शनिवार, 25 मई 2013

हम अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



हम अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं

सुखदेव को भूख हड़ताल के दौरान एक पत्र में भगतसिंह कहते हैं:...
क्या आपका आशय यह है कि यदि हम इस क्षेत्र में न उतरे होते, तो कोई क्रांतिकारी कार्य कदापि नहीं हुआ होता? यदि ऐसा है तो आप भूल कर रहे हैं। यद्यपि यह ठीक है कि हम भी वातावरण को बदलने में बड़ी सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं, तथापि हम तो केवल अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं।

मैं तो यह भी कहूंगा कि साम्यवाद का जन्मदाता मार्क्स, वास्तव में इस विचार को जन्म देनेवाला नहीं था। असल में यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने ही एक विशेष प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति उत्पन्न किए थे। उनमें मार्क्स भी एक था। हाँ, अपने स्थान पर मार्क्स भी निस्सन्देह कुछ सीमा तक समय के चक्र को एक विशेष प्रकार की गति देने में आवश्यक सहायक सिद्ध हुआ है।

इस पर थोड़ा सा कहना है। हो सकता है कि यह आप पसन्द न करें और इसे मेरी कमी या दुर्बलता करार दें।

इस तर्क के आधार पर यह भी तो कहा जा सकता है कि भारत के लोगों को मशीनों की आवश्यकता उस तरह नहीं थी कि यहाँ आविष्कार हो पाते। जब समय-भौगोलिक-सामाजिक परिस्थितियाँ आदि बड़े और प्रमुख कारण हैं, तो ऐसा अगर कोई कहे कि भारत के लोगों को दूर जाकर खाने की आवश्यकता नहीं थी, सो यहाँ गाड़ी-जहाज आदि नहीं बने। यहाँ युद्धों में यह खयाल किसी को नहीं आता था कि बहुत विनाशकारी हथियार आदि बनते। आदि आदि।

यह बहस नहीं, एक बिन्दु मात्र है।

पहली बात तो यह कि आप अपनी बात रखते समय यह क्यों चिंता करते हैं कि आपकी बात को आपकी कमी या दुर्बलता समझा या कहा जा सकता है। इसका दूसरा मतलब यह निकलता है कि आप अपने को इतने ऊंचाई पर महसूस करते हैं कि ऐसा समझा या कहा जाना आपके अहम् को बहुत नागवार गुजरता है। इसलिए बात के साथ यह पुछल्ला आपको पूर्वसुरक्षा की अवस्था में ले आता है जिसमें आप बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं।

बात यह है कि यदि वाकई हमको कोई भी बात ऐसी कमतर लगती है कि जिसपर हमें कमजोर या दुर्बल समझा जा सकता है, यानि बात वास्तव में कमजोर ही लग रही है, तो व्यक्ति उसे रखना ही पसंद नहीं करेगा, उसे कहना स्थगित रखेगा जब तक कि वह अपने स्तर के हिसाब से उसपर पूर्णतया सुनिश्चित नहीं हो लेगा।

यानि फिर भी किसी बचाव की पूर्वपीठिका या औपाचारिक भूमिका के साथ बात रखी जाती है तो इसका मतलब यह हुआ कि वह अपनी बात से पूर्णतया मुतमइन है, सुनिश्चित है, उसे रखा जाना जरूरी समझता है, सिर्फ़ व्यक्तिगत लिहाज या सम्मान के कारण यह औपचारिक तरीक़ा अपनाना उसे श्रेष्ठ लगता है ताकि व्यक्तिगत नाराज़गी पैदा ना हो सकें।

यह बात इसके पीछे के मनोविज्ञान को समझने के लिए कही गई है। साथ ही इसलिए भी हम अभी शुरुआती सीखने की अवस्थाओं में हैं, चीज़ों को समझना सीख रहे हैं, इसलिए अपने अहम् को तदअनुसार ही निचले स्तर पर रखने की कोशिश करनी चाहिए। यदि हम वाकई में सीखना चाहते हैं तो यह पद्धति ठीक रहती है। हमको यह लगने लगता है कि किसी भी बात से हमें जो समझ आ रहा है वही अंतिम सत्य है। आपके अंदर कभी-कभी इस महान चेतना के दर्शन हो जाते हैं और आप अलौकिक ब्रह्मचेतना के आभामंड़ल से प्रदीप्तमान हो उठते हैं। :-)

