हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में स्मृति के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर विचार किया था, इस बार हम स्मृति के शरीरक्रियात्मक और जीवरासायनिक सिद्धांतों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में स्मृति के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर विचार किया था, इस बार हम स्मृति के शरीरक्रियात्मक और जीवरासायनिक सिद्धांतों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
स्मृति के शरीरक्रियात्मक सिद्धांत
( physiological principles of memory )
( physiological principles of memory )
स्मृति क्रियातंत्रों के शरीरक्रियात्मक सिद्धांत उच्चतर तंत्रिका-सक्रियता के नियमों से संबंधित सिद्धांत की मूल प्रस्थापनाओं से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। अनुकूलित ( conditioned ) कालिक संबंधों के निर्माण का सिद्धांत मनुष्य के वैयक्तिक अनुभव के निर्माण का, यानि ‘शरीरक्रियात्मक स्तर पर स्मरण’ की प्रक्रिया का सिद्धांत है। वास्तव में अनुकूलित प्रतिवर्त ( conditioned reflex ), नयी तथा पहले से विद्यमान अंतर्वस्तु के बीच संबंध स्थापित करने की क्रिया होने के कारण, स्मरण की क्रिया के शरीरक्रियात्मक आधार का ही काम करता है।
इस क्रिया के कार्य-कारण संबंध को समझने के लिए प्रबलन ( reinforcement ) की अवधारणा अत्यधिक महत्त्व रखती है। अपने शुद्ध रूप में प्रबलन, मनुष्य द्वारा अपने कार्य के प्रत्यक्ष लक्ष्य को पाना ही है। अन्य मामलों में यह एक उद्दीपक है, जो क्रिया को किसी निश्चित दिशा में अभिप्रेरित अथवा संशोधित करता है। प्रबलन क्रिया के उद्देश्य के साथ नवनिर्मित संबंध के संयोग ( combination ) का परिणाम होता है, ज्यों ही संबंध का लक्ष्य की प्राप्ति के साथ संयोग हो जाता है, वह सुस्थिर और दृढ़ बन जाता है। मनुष्य की क्रियाशीलता के नियमन में, प्रतिवर्त वलय के बंद होने में प्रबलन बुनियादी महत्त्व रखता है।
अपने जीवनावश्यक प्रकार्य की दृष्टि से स्मृति विगत की बजाय भविष्य की ओर लक्षित है। विगत की स्मृति की व्यर्थ होगी, यदि उसे भविष्य में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। सफल कार्यों के परिणामों का संचयन ( accumulation ), भावी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उनकी उपयोगिता का प्रसंभाव्यतामूलक पूर्वानुमान ( potential-oriented prediction ) है।
इन्हीं सिद्धांतों से ही घनिष्ठतः जुड़ा हुआ स्मृति का भौतिक सिद्धांत है। इसे यह नाम इसके प्रतिपादकों के इस दावे के कारण दिया गया है कि न्यूरानों के किसी निश्चित समूह से गुजरते हुए तंत्रिका-आवेग अपने पीछे साइनेप्सों ( न्यूरानों के संधिस्थलों ) के वैद्युत एवं यांत्रिक परिवर्तनों के रूप में एक भौतिक छाप छोड़ जाता है। ये परिवर्तन, आवेग का अपने पूर्वनिर्धारित पथ से गुज़रना आसान बना देते हैं।
