिए यह भी काफ़ी महत्वपूर्ण होगा कि वेदकालीन देवताओं में उत्तरवैदिक देवतागणों जैसे कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि के लिए कोई जिक्र नहीं है। हमारे इन महान देवी-देवताओं का बखान हम बाद के महान ग्रंथों उपनिषदों और पुराणों में पाते हैं जो कि निश्चित ही वेदों के बाद के हैं।

अब चूंकि रामायण में इन भी देवी-देवताओं का चरित्र-चित्रण काफ़ी विस्तार से हुआ है, तो जाहिरा तौर पर यह निष्कर्ष निकलना लाजिमी है कि वाल्मिकी रामायण का समय वेदों और पुराणों के बाद का ही है। यह दोहराना अब महत्व नहीं रखता कि वेदों का समय आज से ३५०० वर्ष पूर्व का है, अतः रामायण का काल भी इनके बाद ही ठहराया जा सकता है।

जाहिर है कि इसके समय को ७००० वर्ष पूर्व ले जाना आस्था का विषय तो हो सकता है, परंतु तर्क और वैज्ञानिकता का नहीं।

अतएव आस्था है तो उसे आस्था ही रहने दिया जाए। आस्था को तर्कों और वैज्ञानिकता के दृष्टिकोणों से तौलेंगे तो हो सकता है कि आस्था पर चोट पहुंचने की परिस्थितियां पैदा हों। जो कि जाहिर है हमारा और आपका उद्देश्य या इच्छित कतई नहीं है।

राम हमारे और हमारे जनमानस की आस्था के नायक हैं, उन्हें आस्था की, श्रृद्धा की विषयवस्तु ही रहने दें, उन्हें तर्क और वैज्ञानिकता से तौलना इस आस्था औए श्रृद्धा के खिलाफ़ ही जाएगा।.....

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क्या पुनर्जन्म संभंव है? एक बेबाक....प्रविष्टि पर ‘तस्लीम’ पर टिप्पणी:

...लोकप्रिय मामलों में ऐसा होता ही है। आखिर अधिकतर लोग अपने सामान्य सूचनापरक ज्ञान के ही आधार पर ही, उपलब्ध हो पाए ज्ञान के आधार पर ही जीवन के भवसागर में उतरे हुए हैं।

बाकी सब तो है जैसा ही है।
आपकी लिखी एक बात ने चौंकाया। ‘आत्मा की खोज अभी जारी है।’
क्या खूब!

समस्या यहीं से तो शुरू होती है, और वहीं आप संशय छोड़ देते हैं।

अगर आत्मा की खोज अभी जारी है, यानि कि आत्मा के बारे में अभी कुछ खास नहीं कहा जा सकता। आत्मा की उपस्थिति के विचार का ही विस्तार हैं ये सभी मामले, जो आपस में गुंथे हुए हैं।

आत्मा का विचार सबसे प्राचीन है, आदिमकालीन। इसी से हर भौतिक वस्तुओं में आत्मा, देवत्वरोपण, ईश्वर, परमआत्मा आदि-आदि की संकल्पनाएं पैदा हुईं। पुनर्जन्म की अवधारणा का अविष्कार तो इनके सापेक्ष काफ़ी आधुनिक है। हमारे यहां वेदों के समय तक यह पैदा नहीं हुई थी।

अगर आप ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ इसे देखेंगे तब पता पड़ेगा कि इस अवधारणा की उत्पत्ति, लगभग राज्यों और उनके शोषण की उत्पत्ति के साथ-साथ हुई।

यदि आत्मा है, तो ईश्वर है, चेतना से पदार्थ की उत्पत्ति है, भूत-प्रेत हैं, जादू-चमत्कार हैं, पुनर्जन्म है, सारी भूल-भुलैयाएं हैं।

इसलिए आत्मा के प्रश्न से जूझना सबसे प्राथमिक है। आप आत्मा के अस्तित्व के सवाल को स्थगित रखकर या अभी संदेह में रखकर, बाकी की बातों के लिए तर्कों के जरिए पुरजोर लड़ाई नहीं लड़ सकते।

विज्ञान की उत्पत्ति के समय ही सर्वप्रथम उसकी उर्जा इन्हीं सब के अस्तित्व को टटोलने में ज्यादा खर्च हुई थी, इसे ऐसे भी कह सकते है पदार्थ और चेतना के संबंधों को समझने के इन प्रयासों से ही विज्ञान की उत्पत्ति हुई थी।

असल विज्ञान जितनी उर्जा खर्च कर सकता था, कर ली गई, और अब उसके पास इन फ़ालतू की चीज़ों के लिए समय नहीं है। अब केवल सूडोसाईंस की कुछ धाराएं ही इस सब पर अभी भी साधनों और उर्जा का अपव्यय करने में लगी हुई हैं, और यह यथास्थिति बनाए रखने की, आम जनमानस को उलझाए रखने की कवायदें वर्तमान व्यवस्था के हितों के अनुकूल हैं, अतः वह इन्हें प्रश्रय और प्रचार उपलब्ध कराता रहता है।

सारी स्थिति विज्ञान और अद्यतन दर्शन के सामने बिल्कुल साफ़ है, यह बात अलग है कि वह आपकी कितनी पहुंच में हैं।.....
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स्त्रियों में मनोरोग पराशक्तियां और कुछ विचार...प्रविष्टि पर ‘संचिका’ पर टिप्पणी:

...ग्रामीण इलाकों और शहरों में भी ग्रामीण परिवेशगत मानसिकताओं में इन परिघटनाओं का व्यापक असर है।

आपने इसे यहां उठाकर सही दृष्टि और सरोकारों के साथ विश्लेषित करने का समुचित प्रयास किया है। आप इसमें दो चीज़े औए जोड़ सकती हैं।

एक तो इन परिघटनाओं के पीछे के कुछ काम संबंधी आधार जो कि अक्सर अनछुए रह जाते हैं, या इस तरीके से इन्हें देखना और विश्लेषित करना काम संबंधी वर्जनाओं और अनैतिकताओं के घटाघोपों के चलते जानबूझकर छोड़ दिया जाता है।

दूसरा, जिसका कि आपने सिर्फ़ इशारा किया है पर उसे पुरजोर तरीके से उठाया जाना चाहिए ही, अक्सर ऐसे मामलों का पूरी चेतना और होशोहवास के साथ सृजित किया जाना। यह पूरी तरह से जानबूझकर किया जाता है और इसके पीछे के कारणों को आपने यहां रखा ही है।

कई मामलों में साहित्यिक सी भाषा में यह कहा जा सकता है कि इस तरह की परिघटनाएं पुरूष सत्ता के प्रति उन्हीं के बनाए हथियारों के साथ, हाशिए की स्त्रियों का यह एक विद्रोह है जो इस तरह उन्हें एक छद्म ही सही पर अपनी इच्छित परिस्थितियों के निर्माण का एक अल्पकालिक और कभी-कभी तो दीर्घकालिक भी, अवसर देता है।

पराशक्तियों के मामले में भी सही इशारे किए हैं आपने। जो दावा करता है, संदिग्ध तो वह ऐसे ही हो जाता है, क्योंकि उसे दावा करने की जरूरत पड़ी। यानि कि वह यह दावा करके इसके जरिए कुछ पाना चाहता है।

बहुत कम बार ही ये रोगी-सोगी होते हैं। बाकि जिन्हें दिलचस्पी है वे ऐसे अधिकतर मामलों के पीछे की झूंठ-सिद्धी की कई कहानियां ढूंढ़ सकते हैं।.....
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इसी प्रविष्टि पर आदरणीय वत्स जी की टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी:

...आधुनिक ज्ञान पुरातन का ही विस्तार होता है, क्रमिक विकास की प्रक्रिया में होता है। नये अनुभव और प्रमाण, पुरानी कई चीज़ों को गलत साबित करते हैं और कई पुरानी चीज़ों की कमियों को रेखांकित कर उसे और सटीक बनाते हैं।

उपवास और यज्ञादि की भी ऐसी ही चीरफ़ाड़ की गई और परंपराओं से जुड़े इन क्रियाकलापों में कुछ तार्किकता ढ़ूंढ़ने की कोशिश की गई कि आखिर इनमें क्या कुछ ऐसा है जिससे मानवजाति फ़ायदा उठा सकती है। यह वत्स जी का इछ्छित है।

समझदारी का तकाज़ा वत्स जी के इच्छित को तो शामिल करता ही है, साथ ही इसे और आगे लेजाकर जो व्यर्थ शाबित हुआ है उससे मुक्ति पाने की मांग भी रखता है।

समस्या यही पैदा होती है।

स्त्रियां किसी विशेष दिन व्रत-उपवास रखती हैं, अगर वे अपने आपको थोड़ा पढे-लिखों में शुमार भी करवाना चाहती हैं तो पूछने पर वे ऐसे ही वत्स जी की तरह जवाब देंगी कि देखो इस बहाने थोड़ा ड़ाईटिंग बगैरा हो जाती है जी।

अगर उनसे कहा जाए कि यह तो ठीक है, चलिए ऐसा कीजिए आप उस विशेष दिन को छोड़ दीजिए, और किसी दिन यह विज्ञान-सिद्ध फ़ायदे उठा लीजिए।

तब असलियत सामने आती है कि इनका यह विज्ञान-सिद्ध रूप नहीं वरन पारंपरिक धार्मिक विश्वास असल मूल में हैं। और इसीलिए यह होता है कि विज्ञान-सिद्धि जाती है भाड़ में और ढ़ोंग बन कर रह जाती है।

अक्सर लोग व्रत-उपवास में सामान्य दिनों से अधिक कैलौरी का सेवन करते हुए देखे जाते हैं, उन्होंने अपने मतलब के हिसाब से कई तोड़ निकाल लिए हैं। असल मंतव्य धार्मिक छद्म के जरिए मिलने वाली उसी मनोवैज्ञानिक, मानसिक तसल्ली का ही है जिसका जिक्र लवली कुमारी कर रही हैं।

किसी अंश की वैज्ञानिकता से, किसी भी पूरे पाखंड़ को जायज नहीं ठहराया जा सकता। वत्स जी तो शायद ही सहमत हों, पर और मानवश्रेष्ठ इस पर विचार कर सकते हैं।

वत्स जी की विधि का ही प्रयोग करके यह भी तो कहा जा सकता है कि कब तक वे सदियों पूर्व की मानसिकता और परिस्थितियों के अनुसार कही और लिखी बातों की भूलभुलैया मे भटके रहकर उसे ही परम ज्ञान की घुट्टी के रूप में परोसते रहेंगे और मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान से नज़रें चुराते रहेंगे।.....
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तो चलें समय के उस फ़लक पर...प्रविष्टि पर ‘ज्योतिष दर्शन’ पर टिप्पणी:

...जब बात प्राकॄतिक परिधटनाओं के संदर्भ में कही जा रही हो जैसा कि आईंस्टीन और बकौल निशांत मिश्र, स्टीफन हॉकिंग के निहितार्थ हैं, बात एकदम वाज़िब है।

विज्ञान के अनुसार प्राकृतिक परिघटनाओं की नियमसंगतता को सिद्धांत के रूप में तभी निरूपित माना जा सकता है, जब यह नियमसंगीतियों के जरिए वस्तुगतता के संदर्भ में निश्चित भविष्यवाणी करने में समर्थ सिद्ध होता है।

समस्या यह है कि व्यवस्थागत असुरक्षाओं के चलते, अपने व्यक्तिगत भविष्य को जानने की उत्कंठा में मनुष्य इन वैज्ञानिक प्रास्थापनाओं में प्रयुक्त हुए मिलते-जुलते अभीष्ट शब्दों को देखकर, उनका सही निहितार्थ समझे बगैर इनका मनमाफ़िक, अपने मंतव्यों के निहितार्थ उपयोग करने लगता है और समाज में विद्यमान भ्रमों की संपुष्टि के जरिए अपने अस्तित्व की प्रतिष्ठा और दोहन की जुंबिशों में जुट जाता है।

वैज्ञानिक ज्ञान के जरिए अब तक समझ आई प्राकृतिक परिघटनाओं और दर्शन की ऐतिहासिक भौतिकवादी अवधारणाओं के जरिए सामाजिक परिघटनाओं की भाविष्यवाणियां की जा सकती हैं, और की भी जाती हैं।

प्राकृतिक परिघटनाओं के सापेक्ष सामाजिक परिघटनाओं के मामले में सटीक भविष्यवाणियां थोड़ी मुश्किल होती हैं, क्योंकि यहां वस्तुगत यथार्थता के साथ, एक और तत्व जुड़ जाता है वह है चेतनागत यथार्थता। इनकी अन्योन्यक्रियाएं निरंतर नये-नये प्रभाव और निर्भरता पैदा करती रहती हैं, और वस्तुगत यथार्थ को निरंतर परिवर्तित करती रहती हैं।

तो प्राकृतिक परिघटनाओं के मामले में नियमसंगतता को समझने के बाद उनकी नियमों के अंतर्गत तयशुदा नियति से ऐसे भ्रामिक वक्तव्य निकाले जा सकते हैं जिनसे सत्य का आभास भी होता है और जो भ्रमों को और बढा़कर काल्पनिक कपोल कल्पनाओं के नये नये द्वार खोल सकता हो, जैसे यह कथन या निष्कर्ष जो कि यहां निकाला गया है कि सब कुछ पूर्व नियत है और हर चीज़ का एक निश्चित भविष्य है।

