रविवार, 23 दिसंबर 2018

स्वतंत्रता और आवश्यकता - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां मनुष्य और समाज’ के अंतर्गत स्वतंत्रता और आवश्यकता पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


स्वतंत्रता और आवश्यकता - २
( Freedom and Necessity - 1 )

प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता (freedom) सिर्फ़ कुछ ऐतिहासिक दशाओं में और ठीक तब प्राप्त की जा सकती है, जब सारा समाज स्वतंत्र (free) हो। ये दशाएं क्या हैं?

प्रतिरोधी विरचनाओं (antagonistic formations) में दो महती अनिवार्य शक्तियां, दो प्रकार की बाह्य आवश्यकताएं (external necessity) मनुष्य पर हावी होती हैं। वह (१) प्राकृतिक आवश्यकता पर और (२) सामाजिक आवश्यकता पर निर्भर होता है। सामाजिक आवश्यकता, शोषण की ऐतिहासिक प्रतिबंधिता (conditionality) में प्रकट होती है। शोषित स्वतंत्र नहीं हो सकते, क्योंकि उनके पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भौतिक और आत्मिक अवसर नहीं होते हैं। किंतु शोषक भौतिक संपदा तथा राजनीतिक शक्ति का उपयोग करते हुए कुछ हद तक स्वतंत्र होते हैं, किंतु यह स्वतंत्रता भी बहुत सीमित होती है, मुख्यतः निजी संपत्ति (private property) के संदर्भ में। स्वतंत्र होने के लिए ऐतिहासिक आवश्यकता को जानना, सही निर्णय लेना और उसे कार्यान्वित करना ज़रूरी है। परंतु ऐतिहासिक आवश्यकता अंततोगत्वा निजी स्वामित्व के उन्मूलन (abolition) की ओर ले जाती है और फलतः प्रभुत्वशाली वर्गों (dominant classes) के हितों से टकराती है, जो उस पर निर्भर हैं। इसकी वजह से वे भी इस आवश्यकता को पूरी तरह से नहीं जान सकते और इसके विरुद्ध फ़ैसले लेने तथा कार्रवाइयां करने के लिए बाध्य होते हैं और इसीलिए सचमुच स्वतंत्र होने में असमर्थ होते हैं। इस तरह, पूंजीवादी समाज सहित सभी शोषक समाजों में वास्तविक स्वतंत्रता (real freedom) असंभव है। मेहनतकश, शोषण और व्यक्ति के चौतरफ़ा विकास की भौतिक तथा आत्मिक दशाओं के अभाव से मुक्त नहीं हैं। शोषक भी उन राजनीतिक और क़ानूनी प्रतिबंधों से मुक्त नहीं है जिन्हें उन्होंने ख़ुद बनाया है और जिनकी उन्हें अपनी निजी संपत्ति की रक्षा करने तथा अपने स्वामित्व के अधिकार को दृढ़ बनाने के लिए ज़रूरत है। 

इसलिए स्वतंत्रता एक ऐतिहासिक घटना (historical phenomenon) है। अकेले ज्ञान, चिंतन तथा अतिकल्पना (fantasy) में स्वतंत्र रहना असंभव है। यह वास्तविक स्वतंत्रता नहीं है। यह आत्मनिष्ठ (subjective) स्वतंत्रता है, यानी वास्तविक स्वतंत्रता की अमूर्त संभावना (abstract possibility) है। वास्तविक स्वतंत्रता केवल तभी संभव है जब उसके लिए समुचित वस्तुगत (objective) पूर्वावस्थाएं विद्यमान हों। ये पूर्वावस्थाएं, एक साम्यवाद आधारित समाज में संक्रमण (transition) के साथ बनती हैं। समाजवाद के निर्माण की सारी अवधि, समाज के प्रत्येक सदस्य और फलतः सारे समाज के लिए स्वतंत्रता की सतत संवृद्धि (steady growth) की प्रक्रिया है। इसीलिए ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में ऐलान किया गया था: "प्रत्येक की स्वतंत्र प्रगति, सभी की स्वतंत्र प्रगति की शर्त होगी।"

प्रत्येक के लिए तथा संपूर्ण समाज के लिए, स्वतंत्रता की उपलब्धि यह अपेक्षा करती है कि निम्नांकित महत्वपूर्ण शर्तों को और सर्वोपरि एक शक्तिशाली भौतिक-तकनीकी आधार की शर्त को पूरा किया जाये। यह तभी संभव है जब वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति की उपलब्धियों को, निजी मुनाफ़ों के लिए नहीं वरन् संपूर्ण समाज के फ़ायदों के साथ संयुक्त किया जायेउत्पादक शक्तियों (productive forces) के विकास को उस स्तर तक ऊंचा उठाया जाना चाहिए, जो भारी, थकाऊ काम से और प्रकृति पर निर्भरता से मनुष्य की अधिकतम स्वतंत्रता को सुनिश्चित बनाये। इससे पूर्ण चहुंमुखी शिक्षा पाने और हर किसी की क्षमताओं के फलने-फूलने के लिए पूर्वावस्थाओं की रचना होगी और अपनी बारी में उससे प्रत्येक व्यक्ति की भौतिक व आत्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अवसरों में महत्वपूर्ण वृद्धि होगी। साथ ही सारे सामाजिक जीवन के और अधिक रूपांतरणों (transformations) तथा आगे सुधारों के लिए अनपेक्षित (unforeseen) संभावनाओं के द्वार खुल जायेंगे।

जनता की चेतना का विकास, सामाजिक (सार्वजनिक) हितों व व्यक्तिगत हितों के बीच समुचित संबंध की गहरी समझ और तर्कबुद्धिसम्मत (rational) कामनाओं और ज़रूरतों का बनना, आत्मानुशासन (self-discipline), पारस्परिक सम्मान तथा नैतिक मानकों, क़ानूनों व न्याय व्यवस्था का सख़्ती से अनुपालन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस शर्त के बिना स्वतंत्रता सामान्यतः अलभ्य (unattainable) है। स्वतंत्रता केवल तभी संभव है, जब प्रत्येक व्यक्ति अपनी कार्रवाइयों और इरादों पर बाहरी बलप्रयोग के बिना नियंत्रण रखने में समर्थ हो ताकि अन्य लोगों की स्वतंत्रता बाधित ना हो। जब तक कर्तव्यनिष्ठा (conscientiousness) का यह स्तर उपलब्ध नहीं होता, तब तक सामाजिक संबंधों के नियमन (regulation) का कार्य स्वयं नागरिकों द्वारा ही नहीं, बल्कि विभिन्न सामाजिक संगठनों तथा संस्थानों द्वारा भी होता रहेगा। जनता की कर्तव्यनिष्ठा में बढ़ती के साथ, ये कार्य अधिकाधिक रूप से स्वयं समाज के सदस्यों द्वारा स्वेच्छा से किए जाने लगेंगे। यही कारण है कि संपूर्ण समाज तथा प्रत्येक व्यक्ति द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने की एक महत्वपूर्ण पूर्वशर्त कर्तव्यनिष्ठा का चौतरफ़ा विकास है। जहां तक इन शर्तों को केवल साम्यवादी समाज में संक्रमण की अवधि के दौरान ही उपलब्ध किए जा सकने का संबंध है, मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन का उस अवधि को ‘आवश्यकता के राज्य से स्वतंत्रता के राज्य में संक्रमण की अवधि’ समझना हर तरह से सकारण है।