वैज्ञानिकों का विश्वास है कि किसी भी वस्तु के परावर्तन के साथ, उदाहरण के लिए, चाक्षुष प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में आंख द्वारा उस वस्तु की रूपरेखा अंकित किये जाने के साथ, न्यूरानों के एक निश्चित समूह के बीच से तंत्रिका-आवेग गुज़रता है, जो जैसे कि प्रत्यक्ष का विषय बनी हुई वस्तु का मॉडल बनाते हुए न्यूरानों की संरचना में एक स्थिर देशिक तथा कालिक छाप छोड़ जाता है ( इसीलिए भौतिक सिद्धांत को कभी-कभी न्यूरान मॉडलों का सिद्धांत भी कहा जाता है)। इस सिद्धांत के समर्थकों के अनुसार न्यूरान मॉडलों का निर्माण तथा बाद में उनका सक्रियीकरण ही याद करने, रखने और पुनर्प्रस्तुत करने का क्रियातंत्र है।
स्मृति के जीवरासायनिक सिद्धांत
( biochemical principles of memory)
इस क्रिया के कार्य-कारण संबंध को समझने के लिए प्रबलन ( reinforcement ) की अवधारणा अत्यधिक महत्त्व रखती है। अपने शुद्ध रूप में प्रबलन, मनुष्य द्वारा अपने कार्य के प्रत्यक्ष लक्ष्य को पाना ही है। अन्य मामलों में यह एक उद्दीपक है, जो क्रिया को किसी निश्चित दिशा में अभिप्रेरित अथवा संशोधित करता है। प्रबलन क्रिया के उद्देश्य के साथ नवनिर्मित संबंध के संयोग ( combination ) का परिणाम होता है, ज्यों ही संबंध का लक्ष्य की प्राप्ति के साथ संयोग हो जाता है, वह सुस्थिर और दृढ़ बन जाता है। मनुष्य की क्रियाशीलता के नियमन में, प्रतिवर्त वलय के बंद होने में प्रबलन बुनियादी महत्त्व रखता है।
अपने जीवनावश्यक प्रकार्य की दृष्टि से स्मृति विगत की बजाय भविष्य की ओर लक्षित है। विगत की स्मृति की व्यर्थ होगी, यदि उसे भविष्य में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। सफल कार्यों के परिणामों का संचयन ( accumulation ), भावी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उनकी उपयोगिता का प्रसंभाव्यतामूलक पूर्वानुमान ( potential-oriented prediction ) है।
इन्हीं सिद्धांतों से ही घनिष्ठतः जुड़ा हुआ स्मृति का भौतिक सिद्धांत है। इसे यह नाम इसके प्रतिपादकों के इस दावे के कारण दिया गया है कि न्यूरानों के किसी निश्चित समूह से गुजरते हुए तंत्रिका-आवेग अपने पीछे साइनेप्सों ( न्यूरानों के संधिस्थलों ) के वैद्युत एवं यांत्रिक परिवर्तनों के रूप में एक भौतिक छाप छोड़ जाता है। ये परिवर्तन, आवेग का अपने पूर्वनिर्धारित पथ से गुज़रना आसान बना देते हैं।
वैज्ञानिकों का विश्वास है कि किसी भी वस्तु के परावर्तन के साथ, उदाहरण के लिए, चाक्षुष प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में आंख द्वारा उस वस्तु की रूपरेखा अंकित किये जाने के साथ, न्यूरानों के एक निश्चित समूह के बीच से तंत्रिका-आवेग गुज़रता है, जो जैसे कि प्रत्यक्ष का विषय बनी हुई वस्तु का मॉडल बनाते हुए न्यूरानों की संरचना में एक स्थिर देशिक तथा कालिक छाप छोड़ जाता है ( इसीलिए भौतिक सिद्धांत को कभी-कभी न्यूरान मॉडलों का सिद्धांत भी कहा जाता है)। इस सिद्धांत के समर्थकों के अनुसार न्यूरान मॉडलों का निर्माण तथा बाद में उनका सक्रियीकरण ही याद करने, रखने और पुनर्प्रस्तुत करने का क्रियातंत्र है।
स्मृति के जीवरासायनिक सिद्धांत
( biochemical principles of memory)
