शनिवार, 29 अगस्त 2015

संज्ञान की आगमनात्मक विधियां

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की निगमनात्मक पद्धति पर चर्चा की थी, इस बार हम संज्ञान की गमनात्मक पद्धति को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान की आगमनात्मक विधियां
( Inductive methods of cognition )

जहां निगमनात्मक ( deductive ) विधि के ज़रिये ज्ञान के सैद्धांतिक स्तर से आनुभविक स्तर की ओर जाना संभव है, वहीं आगमनात्मक ( inductive ) विधि से उल्टी दिशा में जाना संभव हो जाता है, यानी आनुभविक स्तर से सैद्धांतिक स्तर की ओर। 

व्यवहार में और वैज्ञानिक प्रेक्षण तथा प्रयोग में वैज्ञानिकगण किसी घटना, प्रकृति या सामाजिक जीवन से संबंधित एकसमान तथ्यों को कमोबेश बड़ी संख्या में संचित करते हैं। प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या संयोग तथा परिवर्तनों के अधीन अलग-अलग, असमन्वित ( uncoordinated ) तथ्यों से उनका संनियमन ( govern ) करने वाले वस्तुगत नियमों के बारे में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है? वैज्ञानिक ज्ञान की रचना करनेवाली आगमनात्मक विधि क़ायदों का, एक तरह का ऐसा समुच्चय है, जिसकी मदद से संवेदनों द्वारा किये गये प्रेक्षणों तथा अलग-अलग तथ्यों के आनुभविक ज्ञान से उनकी बुनियाद में निहित नियमों तक, उनके सार के सैद्धांतिक ज्ञान तक पहुंचा जा सकता है।

आगमन ( induction ), चिंतन का पृथक-पृथक विशेष ( particular ) तथ्यों से सामान्य प्रस्थापना ( general proposition ) की ओर, कम सामान्य से अधिक सामान्य की ओर आना है। आगमन प्रांरभिक आधारिकाओं ( premises ) से अधिक व्यापक सामान्यीकारक निष्कर्ष निकालना संभव बनाता है। आगमनात्मक पद्धति संज्ञानात्मक प्रक्रिया की उन शुरुआती मंज़िलों में कारगर होती है, जब मनुष्य को अनुभवात्मक ज्ञान का बोध होता है, जब वह तथ्यों व आधार-सामग्री का संचय व सामान्यीकरण करता है, एक प्राक्कल्पना ( hypothesis ) को निरूपित करता है और उसकी सच्चाई को जांचता है। इस पद्धति का एक गुण यह है कि इसे केवल एक ही विशेष तथ्य के आधार पर भी विश्लेषण और सामान्यीकरण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसकी विशेषता स्वयंसिद्ध हैं।

आगमनात्मक पद्धति के सुव्यवस्थित उपयोग से ठोस स्थितियों का विश्लेषण करने, तथ्यात्मक सामग्री का सामान्यीकरण करने, प्राक्कल्पनाओं को पेश करने तथा उनकी सच्चाई परखने की क्षमता विकसित होती है। आगमनात्मक विधि का अनुप्रयोग गणितीय सांख्यिकी तथा प्रसंभाव्यता के सिद्धांत ( theory of probability ) के वैज्ञानिक संज्ञान में व्यापक उपयोग से संबंद्ध है। प्रसंभाव्यता सिद्धांत के ज़रिये प्रयोगों, आदि की एक पूरी श्रृंखला में कुछ अनुगुणों ( properties ) के विकास की प्रसंभावना का परिमाणात्मक ( quantitative ) अनुमान लगाया जा सकता है। यदि प्रक्रिया या अनुगुण के स्थायित्व की प्रसंभाव्यता की कोटि बहुत ऊंची है, तो उनके ज्ञान को विज्ञान का नियम माना जा सकता है।