अतः ऐतिहासिक भौतिकवाद (historical materialism) स्वतंत्रता को जिस अर्थ में समझता है, उस अर्थ में स्वतंत्रता की प्राप्ति मनुष्य जाति का ऐतिहासिक ध्येय है, क्योंकि केवल स्वतंत्र समाज में रहने वाला स्वतंत्र व्यक्ति ही स्वयं अपनी तथा अन्य लोगों की भलाई के वास्ते अपनी सारी रचनात्मक शक्तियों को वास्तव में तथा अमल में प्रदर्शित कर सकता है। जब इन रचनात्मक शक्तियों की ज़रूरत युद्ध करने और स्वार्थपूर्ण लक्ष्यों की प्राप्ति के नहीं, बल्कि व्यक्ति की क्षमताओं के असीमित विकास तथा मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए होगी, तभी स्वतंत्रता के राज्य की स्थापना होगी। परंतु यह राज्य, ऐतिहासिक आवश्यकता के न होते हुए नहीं, वरन उसके द्वारा, प्रतिरोधी सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के विकास द्वारा पैदा हुए स्वतंत्रता तथा आवश्यकता के बीच अंतर्विरोध को दूर करके उत्पन्न होगा।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

रविवार, 4 नवंबर 2018

स्वतंत्रता और आवश्यकता - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां मनुष्य और समाज’ के अंतर्गत मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद का पहला हिस्सा प्रस्तुत किया था, इस बार हम स्वतंत्रता और आवश्यकता पर चर्चा शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



स्वतंत्रता और आवश्यकता - १
( Freedom and Necessity - 1 )

स्वतंत्रता (freedom) क्या है और क्या मनुष्य स्वतंत्र (free) हो सकता है? - यह दर्शन का एक शाश्वत प्रश्न है। यह दर्शन के एक बुनियादी सवाल की, यानी बाह्य जगत के साथ मनुष्य के संबंध के सवाल की एक अभिव्यक्ति है।

स्वतंत्रता की दार्शनिक संकल्पना (philosophical concept) को, स्वतंत्रता की संकीर्ण धारणा (philistine notion) से नहीं उलझाना चाहिए। संकीर्ण-मना (philistine) लोगों के लिए स्वतंत्रता का मतलब अपनी इच्छानुसार मनमाने ढंग से काम करना, अपनी किसी भी इच्छा को पूरा करना है। क्या ऐसी स्वतंत्रता संभव है? मान लीजिये कि कोई व्यक्ति एक तपते रेगिस्तान के बीच तुरंत शीतल जल-धारा में नहाने की कामना करता है। उसकी इस कामना का पूरा होना असंभव है क्योंकि उस व्यक्ति ने वस्तुगत आवश्यकता (objective necessity) तथा वास्तविक दशाओं (real conditions) को ध्यान में नहीं रखा है। मान लीजिये कि कोई अन्य व्यक्ति परिंदों की तरह उड़ना चाहता है। पर वह अपनी बांहों को पंखों की तरह कितना ही क्यों ना फड़फड़ाये, वह गुरुत्व बल पर क़ाबू नहीं पा सकता है। यहां भी वस्तुगत आवश्यकता उसकी कामना के ख़िलाफ़ आ टकराती है। लेकिन क्या इसका यह मतलब है कि मनुष्य हमेशा आवश्यकता का गुलाम है, कि वह उसे पराभूत नहीं कर सकता और अपनी कामनाओं के अनुरूप काम नहीं कर सकता?

प्राचीन यूनानी दार्शनिकों का ख़्याल था कि स्वतंत्रता केवल देवताओं के लिए अनुमत (allowed) है। मनुष्य उनके हाथों का खिलौना है। वह अपने भावावेगों (passions) तथा बाहरी आवश्यकता का ग़ुलाम है। यह दृष्टिकोण, सामाजिक विकास के उस स्तर को परावर्तित (reflect) करता था, जब प्राकृतिक शक्तियों के साथ तथा वर्ग शोषण (class exploitation) के ख़िलाफ़ संघर्ष में मनुष्य दुर्बल और निस्सहाय था। ईसाई धर्माधिकारियों तथा दार्शनिकों का विचार था कि मनुष्य स्वतंत्र हो सकता है, किंतु वे स्वतंत्रता का बहुत सीमित अर्थ लगाते थे। उनकी दृष्टि से यह दो रास्तों में से एक के चयन की संभावना में निहित है - मनुष्य या तो ईश्वर को प्रिय कर्म करे और पुरस्कारस्वरूप स्वर्ग को जाये या शैतान को प्रिय काम करे और दंडस्वरूप नरक हो जाये। लगभग ऐसी ही धारणाएं कमोबेश हर धार्मिक दृष्टिकोण में अभिव्यक्त हुयीं।

१७वीं सदी के हॉलेंड के भौतिकवादी चिंतक बारूख़ स्पिनोज़ा का विचार था कि प्रकृति में आवश्यकता का बोलबाला है। तर्कबुद्धि (reason) संपन्न मनुष्य इस आवश्यकता को जानने में समर्थ रहा, अतः स्वतंत्र हो गया। स्पिनोज़ा के अनुसार, स्वतंत्रता आवश्यकता को जानना है। क्या सचमुच ऐसा है? क्या वस्तुगत आवश्यकता पर नियंत्रण कायम करने के लिए, उस पर निर्भर न रहने और स्वतंत्र होने के लिए उसे जानना काफ़ी है?

एक तपते हुए रेगिस्तान में नहाने के लिए उपयुक्त तालाब के प्रकट होने के लिए इच्छाओं का कोई महत्व नहीं है। इसके लिए चंद सिंचाई परियोजनाओं को कार्यान्वित करना, नहरें और सिंचाई के तालाब बनाना, पानी के स्रोत को खोजना और नमी को संरक्षित तथा वितरित करना सीखना ज़रूरी है। और इसके लिए क्रमानुसार प्रकृति के नियमों को जानना, सही निर्माण योजना को छांटना और सुआधारित फ़ैसले लेना आवश्यक है। लेकिन केवल फ़ैसले और योजनाएं भी काफ़ी नहीं है। ढेर सारा काम करना और चयनित योजना को वास्तविकता बनाना आवश्यक है; मनुष्य केवल तभी झुलसानेवाली गर्मी से छुटकारा पायेगा और अपनी इच्छा को पूरा कर सकेगा।

उड़ने के लिए केवल कामना करना काफ़ी नहीं है। विश्व में विविध आवश्यकताएं तथा वस्तुगत नियमितताएं (objective laws) संक्रियाशील (operational) हैं। गुरुत्व के नियम के अलावा गतिमान पिंडों के प्रति वायु के प्रतिरोध के नियम भी हैं। हम अपने आप को इनमें से किसी भी नियम से या इन आवश्यकताओं में से किसी भी आवश्यकता से छुटकारा नहीं दिला सकते हैं। लेकिन जब हम वस्तुगत आवश्यकता को जान पाते हैं, तो हम दूसरे पर भरोसा करते हुए उनमें से एक की संक्रिया पर क़ाबू पा सकते हैं। विमानों के डिज़ाइनर ऐसा ही करते हैं, वे गुरुत्व के बल पर क़ाबू पाने के लिए वायु के प्रतिरोध बल का उपयोग करते हैं। लेकिन महज़ आवश्यकता का ज्ञान काफ़ी नहीं है। ज्ञान पर भरोसा करते हुए सही निर्णय लेना, सबसे सही डिज़ाइन तथा निर्मिति का चयन करना और विमान काव्यवहारतः निर्माण करना महत्वपूर्ण है। केवल तभी हम मुक्त रूप से हवा में उड़ सकते है।