फिर यह संभावना पैदा हो सकती है कि इसे साधारणतयः मनुष्य अपने जीवन और समाज से जोड़कर देखने लगता है, और ऐसी ही चिंतन और निष्कर्षों की और उद्यत होता है जिसे कि आपने बाद में विवेचित किया है।

और आपकी समझ भी इस घलमपेल को समझ पा रही है, इसीलिए आपके सामने यह अनुत्तरित प्रश्नों और कल्पनाओं को छोड जाती है।.....
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वियोजित अनुभव, उनका मानसिक असंतुलन और...प्रविष्टि पर ‘संचिका’ पर टिप्पणी:

...आपने सही कहा है कि व्यक्ति अपनी सामाजिक अन्योन्यक्रियाओं के जरिए अपने एक मानसिक जगत का निर्माण करता है। अपेक्षाओं की पूर्ति की भौतिक संभावनाएं, व्यवहारिक रूप में, इन मानसिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति को संचालित और नियंत्रित करती रहती हैं।

असुरक्षा और अनिश्चितता का माहौल, अपेक्षित आदर्श परिस्थितियों और क्रूर वास्तविकताओं के मध्य एक द्वंद बनाए रखता है। इनसे विचलन और अपरिपक्वता, मानसिक अस्थिरता पैदा करती है और ऊल-जलूल व्यवहार में अपनी अभिव्यक्ति पाती है।

समस्या यह भी है कि आजकल मानसिक चिकित्सा के नाम पर भी व्यापारिक और सतही मानसिकता हावी है। इस ओर गंभीर प्रयासों का अभाव है। मनोवैज्ञान और शारीरिक चिकित्सा को आपस में गड्ड-मड्ड कर दिया गया है और मानसिक रोगी के मनोवैज्ञानिक अध्ययन और कौंसिलिंग का अभाव नज़र आता है। रोगी और मनोचिकित्सक दोनों के पास समय और मनोव्यवहार की गहराई टटोलने की समझ का अभाव है, और परिणति तात्कालिक ईलाज़ यानि मष्तिष्क को सुन्न कर मानसिक क्रिया व्यवहार को स्थगित करने की प्रवृति के रूप में सामने आ रही है।

ये दवाइयां उन्हें इसकी लत ड़ालती है और रोगी, संबंधियों और मनोचिकित्सक, सभी को अपने मुफ़ीद लगती हैं। असली मनोवैज्ञानिक सवाल पृष्ठ्भूमि में ही रह जाते हैं।.....
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नारीयां क्यो बनाती हैं यौन संबंध? एक....प्रविष्टि पर ‘साईब्लॉग’ पर टिप्पणी:

...आपने एक रोचक विषय उठाया है, कम से कम पुरूषों के लिए तो है ही।

पुरूषप्रधान समाज की मानसिकता इसे ऐसे ही रूप में लेने को अभिशप्त है, जैसा कि विवेक और जाकिर भाई की टिप्पणियों से जाहिर होता है। भले ही यह आपका मंतव्य रहा हो या नहीं।

इसलिए समझदारी का तकाज़ा कहता है कि प्रस्तुति और विश्लेषण का तरीका ऐसा होना चाहिए कि यह सिर्फ़ प्रचलित मानसिकताओं की सनसनीखेज़ तुष्टि का जरिया भर बन कर ना रह जाएं बल्कि एक सहिष्णु यथार्थ समझ की सही दिशा की राह प्रशस्त करता हो।

शरद कोकास एक गंभीर इशारा जरूर कर रहे हैं पर वहां भी यौन संबंधों का हथियारगत इस्तेमाल अवश्य ही मिलेगा।पुरूष प्रधान समाज में स्त्री के अधिकार सीमित हैं। स्त्री पुरूष के लिए संपत्ति है और इसके अनुरूप ही भोग्या सामग्री। उसके लिए यौन संबंध यौन तुष्टि के साथ-साथ अपनी सत्ता के प्रस्फुटिकरण और प्रदर्शन का साधन भी हैं। इसीलिए वह यौन संबंधों के लिए अवसरवादी है और अपनी सत्ता और स्त्री की निर्भरता के चलते अवसरों की संभावनाएं भी खूब रखता है।

इस सारे जंजाल में स्त्री व्यक्तित्व की आधिकारिक उपस्थिति कहीं भी अभिव्यक्त नहीं होती। इसीलिए वह वह बराबरी के, प्रेम के, भावनात्मक संबंधों के अवसरों के लिए हमेशा प्रतीक्षारत रहती है।

स्त्री के व्यक्तित्व का यही खालीपन, लंपट पुरूषों के लिए और अधिक अवसर उपलब्ध कराता है। और फिर धोखा, छल, मोहभंग जैसी अवस्थाओं की परिणति अस्तित्व में आती हैं।

स्त्री केवल यौन तुष्टि के उपकरण के रूप में अपनी पुरजोर उपस्थिति दर्ज़ कर पाती है। पुरूष जब कभी भावुकता में भी होता है तो इसकी परिणति यौन संबंध तक खींच ले ही जाता है।

कुलमिलाकर लाबलुब्बेआब यह कि सामान्यतया स्त्री के लिए पुरूष की यह यौन जरूरत और उसकी पूर्ति के लिए स्त्री की भौतिक उपस्थिति की आवश्यकता उसके लिए एक हथियार की तरह उभरने की संभावना पैदा करती है जिसका कि इस्तेमाल तात्कालिक रूप से अपना मनोइच्छित प्राप्त करने में किया जा सकता है।

इसी की अभिव्यक्ति, जैसा कि इस आलेख में जिक्र है, भौतिक वस्तुओ, उसके क्रियाकलापों में सहायता और भावनात्मक संतुष्टि को यौन संबंधों के जरिए प्राप्त करने के रूप में होती है।

जहां बराबरी के से संबंधों की उपस्थिति होती है, वहां फिर भी इनके पृष्ठभूमि में होने की संभावनाएं हो सकती हैं।

मनुष्य की यौन संबंधों की सहज और प्राकृतिक जरूरत इसी व्यवस्थागत रूप के चलते विकृतियों के लिए अभिशप्त है।.....
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आशा है कि कई विषयों पर चिंतन हेतु आपके दिमाग़ को निश्चित ही कुछ ख़ुराक तो मिली ही होगी।
आप चाहे तो किसी पर भी संवाद को आगे बढ़ाया जा सकता है।

शुक्रिया।

समय
समय के साये में - आपके दिमाग़ से रूबरू आपकी ज़िंदगी का आईना

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार भूतद्रव्य (Matter) की परिभाषा और मंतव्य पर चर्चा की गई थी।
आज यहां यह देना काफ़ी दिलचस्प हो सकता है कि भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?

आज की चर्चा का यही विषय है। समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?

अतीतकाल से ही लोग यह सोचने-विचारने लगे थे कि उनके गिर्द विद्यमान वस्तुएं किससे निर्मित हैं और कि उनका कोई सार्विक (Universal) नियम या आधार है या नहीं।

प्राचीन यूनान के पुरानतम दार्शनिकों ने अपनी अटकलों को दैनिक जीवन के अनुभवों तथा प्रेक्षणों पर आधारित किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि पानी ही हर चीज़ का मूल तत्व है। बाद के कुछ दार्शनिक वायु को सबका मूल तत्व समझते थे। फिर सूर्य की दिव्य अग्नि के विचार के चलते आग में सबका मूलतत्व देखा गया। और आगे इन मूलतत्वों में मिट्टी को भी जोड़ दिया गया और यह समझा गया कि सब कूछ इन चार तत्वों से निर्मित है और वही भूतद्रव्य है। किंतु अरस्तु के दृष्टिकोण से यह भूत्द्रव्य निष्क्रिय और अनाकार है और उसे रूप प्रदान करने के लिए एक विशेष बल की आवश्यकता होती है।

प्राचीन भारत में भी लगभग इसी तरह का दृष्टिकोण उभर कर आया, जिसके कि अनुसार सब कुछ पंच तत्वों से निर्मित है। यहां आकाश को भी एक स्वतंत्र तत्व के रूप में सम्मिलित किया गया।

यूनान के दार्शनिक ल्युकिपस और डेमोक्रिटस ( लगभग ५०० ईसा पूर्व ) अदृश्य परमाणु को विश्व का आधार मानते थे। भारत में कणाद का परमाणुवाद भी यही निष्कर्ष स्थापित कर रहा था। लेकिन परमाणु के अस्तित्व की यह कल्पना कहा से पैदा हुई? साधारणतयः हवा में धूलिकणों को नहीं देखा जाता, परंतु अंधेरे में किसी दरार या छिद्र से आती रौशनी में अनगिनत कण किसी भी बाह्य आवेग के बिना चलते-फिरते नज़र आते हैं। अतः परमाणुवादियों ने दलील दी कि परमाणुओं को भी नहीं देखा जा सकता, किंतु ‘मानसिक दृष्टि’ या तर्कबुद्धि से उनकी कल्पना की जा सकती है, वे हमेशा विद्यमान रहते हैं और एक अनवरत गति उनमें अंतर्निहित होती है| यह दलीलें काफ़ी लंबे समय तक मात्र अटकलें ही बनी रही।

मध्ययुगीन दर्शन भौतिक जगत को दैवी रचना का फल मानता था। हर भौतिक वस्तु नीच, जघन्य और पापमय, अतः ध्यान के अयोग्य मानी जाती थी। यहां तक कि कई दार्शनिक धाराओं में तो संपूर्ण वस्तुगत जगत को ही माया, भ्रम घोषित कर दिया गया।

१७ वीं और १८ वीं शताब्दियों में विज्ञान के विकास के बाद ही विश्व की भौतिक प्रकृति एक बार फिर से दर्शन के ध्यान का केन्द्रबिंदु बनी। फ़्रांसीसी दार्शनिक देकार्त, अंग्रेज भौतिकविद न्यूटन और रूसी वैज्ञानिक लोमोनोसोव सूक्ष्म और कठोर कणिकाभ गोलियों जैसे गतिमान कणों को भूतद्रव्य का आधार मानते थे। चूंकि उस वक्त यांत्रिकी प्रमुख वैज्ञानिक शास्त्र था, और वह पदार्थों के विस्थापन और अंतर्क्रिया का अध्ययन करती थी इसलिए ‘भूतद्रव्य’ (Matter) की संकल्पना को ‘पदार्थ’ (Substance) के तदअनुरूप ही समझा जाता था। पदार्थ के सारे अनुगुण भूतद्रव्य पर आरोपित कर दिये गए।

१९ वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरूआत में भौतिक क्षेत्रों (विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र, गुरुत्व क्षेत्र) जैसी नयी घटनाओं की खोज ने भूतद्रव्य की समझ को आमूलतः बदल दिया। भूतद्रव्य की, निष्चित द्रव्यमान व ज्यामितिक आकार वाले ‘पदार्थ’ की समरूपी व्याख्या इस समझ के लिए रुकावट थी कि भौतिक क्षेत्र भी भूतद्रव्य का ही विशिष्ट रूप है। भौतिक क्षेत्रों की सारी आश्चर्यजनक विशेषताओं के बावजूद वे परमाणुओं और मूल कणों की भांति ही मनुष्य की चेतना से परे और स्वतंत्र रूप से विद्यमान हैं

यही वह एकमात्र तथा निर्णायक लक्षण है जो इस बात का उत्तर देना संभव बनाता है कि क्या भौतिक है और क्या अभौतिक, यानि प्रत्ययिक है। एक खंभे में द्रव्यमान होता है, वह प्रकाश के लिए अपारगम्य होता है, परंतु उसकी छाया के लिए ये दोनों बाते लागू नहीं होती। फिर भी खंभा और उसकी छाया भौतिक हैं, क्योंकि वे वस्तुगत रूप से मनुष्य की चेतना से परे विद्यमान हैं।

भूतद्रव्य की अधिभूतवादी (Metaphysical) तथा यांत्रिक (Mechanical) संकल्पनाएं इसलिए भी सीमित व असत्य थीं कि उन्हें यांत्रिकी तथा भौतिकी के बाहर लागू करना असंभंव था। मानवसमाज तथा सामाजिक संबंधों का चित्रण पदार्थ के अनुगुणों के अनुरूप नहीं किया जा सकता। इसलिए भूतद्रव्य की पहले की संकल्पनाओं और समझ को सामाजिक प्रक्रियाओं और इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना की रचना के लिए भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था।

किंतु मनुष्य की पहली दिलचस्पी की चीज़ समाज तथा उसका जीवन है, खास तौर पर महती सामाजिक रूपांतरणों के इस युग में, जब प्रश्न यह पैदा होता है कि आरंभ करने के लिए क्या आवश्यक है- भौतिक सामाजिक संबंध या आत्मिक जीवन की घटनाएं। यही कारण है कि भूतद्रव्य की इस ( पिछली पोस्ट में वर्णित ) समसामयिक परिभाषा ने वैज्ञानिक तथा दार्शनिक अर्थ भी ग्रहण कर लिया है।
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आज इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