अब दूसरी बात, भगत सिंह वाली बात पर। किसी सिद्धांत की मूल प्रस्थापनाएं और उसकी वस्तुगत ठोस प्रस्तुति अलग चीज़ होती है, और किसी व्यक्ति द्वारा उसे जैसा भी समझा गया है के आधार पर प्रस्तुत की गई तर्क और व्याख्याएं अलग चीज़ होती हैं। इसलिए यह हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी की वैयक्तिक प्रस्तुति में आत्मपरकता का अंश हो सकता है, उसकी उस सिद्धांत के बारे में समझ और व्याख्याओं में कोई बारीक त्रुटि भी हो सकती है। अतएव यदि कोई संदेह पैदा सा होता लग रहा है, या कोई कमी सी महसूस हो रही है तो उन सिद्धांत संबंधी मूल प्रस्तुतियों को देखा या संदर्भित करना चाहिए।

इस बात का यहां मतलब नहीं है क्योंकि वे एक सही प्रस्थापना को ही रख रहे हैं। यह तो एक सामान्य सूत्र है जिसे हमेशा अपने ध्यान में रखना चाहिए।

भगतसिंह ने अपने अध्ययन के फलस्वरूप विकसित हुई चेतना के आधार पर सुखदेव को एक वाज़िब बात ही कही थी। और आपने भी उस तर्क श्रृंखला के आधार पर चीज़ों को समझने की दिशा में लगभग सही निष्कर्ष निकाले हैं।

मानवजाति द्वारा विकसित सभी कुछ, उसके विचार, उसकी संस्कृति उसकी वस्तुगत परिस्थितियों और आवश्यकताओं की उपज होती है। दुनिया के किसी भी हिस्से के इतिहास को इसी के आधार पर ही भली-भांति व्याख्यायित किया जा सकता है। परिस्थितियों के आधार पर पैदा हुई आवश्यकताओं के मद्देनज़र ही व्यक्तियों और विचारों के विकास को समझा जा सकता है।

यदि आप भारत में पैदा हुई संस्कृति और विचारों को समझना चाहते है तो निश्चित ही आपको सही दिशा मिल गई है। ये यहां की विपुल प्राकृतिक थाति का ही परिणाम है कि यहां ज़िंदा रहने के लिए, जैविकता के लिए प्रकृति से अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा, इसलिए यहां जीवन के लिए कृत्रिम साधनों का विकास कम हुआ, फलस्वरूप तकनीक और विज्ञान के पैदा होने की संभावनाएं कम थी, और खाली समय में काल्पनिक-आध्यात्मिक चिंतन की अधिक। यहां की उदारवादिता का उत्स भी इसी आधार में ढूंढ़ा जा सकता है कि थोडी बहुत हलचल सी के बाद यहां तुरंत दूसरों को भी जगह दे दी जाती थी, आत्मसात कर लिया जाता था। आप सही सोच रहे हैं, आदि-आदि। आगे कुछ समस्या हो तो बताएं।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 18 मई 2013

संवाद और लेखन की प्रासंगिकता

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



संवाद और लेखन की प्रासंगिकता

कहीं मेरे लिखे से या लम्बे संवाद से, आप परेशानी तो नहीं महसूस करते? कहीं आप इससे नाराज तो नहीं होते?...

कभी-कभी आप थोड़ा भावुक हो उठते हैं। हमारे पास अपनी कार्य-योजनाएं हैं जिनके अनुसार हमें अपने वक़्त का अधिकतम उपयोग करना होता है। आपको हमने स्वयं ही अपनी संवाद प्रक्रिया में लिया है। अब यह भी एक जरूरी कार्य मात्र है, हालांकि थोड़ी बहुत भावनाएं भी इससे जुड गई हैं, क्योंकि आपमें हमें संभावनाएं नज़र आती हैं। हमारी वैयक्तिक मानसिक हलचल के लिए भी यह संवाद एक अवसर पैदा करता है। यह दो तरफ़ा मामला है अतएव आप एकतरफ़ा रूप से परेशान ना हुआ करें।

हमें जब परेशानी होती है, जब वक़्त नहीं मिलता तो आपने देख ही लिया है कि संवाद में देर हो जाती है। बस इतनी सी बात है। परंतु जब फिर आपसे रूबरू होते हैं तो पूरी गंभीरता और जिम्मेदारी से, बिना किसी समस्या और तकलीफ़ के आपके साथ होते हैं। इसलिए आप परेशान ना हुआ कीजिए कि हमें कोई परेशानी या नाराज़ी हो रही होगी। आप हमारी देरी को अन्यथा नहीं लिया कीजिए। जब ऐसा कुछ भी लगेगा या होगा, हम साफ़ आपसे जिक्र कर देंगे। और वैकल्पिक व्यवस्था बना लेंगे। आप निश्चिंत रह सकते हैं।

आप इतना जरूर सुझाएँ कि क्या मैं लिखना छोड़ दूँ? वैसे मैंने लिखना शुरू भी इसी साल किया था। सरकारों और शोषक-वर्ग की अलोचना में क्या गलत करता हूँ मैं?...

अगर आप ऐसा लिखते हैं कि किसी को समस्या होगी तो फिर होगी ही, इसमें परेशान होने वाली बात क्या है? अपना मत प्रस्तुत करने में कुछ भी ग़लत नहीं, लिखना कोई ग़लत बात नहीं। हां आप यह भी साथ ही चाहें कि लोग उससे मुतमइन भी हों तो फिर ग़लत बात हो सकती है। लिखना आपका काम है, और आपको जरूरी लगता है तो आप करते रहिए। स्वीकार करना, नहीं करना या फिर अपने मतभेद पेश करना औरों का अधिकार है। इसमें हर्ज भी क्या हो सकता है।

आपको यदि जरूरी लगता है तो बहस शुरू करें, नहीं लगता है तो नहीं करें। जरा सा भी विरोध या अनेपेक्षित प्रतिक्रिया पर हमारी बेचैनी, हमारी अपरिपक्वता को ही प्रदर्शित करती है। यह होता है कि कई बार हम अपनी बात को बहुत सही या जरूरी मान रहे हों, और दूसरों की प्रतिक्रियाएं इस पर सवाल उठाती हो तथा उनका जवाब हमसे भी नहीं सूझ पा रहा हो तो ऐसे में हमें अपनी मान्यताओं पर ही शक होने लगता है। यह हमारा खोखलापन होता है और बेचैनी पैदा करता है। इसका मतलब इतना सा ही है कि हम अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार करें, उन पर अपनी समझ बढ़ाएं, ग़लत लगती हों तो उन्हें बदलें और यदि सही लगती हों तो उन पर उठी जिज्ञासाओं के जवाब देने में अपने को और अधिक सक्षम बनाएं।

कुछ लोग हमारे शुभचिंतक हो सकते हैं और हमें राय दे सकते हैं, कि काहे व्यर्थ में समय जाया कर रहे है। उनकी हमारे से अपेक्षाएं अलग हो सकती हैं।

यह जरूर ध्यान रखा जाना चाहिए कि बिना पूरी तैयारियों के, बिना ठोस आधार तैयार किए, बिना उसके बारे में सही समझ विकसित किए यदि हम आम मान्यताओं से हटकर, अपनी कुछ मान्यताओं को बनाते हैं, अपने कुछ विश्वास चुनते हैं और फिर तुरंत ही आम मैदान में उनका झुनझुना बजाने, उनका ढिंढोरा पीटने में लग जाएंगे तो तकलीफ़ पैदा हो सकती है। क्योंकि ऐसे में ये सिर्फ़ आपके श्रेष्ठताबोध का प्रतिनिधित्व करती नज़र आएंगी। और जरा सा संवाद या बहस आपकी सतही समझ की पोल खोल देगी।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 11 मई 2013

ठोस समाधानों की तात्कालिक आकांक्षाएं

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ठोस समाधानों की तात्कालिक आकांक्षाएं

लेकिन एक बात साफ कहनी है कि आपसे समझ तो मिलती है लेकिन ठोस समाधान पर कुछ निराशा हो रही है।....

आप ही के शब्द, ‘अब इस पर क्या कहें?’ :-) यदि आप अपनी समझ में बेहतर होते जाएंगे तो अपने समाधान ख़ुद ही तलाश लेने की अवस्थाओं में होंगे और यही सबसे अच्छी बात होगी। कुछ कहते ही हैं, यह पुनरावर्तन ही होगा पर फिर भी। इसके मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करते हैं।

जब वास्तविक दुनिया में परिवर्तन संभव नहीं लगते, तब अमूर्तन दुनिया अधिक रास आने लगती है। वास्तविक यथार्थ के कुछ पहलू हमारे विचारों को आंदोलित करते हैं, हमें ग़लत लगते हैं, समस्याएं पैदा करते हैं, और हम उनका समाधान करने को प्रस्तुत हो जाना चाहने लगते हैं। पर यदि यथार्थ की वस्तुगत समझ पैदा नहीं हो पाई होती हैं तो हम उन समस्याओं के मूल पर नहीं पहुंच पाते। मूल तक नहीं पहुंच पाना उन्हें सही रूप से हल कर पाने की संभावनाओं को बंद कर देता है।

हम सामान्यतः तत्काल समाधान चाहते हैं, सोचते हैं कि क्यों ना इन समस्याओं के तुरंत हल निकल आएं। यही आकांक्षा हमें उस स्थिति की ओर ले जाती है, जब हम वास्तविक तात्कालिक समाधान ना भी कर पाएं तो कम से कम तार्किक रूप में यानि अमूर्त रूप में, अपनी चेतना में, तो उनका समाधान प्रस्तुत कर ही लें। यह हमें वास्तविक यथार्थ से अलग करता है और हमें अमूर्तन रूप में, चेतना के स्तर पर ही समाधानों में उलझे रहना और इसी को वास्तविकता समझने की ओर प्रवृत्त करता है। एक आभासी दुनिया हमारी चेतना में सरगर्मी करने लगती है और हम इन्हीं आभासी समाधानों की दुनिया में डूबे रहना पसंद करने लगते हैं। चाहे वास्तविकता में ये चरितार्थ हो पाएं या नहीं।

थोड़ा समझाएं, जैसे कि वर्तमान परिस्थितियों में जो देश की आत्मनिर्भरता और संप्रभुता से वास्ता रखते हैं वे यह समस्या महूसस करते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश में पूंजी का जिम्मेदारी रहित, जम कर दोहन कर रही हैं तथा आत्मनिर्भरता और संप्रभुता पर संकट खड़ा कर रही हैं, साम्राज्यवादी भाषा और संस्कृति की वाहक हैं। वे इसका समाधान करना चाहते हैं।

यहां हम संसंदीय पार्टियों की अवसरवादी राजनीति को छोड़ देते हैं क्योंकि उनके ज़रिए सिर्फ़ सत्ता की अलट-पलट होती है, नीतियां कमोवेश वही रहती हैं। आगे बढ़ें, कुछ लोगों को लगता है कि ये इसलिए संभव हो पा रहा है कि देश की वर्तमान सत्ता की साम्राज्यवादी शक्तियों के आगे घुटने टेकने और देश की पूंजीवादी शक्तियों को फायदा पहुंचाने तथा मिल-जुलकर खाने हड़पने की नीतियां इसके मूल में हैं, इसलिए बिना इस पूंजी-सत्ता के गठजोड़ को सत्ता को हटाए और एक जनपक्षीय सत्ता कायम किए बगैर इन समस्याओं के वास्तविक और स्थायी समाधान नहीं निकल सकते। यानि सत्ता पर निर्णायक कब्ज़े की लड़ाई छेड़ना और जीतना ही इसका समाधान है।

कुछ लोगों को लगता है कि फिलहाल की परिस्थितियों में इसके लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध किया जाना चाहिए और इनके खिलाफ़ बहिष्कार की रणनीति अपनानी चाहिए। इनकी सभी कार्यवाहियां मुनाफ़ा बटोरने के लिए होती हैं, इसलिए बहिष्कार इनका मुनाफ़ा कम करेगा या खत्म कर देगा और मजबूरन उन्हें यहां से वापस लौटना ही होगा। इनके अनुसार यही एक कारगर तात्कालिक समाधान होगा।

क्रांति, आमूल-चूल परिवर्तन के लिए परिस्थितियों, पूंजीवादी शक्तियों के खिलाफ़ एक व्यापक जन चेतना और बृहत्तर स्तर पर अधिकतर जनता की सक्रिय भागीदारी वाला संघर्ष आवश्यक है, और इस हद तक का बहिष्कार जिससे उनका वास्तविक रूप में मुनाफ़ा ख़त्म किया जा सके के लिए भी एक व्यापक जनचेतना और बृहत्तर रूप से बहुल जनता के बहिष्कार की सक्रिय और लंबी भागीदारी की आवश्यकता है। इसका मतलब ये दोनों समाधान सिर्फ़ दिमाग़ में ही अमूर्त समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं और व्यावहारिक रूप से एक लंबी और व्यापक कार्यवाहियों की आवश्यकता को ही प्रतिबिंबित कर रहे हैं।

दोनों ही तात्कालिक समाधान मस्तिष्क में तो प्रस्तुत हो रहे हैं, पर यथार्थ में देखा जाए तो वास्तविकता में कोई तात्कालिक हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं। इसलिए हमने ऊपर तार्किक रूप से सूझ रहे इस तरह के समाधानों को अमूर्त दिमागी शगल मात्र ही कहा है जिनसे प्राप्त तात्कालिक मानसिक संतुष्टि रास आने लगती है। आपको यह समझना चाहिए ही कि समस्याओं के सैद्धांतिक या तार्किक समाधानों के पीछे का मनोविज्ञान क्या है? इतिहास हमें सिखाता है कि बृहत्तर सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं के कोई लघु-कालिक तात्कालिक समाधान नहीं होते। व्यवस्थाओं के अंतर्विरोध उनके निषेध से यानि आमूलचूल परिवर्तन से ही स्थायी रूप से हल हो सकते हैं, यहां कोई लघु-मार्ग नहीं होता।

उपरोक्त दोनों समाधानों पर थोड़ा और गौर फरमाएं तो हम देखते हैं कि पहले समाधान में परिस्थितियों की एक वस्तुगत और व्यापक समझ है, वहीं दूसरे समाधान में परिस्थितियों की भाववादी व्याख्या है और आदर्शवादी तात्कालिक अवसरवादी प्रवृत्ति है जो इसी तरह तात्कालिक रूप से समाधान होने का भ्रम तो पैदा करती है पर इन समस्याओं के मूल, वर्तमान व्यवस्था के विरोध की कोई मानसिकता उसके पीछे परिलक्षित नहीं होती इसलिए यथास्थितिवादी रुख आसानी से ले सकती है।

जब ये दोनॊं समाधान एक व्यावहारिक रूप से एक लंबी और व्यापक जन कार्यवाहियों की आवश्यकता को ही प्रतिबिंबित कर रहे हैं यानि एक व्यापक जन आंदोलन और लंबे संघर्षों की आवश्यकता को परिलक्षित कर रहे हैं तो फिर अपनी जिम्मेदारी समझ रहे व्यक्तियों और समूहों द्वारा जनता के बीच ऐसी व्यापक कार्यवाहियां, पहले समाधान के दूरगामी लक्ष्यों के प्रति ही लक्षित क्यों ना हों। जब एक व्यापक जन चेतना पैदा करनी ही है तो क्यों ना इसके लिए अपनी उर्जा को संपूर्ण परिवर्तन की दिशा में ही लगाया जाए। क्यों ऐसे तात्कालिक से समाधानों में उलझा जाए जिनसे व्यावहारिक रूप से कोई वास्तविक परिणाम प्राप्त होने की संभावना नहीं है।