इस तरह, स्वतंत्रता की ऐतिहासिक भौतिकवादी संकल्पना (historical materialistic conception) सिर्फ आवश्यकता की जानकारी तक सीमित नहीं की जा सकती है; यह इसे लोगों के व्यावहारिक क्रियाकलाप से जोड़ती है। स्वतंत्र होने का मतलब है वस्तुगत आवश्यकता का संज्ञान (cognition) प्राप्त करना और उस ज्ञान पर भरोसा करते हुए सही लक्ष्य तय करना, प्रमाणित (substantiated) फ़ैसले छांटना और लेना तथा उन्हें व्यवहार में लाना। इसीलिए इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि स्वतंत्रता, वस्तुगत आवश्यकता से काल्पनिक स्वाधीनता (imaginary independence) में नहीं, बल्कि यह जानने में है कि सके ज्ञान सहित निर्णय कैसे लिये जायें।

इस अर्थ में, मनुष्य केवल सामाजिक सत्व (social being) के रूप में ही स्वतंत्र हो सकता है। समाज के बाहर स्वतंत्र होना असंभव है। एक पूर्णतः अलग-थलग रहने वाला व्यक्ति वस्तुगत आवश्यकता को जानने में समर्थ होते हुए भी सबसे अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण फ़ैसले को शायद ही कार्यान्वित कर सकता है। जो पूंजीवादी चिंतक यह समझते थे कि मनुष्य को सबसे पहले समाज के प्रति दायित्वों से मुक्त किया जाना चाहिए, उनका खंडन करते हुए लेनिन ने लिखा: "कोई समाज में रहकर समाज से स्वतंत्र नहीं हो सकता है।" फलतः प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता सिर्फ़ कुछ ऐतिहासिक दशाओं में और ठीक तब प्राप्त की जा सकती है, जब सारा समाज स्वतंत्र हो। ये दशाएं क्या हैं?



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 2 सितंबर 2018

मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां मनुष्य और समाज’ के अंतर्गत मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद का पहला हिस्सा प्रस्तुत किया था, इस बार हम उसी संवाद का अगला हिस्सा प्रस्तुत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद - २
(A dialogue on the Essence of Man and the Sense of Life -2)

यह काल्पनिक संवाद, यहां की अब तक की सामग्री को भली भांति पढ़ चुके एक पाठक (पा०) तथा एक दार्शनिक (दा०) के बीच हो रहा है, जो द्वंद्ववाद और ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण को अपनाता है। पिछली बार से अब और आगे।

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पा० - तो फिर ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन (historical materialistic philosophy), मनुष्य के सार (essence) तथा जीवन के अर्थ (sense) को किस तरह से समझता है?

दा० - ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन यह मानकर चलता है कि मनुष्य मुख्यतः एक सामाजिक प्राणी है। वह श्रम की प्रक्रिया के द्वारा विकसित तथा जंतु जगत से अलग हुआ। उसके कर्म, लक्ष्य, दृष्टिकोण और इरादे अंततः उस समाज के संबंधों (social relations) से और सर्वोपरि उत्पादन संबंधों (relations of production) से निर्धारित होते हैं।

पा० - यदि किसी प्रदत्त युग (given age) में लोगों का सार सामाजिक संबंधों से निर्धारित होता है, तो क्या सब लोग, कम से कम एक प्रदत्त समाज में, जुड़वां बच्चों की तरह एक समान नहीं होने चाहिए क्या? तो फिर लोग अपने व्यवहार, रुचियों, दृष्टिकोणों, जीवन के लक्ष्यों और स्वभाव में एक दूसरे से भिन्न क्यों होते हैं?

दा० - यह मत भूलिए कि यह ही सार भिन्न-भिन्न ढंग से प्रदर्शित हो सकता है, क्योंकि उसके लिए पूर्वावस्थाएं हमेशा भिन्न होती हैं। मसलन, सारे हीरों का सार एक ही है और इस बात से निर्धारित होता है उनमें कार्बन के आयन निश्चित मणिभ-जालकों (crystal lattices) में समाहित होते हैं। किंतु प्रकृति में दो पूर्णतः समरूप हीरे नहीं पाए जाते। वे अपने आकार, रंग, पारदर्शिता, आकृति, दरारों की उपस्थिति, आदि में एक दूसरे से भिन्न होते हैं चाहे यह भिन्नता कितनी ही न्यू्न क्यों ना हो। इसका कारण यह है कि वे भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में बने। निश्चय ही लोग इससे अरबों गुना अधिक जटिल और विविध होते हैं। मानवीय सार की अभिव्यक्ति आदमी का व्यक्तित्व (personality) है। संसार में ऐसे दो व्यक्तियों का अस्तित्व नहीं है जिनके व्यक्तित्व पूर्णतः समान हों।

पा० - लेकिन व्यक्तित्व क्या है? उसे कौन निर्धारित करता है?

दा० - यह मुख्यतः मनुष्य के सार पर, यानी ऐतिहासिक दृष्टि से परिवर्तित होते हुए सामाजिक संबंधों पर निर्भर होता है। इसलिए एक युग का या किसी एक वर्ग (class) का व्यक्तित्व (व्यक्ति), दूसरे युग या वर्ग के व्यक्तित्व (व्यक्ति) से मूलतः भिन्न होता है। काम के, अपने वर्ग, परिवार, स्कूली शिक्षा-दीक्षा के प्रति रुख़ (attitude) और शिक्षा का स्तर तथा व्यक्ति की जानकारी का दर्जा एवं उसकी क्षमताओं के विकास का स्तर, व्यक्तित्व के निर्माण को प्रभावित करते हैं। इसके अलावा इस पर, व्यक्ति के मिज़ाज (temperament), अन्य लोगों के प्रति रुख़, अपना स्वमूल्यांकन (self-estimation), आदि भी उसे प्रभावित करते हैं। इसलिए, एक सामान्य सार के होते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति मौलिक (original) और अद्वितीय (imitable) होता है। इसमें सामान्य, विशेष और व्यष्टिक (general, particular and individual) की द्वंद्वात्मकता (dialectic) अभिव्यक्त होती है।

पा० - तो इससे यह निष्कर्ष निकला कि प्रत्येक विशिष्ट व्यक्ति को समझने के लिए हमें एक सामाजिक-ऐतिहासिक सत्व (social and historical being) के रूप में उसके मात्र सार की ही नहीं, बल्कि उसके जीवन के वृतांतों, उसकी शिक्षा-दीक्षा की विशिष्टताओं, जीवन से संबंधित ब्यौरों, आदि की जानकारी भी होनी चाहिए।

दा० - बिल्कुल सही।

पा० - यहां एक नया प्रश्न है। सामाजिक संबंध और मनुष्य का सार भी युग-दर-युग बदलते जाते हैं। इसके अलावा, यह सार अरबों भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में अभिव्यक्त होता है जिनके लक्ष्य तथा जीवन के प्रति रुख़ भिन्न-भिन्न होते हैं। तो क्या हम मानवता के लिए, कम से कम अपने युग की मानवजाति के लिए जीवन के एक एकल अर्थ (single sense) तथा लक्ष्य की बात कर सकते हैं?

दा० - बेशक कर सकते हैं। यह सर्वोच्च लक्ष्य प्रत्येक व्यक्ति तथा सकल (whole) समाज की स्वतंत्रता (freedom) की उपलब्धि है।

पा० - यह स्वतंत्रता हमें क्या देगी?

दा० - यह हमें एक समृद्ध, ओजस्वी, यानी रचनात्मक (creative) जीवन का, पूर्ण आत्मविकास (self-realisation) का अवसर देगी।

पा० - परंतु रचनात्मकता और रचनात्मक जीवन इतने महत्वपूर्ण क्यों है? और यह आत्मविकास क्या है?