समय के साये में - आपके दिमाग़ से रूबरू आपकी ज़िंदगी का आईना

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

दार्शनिक संकल्पना - भूतद्रव्य ( Matter ) के मंतव्य

हे मानवश्रेष्ठों,

श्रृंखला पर लौटते हैं।
जैसा कि पिछली चर्चाओं में हमने देखा था कि दर्शन का बुनियादी सवाल भूतद्रव्य (Matter) और चेतना (Consciousness) के सवाल, इनके अंतर्संबंधों और प्राथमिकता के सवाल से जुड़ा था।

अतएव यह समीचीन होगा कि इन संकल्पनाओं, भूतद्रव्य और चेतना पर, पहले चर्चा कर ली जाए, इन्हें पहले सुपरिभाषित कर लिया जाए।

आज की चर्चा का यही विषय है। समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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मनुष्य अत्यंत भिन्न वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं की अनगिनत विविधताओं से घिरा हुआ है: जानवर और पौधे, विभिन्न यंत्र और औजार, रासायनिक यौगिक, कला वस्तुएं, प्रकृति की घटनाएं, आदि। हम जानते हैं कि सारी वस्तुएं अणुओं तथा परमाणुओं से बनी हैं और दृश्य ब्रह्मांड़ में अरबों-खरबों तारे, तारकीय निहारिकाएं तथा आकाशगंगीय प्रणालियां हैं।

पहली नज़र में वे सब असंबंधित वस्तुओं तथा घटनाओं का विषम संग्रह जैसा जान पड़ती हैं। इसीलिए दुनिया अक्सर लोगों को एक रेलपेल जैसी, सांयोगिक वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं की उलझी हुई गुत्थी जैसी नज़र आती है, जिनके मध्य मनुष्य रेगिस्तान में खोया-खोया सा लगता है।

किंतु सारी वस्तुओं और घटनाओं के बीच उनकी सारी विभिन्नताओं के बावजूद एक सर्वनिष्ठ विभेदक लक्षण है, अर्थात वे सब मनुष्य की चेतना के बाहर तथा उससे स्वतंत्र रूप से विद्यमान हैं। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के गिर्द वस्तुओं और प्रक्रियाओं की दुनिया एक वस्तुगत यथार्थता (Objective Reality) है।

इसी वस्तुगत यथार्थता को अभिव्यक्त करने वाली संकल्पना ‘भूतद्रव्य’ को वैज्ञानिक रूप में इस तरह परिभाषित किया जाता है: भूतद्रव्य, मनुष्य की चेतना से स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान, और मनुष्य द्वारा उसके संवेदनों (Sensation) द्वारा अनुभूत, वस्तुगत यथार्थता को अभिव्यक्त करने वाला एक दार्शनिक प्रवर्ग है।

यहां, मनुष्य की चेतना से परे तथा स्वतंत्र रूप से विद्यमान वस्तुगत यथार्थता, और इसके लिए प्रयुक्त दार्शनिक संकल्पना (Concept) या प्रवर्ग (Categories) के बीच अंतर करना आवश्यक है। उन्हें परस्पर उलझाना नहीं चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे कि एक वास्तविक, वस्तुगत मोटरकार तथा उसकी संकल्पना ‘मोटरकार’ को। एक वास्तविक मोटरकार को चलाकर ले जाया सकता है, लेकिन उस ‘मोटरकार’ को नहीं चलाया जा सकता है, जो संकल्पना की शक्ल में मनुष्य के दिमाग़ में होती है।

इस परिभाषा से निष्कर्ष निकलता है कि:

० ‘भूतद्रव्य’ का आशय है मनुष्य के गिर्द विद्यमान संपूर्ण विश्व, वह हर चीज़ जो चेतना नहीं है, वह हर चीज़ जो चेतना से परे है, उससे बाहर अस्तित्वमान है।

० इस संकल्पना का गुणार्थ यह है कि किसी भी भौतिक वस्तु, अनुगुण, संबंध या प्रक्रिया का एकमात्र और सबसे महत्वपूर्ण लक्षण उसकी वस्तुगतता तथा चेतना से उसकी स्वाधीनता है।

० प्रवर्ग ‘भूतद्रव्य’ प्रकृति तथा समाज दोनों की घटनाओं पर, मनुष्य चेतना के बाहर अस्तित्वमान और होने वाली, तथा चेतना से स्वतंत्र सामाजिक प्रक्रियाओ पर लागू होता है।

० मनुष्य द्वारा सारी भौतिक प्रक्रियाओ तथा घटनाओं का संज्ञान अथवा उसकी चेतना द्वारा उनका परावर्तन, संवेदनों तथा संवेदन-प्रत्यक्षणों के जरिए होता है।
इनमें केवल वे ही वस्तुएं तथा घटनाएं शामिल नहीं है, जिनका प्रत्यक्षण मनुष्य अपने श्रवण, दृश्य, स्पर्श या गंध संवेदनों से कर सकता है, बल्कि वे भी शामिल हैं, जिनके लिए उन अत्यंत जटिल आधुनिक उपकरणों ( दूरदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, राड़ार आदि ) की जरूरत होती है जो मनुष्य के संवेदन अंगों की क्षमताओं को कई गुना बढ़ा देते हैं।

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आज इतना ही।
अगली बार देखेंगे कि भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

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शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

भाषा और इसकी सरलता के असली मंतव्य

हे मानवश्रेष्ठों,

आज फिर श्रृंखला को तोड़ते हैं।
पिछली चर्चा पर मानवश्रेष्ठ सिद्धार्थ जोशी की कृपापूर्ण टिप्पणी में भाषा और सरलता संबंधी कई महत्वपूर्ण बातें कही गई थीं। उनकी बातों से लगभग सहमत होते हुए भी समय को लगा कि इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अपने मंतव्य भी स्पष्ट करने चाहिए। जोशी जी को धन्यवाद कि उनके इस संवाद की वज़ह से समय को यह अवसर प्राप्त हुआ।

उनकी टिप्पणी पिछली पोस्ट पर देखी जा सकती है, समय उन्हीं से संवाद रूपी चर्चा को यहां आगे बढा रहा है। आप भी इससे गुजर कर कई महत्वपूर्ण इशारे पा सकते हैं, और चर्चा को आगे बढ़ा सकते हैं।
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सिद्धार्थ जी,
आप समय के नियमित पाठक हैं, साथी हैं। यह समय के लिए निश्चित ही सुकून की बात है।

आपने यहां भाषा के संदर्भ में एकदम सही बात उठाई है। भाषा सही कहा गया है कि सीखी जाती है। बच्चों को सिखाते समय उनके स्तर का ध्यान रखा जाता है। इसीलिए भाषा का संधान एक निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया है। आपने सही प्रश्न उठाया कि हम बुद्धि वाले लोग भी थोड़ी सी क्लिष्ट भाषा को क्यों नहीं समझ पाते?

उत्तर भी आपने उचित ही दिया है कि दोष भाषा का नहीं बल्कि उसको सुन-पढ़ और समझने की कोशिश कर रहे व्यक्ति की उस भाषा विशेष संबंधी वोकैब्यलैरी यानि शब्दभंडा़र की कमी का है। उसे उस भाषा संबंधी अध्ययन के लिए अपने शब्दभंड़ार का निश्चित ही विकास करना चाहिए। इससे उसकी उस भाषा पर पकड़ और संप्रेषणीयता में निश्चित ही वृद्धि होगी।

यदि यह बात आपने अपने लिए और थोड़ा सा परिपक्व पढ़े-लिखे पाठकों के संदर्भ में उठाई है, तो यह बिल्कुल किया ही जाना चाहिए। आपको और हम बुद्धि वाले लोगों को अपने शब्दभंड़ार में बढ़ोतरी करनी ही चाहिए, ताकि संप्रेषण सटीक रहे। आखिर ज़िंदगी भर तो एक बच्चे को पानी या जल की जगह मम-मम नहीं बोलने दिया जा सकता ना? आपने लगभग ऐसी ही बात कही है।

आमजन से संवाद निश्चित ही इस भाषा में नहीं किया जा सकता। जाहिर ही है कि वहां अपनी बात कहने के लिए हमें आमजन के शब्दभंड़ार और समझ, उनकी अभिव्यंजनाओं और भाषाई मुहावरों को पकड़ना पड़ेगा। तभी संवाद स्थापित हो सकता है, और एक बार संवाद स्थापित हो जाने के बाद फिर उनकी चेतना के स्तर के परिष्कार की, भाषाई समृद्धि की और इसके जरिए उनके समझ के स्तर के परिष्कार की कोशिशें शुरू हो सकती हैं। आखिर किसी भी व्यक्ति की समझ और ज्ञान का स्तर उसके द्वारा प्रयोग में ली जा रही भाषा और शब्दभंड़ार के स्तर से ही तय होता है।

यानि भाषा की सरलता शुरूआत के लिए, संवाद के लिए, जुड़ाव के लिए होनी चाहिए। समय जब आमजन के साथ होता है तो हल्की-फुल्की और गंभीर चर्चाएं भी होती हैं, और वहां यह ध्यान रखने की आवश्यकता भी नहीं होती क्योंकि वही भाषा इस्तेमाल होती है।

हम यहां जाहिरा तौर पर आमजन से संवाद स्थापित नहीं कर रहे हैं। अगर आपको यह गलतफ़हमी है तो उसे समझना और दूर कर लेना चाहिए। आमजन तक तो रोटी, कपड़ा,पानी और बिजली ही नहीं पहुंच पा रही, उसकी नेट और फिर आपके-हमारे ब्लॉगों तक पहुंच हो पाना अभी किसी सपने की ही तरह है। हम उच्च मध्यमवर्गीयों के लिए अपने सुविधासंपन्न कोठरों की निश्चिंतता में कई शब्दों और भाषाई प्रयोगों के मतलब भी बदल गए हैं।

अगर आप कंप्यूटर और नेट तक पहुंच रखने वाले, तथाकथित पढ़े-लिखे और दुनिया को समझने वाले गंभीर विषयों से अभी तक बहुत दूर रहने वाले, ब्लॉग के आम मध्यमवर्गीय पाठकों और ब्लॉगरों के संदर्भ में यह बात कहना चाह रहे हैं, तो मुआफ़ कीजिएगा वह विश्लेषण ज़्यादा सटीक नहीं है।

आमजन में सिर्फ़ पैठ बनाकर अपनी दुकान चलाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों, आम भाषाई मुहावरों में आमजन के बाज़ार में घुसपैठ कर मुनाफ़ा कमाने की आकांक्षाएं रखने वाली बाज़ारू शक्तियों से, सही सरोकार रखने वाले हम बुद्धि वाले लोगो के क्रियाकलापों और क्रियाविधियों में कहीं तो अंतर रखना ही होगा ना। क्या हमारा उद्देश्य केवल अपना और अपने विषय के प्रचार के जरिए लोकप्रियता पाना और फिर उसके जरिए श्रेष्ठता बोध की तुष्टी पाना और इस लोकप्रियता को इस हेतु और सिक्कों की खनक के रूप में भुनाना भर है?

जिन्हें आमजन से फ़ायदा उठाना और अपना मतलब साधना होता है वे इन लोकप्रिय रूपों का प्रयोग करते हैं, उनके स्तर तक पहुंचते हैं, उनके मनमाफ़िक रहने वाली बाते करते हैं फिर अपना मुनाफ़ा समेटकर अपने वातानुकूलित महलों में अंग्रेजी चर्चाओं में मशगूल हो जाते हैं। उनका उद्देश्य यही होता है, और आमजन की चेतना के परिष्कार-फरिष्कार, या उनकी समस्याओं के निबटारे या किसी भी तरह के व्यवस्थागत और सामाजिक बदलाव की कोई भी मंशा उनके ज़ेहन में नहीं होती। इसे आप गांधीगिरी, फ़िल्मों, हिंग्लिश के प्रयोग, और हिंदी के दिखावटी प्रयोग के संदर्भों में रखकर देख सकते हैं।

जिन्हें आमजन की चेतना के परिष्कार के जरिए सामाजिक और व्यवस्थागत बदलावों के हेतु आमजन को लामबंद करने का महती कार्य जरूरी लगता है, वे आमजन तक उसके स्तर तक पहुंचते हैं, उसकी तकलीफ़ों में शामिल होते हैं और उनकी समझ का स्तर ऊपर उठाकर, अपने रास्ते ख़ुद तलाशने की योग्यता पैदा करने का उद्देश्य सामने रखते हैं।

इसीलिए यह आवश्यक है कि हम भी अपनी भाषा को थोड़ा सहज करें जहां हो सकता है, और थोड़ा अवसर भी रखें ताकि ब्लॉग जगत का आम पाठक भी अपने शब्दभंड़ार को समृद्ध कर, अपनी समझ का परिष्कार कर सके। जिसे इसकी भौतिक और मानसिक जरूरत महसूस होती है, वह ज्ञान को समझने के अपने रास्ते खु़द तलाशता है। जिनका उद्देश्य सिर्फ़ मनोरंजन, समय गुजारना, अपनी जैसी-तैसी अभिव्यक्ति के जरिए या सिर्फ़ हंगामाखेज़ व्यवहार से वाह-वाही पाकर अपने श्रेष्ठता बोध को तुष्ट करना होता है, वे गंभीर संवादों और चर्चाओं में पड़ते भी नहीं है, कभी-कभार गलतफ़हमियों के चलते फंस भी जाए तो जल्द ही किनारा कर लेते हैं।