पृथक्कीकृत ( isolated ) भौतिक प्रणालियों में ऊर्जा के नियम ( क्लासिक तापगतिकी का दूसरा नियम ), प्राकृतिक वरण ( natural selection ) का डार्विनीय नियम तथा आधुनिक विज्ञान की अन्य नियमितताओं ( regularities ) तथा नियमों की खोज ऐसे ही की गयी थी। अलग-अलग आंशिक प्रेक्षणों से अधिक सामान्य सैद्धांतिक ज्ञान की तरफ़ जाना संभव बनानेवाली आगमनात्मक विधि विज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 22 अगस्त 2015

संज्ञान की निगमनात्मक विधियां

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत वैज्ञानिक पद्धतियों के वर्गीकरण पर चर्चा की थी, इस बार हम संज्ञान की निगमनात्मक पद्धति को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान की निगमनात्मक विधियां
( Deductive methods of cognition )

किसी भी विज्ञान के नियम, प्राक्कल्पनाएं तथा सिद्धांत ज्ञान का एक विशेष स्तर होती हैं जिसे सैद्धांतिक ( theoretical ) कहा जाता है। प्रत्यक्ष प्रेक्षणों तथा प्रयोगों पर, यानी संवेद प्रत्यक्षों पर आधारित ज्ञान उसका दूसरा स्तर है, जिसे आनुभविक ( empirical ) स्तर कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान में ज्ञान के सैद्धांतिक तथा आनुभविक स्तर के बीच बड़े जटिल संबंध होते हैं। आधुनिक भौतिकी, साइबरनेटिकी, खगोलविद्या, जैविकी तथा अन्य विज्ञानों के सिद्धांत, प्राक्कल्पनाएं और नियम अत्यंत अमूर्त ( abstract ) होते हैं और उन्हें ऐसी किन्हीं दृश्य, रैखिक मॉडलों, संकल्पनाओं तथा कथनों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है जो संवेदन द्वारा प्रत्यक्षीकृत घटनाओं के तुल्य या उन पर अनुप्रयोज्य ( applicable ) हों। ज्ञान के इन रूपों को आम तौर पर गणित के समीकरणों जैसे जटिल प्रतीकात्मक रूपों तथा अमूर्त तर्किक फ़ार्मूलों में व्यक्त किया जाता है। इनको यथार्थता ( reality ) पर लागू करने तथा उनकी सत्यता को परखने के लिए ज्ञान के आनुभविक स्तर की तुलना सैद्धांतिक स्तर से करनी पड़ती है, उनका आमना-सामना करना पड़ता है। इसके लिए संज्ञान की निगमनात्मक विधि ( deductive method ) का इस्तेमाल किया जाता है।

निगमन पद्धति में चिंतन, सामान्य ( general ) से विशेष ( particular ) की ओर जाता है। इस विधि में सामान्य सिद्धांतों, आधारिकाओं ( premises ) से, कम सामान्य या विशिष्ट निष्कर्ष प्राप्त किये जाते हैं। निगमनात्मक पद्धति सैद्धांतिक सामग्री को तार्किक क्रम तथा पूर्णता प्रदान करती है, उसे प्रमाणित व व्यवस्थित करने में मदद देती है। इस विधि में एक सिद्धांत की प्रमुख प्रारंभिक प्राक्कल्पनाओं ( hypotheses ) तथा नियमों को सुसंगत ढंग तथा सख़्ती से परिभाषित, तार्किक और गणितीय क़ायदों द्वारा रूपांतरित ( transform ) किया जाता है। इन रूपांतरणों के फलस्वरूप सूत्रों, प्रमेयों ( theorems ) या प्रस्थापनाओं ( propositions ) की एक लंबी श्रृंखला बन जाती है जो कुछ नियमितताओं को व्यक्त करती है या अध्ययनाधीन वस्तु के निश्चित अनुगुणों ( properties ) तथा संपर्कों ( connections ) का वर्णन करती है। प्रारंभिक बुनियादी नियमों और प्राक्कल्पनाओं से व्युत्पन्न ( derived ) इस ज्ञान की रचना प्रक्रिया को निगमन ( deduction ) कहते हैं और प्राप्त ज्ञान निगमनात्मक ज्ञान है।

निगमनात्मक पद्धति का एक गुण यह है कि इसकी सहायता से निकाले गये निष्कर्ष भली भांति प्रमाण्य ( demonstrable ) होते हैं और परिणामस्वरूप प्राप्त ज्ञान सच्चा और प्रामाणिक ( authentic ) होता है। सही-सही आधारिकाओं से हम तार्किक ढंग से आवश्यक सहज परिणामों को निगमित कर सकते हैं। अगर हमारे पूर्वाधार सही हैं और हम उन पर चिंतन के नियमों को सही ढ़ंग से लागू करते है, तो हमारे निष्कर्ष वास्तविकता के साथ मेल खाते है उसके अनुरूप होते हैं

निगमनात्मक विधि से एक ऐसे क्लिष्ट और अमूर्त सिद्धांतों, जिनमें की प्रत्यक्ष अनुभूतियों का, आनुभाविक स्तर की प्रामाणिकता का अभाव होता है, की बुनियादी प्रस्थापनाओं और नियमों की एक सापेक्षतः छोटी सी संख्या से विभिन्न रूपांतरणों के ज़रिये इस तरह के निष्कर्षों तथा उपप्रमेयों की एक बहुत बड़ी संख्या हासिल करना संभव हो जाता है, जिनको की प्रत्यक्ष संवेदों की अनुभूतियों द्वारा आनुभविक स्तर पर प्रमाणित किया जा सकता है। इस तरह प्रत्यक्षीकृत भौतिक यथार्थता पर अनुप्रयोज्य सिद्धांतों तथा नियमों को एक आनुभविक, यानी संवेदन द्वारा प्रत्यक्षीकृत आशय प्रदान किया जाता है।

उदाहरण के लिए, फ़ार्मूलों में निहित चरों की तुलना कुछ उपस्करों ( instruments ) के पैमानों, विभिन्न विद्युतीय सुइयों या प्रदर्शन पटों के पाठ्यांकों या साधारण दृश्य और श्रव्य प्रेक्षणों, आदि से की जाती है। इस तरह, ज्ञान के सैद्धांतिक और आनुभविक स्तरों के बीच संबंध को और विस्तृतम अर्थ में प्रयोग, प्रेक्षण तथा व्यवहार के साथ सिद्धांत के संबंध को निगमनात्मक विधि से उद्घाटित किया जाता है। मसलन, क्वांटम यांत्रिकी के बुनियादी नियम, स्वयं यथार्थता ( reality ) पर प्रत्यक्ष अनुप्रयोज्य नहीं हैं और प्रायोगिक प्रेक्षणों के परिणामों के साथ तुल्य नहीं हैं। लेकिन गणितीय रूपांतरणों की बदौलत क्वांटम भौतिकी के बुनियादी नियमों की सत्यता को प्रदर्शित ही नहीं किया जा सकता, बल्कि उनके अत्यंत व्यापक व्यावहारिक अनुप्रयोग ( application ) भी खोजे जा सकते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 15 अगस्त 2015

वैज्ञानिक पद्धतियों का वर्गीकरण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत वैज्ञानिक संज्ञान की पद्धतियों पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम देखेंगे कि वैज्ञानिक पद्धतियों को समूहों में मुख्य रूप से किस तरह वर्गीकृत किया जा सकता है ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



वैज्ञानिक पद्धतियों का वर्गीकरण

( classification of scientific methods )

विश्व के सैद्धांतिक परावर्तन ( reflection ) की सार्विकता ( universality ) व गहराई की कोटि ( degree ) तथा अध्ययनाधीन वस्तुओं और उनके आंतरिक संयोजनों व संबंधों की विशिष्टताओं के अनुसार, संज्ञान के विषय ( object ) के प्रति अनुसंधानकर्ता के रुख़ ( attitude ) और उसकी मानसिक संक्रियाओं के अनुक्रम व संगठन के अनुसार, संज्ञान की पद्धतियों को तीन मुख्य समूहों में बांटा जा सकता है।

सबसे पहली है सार्विक पद्धति ( universal method )। अपनी अंतर्वस्तु ( content ) में सार्विक पद्धति विचाराधीन वस्तुओं और घटनाओं के सबसे ज़्यादा सामान्य अनुगुणों ( properties ) के अनुरूप होती है और इसीलिए किन्हीं भी वैज्ञानिक पद्धतियों के सर्वाधिक सामान्य लक्षणों को व्यक्त करती है। भौतिकवादी द्वंद्वात्मक पद्धति, एक सार्विक पद्धति के रूप में संज्ञान के सर्वाधिक सामान्य नियमों को निरूपित करती है, इसलिए वह एक विज्ञान के विकास का सामान्यीकृत दार्शनिक सिद्धांत होती है, उसकी सामान्य अध्ययन-पद्धति होती है।

दूसरा समूह है सामान्य पद्धतियां ( general methods )। सामान्य वैज्ञानिक पद्धतियां, जो सारे या अधिकतर विज्ञानों में प्रयुक्त होती हैं, एक बड़े समूह की रचना करती हैं। ये व्यापक वैज्ञानिक उसूलों ( principles ), नियमों तथा सिद्धांतों ( theories ) पर आधारित हैं और वैज्ञानिक संज्ञान ( cognition ) के सामान्य और मौलिक लक्षणों को, स्वयं विचाराधीन वस्तुओं के सामान्य तथा सारभूत लक्षणों को व्यक्त करती हैं। संज्ञान की सामान्य वैज्ञानिक पद्धतियों में शामिल हैं प्रेक्षण, नाप-जोख ( measurement ) और प्रयोग, रूपकीकरण ( formalisation ), अमूर्त से मूर्त की ओर आरोहण ( ascent ), वस्तुओं की ऐतिहासिक व तार्किक पुनरुत्पत्ति ( reproduction ), विश्लेषण और संश्लेषण, गणितीय, सांख्यिकीय तथा अन्य पद्धतियां। प्रारंभिक तार्किक संक्रियाओं ( operations )तथा कार्य-विधियों के आधार पर, मनुष्य के व्यवहारिक कार्यों की तार्किकता के परावर्तन के ज़रिये बनी हुई ये पद्धतियां इस मामले में आम वैज्ञानिक महत्व की हैं कि वे वस्तुगत सत्य के, भौतिक जगत के नियमों व नियमानुवर्तिताओं के संज्ञानार्थ एक महत्वपूर्ण शर्त हैं।

संज्ञान की सार्विक और सामान्य पद्धतियां वस्तुओं के गहन ( in-depth ) तथा सर्वतोमुखी ( all-round ) परावर्तन के लिए अपर्याप्त हैं, क्योंकि किसी भी वस्तु की अपनी ही विशिष्टताएं, गुण ( quality ), अनुगुण, आदि होते हैं।  किसी भी विशेष समस्या के समाधान के लिए समुचित ठोस तरीक़ों और पद्धतियों के चयन की पूर्वापेक्षा की जाती है। यही कारण है कि अपने ऐतिहासिक विकास के दौरान कोई भी विज्ञान, विशेष ( particular ) वैज्ञानिक पद्धतियों की एक प्रणाली का निरूपण करता है। यही पद्धतियों का तीसरा समूह है। इनमें शामिल हैं अनुसंधान की पद्धतियां, जिन्हें एक या कई संबंधित विज्ञानों में इस्तेमाल किया जाता है, जैसे भौतिकी में वर्णक्रमीय विश्लेषण-पद्धति, पुरातत्व विज्ञान में उत्खनन की पद्धतियां, खगोलशास्त्र में राडार की पद्धतियां, आदि।

सामान्य और विशेष पद्धतियों के बीच निरपेक्ष भेद ( absolute distinction ) नहीं है। जब कोई विज्ञान तरक़्क़ी करता है और पहले से अधिक नियमानुवर्तिताओं ( uniformities ) को खोज निकालता है, तो उसकी विशेष पद्धतियां, सामान्य वैज्ञानिक पद्धतियों के रूप में विकसित हो जाती हैं। यह प्रक्रिया विज्ञानों के विकास के दौरान उनके एकीकरण ( integration ) से और भी आगे बढ़ती है। मसलन, तकनीकी और प्राकृतिक विज्ञानों के विकास से गणितीय पद्धतियों के उपयोग का क्षेत्र विस्तृत हो गया और अब वे सामान्य वैज्ञानिक पद्धतियां बन गयी हैं।