स्मृति के क्रियातंत्रों के अध्ययन का तंत्रिकाक्रियात्मक स्तर वर्तमान काल में जीवरासायनिक ( biochemical ) स्तर के अधिकाधिक निकट आता जा रहा है और कई बार तो उससे एकाकार भी हो जाता है। इसकी पुष्टि इन दो क्षेत्रों के संधिस्थल पर किये गए अनुसंधानों से होती है। इन अनुसंधानों के आधार पर, मिसाल के लिए, यह प्राक्कल्पना प्रतिपादित की गई है कि स्मरण की प्रक्रिया दो चरणों में संपन्न होती है। पहले चरण में मस्तिष्क में क्षोभक की क्रिया के तुरंत बाद घटनेवाली एक अल्पकालिक विद्युत-रासायनिक अभिक्रिया न्यूरानों में प्रत्यावर्तनीय ( repatriable ) शरीरक्रियात्मक ( physiological ) परिवर्तन पैदा करती है। दूसरा चरण, जो पहले चरण के आधार पर पैदा होता है, स्वयं जीवरासायनिक अभिक्रिया ( biochemical reaction ) का चरण, जिसके फलस्वरूप नये प्रोटीन बनते हैं। पहला चरण कुछ सैकंड या मिनट जारी रहता है और अल्पकालिक ( short-term ) स्मरण का शरीरक्रियात्मक क्रियातंत्र माना जाता है। दूसरा चरण न्यूरानों में अप्रत्यावर्तनीय रासायनिक परिवर्तन लाता है और दीर्घकालिक ( long-term ) स्मृति का क्रियातंत्र माना जाता है।
यदि प्रयोगाधीन जीव को कुछ करना ( या न करना ) सिखाया जाए और फिर अल्पकालिक विद्युतरासायनिक अभिक्रिया को उसके जीवरासायनिक अभिक्रिया में बदलने से पहले कुछ क्षण के लिए रोक दिया जाए, तो उसे याद नहीं रहेगा कि उसे क्या सिखाया गया था।
यदि प्रयोगाधीन जीव को कुछ करना ( या न करना ) सिखाया जाए और फिर अल्पकालिक विद्युतरासायनिक अभिक्रिया को उसके जीवरासायनिक अभिक्रिया में बदलने से पहले कुछ क्षण के लिए रोक दिया जाए, तो उसे याद नहीं रहेगा कि उसे क्या सिखाया गया था।
एक प्रयोग में चूहे को फ़र्श से थोड़ा ही ऊंचे चबूतरे पर रख गया। चूहा कूदकर तुरंत नीचे आ जाता था। किंतु ऐसी एक कूद के दौरान बिजली के धक्के से पीड़ा अनुभव करके चूहा इस प्रयोग के २४ घंटे बाद भी चबूतरे पर रखे जाने पर ख़ुद नीचे नहीं कूदा और अपने वहां से हटाए जाने का इंतज़ार करता रहा। दूसरे चूहे के मामले में अल्पकालिक स्मृति को बिजली के धक्के के तुरंत बाद अवरुद्ध कर दिया गया। नतीजे के तौर पर अगले रोज़ उस चूहे ने यों बर्ताव किया कि जैसे कुछ हुआ ही न हो।
विदित है कि मनुष्य भी यदि थोड़े समय के लिए चेतना खो बैठता है, तो वह इससे तुरंत पहले की सभी घटनाओं को भूल जाता है। बहुत करके स्मृति से बाह्य प्रभाव की वे छापें विलुप्त होती हैं जिन्हें संबद्ध जीवरासायनिक परिवर्तनों के शुरू होने से पहले अल्पकालिक विद्युत-रासायनिक अभिक्रिया में व्यवधान के कारण अपने स्थायीकरण के लिए समय नहीं मिल पाया था।
स्मृति के रासायनिक सिद्धांतों के पक्षधरों का कहना है कि छापों का स्थायीकरण, धारण और पुनर्प्रस्तुति बाह्य क्षोभकों के प्रभाव के कारण न्यूरानों में आनेवाले रासायनिक परिवर्तन, न्यूरानों के प्रोटीनी अणुओं, विशेषतः तथाकथित न्यूक्लीकृत अम्ल के अणुओं के विभिन्न पुनर्समूहनों ( re-grouping ) के रूप में व्यक्त होते हैं। डीएनए ( डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल ) को आनुवंशिक ( genetic ) स्मृति का वाहक माना जाता है और आरएनए ( राइबोन्यूक्लिक अम्ल ) को व्यक्तिवृत्तीय, वैयक्तिक ( individual ) स्मृति का आधार। प्रयोगों ने दिखाया है कि न्यूरान के क्षोभन से उसमें आरएनए की मात्रा बढ़ जाती है और स्थायी जीवरासायनिक चिह्न छूट जाते हैं, जिससे न्यूरान परिचित क्षोभकों की बारंबार क्रिया के उत्तर में सस्पंदन करने में समर्थ हो जाते हैं।