दा० - जैसा कि आप जानते हैं, विकास की कोई भी प्रक्रिया नूतन (new) का उद्‍गम है। प्रकृति में नये महाद्वीपों, पर्वतों, या नदियों की रचना में करोड़ों या सैकड़ों हज़ारों वर्ष लगे। पौधों और जानवरों की नयी जातियों की रचना में हजारों या सैकड़ों वर्ष लगे। आधुनिक मनुष्य कृत्रिम नदियों और झीलों की रचना तथा भूदृश्यावलियों में परिवर्तन कुछ ही वर्षों या महीनों के अंदर कर डालता है। हमने थोड़ी ही अवधि में जीवित अंगियों की ऐसी नयी जातियों की रचना करना सीख लिया है, जिनके गुण पूर्वनियोजित होते हैं। 

रचनात्मकता, मनुष्य के हित में और उसकी भौतिक तथा बौद्धिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिए नूतन की सचेत, सोद्देश्य रचना है। लोग हमेशा रचनात्मक रहे हैं, किंतु सामान्यतः यह रचनात्मकता स्वतःस्फूर्त (spontaneous) रही है। इसके अलावा, शोषक समाजों में यह कुछ ही लोगों की क़िस्मत होती थी और हमेशा मनुष्यजाति के हितार्थ नहीं होती थी। किसी अन्य की ज़रूरतों और संकल्पों (will) से संचालित करोड़ों लोगों ने ऐसे उद्देश्यों के लिए काम किया जिन्हें वे समझ नहीं पाते थे। उनकी अंतर्जात (inborn) क्षमताएं अपविकसित या एकतरफ़ा विकसित थीं। उत्पादक शक्तियों (productive forces) का स्तर, जीवन पद्धति और उत्पादन संबंधों का स्वरूप भौतिक श्रम और सामाजिक जीवन के दौरान लोगों के इरादों, क्षमताओं, आशाओं और आदर्शों को वास्तविक नहीं बनने देते थे। इसके लिए वस्तुगत दशाएं (objective conditions) सामान्यतः विद्यमान नहीं थीं।

आत्मविकास, वस्तुतः भौतिक वस्तुओं और आत्मिक मूल्यों तथा स्वयं व्यक्ति के जीवन में इंजीनियरी तथा तकनीकी विचारों, नैतिक व कलात्मक मानकों (standards) तथा न्यायोचित सामाजिक प्रणाली के आदर्शों का साकार होना है। यह रचनात्मकता से और इससे भी अधिक, रचनात्मक चेतना से अविभाज्य (inseparable) है। ऐसी रचनात्मकता केवल तभी संभव है जब वास्तविक (real), सच्ची स्वतंत्रता (genuine freedom) हो जो केवल मानव जाति के दीर्घ, जटिल विकास के द्वारा ही उपलभ्य (attainable) है।

पा० - किंतु अगर लोग स्वतंत्र हों और प्रत्येक अपने ही ढंग से जीवन को समझता हो, अपने ही लक्ष्यों, आदि का अनुसरण करता हो, तो क्या उससे अंतहीन झगड़े नहीं होंगे? एक व्यक्ति आत्मविकास के लिए संगीत रचने की इच्छा रखता हो और सुबह से शाम तक पियानो को ठकठकाता रहता हो, तो वह संगीत किसी अन्य को परेशान तथा उसके काम में दखलअंदाज़ी कर सकता है, जिसे गणितीय समस्या हल करने के लिए पूरी ख़ामोशी की जरूरत है। किंतु अगर हर कोई आत्मविकास में जुटा हो और अन्य लोगों की परवाह किए बिना उन्मुक्त रूप से कार्य करता हो, तो सारी मानव जाति को क्या उपलब्ध होगा? आख़िर समाज में अप्रिय, कष्टसाध्य तथा अरचनात्मक काम होंगे।

दा० - आप अराजकता (anarchy) और सच्ची स्वतंत्रता को गड्डमड्ड कर रहे हैं। जो भी व्यक्ति अन्य लोगों या समाज के अहित में काम करता है, वह स्वतंत्र नहीं हो सकता है। यह समझने के लिए कि मानवजाति के प्रत्येक सदस्य के रचनात्मक श्रम तथा आत्मविकास से स्वयं मानवजाति को क्या फ़ायदा होगा और उससे व्यक्ति को क्या मिलेगा, हमें इन प्रश्नों की अधिक विस्तृत समझ हासिल करनी चाहिए और इसके लिए हम ‘स्वतंत्रता और आवश्यकता’ से बात आगे शुरू करेंगे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 26 अगस्त 2018

मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका में बढ़ती पर चर्चा की थी, इस बार हम मनुष्य और समाज’ के अंतर्गत मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद का पहला हिस्सा प्रस्तुत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


मनुष्य और समाज
मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद - १
(A dialogue on the Essence of Man and the Sense of Life -1)

यह काल्पनिक संवाद यहां की अब तक की सामग्री को भली भांति पढ़ चुके एक पाठक (पा०) तथा एक दार्शनिक (दा०) के बीच हो रहा है, जो द्वंद्ववाद और ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण को अपनाता है।

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पा० - यहां प्रारंभ में आपने कहा था कि दर्शन का और सर्वोपरि द्वंद्वात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद (dialectical and historical materialism) का ज्ञान मनुष्य के सार (essence) को, आधुनिक जगत में उसके स्थान को तथा उसके जीवन व उद्देश्य को समझने के लिए, अतः आधुनिक युग की सर्वाधिक विकट समस्या को समझने के लिए आवश्यक है।

दा० - बिल्कुल ठीक। और हमने इन समस्याओं पर वस्तुतः लगातार विचार-विमर्श किया। यहां हमने दर्शन के बुनियादी सवाल पर, चेतना (consciousness) तथा भूतद्रव्य (matter) के संबंध के सवाल पर ध्यान दिया। यह मूलतः समस्त विश्व के साथ मनुष्य के संबंध का सवाल है। हमने सामाजिक सत्व (social being) तथा सामाजिक चेतना के, लोगो के भौतिक उत्पादन तथा आत्मिक क्रियाकलाप के संबंध की जांच करते हुए अपने विचार-विमर्श को जारी रखा। हमने यहां प्रकृति के साथ मानव समाज के संबंध पर विचार किया। द्वंद्ववादके नियमों का अध्ययन करने तथा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के ज्ञान के सिद्धांत से परिचित होने के बाद हम अन्य अनसुलझे सवालों को समझने के लिए तैयार हुए।

पा० - तो आइये, उनसे निबटने और उन्हें हल करने की कोशिश करें। मसलन, मनुष्य का सार क्या है? उसके जीवन का अर्थ क्या है? मनुष्य किसके लिए जी रहा है? इन प्रश्नों का उत्तर पाना अत्यंत कठिन है।

दा० - आपकी राय में, उनका उत्तर देना किस वजह से कठिन है?

पा० - हम जानते हैं कि दुनिया में कई अरब लोग, अनेक अनेक देशों में रहते हैं - विभिन्न जातियों (nationalities), नस्लों (race) के लोग, पुरुष और नारियां, बूढ़े और जवान, विभिन्न वर्गों (classes) और सामाजिक समूहों के लोग। उनकी शिक्षा-दीक्षा भिन्न है, चरित्र और लक्ष्य भिन्न हैं और वे जीवन को तथा उसमें अपने स्थान को भिन्न-भिन्न ढंगो से समझते हैं। इस स्थिति में क्या हम मनुष्य के, एक एकल सार (single essence) की सामान्य बात कह सकते हैं? समाज की बात तो दूर, जब हम केवल दो भिन्न आदमियों ही को लें, तो भी हम उनके, कम से कम कोटि (degree) के सामान्य लक्ष्यों के बारे में या जीवन के अर्थ के बारे में क्या बातें कर सकते हैं?