बाकी बात हम पहले भी और ऊपर भी विकल्प वाली बात के अंतर्गत ही काफ़ी कुछ कह चुके हैं।

समस्याओं के मूल में वर्तमान व्यवस्था अगर है तो जाहिरा तौर पर इसके निषेध से ही समस्याओं का समाधान संभव हो सकता है। यानि कि आमूलचूल परिवर्तनकारी क्रांति ही असल समाधान है। तभी समस्याओं के वास्तविक हल निकल सकते हैं। पर यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और पारिस्थितिक रूप से ही समग्रता से संभव हो सकती है। यह बात पूरी तरह समझ में जब तक नहीं आ पाएगी, तब तक हम किन्हीं सुधारवादी गतिविधियों में उलझने को अभिशप्त होंगे जो यथास्थिति को बनाए रखने में ही मददगार ही होती है।

क्या किया जा सकता है, इसके कई इशारे हम पेश कर ही चुके हैं, कि तात्कालिक परिस्थितियों में हमारे हस्तक्षेपों की सही दशा और दिशा क्या हो सकती है। वही जो इस दूरगामी लक्ष्य हेतु प्रवृत्त करती हो, और वर्तमान व्यवस्था से तात्कालिक राहत जरूर हासिल कर लेती हो परंतु जो वर्तमान व्यवस्था की वास्तविकताओं को भी खोल कर रखती रहती हों और इसके निषेध की तरफ़ लक्षित हों।

इतिहास को देखिए, आपको पता चलेगा कि समाज में कोई भी परिवर्तनकारी परिणाम यूं ही ना हासिल कर लिए गये हैं, उनके पीछे एक बेहद लंबी और बलिदानी कार्यवाहियों की श्रृखलाएं रही है। और ये संघर्ष हमेशा सफल रहे हों यह भी जरूरी नहीं। कई छुटपुट सफलताओं और असफलताओं की श्रृंखलाएं चलती रही हैं। व्यापक क्रांतियों के मामले में भी, असफल संघर्षों के मामले में भी, सुधारवादी हासिलों के मामले में भी। तत्काल और तुरंत कुछ नवीन हासिल नहीं किया जा सकता है, जहां हासिल होता भी लग रहा है तो यह समझ लेना चाहिए कि जरूर इसमें कुछ भी नवीन नहीं होगा, यह कोई पुरानी चीज़ ही होगी जिसमें मुलम्मा कोई नया लपेट दिया गया हो। ताकि यह नया सा भी लगे, और पुराने ढांचे के रूप में ही यथास्थिति के लिए पहले की तरह ही मुफ़ीद भी हो।

तो इसलिए ठोस समाधान पर निराशा तो होगी ही, क्योंकि तत्काल में ये कोई वास्तविक परिवर्तन करते हुए नहीं दिखाई देते हैं। पर यदि वस्तुगतता में देखेंगे, समाज के विकास के नियमों को समझेंगे तो आदर्शवादी रुझानों से मुक्ति पा सकते हैं। यह समझ में आ सकता है कि परिस्थितियां पकने पर ही फल मिला करते हैं, और एक व्यक्ति के रूप में इसी बात पर संतोष किया जा सकता है कि हमने इन पकने की परिस्थितियों के पैदा होने में मदद की, अपना योगदान किया और विरोधी परिस्थितियों से जमकर मुकाबला, संघर्ष किया। एक व्यक्ति के रूप में अपने हस्तक्षेप की अधिकतर संभावनाओं का यथासम्भव दोहन किया।