नवीनतम अनुसंधानों, विशेषतः जीवरासायनिक अनुसंधानों के परिणामों से भविष्य में मानव स्मृति के नियंत्रण की संभावना के बारे में आशाएं बंधी हैं। किंतु उन्होंने बहुर सारे मिथ्या और कभी-कभी तो बेसिर-पैर विचारों को भी जन्म दिया है, जैसे यह कि तब तंत्रिका-तंत्र पर प्रत्यक्ष रासायनिक प्रभाव डालकर लोगों को सिखाना, विशेष स्मृतिपोषक गोलियों के ज़रिये ज्ञान अंतरित करना, आदि संभव हो जाएंगे।
इस संबंध में उल्लेखनीय है कि यद्यपि मनुष्य की स्मृति-प्रक्रियाओं में सभी स्तरों पर तंत्रिका-संरचनाओं की अत्यंत जटिल अन्योन्यक्रिया शामिल है, फिर भी उनका निर्धारण ‘ऊपर से’, यानि मनुष्य की सक्रियता द्वारा होता है और उनके कार्य का सिद्धांत ‘समष्टि से अंशों की ओर’ है। इस सिद्धांत के अनुसार बाह्य प्रभावों की छापों का साकारीकरण शरीर-अंग-कोशिका दिशा में होता है, न कि इसके विपरीत दिशा में। स्मृति के कोई भी भैषजिक ( pharmaceutical ) उत्प्रेरक इस बुनियादी तथ्य को नहीं बदल सकते। रासायनिक क्रियातंत्र आनुषंगिक ( commensurate ) तथा सक्रियता का व्युत्पाद ( derivative ) होते हैं, इसलिए मस्तिष्क में तैयारशुदा रासायनिक द्रव्य सीधे पहुंचाकर नहीं बनाये जा सकते।
स्मृति के रासायनिक सिद्धांतों के पक्षधरों का कहना है कि छापों का स्थायीकरण, धारण और पुनर्प्रस्तुति बाह्य क्षोभकों के प्रभाव के कारण न्यूरानों में आनेवाले रासायनिक परिवर्तन, न्यूरानों के प्रोटीनी अणुओं, विशेषतः तथाकथित न्यूक्लीकृत अम्ल के अणुओं के विभिन्न पुनर्समूहनों ( re-grouping ) के रूप में व्यक्त होते हैं। डीएनए ( डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल ) को आनुवंशिक ( genetic ) स्मृति का वाहक माना जाता है और आरएनए ( राइबोन्यूक्लिक अम्ल ) को व्यक्तिवृत्तीय, वैयक्तिक ( individual ) स्मृति का आधार। प्रयोगों ने दिखाया है कि न्यूरान के क्षोभन से उसमें आरएनए की मात्रा बढ़ जाती है और स्थायी जीवरासायनिक चिह्न छूट जाते हैं, जिससे न्यूरान परिचित क्षोभकों की बारंबार क्रिया के उत्तर में सस्पंदन करने में समर्थ हो जाते हैं।
नवीनतम अनुसंधानों, विशेषतः जीवरासायनिक अनुसंधानों के परिणामों से भविष्य में मानव स्मृति के नियंत्रण की संभावना के बारे में आशाएं बंधी हैं। किंतु उन्होंने बहुर सारे मिथ्या और कभी-कभी तो बेसिर-पैर विचारों को भी जन्म दिया है, जैसे यह कि तब तंत्रिका-तंत्र पर प्रत्यक्ष रासायनिक प्रभाव डालकर लोगों को सिखाना, विशेष स्मृतिपोषक गोलियों के ज़रिये ज्ञान अंतरित करना, आदि संभव हो जाएंगे।
इस संबंध में उल्लेखनीय है कि यद्यपि मनुष्य की स्मृति-प्रक्रियाओं में सभी स्तरों पर तंत्रिका-संरचनाओं की अत्यंत जटिल अन्योन्यक्रिया शामिल है, फिर भी उनका निर्धारण ‘ऊपर से’, यानि मनुष्य की सक्रियता द्वारा होता है और उनके कार्य का सिद्धांत ‘समष्टि से अंशों की ओर’ है। इस सिद्धांत के अनुसार बाह्य प्रभावों की छापों का साकारीकरण शरीर-अंग-कोशिका दिशा में होता है, न कि इसके विपरीत दिशा में। स्मृति के कोई भी भैषजिक ( pharmaceutical ) उत्प्रेरक इस बुनियादी तथ्य को नहीं बदल सकते। रासायनिक क्रियातंत्र आनुषंगिक ( commensurate ) तथा सक्रियता का व्युत्पाद ( derivative ) होते हैं, इसलिए मस्तिष्क में तैयारशुदा रासायनिक द्रव्य सीधे पहुंचाकर नहीं बनाये जा सकते।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय