शनिवार, 13 मार्च 2010

भाषा और चिंतन

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने मानव चेतना के आधार के रूप में श्रम की महत्वपूर्णता और उपयोगिता पर विचार किया था। इस बार हम, मानव चेतना के आधार रूप के एक और महत्वपूर्ण पहलू यानि मानव की भाषा और इसके जरिए चिंतन के विकास पर चर्चा करेंगे।

चलिए आगे बढते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्तमात्र उपस्थित है।
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भाषा और चिंतन

मनुष्य की चेतना ( consciousness ) के विकास का एक और प्रबल साधन उसकी भाषा है। यह चिंतन ( thoughts ) की प्रत्यक्ष वास्तविकता ( direct reality ) है। विचार हमेशा शब्दों में व्यक्त किए जाते हैं, अतः यह कहा जा सकता है कि भाषा विचार की अभिव्यक्ति का रूप है

भाषा एक विशेष संकेत प्रणाली है। प्रत्येक भाषा अलग-अलग शब्दों, अर्थात उन पारंपरिक ध्वनि संकेतों से बनी होती है, जो विभिन्न वस्तुओं और प्रक्रियाओं के द्योतक होते हैं। भाषा का दूसरा संघटक अंग है व्याकरण के कायदे, जो शब्दों से वाक्य बनाने में मदद करते हैं। ये वाक्य ही विचार व्यक्त करने का साधन हैं। एक भाषा के शब्दों से, व्याकरणीय कायदों की बदौलत असंख्य सार्थक वाक्य बोले या लिखे जा सकते हैं और पुस्तकों या लेखों की रचना की जा सकती है।

जीव-जंतु केवल किसी ठोस स्थिति तक सीमित परिघटनाओं के बारे में अपने साथियों को संकेत दे सकते हैं, जबकि मनुष्य भाषा के माध्यम से अन्य मनुष्यों को विगत, वर्तमान तथा भविष्य के बारे में सूचित कर सकता है, और सबसे महत्वपूर्ण बात कि उन्हें सामाजिक अनुभव बता सकता है। इस तरह भाषा विविधतम विचारों की अभिव्यक्ति, लोगों की भावनाओं और अनुभवों का वर्णन, गणितीय प्रमेयों का निरूपण तथा वैज्ञानिक व तकनीकी ज्ञान की रचना करना संभव बनाती है।

यद्यपि चिंतन और चेतना प्रत्ययिक ( ideal ) हैं, परंतु उन्हें व्यक्त करने वाली भाषा भौतिक ( material ) है। यह इसलिये कि मौखिक और लिखित भाषा को मनुष्य अपने संवेद अंगों, इन्द्रियों से समझ सकता है। सामूहिक श्रम की प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न और विकसित भाषा चिंतन के विकास का एक महत्वपूर्ण साधन बन गई। भाषा की बदौलत मनुष्य विगत पीढ़ियों द्वारा संचित अनुभव को इस्तेमाल कर सकता है और अपने द्वारा पहले कभी न देखी या न महसूस की गई परिघटनाओं के संग्रहित ज्ञान से लाभ उठा सकता है। भाषा का जन्म समाज में हुआ, यह एक सामाजिक घटना है और दो अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य पूरे करती है, चेतना की अभिव्यक्ति और सूचना के संप्रेषण का। भाषा के द्वारा ज्ञान को संग्रहित, संसाधित और एक व्यक्ति से दूसरे को तथा एक पीढ़ी से दूसरी को अंतरित किया जाता है

उच्चतर जानवरों में आवाज़ से संकेत देने के कुछ सरल रूप पाये जाते हैं। मुर्गियां कई दर्जन ध्वनियां पैदा करती हैं, जो भय या आशंका के, चूज़ों को पुकारने और भोजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति के संकेत हैं। डोल्फिन जैसे अत्यंत विकसित स्तनपायियों में कई सौ ध्वनि संकेत हैं। परंतु फिर भी ये सच्चे अर्थों में भाषा नहीं है, जानवरों का संकेत देना संवेदनों पर आधारित है।
इन्हें प्रथम संकेत प्रणाली की संज्ञा दी जाती है। इनमें संयुक्तिकरण के कायदे नहीं होते, इसलिए इनके द्वारा प्रेषित सूचना बहुत सीमित होती है। जानवरों की संकेत व्यवस्था में सूचना की लगभग उतनी ही इकाइयां होती हैं, जितनी की अलग-अलग संकेतों की संख्या, जबकि मानवीय भाषा विविधतापूर्ण ज्ञान के असीमित परिमाण को संप्रेषित और व्यक्त कर सकती है।