दोबारा पढा तो लगा कि काफ़ी पुनरावृत्ति हो रही है, हम एक ही जैसी बातें बार-बार दोहरा कर कहे जा रहे हैं। एकबारगी तो लगा कि हटा दें, फिर लगा कि जब लिखने में श्रम हो ही गया है तो रहने ही देते हैं। आप ख़ुद समझदार है। काम की बातें छांट लेंगे, थोथा उड़ा ही लेंगे।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 4 मई 2013

कोरी भावुकता और गंभीर संवेदनशीलता

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



कोरी भावुकता और गंभीर संवेदनशीलता


हम इस बात पर सहमति रखते हैं कि सारे क्रांतिकारी मार्क्स-लेनिन से लेकर धार्मिक-जन, जैसे बिस्मिल-नेताजी तक, अधिकतर भावनाओं के कारण लड़े। सहानुभूति से उत्पन्न दुख भावनाओं का खेल है।...हमारी समझ से यह चिंतन के साथ भावनाओं का गठजोड़ है ही।

कोरी भावुकता और गंभीर संवेदनशीलता के बीच समझ और विवेक का अंतर होता है। भावनाएं यदि कुछ समाजोन्मुखी मूल्यों के साथ व्यक्ति के व्यवहार में नियामक ( regulatory ) भूमिका नहीं निभाती तो ये समाज के हितों के विपरीत भी जा सकती हैं, खतरनाक भी हो सकती हैं। इसलिए हमें भावनाओं और उनसे जुडे व्यवहार में भी अंतर करना सीखना होगा।

आपका शायद ‘समय के साये में’ पर ही भावनाओं वाली मनोविज्ञान श्रृंखला से गुजरना हुआ हो। भावनाएं, मनुष्य के चीज़ों के प्रति रवैयों पर निर्भर होती है, और व्यक्ति के रवैये की जड़े उसके दृष्टिकोण, उसके समग्र व्यक्तित्व में होती हैं। इसका मतलब यह होता है कि अलग-अलग व्यक्ति एक ही चीज़ के प्रति अपने अनुकूलन के अनुसार अलग-अलग भावनाएं महसूस कर सकता है। यहीं आकर भावनाओं के दायरों और उनकी सामाजिक उपादेयता पर भी तुलनात्मक रूप से विचार करने की आवश्यकता उत्पन्न होती है। हर तरह की भावना को जायज़ और सही नहीं ठहराया जा सकता।

वृहत सामाजिक मूल्यों से असंपृक्त कोरी भावुकताएं ही, जो किसी भी विभाजक तथ्यों के लिए पैदा होती हैं, या किसी व्यक्ति या समूह के द्वारा उभारी जा सकती हैं; उस तरह की कई नकारात्मक परिघटनाओं के लिए जिम्मेदार होती हैं, जिनका जिक्र आपने अपने भाषण में किया था। वहीं वृहत सामाजिक मूल्यों से संपृक्त उच्च स्तरीय भावनाएं ऐसी कई व्यक्तिगत अवदानों का कारण बन सकती हैं जिनका कि भी जिक्र आपने किया था। अभी अधिक नहीं कहते हैं, पर इतना जरूर कह सकते हैं कि सिर्फ़ भावनाओं के कारण या उनके सहारे सार्थक लड़ाइयां नहीं लड़ी जा सकती, उसके लिए और भी कई चीज़ों और परिपक्व समझ की आवश्यकता है।

हमारे कहने का मतलब था कि प्राथमिकतः भावनाएं ही होती हैं, इन्हें सार्थक लड़ाई के लिए वृहत सामाजिक मूल्य से लैस करना ही होता है। सिर्फ़ भावनाओं के कारण नहीं, लेकिन बिना भावनाओ के हम लड़ ही नहीं सकते। शुरुआत तो भावनाओं से होती है, फिर हम आगे उच्च स्तर तक आते जाते हैं।