वैज्ञानिक संज्ञान की सारी पद्धतियां घनिष्ठता से अंतर्संबंधित हैं और उनका एक दूसरी से पृथक अस्तित्व नहीं है। स्वाभाविक है कि भौतिक विश्व के अध्ययन की प्रक्रिया में उन्हें भी उनके एकत्व ( unity ) में लागू किया जाता है। साथ ही, उस एकत्व के दायरे में इनमें से प्रत्येक पद्धति को किंचित स्वधीनता भी है और वे अपने ही नियमों के अनुसार काम करती हैं। परंतु कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत ऐसी सार्विक, सामान्य और विशिष्ट प्रस्थापनाओं ( prepositions ) पर आधारित होता है, जो भौतिक जगत के तदनुरूप अनुगुणों व नियमों को परावर्तित करती हैं। फलतः, किसी भी वैज्ञानिक अनुसंधान का सार्विक दार्शनिक और विशेष उसूलों, नियमों तथा प्रवर्गों ( categories ) से एकसाथ निर्देशित होना आवश्यक है, पर सार्विक दार्शनिक पद्धति वैज्ञानिक संज्ञान की अन्य सारी पद्धतियों पर परिव्याप्त ( permeate ) होती है, उनकी प्रकृति का निर्धारण करती है और संज्ञान की प्रक्रिया का निर्देशन करती है।

सार्विक पद्धति के रूप में भौतिकवादी द्वंद्ववाद ( materialistic dialectics ) संज्ञान की अन्य पद्धतियों के साथ बंधा है और उनकी अंतर्वस्तु होता है। इसके साथ ही, द्वंद्वात्मक भौतिकवादी पद्धति अन्य वैज्ञानिक पद्धतियों पर भरोसा करती है और प्राकृतिक व सामाजिक विज्ञानों की उपलब्धियों तथा पद्धतियों से समृद्ध बनती है। अगली बार से हम वैज्ञानिक संज्ञान की सबसे ज़्यादा प्रचलित कुछ सामान्य पद्धतियों/विधियों पर एक नज़र डालेंगे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 8 अगस्त 2015

वैज्ञानिक संज्ञान की पद्धतियों की प्रणाली

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत वैज्ञानिक संज्ञान के रूपों प्रयोग और प्रेक्षण की महत्ता को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम वैज्ञानिक संज्ञान की पद्धतियों पर चर्चा शुरू करेगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



वैज्ञानिक संज्ञान की पद्धतियों की प्रणाली
( the system of methods of scientific cognition )

आधुनिक विज्ञान तेज़ी से विकसित हो रहा है। यह मूल कणों से लेकर सितारों तक, जीवित अंगियों से लेकर रोबोटों तक, एक व्यक्ति के मन से लेकर सारे समाज के पैमाने पर सामाजिक रूपांतरणों ( transformations ) तक प्रकृति व समाज की अत्यंत विविधतापूर्ण वस्तुओं का अध्ययन करता है। यह नये विज्ञानों की रचना तथा निर्माण की ओर ले जाता है, जिसे वैज्ञानिक ज्ञान के विभेदीकरण ( differentiation ) की प्रक्रिया कहते हैं। विज्ञान के विभेदीकरण के फलस्वरूप संज्ञान की अनेक विविधतापूर्ण, विशेषीकृत वैज्ञानिक अध्ययन विधियों/पद्धतियों का विकास हो रहा है।

साथ ही एक विपरीत प्रक्रिया, यानी विज्ञान के एकीकरण ( integration ) की प्रक्रिया भी चल रही है, जो इस तथ्य में व्यक्त होती है कि कुछ विज्ञानों द्वारा विकसित नियमों तथा नियमितताओं का अन्य विज्ञानों में उपयोग होने लगता है। भौतिकी तथा रसायन में बनी संकल्पनाएं ( concepts ) जीवित अंगियों के अध्ययन में इस्तेमाल की जा रही हैं। आर्थिक नियमों को समाज के इतिहास का अध्ययन करने के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है और रोबोटों का निर्माण करने में मनोविज्ञान की उपलब्धियों का उपयोग होता है, आदि। किंतु विज्ञान के इस एकीकरण की सबसे महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति संज्ञान की आम वैज्ञानिक विधियों का विकास व गहनीकरण है, जिन्हें हर प्रकार के अनुसंधान कार्य में लागू तथा प्रयुक्त किया जाता है। उनका अध्ययन करना संज्ञान के सिद्धांत का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है।