दा० - आपके प्रश्न में एक ग़लती की संभावना निहित है। आपकी राय में ये विभिन्नताएं इतनी बड़ी हैं कि आप सामाजिक समूहों और वर्गों के समान लक्ष्यों या किसी प्रकार के सामान्य जीवन के अर्थ की बात स्वीकार नहीं करते। आप यह सुझाते हैं कि मनुष्य का कोई समान सार नहीं है या ऐसा कुछ नहीं है, जो लोगों को एकता में बांध सके। यह बात ऐसी ही अतिवादी (extreme) है, जैसे यह सोचना कि सब लोग एकसमान हैं, कि वे नन्हे, अवैयक्तिक (impersonal), सामाजिक पेंच हैं। किंतु सामान्य, विशेष और व्यष्टिक (general, particular and individual) की एक द्वंद्वात्मक एकता होती है। हमारा दर्शन लोगों के लिए उनके सारे लक्ष्यों या उनके प्रत्येक पृथक कर्म, आदि के लिए नुस्खे़ (prescriptions) तैयार करने का लक्ष्य नहीं रखता है। मनुष्य और समाज एक द्वंद्वात्मक एकत्व (dialectical unity) है, अतः इन प्रश्नों का उत्तर इस शर्त पर ही दिया जा सकता है कि हम लोगों के अंतर तथा समानता को, व्यक्तिगत और सामाजिक हितों के अंतर्संयोजन (interconnections) को, सामाजिक और व्यक्तिगत क्रियाकलाप की अंतर्निर्भरता को मान्यता दें। हम केवल ऐसे ही एक उपागम (approach) से यह समझ सकते हैं कि मनुष्य का सार क्या है और कि उसके जीवन का अर्थ क्या है।

पा० - तो बताइए यह सार क्या है?

दा० - दर्शन के इतिहास ने इसके कई भिन्न-भिन्न उत्तर दिये हैं। मसलन, प्राचीन यूनानी दार्शनिकों का विचार था कि मनुष्य का सार यह है कि वह स्वयं में एक सूक्ष्म ब्रह्मांड (microcosm) है, यानी एक नन्हा, जीवित गतिमान जगत है, जो अपनी परिवेशीय दुनिया को, बॄहत ब्रह्मांड (macrocosm) को सूक्ष्मीकृत रूप में दोहराता है। लेकिन तब से अब तक विज्ञान के विकास ने यह दर्शाया है कि मनुष्य की जीवन क्रिया सामाजिक विकास के नियमों से संचालित है, जबकि बाह्य जगत प्रकृति के नियमों के अनुसार विकसित होता है। जीवन ने मनुष्य के सार की प्राचीन यूनानी समझ का खंडन कर दिया। मध्ययुगीन ईसाई दर्शन ने उसका सार दैवी उत्पत्ति (divine origin) में, उनके अनुसार इस तथ्य में देखा कि उसमें आत्मा (soul) का निवास है। किंतु आत्मा का सृजन हमेशा के लिए ईश्वर ने किया है, जबकि लोग नितांत भिन्न हैं। लोग वैर पालते हैं, लड़ते हैं और अत्यंत अधार्मिक कार्य करते हैं, दैव विरोधी कर्म करते हैं। इससे बड़ी बात यह है कि मनुष्य की जीवन पद्धति, रुचियां, दृष्टिकोण तथा स्वयं जीवन की समझ युग-दर-युग बदलती रहती हैं। मनुष्य के सार की ईसाई संकल्पना भी काल कसौटी में खरी नहीं उतरी। अपने विचारों की विभिन्नता के बावजूद पूंजीवादी दार्शनिक मनुष्य के सार को तथा उसके मुख्य लक्ष्य को, प्रकृति पर और अन्य लोगों पर प्रभुत्व (domination) में देखते हैं।

पा० - (बात काटते हुए) तो फिर जीवन का अर्थ और मानवता की सर्वोच्च अभिव्यक्ति (supreme manifestation) क्या है?

दा० - लोगों की सबसे बड़ी संख्या मेहनतकशों (working people) की है और प्रतिरोधी वर्ग समाजों (antagonistic class societies) में उनका शोषण होता है। वे कोई मुनाफ़ा (profit) नहीं कमाते और इस प्रभुत्व से कोई हितलाभ (benefits) हासिल नहीं करते हैं। इसके अलावा यह प्रभुत्व, मनुष्यों को नीचा बनाता है, उनकी हैसियत गिराता है और प्रकृति को नष्ट तथा अस्तव्यस्त करता है। इसलिए प्रभुत्व और किसी भी क़ीमत पर मुनाफ़ा कमाना अधिकांश लोगों के लिए जीवन का सार या अर्थ नहीं हो सकता है। वे केवल चंद शोषकों (exploiters) के सार तथा लक्ष्यों को निर्धारित करते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 12 अगस्त 2018

समाजवाद के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता पर चर्चा की थी, इस बार हम समाजवाद के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


समाजवाद के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका में बढ़ती
(Growth of the Role of the Subjective Factor under socialism)

सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता (relative independence) पर विचार करते और इसके विविध रूपों की सक्रियता पर जोर देते समय हमने यह साबित किया कि वे सब सामाजिक यथार्थता (reality) के विविध पक्षों को परावर्तित (reflect) ही नहीं करते, बल्कि उस पर एक सक्रिय प्रतिप्रभाव (active reverse effect) भी डालते हैं। यह प्रभाव विभिन्न प्रकार की प्रगतिशील प्रवृतियों के विकास को बढ़ावा भी दे सकता है और साथ ही उनके वास्तवीकरण (realisation) को रोक भी सकता है। ऐतिहासिक प्रक्रिया में आत्मगत (subjective)’ मानवीय कारक की महत्वपूर्ण भूमिका दोनों ही मामलों में अभिव्यक्त होती है।

यह भूमिका किसमें निहित है? आज मानवीय कारक (human factor) इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया है? समाज का विकास, एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया होते हुए भी अलग-अलग लोगों या पृथक-पृथक सामाजिक समूहों द्वारा अपने लिए तय कुछ निश्चित लक्ष्यों की समझ के साथ हमेशा संबद्ध (connected) होता है। इन उद्देश्यों की उपलब्धि और लक्ष्यों की पूर्ति और उपलब्धि, क्रियाकलाप की पद्धति के चयन तथा लिये गये निर्णय पर निर्भर हैं। यहां दो संभावनाएं विद्यमान हैं।

पहली यह है कि लोग अपने लिए अलभ्य (unattainable) लक्ष्य निश्चित करते हैं, अपने कार्यों का गलत निरूपण करते हैं, कुविचारित फ़ैसले लेते हैं और कार्य पद्धति का ऐसा तरीक़ा छांटते हैं जो प्रदत्त दशाओं, प्रदत्त समय, प्रदत्त स्थान तथा प्रदत्त समाज के लिए अनुपयुक्त (unsuitable) होता है, या इच्छित परिणामों की उपलब्धि के लिए कारगर नहीं होता है। इस प्रकार के फ़ैसले और ऐसी कार्रवाइयां सामाजिक प्रगति को रोक सकती हैं, जीवन के हालतों को बदतर बना सकती हैं और अवांछित (undesirable) तथा कभी-कभी विनाशक (disastrous) परिणामों पर पहुंचा सकती है। यह इस बात का द्योतक भी है कि सामाजिक विकास के ग़लत ढंग से अनुबोधित (understood) नियमसंगतिया तथा वस्तुगत परिस्थितियां लोगों से इस बात का `बदला' लेती हैं कि उन्हें उनकी जानकारी नहीं है, कि उन्होंने उनका अध्ययन नहीं किया और अपने क्रियाकलाप में उन्हें परावर्तित नहीं किया। देर-सवेर ये नियमसंगतिया और उनकी ग़लत समझ के परिणाम उन्हें अपने ग़लत फ़ैसलों को बदलने तथा वस्तुगत यथार्थता के अधिक अनुरूप ज़्यादा सही कार्य पद्धति को खोजने के लिए बाध्य कर देते हैं। पर जब तक ऐसा होता है तब तक ग़लत ढंग से लिये गये फ़ैसलों पर चलने तथा अलभ्य लक्ष्यों का अनुसरण करने वाले लोगों को अपनी ग़लतियों की भारी क़ीमत अदा करनी पड़ती है।