आप की बात कहीं से भी ग़लत नहीं है, हम बस यह बात आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं कि हम भावनाओं के इस द्वंद को भी समझने की कोशिश करें। सभी तरह की भावनाओं का पैदा होना कोई जैविक सहजवृत्ति का परिणाम नहीं है, हमारी भावनाएं भी हमारे अनुकूलन पर आधारित होती हैं। एक जैसी ही चीज़ें, या परिस्थितियां सभी मनुष्यों में एक ही सी भावनाएं पैदा नहीं करती। यानि भावनाओं का पैदा होना और उनके ज़रिए अपने व्यवहार को नियमित करना, द्वंदवादी अन्योन्यक्रियाएं हैं। हमारा व्यवहार और मान्यताएं, हमारी भावनाओं को तय करते हैं और अपनी बारी में, पैदा हुई भावनाएं हमारे व्यवहार और मान्यताओं को नियमित करती हैं। इसलिए भावनाओं को स्पष्ट रूप से प्राथमिक मानना, कई चीज़ों की ग़लत समझ तक ले जा सकता है।

"भावनाएं ( अनुभूतियां ) मनुष्य के वे आंतरिक रवैये हैं, जिन्हें वह अपने जीवन की घटनाओं और अपने संज्ञान व सक्रियता की वस्तुओं के प्रति, विभिन्न रूपों में अनुभव करता है।"
"ऐसे आंतरिक वैयक्तिक रवैये की जड़ें सक्रियता और संप्रेषण में होती हैं, जिनके दायरे में उसका जन्म, परिवर्तन, सुदृढ़ीकरण ( strengthening ) अथवा विलोपन ( deletion ) होता है"

यानि कि भावनाओं के प्रस्फुटन के आधार में व्यक्ति का परिवेश, और इस परिवेश में उसकी सक्रियता तथा संप्रेषण का दायरा होता है, जिसके दायरे में वह सक्रियता और चेतना की अन्योन्यक्रियाओं के जरिए विकसित होता है। जहां व्यवहार, प्रवृत्तियों, विचारों का सुदृढ़ीकरण होता है, परिवर्तन होता है, विलोपन होता है और एक व्यक्तित्व आकार लेता है।

'उम्मीद है कि हमेशा की तरह ही आप आपकी शान में की गई इन गुस्ताखियों को आया-गया करते रहेंगे।' यह वाक्य.....अयोग्य शिष्य और अहंकारी साबित करता है।.....बहसों से बचा करूगा या संभव हुआ तो करूंगा ही नहीं......लेकिन इस बात से मैं दुखी हूँ कि आप मुझे ऐसा मानते हैं(?)।.....कुछ कुछ निराशा हुई इस वाक्य से।

ये संवादों के दौरान के औपचारिक वाक्यांश या कथन है, हम अक्सर ऐसे ही कुछ वाक्यों का प्रयोग करते रहते हैं। पर आपकी प्रतिक्रिया से लगा कि इसे आपके साथ प्रयुक्त करने की जरूरत नहीं थी, यह हमसे कुछ ग़लत सा हुआ। अब क्षमा चाहेंगे तो फिर यह कहियेगा कि फिर से हमने आपको निराश किया है, दुखी किया है, इसलिए नहीं कहते।

हम यहां संवाद कर रहे हैं तो महज इसलिए कि हम एक दूसरे में कुछ संभावनाएं देखते हैं। यह सबसे महत्त्वपूर्ण बात है और एक दूसरे के प्रति लिहाज़ और सम्मान का सबूत ( आपके शब्दों में ही ) भी, इसलिए इस तरह की भावनाओं में बहने की हमें लगता है आवश्यकता नहीं ही होनी चाहिए।

आपकी इस मासूम सी बात, ‘क्या एक नए शहर में किसी बच्चे को थोड़ी उछल-कूद करने की इजाजत नहीं है?’ ने हमें काफ़ी कुछ सोचने पर मजबूर किया है। हम शायद कुछ अधिक ही रुखेपन और कठोरता से पेश आ जाते हैं, हमें अपनी पद्धतियों में सुधार करना चाहिए। हमें यह अवसर उपलब्ध करवाने के लिए अगर आप बुरा ना माने तो क्या हम आपके शुक्रगुज़ार हो सकते हैं? आपका यह वाक्य लाजवाब है। शुक्रिया।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय
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