मानवीय भाषा द्वितीय संकेत प्रणाली है। यह श्रम की प्रक्रिया और लोगों के सामाजिक क्रियाकलाप के दौरान इतिहासानुसार उत्पन्न हुई तथा बाह्य विश्व और स्वयं मनुष्य को जानने और रूपांतरित करने का एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गई। इस संकेत प्रणाली का प्रमुख विभेदक लक्षण यह है कि पारिस्थितिक संकेत शब्दों  तथा उनसे बने वाक्यों के आधार पर मनुष्य के लिए सहजवृत्तियों से परे निकलना और ज्ञान को असीमित परिमाण और विविधता में विकसित करना संभव हो जाता है।

मानवसम वानरों को मौखिक भाषा सिखाने के सारे प्रयत्न विफल रहे हैं, क्योंकि इन जानवरों के ध्वनि उपकरण मनुष्य की वाणी की विविधतापूर्ण, सुपष्ट उच्चारित ध्वनियों का उत्पादन करने में समर्थ नहीं होते हैं। हाल के वर्षों में यह संभव साबित हो गया है कि कुछ चिंपाज़ियों को सरलतम भावनाएं ( भूख, भय, आदि ) व्यक्त करने के लिए मूक-बधिर भाषा की अलग-अलग भाव-भंगिमाओं का इस्तेमाल करना सिखलाया जा सकता है। ये वानर भाव-भंगिमाओं की इस भाषा में ज़्यादा से ज़्यादा इस तरह की बातें व्यक्त कर सकते हैं, "मुझे पीने को दो", "गुडिया को ले आओ", आदि। अधिक जटिल प्रस्थापनाएं उनके लिए बहुत कष्टप्रद होती हैं, जिनमें ऐसी अमूर्त संकल्पनाएं शामिल होती हैं, जिनके बिना चिंतन का विकास असंभव है।

वानरों के बोलने के क्रियाकलाप के विकास की एक बड़ी बाधा यह है कि उनके मस्तिष्क मनुष्य की वाणी को आत्मसात करने लायक काफ़ी बड़े और विकसित नहीं होते हैं। इस प्रकार के जो अध्ययन किये गए हैं, वे निश्चय ही वैज्ञानिक दिलचस्पी के विषय हैं, किंतु साथ ही वे यह दर्शाते हैं कि उच्चतर मानवसम वानर, मनुष्य के मानसिक क्रियाकलाप में अंतर्निहित द्वितीय संकेत प्रणाली को स्वाधीन रूप से विकसित करने में असमर्थ होने के अलावा उसमें पारंगत होने में भी अक्षम हैं।

श्रम की प्रक्रिया के दौरान चिंतन और चेतना के विकास के आधार व साधन के रूप में उत्पन्न भाषा मनुष्य का एक विशेष और विभेदक लक्षण है।

यह श्रम क्रिया ही थी, जिसके दौरान पारस्परिक समझ की, अनुभव के विनिमय की आवश्यकता तथा समन्वित ढंग से आदेशों का पलन करने की और महत्वपूर्ण सूचनाओं को संचित व संचारित करने की आवश्यकता पैदा हुई। इसके फलस्वरूप उस भाषा का शनैः शनैः विकास तथा जटिलीकरण होता गया, जो प्रारंभ में श्रम क्रिया के साथ सीधे-सीधे गुंथी थी।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वास्तविकता के परावर्तन के उच्चतम रूप में मानव चेतना के विकास को आगे बढ़ानेवाले बुनियादी कारक थे श्रम और भाषा।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय
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