दूसरी संभावना यह है कि लोगों को वस्तुगत नियमितताओं का गहन तथा ठीक अवबोध होता है और वे सामाजिक सत्व की वास्तविक दशओं व प्रवृतियों को समझते हैं। इस कारण से वे वास्तविक, विज्ञानसम्मत लक्ष्यों तथा किये जा सकनेवाले कार्यों को प्रस्तुत करने में समर्थ होते हैं। वे सच्चे फ़ैसले लेने और कार्य के कारगर तथा विश्वसनीय साधनों को काम में लाने में समर्थ होते हैं। बेशक, इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता है कि ऐसी स्थिति में सब कुछ सरल और आसान हो जाएगा तथा लक्ष्य संघर्ष के बिना ही सुलभ्य हो जाएंगे और समुचित कार्रवाई को कठिनाइयों और बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। जीवन की वस्तुगत जटिलता (complexity) और अंतर्विरोधी (contradictory) स्वभाव के कारण तथा इस कारण से कि समाज में लोगों, सामाजिक तथा व्यवसायिक समूहों की बड़ी संख्या और साथ ही अपने-अपने हितों की रक्षा करने वाले विभिन्न संगठन एक ही समय क्रियाशील हैं, इसलिए प्रमुख और समान लक्ष्यों की उपलब्धि में कठिनाइयों और बाधाओं का आना स्वाभाविक है।

परंतु पहली और दूसरी संभावना के बीच मूल अंतर यह है कि दूसरी सूरत में नियोजित (planned) लक्ष्य की तरफ़ गति अधिक तेज़ होती है और ग़लतियां कम होती हैं। ऐसी स्थिति में लोग हमेशा दूसरी ही संभावना को कार्यान्वित क्यों नहीं करते? बात यह है कि वास्तविक समाज में सामान्यतः सामाजिक चेतना, सामाजिक सत्व (social being) के मु्क़ाबले पिछड़ी हुई होती है। वास्तविकता का सही, गहरा और, उससे भी अधिक, वैज्ञानिक बोध हमेशा उपलब्ध होना दूर की बात है, क्योंकि विविध सामाजिक शक्तियां, अर्थात सामाजिक-वर्गीय अंतर्विरोध तथा संघर्ष, विभिन्न पूर्वाग्रह, वैचारिक उसूल, सामाजिक मनोदशाएं तथा भावावेग, सूचना की कमी, आदि चेतना, यानी सामाजिक विकास के आत्मगत कारकों को प्रभावित करती है। सही फ़ैसला लिया जाना तथा लक्ष्यों और वस्तुस्थिति का सच्चा बोध अक्सर नेताओं, राजनीतिक चिंतकों तथा विचारकों के व्यक्तिगत गुणों के कारण बाधित हो जाता है। जिन लोगों पर सामाजिक लक्ष्यों और वैचारिकी का निर्धारण निर्भर होता है, उनमें अगर सही निर्णय लेने में बाधक गुण हों, तो वे अक्सर समुचित लक्ष्यों तथा कार्यों की ग़लत समझ पर जा पहुंचते हैं। यही वजह है कि अंततोगत्वा वस्तुगत कारक ( विकासमान सामाजिक सत्व ) के निर्णायक होने के बावजूद कभी-कभी आत्मगत कारक ऐतिहासिक विकास में उल्लेखनीय भूमिका अदा कर सकता है

समाजवादी समाज में प्रतिरोधी (antagonistic) अंतर्विरोधों पर काबू पा लिया जाता है, जिसकी वजह से सामाजिक यथार्थता की पूर्णतर तथा गहनतर समझ के लिए और लक्ष्यों तथा उनकी उपलब्धि के साधनों के वैज्ञानिक निर्धारण के लिए वस्तुगत पूर्वाधारों (objective preconditions) की रचना हो जाती है। परंतु इसका यह मतलब नहीं है कि समाजवादी समाज में लिए गए सारे फ़ैसले और सामाजिक कार्रवाइयों की सारी पद्धतियां स्वतः सही होती हैं और कि वे फ़ैसले रायों के संघर्ष, हितों के टकराव और गंभीर राजनीतिक व आत्मिक प्रयत्नों के बिना ही ले लिये जाते हैं। समाजवादी समाज में आत्मगत कारक की, और सामाजिक समस्याओं के सही समाधान में सचेत, सक्रिय रचनात्मक चिंतनशील व्यक्तियों की भूमिका में तेजी से बढ़ती होती है

समाज के जीवन को नई प्रेरणा देने तथा सामाजिक-आर्थिक विकास में निर्णायक त्वरण (acceleration) लाने के लिए समाज के फ़ौरी (immediate) लक्ष्यों तथा उसके निकट भविष्य की संभावनाओं, दोनों के अधिक गहन बोध की तथा यह समझने की जरूरत है की उन्नति में बाधक क्या है और कौन सी शक्तियां उसे बढ़ावा दे सकती हैं, आगे ले जा सकती हैं। किंतु केवल पार्टी तथा राज्य के नेताओं की इसकी जानकारी होना काफ़ी नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि परिवर्तनों की ऐतिहासिक आवश्यकता की समझ प्रत्येक व्यक्ति की चेतना तथा हृदय में पैठे, और सारी श्रम समष्टियों (work collectives), सामाजिक समूहों तथा सामाजिक संगठनों द्वारा अपनायी जाये

इन सब बातों से यह प्रकट होता है कि समाजवाद के निर्माण में मौलिक प्रतिरोधी अंतर्विरोधों से रहित समाज में ऐतिहासिक प्रकृति काफ़ी हद तक आत्मगत कारक पर निर्भर होती है। इसलिए उसे सक्रिय किया जाना चाहिए। इस प्रकार, समाजवादी समाज में आत्मगत कारक की भूमिका को ऊंचा उठाने की समस्या को निरूपित करना, ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन के विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 5 अगस्त 2018

सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता के बारे में

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत व्यष्टिक और सामाजिक चेतना पर चर्चा की थी, इस बार हम सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता के बारे में
(On the Relative Independence of Social Consciousness)

सामाजिक चेतना में होने वाले सारे परिवर्तनों तथा स्वयं उसके विकास की प्रक्रिया का निर्धारण अंततः सामाजिक सत्व (social being) में होने वाले परिवर्तनों से होता है। परंतु यह सोचना ग़लत होगा कि यह चेतना, हमेशा सामाजिक सत्व से पीछे (lags behind) होती है। राजनीतिक चेतना, नैतिकता, कलात्मक चेतना, धर्म और दर्शन लोगों की भौतिक यथार्थता (material reality), वर्ग संघर्ष (class struggle), विभिन्न घटनाओं, शनैः शनैः होनेवाले तथा क्रांतिकारी परिवर्तनों को एक दर्पण की तरह निष्क्रिय ढंग से परावर्तित (reflect) नहीं करते, बल्कि कुछ आदर्शों (ideals), मानकों (norms), मानदंडों (standards) ,व्यवहार के क़ायदों की रचना भी करते हैं और सामाजिक जीवन के संगठन की एक अधिक वांछित (desirable), वरेण्य (preferable) छवि का विकास भी करते हैं। सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता और तथाकथित पूर्वानुमानिक परावर्तन (anticipatory reflection) की उसकी क्षमता इसी में व्यक्त होती है।