विश्व का क्रांतिकारी रूपांतरण उसके वैज्ञानिक संज्ञान के आधार पर किया जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि वस्तुओं, प्रक्रियाओं या घटनाओं की विशिष्टताओं, उनके आंतरिक संयोजनों ( connections ) और संबंधों पर समुचित ध्यान दिया जाये। इसलिए ही संज्ञान की पद्धतियां सिद्धांत से, विचाराधीन वस्तु, प्रक्रिया या घटना की क्रिया और विकास के नियमों के से निकटता से जुड़ी हैं। सिद्धांत ( theory ) और पद्धति ( method ) सापेक्षतः ऐसे स्वाधीन रूप हैं, जिनसे मनुष्य परिवेशीय वस्तुगत यथार्थता ( objective reality ) पर नियंत्रण कायम करता है। जहां सिद्धांत वैज्ञानिक ज्ञान के संगठन का एक रूप है, जो यथार्थता के एक निश्चित क्षेत्र के नियमों, मौलिक संयोजनों और संबंधों की पूर्ण रूपरेखा पेश करता है, वहीं पद्धति यथार्थता पर सैद्धांतिक और व्यावहारिक नियंत्रण हासिल करने के तरीक़ो और संक्रियाओं का साकल्य ( totality ) है, जो लोगों को उनके संज्ञानात्मक और लक्ष्योन्मुख ( goal-oriented ) रूपांतरणकारी क्रियाकलाप में निर्देशित करता है

अतः सिद्धांत स्पष्टीकरण का काम करता है, यह दर्शाता है कि कौनसे आवश्यक अनुगुण ( properties ) और संयोजन वस्तु में अंतर्भूत ( immanent ) हैं और उसकी क्रिया और विकास किन नियमों से संचालित होते हैं। जहां तक पद्धति का प्रश्न है, वह एक नियामक ( regulative ) कार्य करती है, यह दर्शाती है कि विषयी ( subject ) को उस विषय ( object ) के प्रति किस प्रकार का रवैया अपनाना चाहिये, जिसे वह समझना या रूपांतरित करना चाहता है तथा अपने लक्ष्य को पाने के लिए उसे कौनसी संज्ञानात्मक या व्यावहारिक क्रियाएं करनी चाहिये। विचाराधीन विषय का वर्णन करने में सिद्धांत यह दर्शाता है कि इस समय यह विषय क्या है, पर पद्धति यह सुझाती है कि उस विषय पर क्या कार्रवाई की जाये

परंतु सिद्धांत और पद्धति काफ़ी स्वाधीन होते तथा भिन्न-भिन्न काम करते हुए भी हमेशा अंतर्संबंधित और परस्पर आश्रित होते हैं। किसी सिद्धांत के बल पर निरूपित ( elaborated ) किसी भी पद्धति के लिए संज्ञानात्मक या व्यावहारिक लक्ष्यों की प्राप्ति में कारगर होने के वास्ते यह जरूरी है कि उसके उसूल ( principles ) उस वस्तु के अनुगुणों और संबंधों को परावर्तित करे, जो संज्ञान या व्यावहारिक कार्यों की लक्ष्य है। सिद्धांत इन अनुगुणों और संबंधों को प्रकट तथा स्पष्ट करता है। इसके साथ ही सिद्धांत में उस वस्तु के अनुगुणों व संबंधों के स्पष्टीकरण की गहनता ( depth ) और प्रामाणिकता तथा व्यवहार में उसके रूपांतरण की गहराई और कारगरता ( effectiveness ), संज्ञान तथा व्यावहारिक क्रिया की समुचित ( appropriate ) पद्धतियों के उपयोग पर निर्भर होती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 1 अगस्त 2015