यह सही है कि कभी-कभी समय को भी ऐसा लगता है कि कई क्लिष्ट शब्द अनावश्यक रूप से, क्लिष्ट भाषाई अध्ययनों के अभ्यासवश घुस गये हैं। उनसे मुक्ति पाना समय का अभीष्ट है, आप इस ओर लगाता चेताते रहते हैं, समय आपका बहुत-बहुत आभारी है।

आपने यह भी देखा होगा कि जब यहां सामान्य विषयों पर चर्चा की जाती है तो शव्दावली सापेक्षतः सरल और सहज रहती है। दर्शन या और ऐसे ही किसी गूढ़ और गंभीर विषय पर चर्चा करते समय चूंकि मतलब का सटीक होना और वही होना जो उसका मतलब होना चाहिए तथा यह भी कि कोई ऐसा भाषागत लूपहोल्स ना रह जाएं जिससे कि उसका खंड़न या उस पर विवाद पैदा किया जा सके, भाषा थोड़ी सधी हुई तथा क्लिष्ट हो जाती है क्योंकि यह संदर्भ किया जा सकने वाला विवेचन होता है।

ऐसे दार्शनिक ज्ञान के अध्ययन और मनन के बाद प्राप्त समझ के अनुसार फिर साधारण भाषा में बात की जा सकती है, समय करता भी है, तथा आगे यहां और कोशिशें भी होती ही रहेंगी।

शुक्रिया।
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समय अगली बार अपनी श्रृंखला को आगे बढ़ाएगा ही।
संवाद और जिज्ञासाओं का हमेशा स्वागत रहता है ही।

समय

शनिवार, 26 सितंबर 2009

दर्शन : संकल्पनाएं और प्रवर्ग

हे मानवश्रेष्ठों,
दार्शनिक शब्दावलियों, संकल्पनाओं से परिचय की इस श्रृंखला में आज कुछ और संकल्पनाओं से परिचय करते हैं। उनकी निश्चित परिभाषाओं से गुजरते हैं।

जब मनुष्य अपनी संवेदनाओं और ज्ञान को समृद्ध करता है तो उसकी भाषा में जटिल परिस्थितियों और क्रियाकलापों के लिए थोडे़ क्लिष्ट शब्द जुड़ते चले जाते हैं, क्योंकि पारंपरिक सरल शब्दावली इनका सही और सुनिश्चित परावर्तन करने में सक्षम नहीं रह जाती। कई बार मनुष्य, बिना इनका सही अर्थ समझे, क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग प्रचलन के अंतर्गत करने लगते हैं और अपने विचारों का सटीक निरूपण नहीं कर पाते।

चलिए संकल्पना शब्द से ही शुरू करते हैं
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जब मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन की कुछ घटनाओं या सार्वजनिक मामलों के बारे में बहस करते हैं या किसी समस्या पर सोच-विचार करते हैं, तो वे संकल्पनाओं के जरिए अपने इरादों, इच्छाओं और विचारों को व्यक्त करते हैं। सामान्य जीवन में मनुष्य ‘शिशु’, ‘मकान’, ‘जूते’, ‘टेलीविजन’, आदि संकल्पनाओं का उपयोग करते हैं, उद्योग में ‘मशीन’, ‘श्रमिक’, ‘उत्पाद’ आदि संकल्पनाओं का प्रयोग होता है, इनके अलावा विशिष्ट वैज्ञानिक संकल्पनाएं भी हैं जैसे ‘इलैक्ट्रोन’, ‘रासायनिक क्रिया’, आदि।

प्रत्येक संकल्पना एक अलग शब्द या शब्दों के योग से व्यक्त की जाती है जो बाह्य जगत की वस्तुओं या प्रक्रियाओं को सामान्यीकृत करते हैं। ये वस्तुएं और प्रक्रियाएं संकल्पना के आशय हैं और जो लक्षण उनके महत्वपूर्ण अनुगुणों का वर्णन करते हैं तथा जिनसे हम उन्हें अन्य वस्तुओं या प्रक्रियाओं से विभेदित करते हैं, वे संकल्पनाओं के गुणार्थ हैं।

जैसे "मनुष्य" संकल्पना का आशय जीवित मनुष्यों का संपूर्ण समुदाय है तथा इसका गुणार्थ इस पद से व्यक्त किया जा सकता है: एक बुद्धिसंपन्न सामाजिक प्राणी, जो श्रम औजारों की मदद से अन्य श्रम औजारों तथा विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करने और प्रकृति में बदलाव करने में समर्थ है।
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दर्शन की भी ऐसी ही विशेष संकल्पनाएं हैं, जिन्हें दार्शनिक प्रवर्ग या केवल प्रवर्ग कहते हैं। प्रवर्गों तथा अन्य वैज्ञानिक व दैनिक जीवन की संकल्पनाओं के बीच मुख्य अंतर यह है कि प्रवर्गों का आशय अत्यंत व्यापक होता है। दार्शनिक प्रवर्ग मनुष्य के गिर्द विश्व की सारी घटनाओं से संबंधित होते हैं।

चूंकि प्रवर्ग अत्यंत व्यापक, सर्वसमावेशी, सार्विक संकल्पनाएं हैं जो प्रकृति, समाज और चिंतन में अस्तित्व, गति तथा घटनाओं के विकास की सामान्य, सार्विक दशाओं को व्यक्त करती हैं, अतएव इनका सुपरिभाषित होना अत्यंत आवश्यक है।

यदि कोई संकल्पना सही-सही परिभाषित नहीं है, या तो बहुत व्यापक है या बहुत संकीर्ण, और उसका अर्थ या तो विसरित है या अस्पष्ट, तो उसका आशय निश्चित नहीं किया जा सकता है। ऐसी संकल्पनाओं को वैज्ञानिक, व्यावहारिक और सामाजिक क्रिया-कलाप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वे गलतियों तथा उलझन की तरफ़ ले जाती हैं।

अतएव दर्शन की, दुनिया की सही समझ को विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि सर्वप्रथम उसकी संकल्पनाओं और प्रवर्गों को ठीक-ठीक परिभाषित किया जाए और उन्हें सटीक बनाया जाए। इनमें सबसे महत्वपूर्ण और व्यापकतम प्रवर्ग हैं "भूतद्रव्य" और "चेतना", जिन्हें लेकर दर्शन के बुनियादी सवाल को पिछली पोस्टों में निरूपित किया गया था।
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उपरोक्त बात सामान्य ज़िंदगी में भी लागू होती है, मनु्ष्य की भाषा में प्रयुक्त संकल्पनाएं जितना ही सुपरिभाषित और स्पष्ट होंगी, उसकी समझ और दृष्टिकोण भी उतना ही स्पष्ट और सटीक होगा।

सामन्यतयः प्रचलित चलताऊ प्रवृत्तियों में संकल्पनाओं को जब सुपरिभाषित नहीं किया जाता तो कैसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती है, इसका अंदाज़ा वर्तमान भारतीय परिवेश में आसानी से लगाया जा सकता है।

जैसे कि यहां, ‘धर्म’, ‘आत्मा’, ‘हिंदुत्व’, साम्प्रदायिकता’, ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘भौतिकवादी’, ‘ आदर्शवादी’, ‘ज्ञान’, ‘अध्यात्म’, ‘राष्ट्र’ आदि-आदि कई संकल्पनाओं के संदर्भ में होता है। सामान्य जीवन में इनका सुपरिभाषित रूप पहुंच में नहीं है, यूं भी कहा जा सकता है कि इनका सुपरिभाषित रूप उपलब्ध ही नहीं है, अतएव अधिकतर लोग अपने मंतव्यों के हितार्थ इनका मनचाहा आशय निकालते हैं, विभिन्न-विभिन्न रूप से व्याख्यायित करते हैं और अपनी तद्‍अनुकूल दुकानदारी चलाते हैं। इनके मामलों में सबकी अपनी-अपनी अनुकूलित समझ है, और अक्सर इनको सार्विक रूप से परिभाषित नहीं किया जाता। ऐसी परिस्थितियों में प्रभुत्व प्राप्त या प्रभुत्व आकांक्षी व्यक्तियों या समूहों द्वारा आम जन को बरगलाया जाना आसान हो जाता है। यहां समय सिर्फ़ इशारा कर रहा है, बाकि स्वयं ही समझा जा सकता है।
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आज इतना ही।
अगली बार हम उपरोक्त प्रवर्गों पर ही अपनी चर्चा आगे बढ़ाएंगे।

संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

शनिवार, 19 सितंबर 2009

दर्शन की अध्ययन विधियां - द्वंदवाद और अधिभूतवाद

हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार दर्शन के बुनियादी सवाल और उसके जवाबों के अनुसार पैदा हुई दर्शन की भौतिकवादी और प्रत्ययवादी प्रवृत्तियों पर चर्चा की गई थी।
इस बार इन दोनों मुख्य प्रवृत्तियों द्वारा काम में ली जाने वाली तर्कणा और प्रमाणन की भिन्न-भिन्न अध्ययन विधियों को समझने की जुगत भिड़ाते हैं।
समय यहां मानवजाति के अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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मनुष्य के गिर्द विद्यमान विश्व अविराम बदल रहा है, गतिमान और विकसित हो रहा है। इनमें से कुछ परिवर्तनों की तरफ़ ध्यान नहीं जाता, जबकि कुछ अन्य मनुष्यजाति तथा समग्र प्रकृति के लिए बहुत महत्त्व के होते हैं। असीम ब्रह्मांड अनवरत गतिमान है। यह भूमंडल, यह पृथ्वी निरंतर परिवर्तित हो रही है। जीव-जंतु व वनस्पतियां भी रूपातंरित हो रही हैं। अपने क्रमविकास की लंबी राह में मनुष्य और समाज में निरंतर परिवर्तन होते रहे हैं।
इस दुनियां में जीवित बचे रहने, उसके अनुकूल बन सकने और अपने लक्ष्यों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप इसे बदलने के लिए मनुष्य को इसकी विविधता का अर्थ जानना और समझना होता है। प्राचीनकाल से ही लोग इन प्रश्नों में दिलचस्पी रखते हैं, जैसे विश्व क्या है और इसमें किस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं? क्या विभिन्न वस्तुओं के बीच कोई संयोजन सूत्र है? विश्व गतिमान क्यों है और इस गति का मूल क्या है?
फलतः ये प्रश्न कि "क्या गति का अस्तित्व है?" और "इस गति का क्या कारण है?" दर्शन के सामने एक और अधिक तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न के रूप में पेश आते हैं। गति के सार, उसके कारणों तथा उद्‍गमों की व्याख्या के साथ जुड़े दार्शनिक चिंतन में विश्व के क्रमविकास के स्पष्टीकरण की दो अध्ययन विधियां साकार हुईं, और विश्व को समझने के उपागम की दो विरोधी विधियां बन गईं - द्वंदवाद ( Dialectics ) और अधिभूतवाद ( Metaphysics )
आइए, इन दोनों विधियों के सार की जांच करते हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि इनमें से कौन उपरोक्त प्रश्नों के विज्ञानसम्मत समाधान मुहैया कराती है।
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द्वंदात्मक विधि:
भौतिकवादियों द्वारा प्रयुक्त विधि को द्वंदात्मक विधि कहा जाता है।
संज्ञान की द्वंदात्मक विधि यह मांग करती है कि हमारे गिर्द विश्व की सारी घटनाओं की छानबीन उनके अंतर्संबंधों, अंतर्क्रियाओं तथा उनके सतत विकास की प्रक्रियाओं में की जाए। यह विधि यह मानकर चलती है कि मनुष्य बाह्य जगत तथा स्वयं अपने को केवल तभी जान सकता है, जब वह सारी घटनाओं की जांच तथा अध्ययन उनकी गति में, अंतर्द्वंदों में, सतत परिवर्तन में करे और साथ ही सभी घटनाओं के पारस्परिक संक्रमणों तथा एक दूसरे में उनके पारस्परिक रूपांतरणों पर मुख्य रूप से ध्यान दे।
भौतिकवादी द्वंदवाद के दृष्टिकोण से संपूर्ण विश्व गतिमान और बदलती हुई वस्तुओं का एक समग्र संबंध है। इस सार्विक विश्व संबंध के बाहर न तो किसी अलग-थलग घटना को समझा जा सकता है, न प्रक्रिया को और न ही गति को। इसीलिए द्वंदवाद प्रत्येक विषय, प्रत्येक वस्तु की वैज्ञानिक, वस्तुगत जांच को उसके अधिकाधिक नये पक्षों, रिश्तों और संपर्क सूत्रों को प्रकाश में लाने की एक असीम प्रक्रिया के रूप में देखता है।
यह विधि प्रत्येक तथ्य में विकास के आंतरिक स्रोत का पता लगाने का प्रयत्न करती है। इन स्रोतों को वह अंतर्द्वंदों, अंतर्विरोधों के विश्लेषण में खोजती है, जो प्रत्येक घटना तथा प्रक्रिया के मूल में होते हैं, तथा जिनके आपसी संघर्ष और एकता की वज़ह से ही उस घटना तथा प्रक्रिया का अस्तित्व संभव हो पाता है।
इसके अनुसार विकास का तात्पर्य आवर्तता या एक वृत्तीय गति नहीं है, बल्कि एक वर्तुलाकार ( spiral ) गति है जिसमें नूतन का सतत आविर्भाव होता रहता है, और जो अभिलक्षण पुनरावर्तित होते प्रतीत होते हैं वे पूर्ववर्ती अवस्थाओं से गुणात्मक रूप से भिन्न होते हैं, उनसे उच्चतर अवस्थाओं में होते हैं। विकास के दौरान पुरातन का सतत विखंड़न तथा विलोपन होता है और इस प्रक्रिया में सभी मूल्यवान तथा जीवंत गुणों को संरक्षित रखते हुए नूतन का आविर्भाव होता है।
अधिभूतवादी विधि:
द्वंदवाद की प्रतिपक्षी विधि को अधिभूतवादी विधि कहते हैं।
इसमें प्रत्येक घटना का अलग-थलग ढ़ंग से, घटनाओं के पारस्परिक संबंधों, अंतर्द्वंदों व अंतर्क्रियाओं से अलग करके स्वतंत्र रूप से अध्ययन किया जाता है। यदि उसे इन संबंधों तथा अंतर्क्रियाओं को ध्यान में रखना भी पड़े तो वह सतही तौर पर ही ऐसा करती है। परिवर्तन तथा गति का अध्ययन करते समय अधिभूतवादी विधि वास्तविक विकास को नहीं देखती और इसीलिए प्रकृति, समाज तथा मनुष्य के चिंतन में मूलतः नयी धटनाओं तथा प्रक्रियाओं के उद्‍भव की संभावनाओं को स्वीकार नहीं करती।
इस विधि के अंतर्गत वस्तुओं और परिघटनाओं को अपरिवर्तनीय और एक दूसरे से स्वंतंत्र माना जाता है और इस बात से इन्कार किया जाता है कि आंतरिक अंतर्द्वंद प्रकृति और समाज के विकास के स्रोत हैं।
अधिभूतवादी दृष्टिकोण से विश्व में सब कुछ देर-सवेर पुनरावर्तित होता है, हर चीज़ ऐसे गतिमान होती है, मानो एक वृत में घूम रही हों। इसके अनुसार गति तथा परिवर्तन के स्रोत वस्तुओं और घटनाओं के अंदर नहीं, बल्कि किसी बाहरी प्रेरकों में, उन शक्तियों में निहित होते हैं जो विचाराधीन घटना के संबंध में बाहरी होती हैं।
अधिभूतवादी विधि बाह्य जगत में आमूल गुणात्मक रूपांतरणों और क्रांतिकारी परिवर्तनों को मान्यता नहीं देती, फलतः यह एक विकासविरोधी, यथास्थितिवादी प्रवृत्ति के रूप में समाज के प्रभुत्वशाली लोगों के साथ नाभिनालबद्ध हो जाती है।
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आज इतना ही।
संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय

बुधवार, 16 सितंबर 2009

दर्शन का बुनियादी सवाल और इसकी प्रवृत्तियां

हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार हमने दर्शन और विश्व को देखने के मनुष्य के नज़रिए यानि उसके विश्वदृष्टिकोण के बीच क्या संबंध होता है, इसे समझने की कोशिश की थी।
चर्चा आगे बढ़ाते हैं।
आज हम दर्शन के बुनियादी सवाल से गुजरेंगे।
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प्रत्येक विज्ञान का अपना प्रमुख बुनियादी सवाल होता है, यानि उन घटनाओं और प्रक्रियाओं का परास (range) जिनका वह अध्ययन करता है और अंत में अनुसंधान की उसकी अपनी विशेष विधि होती है। फलतः दर्शन की गहन समझ के लिए जरूरी है कि उसके बुनियादी सवाल, विषयवस्तु तथा अध्ययन-विधि को परिभाषित किया जाए।

जर्मनी के दार्शनिक इमानुएल कांट का विश्वास था कि दार्शनिक को तीन प्रश्नों का उत्तर देना ही चाहिए: "मैं क्या जान सकता हूं?", "मुझे क्या करना चाहिए?" और "मैं किसकी उम्मीद कर सकता हूं?" आइए, यह देखें कि इन तीन प्रश्नों में कोई अधिक सामान्य प्रश्न तो छुपा नहीं है।

वास्तव में मनुष्य सीखता है, उम्मीदें करता है और केवल इसी कारण से कि वह एक मन, चेतना और संकल्प से संपन्न है और अपने इर्द-गिर्द होने वाले सब कुछ का अवबोध व व्याख्या करने में समर्थ है। मनुष्य पेशियों और तंत्रिकाओं का ढे़र मात्र नहीं है, केवल एक शरीर नहीं है, वह जैसा कि प्राचीन काल में कहा जाता था, एक "आत्मा" से भी संपन्न है। सारे विशेष प्रश्नों का उत्तर इस बात पर पूर्णतः निर्भर है कि इस मुख्य प्रश्न का उत्तर किस तरह से दिया जाता है कि आत्मा, चित्त या चेतना क्या है? यह कहां से आती है और अजैव प्रकृति से किस प्रकार जुड़ी है? परिवेशीय जगत के साथ मनुष्य का संबंध क्या है और क्या वह उसे जान तथा परिवर्तित कर सकता है?

यही दर्शन के बुनियादी सवाल का सार है। चूंकि अन्य प्राणियों से भिन्न चिंतनशील, तर्कबुद्धिसंपन्न, सचेत सत्व होने की अपनी विशेषता को लोग बहुत पहले ही जान गए थे, इसलिए विश्व के साथ मनुष्य के संबंध की समस्या को आम तौर पर इस प्रकार निरुपित किया जाता था: सत्व के साथ आसपास की वास्तविकता के या भूतद्रव्य के साथ चेतना और चिंतन का संबंध।

अतः दर्शन का मूल प्रश्न मन और प्रकृति, चेतना और पदार्थ के अंतर्संबंध का प्रश्न है। दर्शन के उपरोक्त बुनियादी सवाल के दो पक्ष हैं जिनके आधार पर दर्शन के क्षेत्र की दिशाओं का निर्धारण होता है। आइए उन्हें समझने की कोशिश करते हैं।
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दर्शन के बुनियादी सवाल का पहला पक्ष:

भूतद्रव्य तथा चिंतन के संबंध पर विचार व्यक्त करते समय यह समुचित प्रश्न पैदा होता है कि इनमें से प्राथमिक कौन है? निर्धारक तत्व कौनसा है? भौतिक जगत या चिंतन और चेतना? दर्शन के बुनियादी सवाल का पहला पक्ष यही है।

हमारा जीवन अनुभव यह दर्शाता है कि प्रत्येक ठोस मामले में इस प्रश्न का उत्तर देना बिल्कुल सहज है। मसलन, चंद्रमा की संकल्पना ( विचार ) तथा उसके कविता बिंबों के प्रकट होने से बहुत पहले ही चंद्रमा विद्यमान था। फलतः यह कहा जा सकता है भौतिक वस्तु ( चंद्रमा ) अपने वैज्ञानिक या कवित्वमय रूप की, यानि चंद्रमा के प्रत्यय ( संकल्पना ) की पूर्ववर्ती थी।

इसके विपरीत चंद्रमा पर साक्षात पदार्पण करने से पहले वहां पहुंचने की कल्पना, साधनों के अभिकल्पन ( design ) का विचार निश्चय ही पहले पैदा हुआ और इसके बाद ही इन्हें मूर्त रूप दिया जा सका। फलतः इस मामले में यह कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक प्रत्यय ( विचार ), रॉकेटों तथा स्वचालित प्रयोगशालाओं के रूप में भौतिक वस्तुओं की रचना का पूर्ववर्ती था।

यदि यह ऐसी ही स्थितियों का मामला होता, तो दर्शन के बुनियादी सवाल का पहला पक्ष निहायत ही सरल होता। लेकिन दर्शन में ऐसे सरल मामलों की पड़ताल नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के प्रति मनुष्य के रुख़ पर विचार किया जाता है। यह स्पष्ट है कि सवाल के इस पहले भाग को समझना और सार्विक रूप में व्याख्यायित करना इतना आसान नहीं है। वास्तव में यह स्पष्ट करना आवश्यक है के ब्रह्मांड़ के संपूर्ण ऐतिहासिक क्रमविकास के पैमाने पर प्राथमिक और निर्धारक है: चिंतन या भौतिक जगत, और मनुष्य के क्रियाकलाप के किसी भी रूप में निर्धारक कौन है? केवल इसी संदर्भ में यह प्रश्न सार्थक है।

इस प्रश्न के उत्तर के अनुसार सारे दार्शनिकगण दो बड़े शिविरों या प्रवृत्तियों - भौतिकवाद ( Materialism ) और प्रत्ययवाद ( Idealism ) - में बंटे हुए हैं। भौतिकवादी इस बात पर जोर देते हैं कि भूतद्रव्य, पदार्थ प्राथमिक व निर्धारिक है और चेतना द्वितीयक तथा निर्धारित है। प्रत्ययवादी ( भाववादी, आदर्शवादी पर्याय शब्द भी काम में लिए जाते हैं ) विचार, चेतना को प्राथमिक और भूतद्रव्य, पदार्थ को द्वितीयक मानते हैं।

दर्शन के इतिहास में ऐसे भी चिंतक हुए हैं, जिन्होनें एक मध्यवर्ती स्थिति अपनाने की कोशिश की। उन्होंने दोनो विश्व तत्वों , अर्थात भूतद्रव्य तथा चेतना के बीच एक प्रकार की समांतरता, स्वाधीनता तथा समानता को मान्यता दी। इन्हें द्वेतवादी कहा जाता है। द्वेतवाद का कोई स्वाधीन महत्व नहीं है क्योंकि इसके महान प्रवक्ता देर-सवेर या तो प्रत्ययवाद की स्थिति पर जा पहुंचे या भौतिकवाद की।

दर्शन के बुनियादी सवाल का दूसरा पक्ष:

जब हम भूतद्रव्य और चिंतन तथा चेतना के बीच संबंध की जांच करते हैं, तो यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या हमारा चिंतन बाह्य जगत का सही-सही संज्ञान प्राप्त कर सकता है, क्या हम अपने आसपास की घटनाओं और प्रक्रियाओं के बारे में सही अंदाज़ा लगा सकते है और कि क्या हम उनके संबंध में सच्ची राह जाहिर कर सकते हैं और अपने निर्णयों तथा कथनों के आधार पर सफलतापूर्वक कर्म कर सकते हैं?

यह प्रश्न कि क्या विश्व संज्ञेय है और अगर ऐसा है, तो किस सीमा तक तथा क्या मनुष्य बिल्कुल सही या लगभग सही ढ़ंग से अपने आसपास की यथार्थता का संज्ञान प्राप्त कर सकता है, उसे समझ तथा उसकी छानबीन कर सकता है। यही दर्शन के बुनियादी सवाल का दूसरा पक्ष है।

विश्व की संज्ञेयता के प्रश्न के उत्तर के अनुसार सारे दार्शनिक दो प्रवृत्तियों में विभाजित हो जाते हैं। एक प्रवृत्ति में विश्व की संज्ञेयता के समर्थक शामिल हैं ( भौतिकवादियों तथा प्रत्ययवादियों की एक विशेष धारा, वस्तुगत प्रत्ययवादियों की एक बड़ी संख्या ) ; दूसरी प्रवृत्ति में इस संज्ञेयता के विरोधी शामिल हैं, जो यह मानते हैं कि विश्व पूर्णतः या अंशतः अज्ञेय है ( वे प्रत्ययवादियों की एक विशेष धारा, आत्मगत प्रत्ययवादी होते हैं )। विश्व की ज्ञेयता के विरोधियों को सामान्यतः अज्ञेयवादी कहते हैं।
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अधिकांश लोग साधारण जीवन के व्यवहार में स्वाभाविक तथा अचेतन रूप से भौतिकवादी होते हैं। वे ज़िंदगी के भौतिक पक्ष से भली-भांति परिचित होते हैं और अपने दैनन्दिनी कार्यकलापों में भौतिक सिंद्धांतों से परिचालित होते हैं। यह बात दीगर है कि जब जीवन से जुड़ी जिन चीज़ों में अनिश्चितता या असुरक्षा शामिल हो जाती है, तब वे पारंपरिक रूप से प्राप्त अपनी समझ के हिसाब से प्रत्ययवादी चिंतन का सहारा लेते हैं।

इसलिए समस्त भौतिकवादी गतिविधियों के बाबजूद, प्रत्ययवादी चिंतन के अस्तित्व में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। प्रत्ययवाद के उद्‍भव का कारण सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियां हैं। प्राचीन काल में जिन प्रांरभिक दार्शनिक मतों का जन्म हुआ, वे उन दशाओं में विकसित हुए, जब धर्म का प्रभाव बहुत ही प्रबल था। अधिकांश धार्मिक मतों के अनुसार, विश्व की रचना एक ईश्वर या देवताओं के द्वारा, अभौतिक, आध्यात्मिक, सर्वशक्तिमान सत्वों के द्वारा हुई। विश्व के धार्मिक-प्रत्ययवादी स्पष्टीकरण को स्वीकारने वाले अनेक दार्शनिक मतों पर इन विचारों का निश्चित प्रभाव पड़ा था।

फिर क्या कारण है कि वर्तमान युग में जब विज्ञान तथा इंजीनियरी के विकास ने भौतिकवाद की सत्यता की अनगिनत अकाट्य पुष्टियां कर दी हैं, तब भी प्रत्ययवाद ज्यों का त्यों बना हुआ है? मुद्दा यह है कि स्वयं मानव जीवन में और सामाजिक जीवन की दशाओं में प्रत्ययवाद की निश्चित जड़ें विद्यमान हैं। प्रत्ययवाद, प्रभावी वर्गों के विश्वदृष्टिकोण तथा वैचारिकी के साथ जुड़ा है और कुछ सामाजिक शक्तियों के लिए उपयोगी है, क्योंकि यह मौजूदा विश्व व्यवस्था की शाश्वतता तथा निरंतरता के पक्ष में दलीले मुहैया कराता है। यथास्थिति को बनाए रखने और सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तनों को गैरजरूरी सिद्ध कर उनकी धार को कुंद करने के लिए कटिबद्ध होता है। यह सत्ता से नाभिनालबद्ध है इसीलिए उसे भरपूर प्रश्रय, संजीवनी और प्रचार मिलता है।
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आज के लिए काफ़ी हो गया।
अब काफ़ी आधारभूत सामग्री हो गई है जो दर्शन के अवबोध के लिए एक सुसंगत स्थिति पैदा करने में सक्षम लगती है।

अगली बार दर्शन की अध्ययन विधियों पर चर्चा करते हुए आगे बढ़ेंगे।
जिज्ञासाओं और संवाद का स्वागत है।

समय

बुधवार, 9 सितंबर 2009

टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ खुराक-२

हे मानवश्रेष्ठों,
समय यहां श्रृंखला के बीच में कुछ टिप्पणियों को देने की गुस्ताख़ी कर रहा है।
समय का उद्देश्य इन्हें यहां दस्तावेज़ीकृत करना है, और साथ ही उन मानवश्रेष्ठों तक इन्हें पंहुचाना है जो इनसे महरूम रहे हैं। उम्मीद है आपके दिमाग़ को कुछ खुराक मिलने की संभावनाएं तो हैं ही।
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प्रणय संबंध, विज्ञान और कुछ विचार..पोस्ट पर ‘संचिका’ पर टिप्पणी:

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब किसी एक पक्ष के साथ जड़ता से बंधना नहीं होता, वरन वस्तुगतता का सापेक्ष, तार्किक और तथ्यात्मक विश्लेषण करने की योग्यता पैदा कर सकने वाले नज़रिए से होता है।

किसी भी दृष्टिकोण या सिद्धांत का असली परीक्षण, व्यवहार के जरिए ही हो सकता है। यही इसकी कसौटी होती है कि वह प्रकृति और जीवन की वास्तविक परिघटनाओं को कितनी सटीकता और accuracy के साथ समझाने की सामर्थ्य रखता है। उसका सामान्यीकरण किया जा सकता है या नहीं? प्राप्त निष्कर्षों और नियमसंगीतियों से उसके जरिए भावी परिघटनाओं या संबंद्ध अन्य प्रक्रियाओं को नियत किया जा सकता है या नहीं?
.....
और यह बात आपके प्रथम मत ‘मैं अपना मत स्पस्ट कर दूँ मेरे अनुसार १०० प्रतिशत प्रेम की भावना दिमाग में पनपती है’ से जाहिर नहीं होती।
वरन यह जाहिर होती है इसके सापेक्ष बालिका वधु वाले प्रसंग को रखने और यह प्रश्न उठाने में कि,‘क्यों उसने फिर कहीं और प्रेम तलास नही किया,क्यों वह उसकी याद में तडपता रहा..?’।

यह बात थोड़ी अंतर्विरोधी लग सकती है।

पर यह बात इसलिए कही गयी है कि यदि वाकई में मस्तिष्क का केमिकल लोचा वाला सिद्धांत इस प्रेम की रूहानी? भावनात्मक, तथ्यात्मक वस्तुगतता को अगर समझाने में समर्थ नहीं लग रहा है तो इसका मतलब सिद्धांत में ही कहीं लोचा है। कहीं ना कहीं उसमें लूपहोल्स हैं और वह पूरी तरह से एक सही सिद्धांत होने की काबिलियत रखने से अभी दूर है।

तो एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण वही है जो इन अंतर्विरोधों को भी परखे, इन पर संदेह करे, और सापेक्षता में भी चीज़ों को देखे। यही आप ने किया भी है। आपको सलाम।

जाहिर है, उपरोक्त बात को कह देने के बाद, यह कहना अब प्रांसंगिक नहीं रह गया है कि समय के यहां संदर्भित आलेख से जो यह निष्कर्ष आपने निकाला है कि,‘हमारे मित्रों का मानना है की रूहानी प्रेम एक मायाजाल से ज्यादा कुछ नही है’,पूरी तरह वस्तुगत नहीं है, एकांगी है।

समय को मौका मिलेगा तो यह कोशिश होगी कि इसी संदर्भ में भावनाओं की भौतिकता, वस्तुगतता और सक्रिय आवेगों के आपसी अंतर्संबंधों पर मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान को अपने ब्लॉग पर समेकित कर सके।

समय, यहां कुछ इशारे भर कर रहा है।

मनुष्य द्वारा अनुभव की गयी भावनाएं (अनुभूतियां), प्रेम की भावना जिनका कि एक अंग मात्र है, मनुष्य के वे आंतरिक, मानसिक रवैये हैं, वह एक मानसिक अवस्था है, जिन्हें वह अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं में और अपने सक्रियता की लक्ष्य वस्तुओं के प्रति विभिन्न रूपों में महसूस करता है।

इनके पैदा होने का निश्चय ही अपना भौतिक आधार होता है, और जाहिरा तौर पर यह केमिकल/भौतिक लोचों की प्रक्रियाओं से गुजर कर ही महसूसने जैसी अवस्था पाती हैं।
परंतु महसूसने के पश्चात अब यह नितांत भौतिक चीज़ नहीं रह जाती, यह मनुष्य के वैचारिक जगत से अंतर्क्रिया के दौरान उसका ही एक हिस्सा हो जाती हैं, उसी वैचारिक जगत का जो कि ख़ुद उसकी भौतिक परिस्थितियों से निगमित है।

वैचारिक जगत के पूर्वाधारों के अनुसार ही ये भावनाएं मनुष्य के संवेगों और सक्रियताओं को निश्चित करती हैं, यानि उसके व्यवहार को निश्चित करती हैं, जैसा कि आपके एडगर एलन पो का वह व्यवहार आपकी चिंता का विषय है।

भौतिक और वैचारिक जगत जीवन का अलग-अलग हिस्सा नहीं है, वह दोनों एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित हैं।
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ज्ञान का मामला ही ऐसा है। चीज़ों को अधिभूतवादी नज़रिए से अलग-अलग विश्लेषित करने से उलझनें पैदा होती है, और द्वंदात्मक तरीके से विश्लेषित संक्षेप में नहीं किया जा सकता।’
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यह इश्क कमीना-क्या सचमुच?...पोस्ट पर ‘साईब्लाग’ पर टिप्पणी:

आलेख की सूचनाओं को मानवश्रेष्ठ अरुणप्रकाश की टिप्पणी से अंतर्संबंधित करके भी देखे जाने की आवश्यकता है।
मानवव्यवहार को मात्र कुछ रसायनों तक सीमित कर देने से, इन्हें वैज्ञानिक रूप से, प्रगतिशील मूल्यों के रूप में स्थापित कर देने से, जाहिरा तौर पर इन रसायनों से संबंधित एक गैरजरूरी बाज़ार खड़ा किया जा सकता है और मुनाफ़ो का ढ़ेर लगाया जा सकता है।

दूसरा ऐसा स्थापित करने से मानवीय व्यवहार की सामाजिक अंतर्निर्भरता के बज़ाए व्यक्तिवादी आत्मकेन्द्रिता को आधार मिलता है, क्योंकि यह भ्रम स्थापित किया जाता है कि इन्हें कुछ रसायनों के जरिए पैदा और नियंत्रित किया जा सकता है।
जाहिरा तौर पर ऐसे आत्मकेन्द्रित व्यक्तिवादी सोच के मनुष्य आज की व्यवस्था के इच्छित हैं जो मनुष्य की सोच और दृष्टिकोणों तक को गुलाम मानसिकता में बदल डालने की कोशिशों में हैं।

जैसा कि आपने अपने एक आलेख में पहले कहा था कि विज्ञान धर्म के बिना अंधा होता है, और समय की इल्तिज़ा थी कि यहां धर्म के स्थान पर दर्शन शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि इच्छित अर्थ इसी में समाहित हैं। उसी परिप्रेक्ष्य में यह है कि वैज्ञानिक सूचनाओं को, ऐतिहासिक और क्रम-विकास के संदर्भों में परखे बिना सही समझ विकसित नहीं की जा सकती, या कि इन्हें सही समाजिक सोद्देश्यता प्रदान नहीं की जा सकती।

आपने आलेख में इसी दृष्टि को उठाया भी है।

इन हारमोनों के खेल को हम लगभग पूरी जैवीय प्रकृति में (फिलहाल मानव को छोड दें) अस्तित्वमान देखते हैं और इन्हीं की वज़ह से उत्प्रेरित सहजवृत्तियों से सक्रिय कई जीवों को समयआधारित प्रजनन संबंधों की प्रक्रिया में संलग्न देखते हैं। जाहिर है इसी वज़ह से यह विचार और शोध की आवश्यकताएं पैदा हुईं कि इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में मनुष्यों के व्यवहार को भी समझा जाना चाहिए।

मनुष्य भी इसी जैव प्रकृति का अंग है तो नियमसंगति यहां भी मिलनी चाहिए, और इसी के अवशेषों को जाहिर है उक्त खोजों के अंतर्गत संपन्न कर लिया गया लगता है।

मानव प्रकृति की सहजवृत्तियों के खिलाफ़ अपने सोद्देश्य क्रियाकलापों के जरिए हुए क्रमविकास के कारण ही अस्तित्व में आ पाया है। मनुष्य अपनी इस चेतना के जरिए ही यानि सचेतन क्रियाकलापों के जरिए ही, अन्य जैवीय प्रकृति की सहजवृत्तियों से अपने आपको अलग करता है। (आपने इन सहजवृत्तियों के लिए अपने प्रश्न में सहजबोध शब्द काम में लिया है, ये दोनों पर्यायवाची नहीं हैं)

जाहिर है अब मनुष्य कई सहजवृत्तियों के हारमोनों संबंधी उत्प्रेरकता की आदतों से आगे निकल आया है और कई नई तरह की सचेत क्रियाकलापों के लिए अनुकूलित हो गया है।

इस आलेख में उल्लिखित हारमोन और अंडविसर्जन संबंधित व्यवहार को इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जांचा जाना चाहिए।

यह आसानी से जाना जा सकता है, अपने स्वयं के व्यवहार से महसूस किया जा सकता है कि मनुष्य में अब इस गंध संबंधी सहजवृत्ति का कोई सामान्य अस्तित्व नहीं रह गया है। मनुष्य के यहां यौन संबंधों की सिर्फ़ प्रजनन आवश्यकता का लोप हो गया है और यह कई तरह के आनंदों और गहरे आत्मिक संबंधों के आधार के रूप में अस्तित्व में आ गया है। अब शारीरिक और मानसिक जरूरतों के अतिरिक्त भी कई ऐसे उत्प्रेरक हैं जो मनुष्य में यौन संबंधों की प्रेरणा पैदा कर सकते हैं।

अंड़विसर्जन के वक्त स्त्रियों में आ रहे हार्मोनिक बदलावों की वज़ह से उत्प्रेरित यौन आकांक्षाओं के कारण से हुए व्यवहार परिवर्तन से ही कोई पुरूष शायद यह अहसास पा सकता है कि अंड़विसर्जन हो रहा होगा। गंध संबंधी कोई अनुभव सामान्यतयाः नहीं महसूस किया जाता, इसे अपने खु़द के अनुभवों की कसौटी पर भी परखा जा सकता है।


पसीने में गंध को भी ऐसे ही देखा जा सकता है। इससे भी कई फ़िल्मी और साहित्यिक प्रंसंगों के कारण विश्वास मिलता हो, तथ्य यही है कि वर्जनाओं से युक्त कुछ कैशोर्य व्यवहारों में इसका कुछ अस्तित्व भले ही मिल जाए, सामान्यतयाः व्यस्क जोडो में इस पसीने की गंध से वितृष्णा ही देखी जा सकती है, और सामान्यतयाः जहां तक संभव होता है सचेत यौन संबंधों हेतु शयनकक्ष में स्नान करके जाना ही श्रेयस्कर समझा जाता है।’
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धर्म और विज्ञान...पोस्ट पर ‘साईब्लाग’ पर टिप्पणी:

शब्दों का आशय वही होता है जो प्रदत्त समय में उसके प्रचलित अर्थ में ध्वनित होता है।

धर्म के मूल में आस्थाएं और परंपराएं होती है।
वहां संदेह और तर्क के लिए सामान्यतयाः कोई जगह नहीं होती।

तर्कबुद्धि के जरिए जब विश्व और मनुष्य के साथ उसके संबंधों की तार्किक व्याख्याएं की जाने लगी तो उसे एक नये शब्द फ़िलासाफ़ी से पुकारा जाने लगा।

इस शब्द का ही हमारा पारंपरिक पर्याय दर्शन है।

संदेहों ने विज्ञान तक पहुंचाया, और तर्कों ने दर्शन तक। दोनों एक दूसरे से नाभिनालबद्ध हैं।

दर्शन के तार्किक निष्कर्षों ने विज्ञान के लिए ऊर्वर भूमि प्रदान की, वहीं विज्ञान की खोजों और नियमसंगीतियों ने दर्शन को एक सार्विक रूपता प्रदान की।

आप के लेख और अन्योनास्ति की टिप्पणी में जो आकांक्षा ‘धर्म’ शब्द से इच्छित है, वह आपको इस ‘दर्शन’ शब्द में ही मिल सकती है।’
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ज्योतिष: पौराणिक संदर्भों से निकली....पोस्ट पर ‘तस्लीम’ पर टिप्पणी:

यहां यह जो सत्संग चर्चा चल रही है, उस पर इस नाचीज़ को कुछ नहीं कहना है।
आस्था को तर्कों के जरिए दिमाग़ से नहीं निकाला जा सकता, बिल्कुल उसी तरह जैसे ड़र को तर्कों के सहारे नहीं जीता जा सकता।
वैसे इस बात को देखने में मज़ा आता है, कि आस्थावान मनुष्य जो कि तर्क को किनारे रखता है, इसके बचाव में सबसे ज़्यादा तर्क-कुतर्क करता है। जिस पर विश्वास नहीं उसी पद्धति का सहारा। खैर जी।
ज्ञान और समझ हमारे सारे बचकानेपन को शनै-शनै खत्म करती जाती हैं।

इस पोस्ट पर समय का भी प्रतिवाद है, और गहरा है। कृपया इसे भी दर्ज़ कर लें।

आप वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए यहां जिस पद्धति को काम में ले रहे हैं, मुआफ़ कीजिएगा समय को लगता है यह कतई भी वैज्ञानिक नहीं है।
दर्शन की भाषा में कहें तो यह चीज़ों को समझने का अधिभूतवादी तरीका (metaphysical method)है, वैज्ञानिक द्वंदवादी तरीका नहीं है।
आप अपने विरोधी विचार को उन्हीं की ज़्यादा प्रचलित पद्धति के जरिए मात देने की खाम्ख़्वाह कोशिश कर रहे हैं।
विवाद इसी वजह से होता है। जब इसी कार्य को प्रतिगामी शक्तियां करती हैं तो गलत है, तो सही चीज़ों को ही सही, सामने लाने के लिए प्रगतिशील शक्तियां भी इसी गलत चीज़ का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं। जाहिर है उनके तर्कजाल में उलझने की पृष्ठभूमि तो पहले से ही तैयार है।

इस तरह से पुरातन ग्रंथों से, जो कि अपने ऐतिहासिक काल की समझ की उत्पत्ति होते हैं, उदाहरण ढ़ूंढ़ कर लाने और उसे वर्तमान में प्रतिष्ठित करने का यह पुनीत कार्य ही तो आज की प्रतिगामी शक्तियां कर रही है। तो फिर इस पोस्ट के जरिए उलटबासी में ही सही, क्या यही कार्य यहां नहीं हो रहा है, क्या उन्हीं की पद्धति नहीं अपनाई जा रही है।

पुरातन ग्रंथों की कई वैज्ञानिक द्वंदवादी व्याख्याएं मानवजाति द्वारा पूर्व में ही की जा चुकी हैं, आपका समूह उनसे गुजरेगा तो सही मायनों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया जा सकेगा।

इस हेतु भारतभूमि पर भी काफ़ी मानवश्रेष्ठ यह कार्य संपन्न कर चुके हैं। आप अमृत डांगे, देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, दामोदर धर्मानंद कोसांबी आदि विद्वानों और इतिहासकारों की पुस्तकें पढ़ सकते हैं। आपके समूह को दर्शन से भी गुजरना चाहिए। द्वंदवादी ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण से भी माथापच्ची करनी चाहिए।


आपने जो उद्धरण दिये हैं, क्या उनमें यह नहीं देखा जाना चाहिए था कि आखिर धर्म और ज्योतिष की नाभीनालबद्धता के बाबजूद इन धर्मग्रंथों में ज्योतिष पर यह दृष्टिकोण क्यों अपनाया गया है? क्या इसमें आपकों कोई पेच नज़र नहीं आया?
आप जल्दबाज़ी में थे, अपने अनुकूल लगती सी इस नई प्राप्त बात को सामने लाने के लिए।

धर्मग्रंथों में अपने विरोधी विचारों के ख़िलाफ़ निर्देश जारी किये जाते हैं, नाकि अपने अनुकूल साबित होने वाली चीज़ों को नकारा जाता है।

यही तथ्य क्या काफ़ी नहीं था, कि शक होना चाहिए था कि जाहिरातौर पर यहां उस वक्त भी प्रचलित फ़लित ज्योतिष के बारे में तो यह बातें कही ही नहीं जा सकती थी। आखिर कौनसा दृष्टिकोण अपने पैरों पर खु़द कुल्हाडी मारेगा।

हालांकि समय अभी इनकी गहराई में नहीं गया है, परंतु उपरोक्त बात तो कही ही जा सकती है।

भाववादी या आदर्शवादी या प्रत्ययवादी धर्मग्रंथों में उस वक्त में प्रचलित भौतिकवादी, यथार्थवादी दृष्टिकोणों पर फ़तवे जारी किए जाते थे। ज्ञान और समझ विकसित करने वाले हर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को कुचलने की कोशिश की जाती थी। सांख्यों, चार्वाकों आदि के खिलाफ़ यही किया गया था।

अगर यह सही है, तो जाहिर है कि ग्रहों और नक्षत्रों का ज्ञान रखने वालों या इनपर शोध करने वालों या इन्हें पढ़ने-पढा़ने वाले जिन लोगों की चर्चा की जा रही है, वे उन धर्मग्रंथकारों के लिए खटकने वाले ही रहे होंगे।

जाहिर है फिर वे फलित ज्योतिष के जरिए मनुष्य के भाग्य की भविष्यवाणियां करने वाले तो नहीं ही रहे होंगे। हां वे लोग वे हो सकते हैं, जो कि ग्रहों और नक्षत्रों की स्थितियों और गतियों का प्रेक्षण करने और इनका विज्ञान विकसित करने की कोशिश कर रहे थे, और जाहिरा तौर पर ग्रंथिक प्रस्थापनाओं को चुनौती दे रहे होंगे।

यहां यह भी हो सकता है कि ये उक्तियां भौतिकवादी दार्शनिक परंपरा के ग्रंथों और उनके उद्धरणों से ली गयी हो। सीधे वहीं से, या किसी कारण भाववादी ग्रंथों में भी स्थान पा गई हों। अगर यह भौतिकवादी परंपराओं की हैं, तो जाहिर है इनका भाववादियों के फलित ज्योतिष के ख़िलाफ़ होना ही है। हालांकि इसकी संभावना कम ही है, क्योंकि ये मनुस्मृति में भी स्थान पा गई हैं।

क्या यह सब सोचा और देखा समझा गया था?

मुआफ़ी की दरकार है।
परंतु गंभीर समीक्षा और सही पद्धति का अभाव लगा इसलिए इतना कुछ लिख गया।’

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स्वाइन फ़्लू संबंधी पहेली....पोस्ट पर ‘तस्लीम’ पर टिप्पणी:

सावधानी तो ठीक लगती है।
पर अन्य परिप्रेक्ष्यों की भी जाँच कर ही लेनी चाहिए।
कहीं ऐसा तो नहीं कि जागरुकता के भ्रम में हम ड़र फैला रहे हों।

समय भी मुनाफ़े की अभेद्य दीवारों के पीछे झाँकने में अपने आप को अक्षम पाता है।

परंतु फिर भी ऐसी सूचनाएं/अफ़वाहें भी है, जिन्हें भी जितना हो सके जाँच कर चेतावनियों के साथ रख दिया जाए, तो थोड़ा ठीक रहे।

पहली: यह वायरस अमेरिका की उन्नत लैबों में परीक्षणों की एक श्रृंखला के अंतर्गत पैदा किया गया था, या हुआ था। यह बाहर कैसे?

दूसरी: स्वाईन फ़्लू की दवाईयां और जांच किट दे सकने वाली शायद तीन ही कंपनियां थी, और वे भी इस वायरस के फैलने से पहले, मंदी के दौर की तंगी से दिवालिया होने की कगार पर थी।
अब उनके मुनाफ़े की गणना के कयास तो लगाए ही जा सकते हैं।

तीसरी: थोडे़ दिनों बाद ही संयुक्त राष्ट्र ने घोषणा कर दी थी कि जल्द ही पूरे विश्व में इसका टीका उपलब्ध करा दिया जाएगा।
मज़े हो गये, विश्व मीडिया और हमने एक सार्विक ड़र का माहौल तैयार कर ही रखा है, बस टीका आने की देर है।
हम डरे हुए, सहमे हुए लोग मनमाने दामों पर इस टीके को लगवाने के लिए लाईनों में लगे होंगे, और अमेरिका और मल्टीनेशनल्स को शुक्रिया अदा कर रहे होंगे।
दवाइयां तो सिर्फ़ बीमार खाते हैं, पर टीका तो पूरे विश्व में किस पैमाने की खपत रखेगा, आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
बिल्कुल वैसे ही जैसे कुछ ही दिनों पहले हेपीटाइटिस बी का टीका भारत के अधिकतर मध्यम और उच्च वर्ग के भारी दामों में ठोक दिया गया था, बिना ये बताए कि सामान्यतयाः इससे प्रभावित होने की सम्भावनाएं यहां कितनी हैं।

और बता भी दो तो क्या है। ड़र है ज़िंदगी का, और यदि पैसे निकाले जा सकते हों जेब से तो जोखिम क्यों उठाया जाए।

यह भी अफ़वाह है कि पूरे वैश्विक स्तर पर जो मंदी छाई हुई है, इसके जनक उन्नत देशों का यह एक घिनौना षड़यंत्र है जो उन्हें मंदी से उबारने की गारंटी देने की क्षमता रखता है।’
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समय अपनी श्रृंखला को अगली बार जारी रखेगा ही।

समय

शनिवार, 5 सितंबर 2009

दर्शन और दुनिया को देखने का नज़रिया

हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार समय ने दर्शन क्या है? क्यों हैं? पर चर्चा करके दर्शन पर एक सामान्य दृष्टिकोण प्रस्तुत करने की कोशिश की थी, ताकि इस शब्द से एक सटीक मतलब लिया जा सके।

उसी पोस्ट पर जोशी जी की टिप्पणी से एक महत्वपूर्ण बात उजागर होती है, वह है इस शब्द ‘दर्शन’ पर आम सामान्य दृष्टिकोण क्या है। इससे यह बात भी समझ में आती है कि लोक में भी यह बात अच्छी तरह से स्थापित है कि दर्शन का मतलब उस व्यक्ति विशेष की तार्किक समझ और चीज़ों को देखने के उसके नज़रिए से है। इसीलिए जोशी जी यह अपना मत, एक आम मत था, जिसमें उन्होंने कहा था कि हर विषय का अपना एक दर्शन होता है, ओशो से लेकर चाय वाले तक का दर्शन भी एक दर्शन ही है। उन्होंने चार्वाक का जिक्र करके अच्छा हुआ मुझे याद दिलाया कि हमें बाद में कभी इस पर भी चर्चा करनी है, अतएव यह हम बाद में कभी देखेंगे कि चार्वाक दर्शन में कितना मज़ाक था और कितनी गंभीरता। जोशी जी को धन्यवाद कि चर्चा और संवाद को उन्होंने आगे बढा़या।

तो अब ऐसा लग रहा है कि उक्त बात का ही सूत्र पकड़ा जाए और यह देखा जाए कि आखिर फिर शास्त्रीय तरीके से कैसे व्यक्ति विशेष के चीज़ों के प्रति आम नज़रिए यानि दृष्टिकोण एवं रवैये को किस तरह से दर्शन से अलग देखा जा सकता है, और साथ ही यह भी कि इनके बीच आपसी संबंध क्या हैं।

चलिए, चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।
दर्शन और विश्व को देखने के मनुष्य के नज़रिए यानि उसके विश्वदृष्टिकोण के बीच क्या संबंध होता है, इसे समझने की कोशिश करते हैं।
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अपने दैनन्दिनी जीवन से जुड़े मामलों, मसलन, शाम कैसे गुजारी जाए, क्या खाया जाए, कहां जाया जाए, आदि-आदि, में मनुष्य उस समय की मनोदशा, अपनी आदतों और तत्कालीन संभावनाओं से निर्देशित होते हैं।

किंतु जीवन में कई ऐसी समस्याएं भी होती हैं जिनसे जूझने के लिए उसे दृढ़विश्वासों की, दुनिया को देखने के एक व्यापक नज़रिए यानि दृष्टिकोण की और मानव जीवन के लक्ष्यों तथा अर्थ की सुस्पष्ट समझ की जरूरत होती है। बुनियादी विश्वासों, विश्व और उसकी संरचना व उत्पत्ति, मानव जीवन के आशय तथा उद्देश्य, और समसामयिक वास्तविकता में मनुष्य के स्थान के बारे में उसके दृष्टिकोणों की समग्रता को उस व्यक्ति विशेष का विश्वदृष्टिकोण कहते हैं

परिवेशीय जगत से मनुष्य के संबंध का सिद्धांत विकसित करने वाला दर्शन, विश्वदृष्टिकोण के वस्तुतः केंद्र में स्थित होता है। विश्वदृष्टिकोण की रचना में दर्शन के अलावा विज्ञान, कला, धर्म, विभिन्न राजनीतिक मत, देश विशेष का इतिहास, आदि भी भाग लेते हैं। इसके स्वभाव पर लोगों की जीवन पद्धति, उनके दैनिक क्रियाकलापों और उत्पादक क्रियाकलापों की छाप होती है।

लेकिन विश्वदृष्टिकोण की प्रणाली में दर्शन का एक विशेष स्थान होता है। यह क्या है?

दर्शन विश्वास पर कुछ भी स्वीकार नहीं करता। इसकी उत्पत्ति के समय से ही दार्शनिकों ने हमेशा अपनी प्रस्थापनाओं को प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने उनके मंडनार्थ युक्तियां प्रस्तुत कीं, सटीक और अकाट्‍य प्रमाणों के बारे में सिद्धांतों का विकास किया। साथ ही अपने प्रतिपक्षियों के विचारों का खंडन करते हुए दार्शनिकों ने आलोचनात्मक युक्तियों व तर्कणा के क़ायदों का विकास किया। उन्होंने किन्हीं विशेष विचारों को महज़ ठुकराया नहीं, बल्कि ऐसी ठोस, अकाट्‍य युक्तियां प्रस्तुत कीं, जिनसे उनका खंडन हो गया।

इसी तरह विश्व के बारे में कुछ दृष्टिकोणों को प्रमाणित करके तथा उनमें मनुष्य के स्थान को दर्शा करके एक दार्शनिक प्रणाली अपने अनुरूप विश्वदृष्टिकोण को प्रमाणित करती है। फलतः दर्शन किसी भी मनुष्य के विश्वदृष्टिकोण का सैद्धांतिक आधार होता है
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प्रत्येक ऐतिहासिक युग का अपना ही विश्वदृष्टिकोण था। यह दृष्टिकोण तत्कालीन समाज, विज्ञान, तकनीक तथा संस्कृति, सभी के विकास के स्तर पर निर्भर करता है। जैसे-जैसे समाज में विभिन्न वर्गों का उद्‍भव होता जाता है, वैसे-वैसे ही विश्वदृष्टिकोण का स्वभाव भी वर्गीय होता जाता है। दासों और दास-स्वामियों, भूदासों और ज़मींदारों, मज़दूरों और पूंजीपतियों के भिन्न-भिन्न विश्वदृष्टिकोण होते हैं और मनुष्य की भूमिका तथा उद्देश्यों की उनकी समझ भी भिन्न-भिन्न होती है।

जाहिर है इन वर्गों के हित अलग-अलग होते हैं और आपस में टकराते हैं, अतएव प्रत्येक वर्ग अपने विश्वदृष्टिकोण का मंड़न और वैरी वर्गों के दृष्टिकोणों का खंड़न करने का प्रयास करता है। जो दार्शनिकगण किसी एक वर्ग के हितों की सफ़ाई देते हैं, वे इन्हीं के अनुरूप सिद्धांतों का, इन्हीं के पक्ष की युक्तियों का विकास करते हैं और वैरी दृष्टिकोणों के विरूद्ध संघर्ष के लिए आलोचनात्मक दलीलों को भी परिष्कृत तथा प्रखर बनाते हैं।

विश्वदृष्टिकोणों के रूप में दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका इसी में प्रकट होती है।
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तो हे मानवश्रेष्ठों,
अगली बार हम दर्शन के बुनियादी सवाल से गुजरते हुए, चेतना की उत्पत्ति और विकास संबंधी चर्चा की ओर आगे बढ़ेंगे।

आप यहां से गुजरते रहें।

आलोचनात्मक और जिज्ञासात्मक संवादों का स्वागत है।

समय

शनिवार, 29 अगस्त 2009

आख़िर दर्शन क्या है? क्यों है?

हे मानवश्रेष्ठों,
समय ने पिछली बार चाहा था कि मानव-मन या चेतना की उत्पत्ति और विकास की प्रक्रिया को यहां थोड़ा सार रूप में प्रस्तुत किया जाए।
परंतु अब बात चल निकली है, और जाहिर है कुछ संदर्भों, दृष्टिकोणों और शब्दावली का व्यापक प्रयोग किया जाएगा, तो यह ज़्यादा बेहतर रहेगा कि बात उन्हीं से शुरू की जाए।

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चूंकि इस हेतु समय को आपके साथ दर्शन के क्षेत्र की यात्रा करनी है, अतएव यह समुचित रहेगा की दर्शन की चर्चा ही यहां सबसे पहले की जाए। तो चलिए दर्शनशास्त्र से शुरूआत करते हैं।
समय मानवजाति के अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ यहां समेकित कर रहा है।
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मनुष्य के सामने सदा से ही ये प्रश्न उपस्थित रहे हैं कि विश्व में उसका स्थान क्या है, मानव जीवन का लक्ष्य, उद्देश्य और मूल्य क्या हैं? यह दुनिया आगे कैसी होगी? क्या इस संसार से उत्पीड़न और अन्याय कभी गायब हो पाएंगे? मनुष्य की नियति में क्या बदा है, युद्धों का महाविनाश या शांतिपूर्ण जीवन? मनुष्य के वर्तमान नाभिकीय युग में ये प्रश्न, मुख्यतः मानवजाति की संभावनाओं का प्रश्न और भी तीव्रता से सामने आता है। आख़िर मनुष्य अपने समय की समस्याओं और अंतर्विरोधों से कैसे निबटें? विज्ञान और तकनीकि की उपलब्धियों को मनुष्य की बेहतरी के लिए कैसे इस्तेमाल करें? और यह मनुष्य की बेहतरी ही खु़द अपने आप में क्या है?

कोई भी सचेत सक्रिय व्यक्ति ऐसे प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश किए बिना नहीं रह सकता है। किंतु विज्ञान और तकनीक स्वयं इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकते हैं, और मुख्य बात इन प्रश्नों के हर समय के लिए मान्य उत्तर खोजना और उन्हें मात्र कंठस्थ कर लेना नहीं है। इस बात में पारंगत होना कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि तेज़ी से बदलती हुई इस दुनिया में ऐसे उत्तर कैसे खोजे जाते हैं, कौनसे दृष्टिकोण और पद्धतियां इसके लिए ज़्यादा उपयुक्त रहती हैं, इन उत्तरों की सचाई को कैसे परखा जाता है और फिर उनके अनुरूप कर्म कैसे किए जाते हैं।

इसके लिए दर्शन का ज्ञान आवश्यक है।
यह ज्ञान एक विशेष शास्त्र से प्राप्त होता है, जिसे दर्शनशास्त्र कहा जाता है।
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दर्शन का उद्‍भव प्राचीन यूनान में हुआ। पाईथागौरस ने सर्वप्रथम philosophy पद का उपयोग किया था। ‍इस तरह पाश्चात्य भाषाओं में दर्शन का पर्याय ‘फ़िलॉसॉफ़ी’, दो यूनानी शब्दों- प्रेम और बुद्धिमता से मिलकर बना है, यानि इसका अर्थ है बुद्धिमता के प्रति प्रेम।

मनुष्य के आसपास की दुनिया असीम है और वह इसकी पहेलियों को हल करने का प्रयत्न धीरे-धीरे और क़दम दर क़दम चलकर ही कर सकता है। दर्शन में इस असीम का, हर विद्यमान वस्तु के स्रोतों तथा कारणों का संज्ञान प्राप्त करने के लिए अनवरत खोज में जुटने और और हर उपलब्धि पर संदेह करने के प्रयास मूर्त होते हैं। प्राचीन यूनान के महान दार्शनिक अफ़लातून ने कहा था कि दर्शन का स्रोत आश्चर्य और अचंभे में है।

प्राचीन काल में दर्शन तथा इसके उद्देश्यों के बारे में कई विविधतापूर्ण विचारों का आविर्भाव हुआ। महान यूनानी चिंतक अरस्तु का मत था कि सारे विज्ञान एक विशिष्ट लक्ष्य का अनुसरण करते हैं, केवल दर्शन ही सब विज्ञानों में स्वतंत्र है क्योंकि यह स्वयं अपने ख़ातिर अस्तित्वमान है, वहीं एक और सुप्रसिद्ध चिंतक सिसेरो ने इसकी सर्वथा उल्टी बात का दावा किया और कहा कि दर्शन जीवन का ऐसा ध्रुवतारा है जिसके बिना न तो मनुष्य का अस्तित्व हो सकता है, न स्वयं मानव जीवन का।

कुछ लोगों का विश्वास था कि दर्शन को धर्म से पृथक नहीं किया जा सकता, कि यह धार्मिक मताग्रहों की बेहतर समझ में सहायक है। जबकि कुछ अन्य की राय थी कि यह संदेहों और तर्कबुद्धि पर आधारित है, अतः धर्म से मेल नहीं खाता क्योंकि धर्म आस्था पर आधारित होता है। दर्शन के सार तथा उद्देश्य के बारे में इस तरह से ही, आधुनिक चिंतकों तक के भी कई मत-मतांतर प्रचलित हैं, जिन पर यदि मौका मिला तो समय फिर कभी दर्शन के इतिहास की चर्चा के अंतर्गत बात करना चाहेगा।

फिलहाल दर्शन की अद्यतन समझ को जिस तरह से सामान्यीकृत कर दिया गया है उसे देखिए।
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यह विश्व प्रकृति और समाज से बना है। ज्ञान की अन्य प्रणालियां, मसलन, दैनिक अनुभव पर आधारित साधारण ज्ञान, राजनैतिक, वैज्ञानिक, तकनीकि ज्ञान, आदि वास्तविकता के अलग-अलग पहलुओ को परावर्तित करती हैं और दैनिक जीवन, उद्योग तथा राजनैतिक संघर्ष में, प्रकृति के संज्ञान के दौरान और अन्य मामलों में उनकी जरूरत पड़ती हैं। साथ ही मनुष्यजाति के इतिहास के प्रत्येक युग, प्रत्येक अवधि ने ऐसे कार्य और सवाल पेश किये हैं जो जीवन की सर्वाधिक बुनियादी समस्याओं को छूते हैं और जिनके समाधान पर संपूर्ण मानवजाति की और प्रत्येक व्यक्ति की नियति निर्भर है।

जनसाधारण के बुनियादी हितों को परावर्तित करने बाली इन समस्याओं को समझना, उनसे अवगत होना और उन्हें सटीकतः निरूपित करना अत्यंत कठिन है, और इससे भी अधिक कठिन है उनको हल करने के तरीक़ों और साधनों का पता लगाना। ऐसा करने के लिए विभिन्न विज्ञानों की उपलब्धियों के अत्यंत गहन ज्ञान, मनुष्यों के बुनियादी हितों को समझने और युगों के विभेदक लक्षणों तथा विशेषताओं को सही ढंग से निरूपित करने की योग्यता की जरूरत होती है।

जाहिर है कि इसके वास्ते ज्ञान की एक विशेष प्रणाली की, एक ऐसी प्रणाली की आवश्यकता है, जो वास्तविकता को उसके अलग-अलग पहलुओं और समस्याओं के बजाय एक साकल्य के रूप में देखने में सक्षम हो और जिसके केन्द्र में अपनी सारी आकांक्षाओं, प्रयासों, आशाओं, संदेहों तथा सवालों, अपने सारे अंतर्विरोधों, खोजों और भ्रमों सहित मनुष्य खडा़ हो।

फलतः दर्शन "अपने काल के बौद्धिक सारतत्व" के और "समसामयिक विश्व के दर्शन" की हैसियत से विश्व में मनुष्य के स्थान तथा अपने परिवेशीय जगत के प्रति उसके रुख़ के ज्ञान की एक विशेष प्रणाली है। वह मनुष्य के क्रियाकलाप के आधारों तथा उनकी नियमसंगतियों को जानने के प्रयत्न करता है।

जर्मनी के महान आधुनिक वैज्ञानिक दार्शनिक और चिंतक कार्ल मार्क्स ने दर्शन की व्याख्या करते हुए कहा था:
" चूंकि प्रत्येक सच्चा दर्शन अपने काल का बौद्धिक सारतत्व होता है, इसलिए वह समय अवश्यंभावि रूप से आता है जब दर्शन ना केवल आंतरिक दृष्टि से, ना केवल अपनी अंतर्वस्तु द्वारा, बल्कि अपने रूप के जरिए, बाह्य दृष्टी से भी अपने काल के वास्तविक जगत के संपर्क में आता है तथा उससे अंतर्क्रिया करता है। और तब दर्शन अन्य विशेष प्रणालियों के संदर्भ में सिर्फ़ एक विशेष प्रणाली भर नहीं रह जाता, बल्कि वह विश्व के संदर्भ में सामान्य दर्शन बन जाता है, समसामयिक विश्व का दर्शन बन जाता है। "
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आज इतना ही।
अगली बार चेतना के संदर्भ मे जारी इस चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।
इस श्रृंखला के बाद समय भारतीय दर्शन पर भी चर्चा करने की योजना रखता है।
आप यहां से गुजरते रहें।

आलोचनात्मक और जिज्ञासात्मक संवादों का स्वागत है।

समय
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