अतीत काल की साहित्यिक कृतियों, दार्शनिकों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों तथा राजनीतिक चिंतकों की रचनाओं में हमें इस आशय की अनेक दलीलें मिलती हैं कि तर्कबुद्धिसम्मत (rational) न्यायोचित समाज कैसा होना चाहिए, राजकीय प्रशासन का संगठन कैसे किया जाना चाहिए, सबसे ज़्यादा न्यायोचित क़ानून और नैतिकता के सर्वाधिक मानवीय मानक कैसे होने चाहिए। बेशक, ये सारी दलीलें न सिर्फ सार्विक (universal), बल्कि सर्वथा निश्चित वर्गीय-सामूहिक आदर्शों, न्याय और मानवता की धारणाओं को भी परावर्तित करती है। इसके साथ ही वह इतिहासतः सीमित होती हैं। परंतु अतीतकाल के चिंतकों ने भविष्य में देखने के जो प्रयत्न किए और उन्होंने सामाजिक जीवन, आदर्शों तथा मानकों के जिन बिंबो की रचना की, व्यवहार में उन्हें जिस सामाजिक सत्व से वास्ता पड़ा और जो युग की सामाजिक चेतना में परावर्तित हुआ था - उस सब ने उनकी दलीलों की सामग्री का काम दिया। इसलिए पूर्वानुमानिक परावर्तन भी अंततोगत्वा सामाजिक सत्व से निर्धारित होता है।

पूर्ववर्ती आर्थिक-सामाजिक विरचनाओं (socio-economic formations) के स्वतःस्फूर्त विकास के यु्गों में सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता अक्सर विभिन्न प्रकार के यूटोपिया (utopias) बनाने में व्यक्त होती थी। न्यायोचित, तर्कबुद्धिसम्मत, मानवीय संगठनवाले ऐसे भावी समाज से संबंधित विचारों, बिंबों तथा सैद्धांतिक परावर्तनों को यूटोपियाई कहते हैं, जिसका वस्तुगत (objective) वैज्ञानिक आधार नहीं होता। यूटोपियाओं के रचयिता अक्सर जैसे चिंतक होते थे, जो सर्वाधिक उत्पीड़ित और शोषित वर्गों के हितों तथा मनोदशाओं को व्यक्त करते थे, हालांकि वे स्वयं कभी-कभी विशेषाधिकारप्राप्त वर्गों या सामाजिक श्रेणियों के लोग होते थे। इस प्रकार के दृष्टिकोणों का यह नाम १६वीं सदी के प्रारंभ के अंग्रेज़ राजनीतिज्ञ टॉमस मूर की ‘यूटोपिया’ शीर्षक पुस्तक से पड़ा। उसमें एक ऐसे काल्पनिक समाजवादी समाज का चित्रण था जिसमें सार्विक समानता, न्याय और समृद्धि का बोलबाला था।

१८वीं और १९वीं सदियों के दौरान मेहनतकशों के शोषण बढ़ने के साथ-साथ यूटोपियाई समाजवाद का बहुत प्रसार हो गया था। मार्क्स और एंगेल्स ने समाज के समाजवादी पुनर्संगठन तथा पुनर्रचना की आवश्यकता को प्रमाणित करने तथा, मुख्यतया, पूंजीवाद की तीखी आलोचना करने के प्रयत्नों के लिए १९वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों के यूटोपियाई समाजवाद के रचयिताओं फ़ुरिये, ओवेन और सेंट-सीमोन का बहुत ऊंचा मूल्यांकन किया। इसके साथ ही मार्क्स और एंगेल्स ने इस क़िस्म के समाजवाद के अवैज्ञानिक स्वभाव पर ज़ोर भी दिया। यह कल्पना प्रधान (imaginative), अतिकाल्पनिक (fantastic), अभिलाषा जनित समाजवाद था। उस के रचयिताओं ने सुझाया कि नया समाज तीव्र वर्ग संघर्ष के ज़रिये नहीं, बल्कि नैतिक स्वपूर्णता (self-perfection), परहितकारिता (benevolent), परोपकारी क्रियाकलाप तथा प्रबोधन (enlightenment) के द्वारा निर्मित होगा। ऐसी परियोजनाओं का अवैज्ञानिक तथा यूटोपियाई स्वभाव, उन्हें वास्तविक बनाने के अलग-अलग प्रयत्नों (मसलन, रॉबर्ट ओवेन द्वारा) की घोर विफलता से प्रमाणित हो गया।

सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता, वैज्ञानिक समाजवाद (scientific socialism) के सिद्धांत की रचना में विशेष स्पष्टता से व्यक्त हुई। मार्क्स तथा एंगेल्स द्वारा रचित तथा कालांतर में लेनिन द्वारा विकसित यह सिद्धांत, पूंजीवाद के सामाजिक-आर्थिक अंतर्विरोधों का सीधा सरल परावर्तन नहीं था, बल्कि सामाजिक सत्व के सच्चे वैज्ञानिक पूर्वानुमानिक परावर्तन का पहला उदाहरण था। इसने समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण (revolutionary transformation), निजी स्वामित्व के उन्मूलन (abolition of private property) तथा मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के ख़ात्मे की आवश्यकता को वैज्ञानिक ढंग से प्रमाणित ही नहीं किया, बल्कि ऐसे रूपांतरण के वास्तविक मार्गों तथा विधियों का संकेत भी दिया। पूर्वानुमानिक परावर्तन तथा संपूर्ण सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता की स्वयं संभावना (possibility) का मूल क्या है?

मुद्दा यह है कि सामाजिक सत्व, प्रदत्त क्षण पर सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण घटनाओं की समग्रता (aggregate) मात्र नहीं है। यह कोई संघनित और अपरिवर्तनीय तत्व नहीं है। यह अनवरत विकास की अवस्था में होता है और इसमें विविध प्रवृतियां निरंतर पैदा होती तथा बढ़ती रहती हैं। फलतः, इसमें वस्तुगत नियमितताएं (objective patterns) होती हैं जो इन प्रवृतियों, प्रक्रियाओं और परिवर्तनों का नियमन (govern) करती हैं। इन प्रवृतियों तथा नियमितताओं को परावर्तित करके सामाजिक चेतना भविष्य में झांकने की, यानी आगे बढ़ निकलने की क्षमता अर्जित कर लेती है। इसकी सापेक्ष स्वाधीनता इसी में व्यक्त होती है। 

चूंकि सामाजिक सत्व, स्वयं अंतर्विरोधी (contradictory) होता है और विभिन्न संघर्षरत वैचारिकियों (ideologies) के अंदर भिन्न-भिन्न वर्गीय स्थितियों से परावर्तित होता है, इसलिए सामाजिक तत्व का परावर्तन भी अंतर्विरोधी सिद्ध होता है। इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना (materialist conception) की रचना तक, यह पूर्वानुमानिक परावर्तन मूल रूप से अवैज्ञानिक होता था और कुछ सत्य अनुमानों के बावजूद इस में यूटोपियाई लक्षण विद्यमान रहते थे। इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना का निरूपण करनेवाले ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन की रचना से सामाजिक विकास की वस्तुगत प्रवृतियों तथा नियमसंगतियों की विशुद्ध वैज्ञानिक समझ की संभावना पहली बार प्रकट हुई।



इस बार इतना ही।
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समय अविराम

रविवार, 22 जुलाई 2018

व्यष्टिक और सामाजिक चेतना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत कलात्मक चेतना और कला पर चर्चा की थी, इस बार हम व्यष्टिक और सामाजिक चेतना के संबंधो को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



व्यष्टिक और सामाजिक चेतना
( Individual and Social Consciousness )



अभी तक हमने सामाजिक चेतना के विभिन्न रूपों की जांच की। उनका व्यष्टिक चेतना से, यानी व्यक्ति की अपनी चेतना से क्या संबंध है?