प्रयोग और प्रेक्षण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत वैज्ञानिक संज्ञान के रूपों सिद्धांत और प्राक्कल्पना पर चर्चा की थी, इस बार वैज्ञानिक संज्ञान के अन्य रूपों प्रयोग और प्रेक्षण की महत्ता को समझने की कोशिश करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



वैज्ञानिक संज्ञान के रूप
प्रयोग और प्रेक्षण
( experiment and observation )

जब एक खगोलविद ( astronomer ) अपनी रेडियोदूरबीन ( radio telescope ) से अंतरिक्ष की रहस्यमय गहराइयों से आनेवाली रेडियो तरंगों या एक्स-किरणों को ग्रहण करता है, तो वह एक ऐसे तारे या तारा-पुंज की खोज कर सकता है, जो सामान्य प्रकाशिक दूरबीन ( optical telescope ) के लिए अदृश्य ( invisible ) हैं। एक जैविकीविद ( biologist ) प्रयोगशाला या प्राकृतिक दशाओं में जानवरों का प्रेक्षण करके उनके व्यवहार की किसी ऐसी नियमितताओं की खोज कर सकता है, जो पहले अज्ञात थीं। प्रेक्षण ( observation ) दृश्य, श्रव्य तथा अन्य संवेदनों के द्वारा संवेदनात्मक अनुभव हासिल करने की प्रक्रिया पर आधारित होता है

हम सामान्य जीवन में काम पर या वैज्ञानिक अनुसंधान ( research ) के समय जो सूचनाएं प्राप्त करते हैं, उनमें से बहुत सारी प्रेक्षणों पर आधारित होती हैं। लेकिन वैज्ञानिक प्रेक्षण दैनंदिन प्रेक्षणों से गुणात्मकतः ( qualitatively ) भिन्न होते हैं। मसलन, ऐसे प्रेक्षण निम्नांकित तरीक़ों से किये जाते हैं : (१) विशेष उपकरणों, औज़ारों व यंत्रों के ज़रिये ; (२) विशेष कार्यक्रम या योजनानुसार, नियमतः पहले से चयनित वस्तुओं पर किये जाते हैं ; (३) वे सख़्ती से परिभाषित लक्ष्य ( aim ) के मुताबिक़ होते हैं, यानी असंबंधित तथ्यों ( facts ) को मात्र जमा करके नहीं, बल्कि ऐसे तथ्यों के संकलन से जिनसे नयी प्राक्कल्पना प्रस्तुत करना या पूर्व प्रस्तुत प्राक्कल्पनाओं की परीक्षा करना संभव हो सके ; (४) प्रेक्षण, नियमतः ऐसी वस्तुओं व घटनाओं का किया जाता है, जो दैनिक जीवन में नहीं पायी जातीं ; और अंतिम (५) प्रेक्षण ऊंची सटीकता ( high accuracy ), सूक्ष्मता ( precision ) और विश्वसनीयता ( reliability ), आदि की आवश्यकताओं के अनुरूप होने चाहिए। परंतु इस सबके बावजूद, सबसे जटिल तथा सटीक वैज्ञानिक प्रेक्षण भी हमें घटना की गहराई तथा सार ( essence ) तक पहुंचने में सक्षम नहीं बना सकते। क्यों ?

कोई भी प्रेक्षण, चाहे वह सबसे सही उपकरणों से क्यों न किया गया हो, अध्ययनाधीन वस्तु या घटना को बदले या रूपांतरित ( transform ) किये बिना उसे उसकी प्राकृतिक अवस्था ( natural state ) में ही रहने देता है। परंतु किसी भी वस्तु के गहन आंतरिक संयोजनों ( deep inter connections ) को जानने के लिए उसे रूपांतरित करना, उसमें फेर-बदल करना और यह पता लगाना आवश्यक है कि रूपांतरण की प्रक्रिया के दौरान उसका व्यवहार कैसा होता है। इसके लिए उस वस्तु को उसकी आम कड़ियों तथा दशाओं से पृथक करना, उसे दूसरी दशाओं में रखना तथा उसके क्रियाकलाप की व्यवस्था को बदलना होता है ; उसे उसके विभिन्न भागों में विभाजित करना, अन्य वस्तुओं के साथ टकराना तथा अनपेक्षित परिस्थितियों ( unexpected circumstances ) में काम तथा संक्रिया ( operation ) करने के लिए बाध्य करना होता है। यही वैज्ञानिक प्रयोग ( scientific experiment ) की या प्रायोगिक अनुसंधान की विषयवस्तु भी है। फलतः प्रयोग, व्यवहार ( practice ) का एक विशेष वैज्ञानिक रूप ( form ) है। प्रयोग के दौरान किये जानेवाले प्रेक्षण निष्क्रिय ( passive ) नहीं, बल्कि ‘जीवंत चिंतन-मनन’ ( living contemplation ) के रूप में सक्रिय ( active ) होते हैं। चूंकि प्रयोग स्थापित नियमों और पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों यानी एक प्राक्कल्पना ( hypothesis ) की पुष्टि या खंड़न करने और नये नियमों व सिद्धांतों को निरूपित करने के लक्ष्यों के पूर्णतः अनुरूप होता है, इसलिए यह वैज्ञानिक संज्ञान और ज्ञान का एक सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।

प्रयोगों को कई रूपों में विभाजित करने का रिवाज है : (१) अन्वेषणात्मक ( exploratory ), इसका मक़सद नयी घटनाओं, नये अनुगुणों या घटनाओं के बीच पहले से अज्ञात संपर्कों का पता लगाना है ; (२) परीक्षणात्मक ( testing or checking ), इसका लक्ष्य प्राक्कल्पना की पुष्टि या खंडन करना और उसकी सटीकता का अनुमान लगाना है ; (३) रचनात्मक ( constructive ), जिसके दौरान ऐसे नये पदार्थों, नयी संरचनाओं या नयी सामग्री की रचना की जाती है जो पहले प्रकृति में विद्यमान नहीं थी ; और (४) नियंत्रणात्मक ( control ), जिसका लक्ष्य माप उपकरणों, यंत्रों और औज़ारों की जांच तथा समंजन ( adjustment ) करना है।

प्रायोगिक क्रियाकलाप के ये सभी रूप अक्सर एक ही प्रयोग में अंतर्गुथित ( interwoven ) होते हैं। मसलन, शुक्र ग्रह तक एक अंतरिक्ष प्रयोगशाला के प्रक्षेपण से सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की कई प्रस्थापनाओं की सटीकता की पुष्टि करना ( परीक्षणात्मक प्रयोग ), ग्रह के वायुमंडल में तथा सतह पर नयी घटनाओं की खोज करना संभव हुआ ( अन्वेषणात्मक प्रयोग ) और उस सिलसिले में नितांत नये यंत्रों तथा उपस्करों का निर्माण किया गया ( रचनात्मक प्रयोग ) और संक्रियाशील उपकरणों की विश्वसनीयता का परीक्षण किया गया ( नियंत्रणात्मक प्रयोग )।

आधुनिक विज्ञान का एक विशिष्ट लक्षण यह है कि अब संज्ञान ( cognition ) की एक सामान्य वैज्ञानिक विधि के रूप में प्रयोगों का न केवल प्राकृतिक विज्ञानों तथा इंजीनियरी में, बल्कि सामाजिक जीवन में भी व्यापक अनुप्रयोग ( application ) होता है। वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति की दशाओं में संज्ञान तथा वास्तविकता ( reality ) को रूपांतरित करने की प्रायोगिक विधियां उद्योग, कृषि, प्रबंध और प्रशासन के सारे क्षेत्रों में आम ( common ) हो गयी हैं। इसमें हम सामाजिक व्यवहार पर विज्ञान के प्रभाव के एक सर्वाधिक शक्तिशाली कार्यतंत्र ( mechanism ) को देखते हैं। यही इसका स्पष्टीकरण है कि प्रत्येक सचेत व्यक्ति को संज्ञान तथा व्यावहारिक क्रियाकलाप में प्रयोग की भूमिका ( role ) को समझने की जरूरत क्यों हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
Related Posts with Thumbnails