समाज व्यक्तियों की समष्टि है। महान कलाकृतियों के सर्जक (creators) अलग-अलग व्यक्ति थे ( शेक्सपियर, पुश्किन, माइकलएंजेलो, रेपिन, पिकासो, रविंद्रनाथ ठाकुर, प्रोकोफ़ियेव, ब्रुकनर, आदि )। विज्ञान की महानतम खोजें तथा विश्व का परावर्तन (reflection) करने वाले सर्वाधिक गहन सिद्धांतों के रचयिता न्यूटन, आइंस्टीन, बोर तथा विनर जैसे लोग भी व्यक्ति थे। हमें व्यष्टिक चेतना की अभिव्यक्तियां (manifestations) विश्व विज्ञान तथा कला में ही नहीं, बल्कि दैनिक जीवन में भी दिखाई पड़ती हैं और वे सब अभिव्यक्तियां भिन्न-भिन्न होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी ही आकांक्षाएं और चिंताएं, जीवन पर अपने ही दृष्टिकोण, विभिन्न समस्याओं व कर्तव्यों, आदि की अपनी ही समझ होती है। संक्षेप में, संसार में जितने लोग हैं, उतनी ही व्यष्टिक नियतियां हैं, जीवन पर उतने ही दृष्टिकोण, लक्ष्य और व्यवहार हैं।

पहली नज़र में ऐसा प्रतीत होगा कि चेतना के व्यष्टिक प्रदर्शनों में लगभग कुछ भी सर्वनिष्ठ (common) नहीं है और कि वे प्रत्येक व्यक्ति के संकल्प (will) तथा उसके जीवन की दशाओं पर निर्भर होते हैं। जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे (१८४४-१९००) ने तो यह दावा तक किया था कि सामाजिक चेतना का कोई अस्तित्व नहीं है, केवल अलग-अलग व्यक्तियों के चिंतन तथा चेतना का अस्तित्व है, क्योंकि उन्होंने यह तर्कणा की कि चेतना सिर के अंदर विकसित होती है और व्यक्तियों के सिर होते हैं परंतु किसी समाज का कोई सिर नहीं होता। यह एक घोर व्यक्तिवादी दृष्टिकोण था। साथ ही, उन पुराने भौतिकवादियों का ख़्याल भी ग़लत था, जिन्होंने व्यष्टिक चेतना को सीधे-सीधे व्यक्तिगत जीवन की दशाओं तथा उसकी अनावर्तनीय (unrepeatable) परिस्थितियों से निगमनित (deduced) किया। फ्रांसीसी भौतिकवादी प्रबोधक हेल्वेतियस (१७१५-१७७१) का विचार था कि व्यक्ति ठीक ऐसी ही परिस्थितियों द्वारा शिक्षित होता है; एक ही परिवार के दो बच्चों का आगे चलकर जीवन पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाने तथा उनके व्यक्तिगत स्वभावो व लक्ष्यों में अंतर होने के लिए बाल्यकालीन भ्रमण के दौरान उनके द्वारा भिन्न रास्तों का अपनाया जाना काफ़ी है।

निस्संदेह, समाज का सिर नहीं होता और जीवन की दशाएं, शिक्षा तथा लालन-पालन की विशिष्टताएं और व्यक्तिगत जीवनवृत्त (personal biography), व्यक्ति की व्यष्टिक चेतना को प्रभावित करते हैं। लेकिन इतना पूछना काफ़ी होगा कि क्या जर्मन फ़ासिस्ट हमलावरों के ख़िलाफ़ सोवियत जनों के संघर्ष को समर्पित शोस्ताकोविच की सातवीं सिंफ़नी की रचना मध्य युग में संभव थी या क्या प्राचीन काल का कोई एक कलाकार रेपिन अथवा पिकासो के जैसे रंगचित्रों का चित्रण कर सकता था, तो यह बात साफ़ हो जायेगी कि इन कृतियों की अंतर्वस्तु प्रदत्त युग, प्रदत्त जाति (nation) तथा प्रदत्त ऐतिहासिक अवधि की विशेषताओं से निर्धारित होती है। इसी प्रकार, सारे अलग-अलग अंतरों के बावजूद १८वीं सदी में किसी ने भी कभी मोटरगाड़ी खरीदने की कोशिश नहीं की। लोगों के व्यवहार के यह सारे अंतर, व्यष्टिक विशेषताओं के बावजूद, एक ओर, वस्तुगत सामाजिक सत्व (objective social being) के द्वारा तथा, दूसरी ओर, इसी के आधार (basis) पर उत्पन्न तथा उसे परावर्तित (reflect) करनेवाली, सामाजिक चेतना से निर्धारित होते हैं

ऐतिहासिक भौतिकवाद (historical materialism) व्यष्टिक चेतना, लक्ष्यों, संकल्प तथा कामनाओं (desires) से इनकार नहीं करता। वह यह मानता है कि उनका गहन अध्ययन करने तथा भौतिकवादी तरीक़े से स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत है। सामाजिक चेतना, वह `सार्विक' (general) है जो प्रदत्त समाज के व्यक्तियों की चेतना में उत्पन्न होता है क्योंकि वे एक निश्चित सामाजिक सत्व की दशाओं में रहते हैं और अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों को उस के संदर्भ में तथा उसके आधार पर निरूपित (formulate) करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की व्यष्टिक चेतना कई कारकों के प्रभावांतर्गत बनती है जिनमें उसका व्यक्तिगत मिज़ाज (temperament), उसकी व्यष्टिक विशेषताएं (peculiarities), लिंग, उम्र, माली हैसियत, पारिवारिक परिस्थितियां, स्थिति, कार्य दशाएं, आदि शामिल हैं। परंतु निर्णायक प्रभाव, निश्चित सामाजिक चेतना तथा अधिरचना (superstructure) के अन्य तत्वों सहित निश्चित सामाजिक सत्व के संदर्भ में निर्मित, सामाजिक परिवेश का होता है।

लोग अपने व्यावहारिक, उत्पादक, घरेलू तथा सामाजिक क्रियाकलाप में दृष्टिकोणों और उत्पादन तथा सामाजिक-राजनीतिक अनुभव का निरंतर विनिमय (exchange) करते हैं। इस विनिमय के दौरान सर्वनिष्ठ और समान दृष्टिकोणों का विकास होता है, एक प्रदत्त समूह या वर्ग के लिए, घटनाओं की समान समझ और मूल्यांकन (evaluation) का तथा समान लक्ष्यों का निरूपण होता है। उनके प्रभावांतर्गत व्यष्टिक लक्ष्य, दृष्टिकोण तथा आवश्यकताएं बनती हैं। इसलिए सामाजिक तथा व्यष्टिक चेतना एक ऐसी अनवरत (constant), जटिल (complex) अंतर्क्रिया (interaction) में होती है, जिसके ज़रिये महान चिंतकों के ही नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक व्यक्तित्व की रचनात्मक उपलब्धियां आत्मिक संस्कृति की समान निधि (treasury) में शामिल की जाती हैं। अतः सामाजिक और व्यष्टिक चेतना को एक दूसरे से पृथक करना तथा इससे भी अधिक उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करना एक बहुत बड़ी अधिभूतवादी (metaphysical) ग़लती है, जो इन घटनाओं के वास्तविक संपर्कों (link) तथा अंतर्क्रिया को गड़बड़ा देती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम
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