शनिवार, 30 जुलाई 2011

कलात्मक तथा वैज्ञानिक सृजन में कल्पना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में कल्पना पर चल रही चर्चा में कल्पना और खेल पर बात की थी, इस बार हम कलात्मक तथा वैज्ञानिक सृजन में कल्पना पर विचार करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



कलात्मक तथा वैज्ञानिक सृजन में कल्पना
( imagination in artistic and scientific creation )

कल्पना, कला तथा साहित्य से संबंधित सृजनात्मक सक्रियता ( creative activity ) का एक आवश्यक अंग है। कलाकार या साहित्यकार की सक्रियता में भाग लेने वाली कल्पना अत्यधिक संवेगात्मक होती है। साहित्यकार के मस्तिष्क में उभरा बिंब, स्थिति अथवा घटनाओं का अप्रत्याशित ( unexpected ) मोड़ एक तरह के ‘संघनित्र’ ( condenser ) से, यानि सृजनशील व्यक्तित्व के संवेगात्मक क्षेत्र से गुजरता है। कुछ निश्चित भावनाएं अनुभव करके और उन्हें कलात्मक बिंबों में ढ़ालकर साहित्यकार, कलाकार और संगीतकार अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को भी वैसा ही दुख या आह्लाद अनुभव करने को बाध्य करते हैं। कुछ महान साहित्यकारों, कलाकारों और संगीतकारों की रचनाएं, उनमें व्यक्त उद्दाम भावनाओं ( boisterous emotions ) को, लंबे समय तक उनसे साबका रखने वाले व्यक्तियों में जगाती रहती हैं।

कुछ रचनाकार काल्पनिक स्थितियों को बड़ी उत्कटता ( intensity ) से अनुभव करते हैं और उनके पात्र जिन-जिन अनुभूतियों ( feelings ) से गुज़रते हैं, उनसे वे स्वयं भी अप्रभावित नहीं रहते। बेशक साहित्यकार का अपने कार्य के दौरान ऐसे निश्छल अनुभवों से गुज़रना साधारण बात नहीं है, फिर भी कलात्मक सृजन में कल्पना और गूढ़ मानवीय संवेगों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता

वैज्ञानिक खोजों के इतिहास में कल्पना द्वारा शोध-कार्यों ( research works ) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाये जाने के मिसालों की भरमार है। इस संबंध में तापजन ( थर्मोजन ) का उल्लेख किया जा सकता है, जो एक ऐसा काल्पनिक द्रव था जिसने १८वीं शताब्दी में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। तापीय परिघटनाओं के सार को व्यक्त करने का ऐसा सिद्धांत बचकाना सिद्ध हुआ, फिर भी उसके द्वारा कतिपय भौतिकीय तथ्यों का वर्णन तथा व्याख्या की जा सकी और तापगतिकी ( thermodynamics ) के क्षेत्र में कई नई बातें मालूम हो सकीं। इसी ‘तापीय द्रव्य’ के मॉडल को आधार के तौर पर इस्तेमाल करके तापगतिकी के दूसरे सिद्धांत की खोज की गई, जो आज की भौतिकीय संकल्पनाओं में बुनियादी भूमिका अदा करता है। ऐसा ही एक अन्य काल्पनिक संकल्पना ‘अंतरिक्षीय ईथर’ ( space ether ) का इतिहास है। कहा जाता था कि सारा ब्रह्मांड इस विशिष्ट तत्व से भरा हुआ है। आगे चलकर सापेक्षता-सिद्धांत ने इस मॉडल का खंड़न कर दिया, पर फिर भी वैज्ञानिक उसकी बदौलत ही प्रकाश की तरंगमयता के सिद्धांत का प्रतिपादन कर सके।

कल्पना वैज्ञानिक समस्याओं के अध्ययन के आरंभिक चरणों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है और प्रायः असाधारण खोजों ( exceptional discoveries ) का मार्ग प्रशस्त करती है। किंतु इसके द्वारा निदेशित होने के बाद वैज्ञानिकों द्वारा जब किन्हीं महत्त्वपूर्ण नियमसंगतियों का अध्ययन करके उन्हें सुस्पष्ट रूप दे दिया जाता है और जब इस नियम की व्यवहार में पुष्टि हो जाती है तथा उसे पहले से विद्यमान संकल्पनाओं ( concepts ) के साथ जोड़ दिया जाता है, तो संज्ञान की प्रक्रिया एक नये स्तर पर, सिद्धांत और कठोर वैज्ञानिक चिंतन के स्तर पर पहुंच जाती है। इस उच्चतर स्तर पर किसी प्रकार की कल्पनाओं का सहारा लेना व्यर्थ होता है और अनिवार्यतः त्रुटियों की ओर ले जाता है।

वैज्ञानिक सृजन का मनोविज्ञान समकालीन मनोविज्ञान की एक सर्वाधिक संभावना युक्त शाखा है। इस क्षेत्र में किए गए बहुसंख्य अनुसंधानों में वैज्ञानिक तथा प्रोद्योगिक सृजन की प्रक्रियाओं में कल्पना की भूमिका पर बड़ा ध्यान दिया गया है। यह वैज्ञानिक खोजों के इतिहास को प्रमुखता प्रदान कर देता है। यदि हम ऐसी विज्ञान-शाखाओं के इतिहास पर दृष्टिपात करें, जो विकास के उच्च स्तर पर पहुंच चुकी हैं, तो हम पाएंगे कि आरंभिक चरणों में इन सभी शाखाओं में अटकलों और अनुमानों का प्राधान्य था, जो वैज्ञानिक ज्ञान में मौजूद रिक्तियों को भरते थे। विज्ञान के विकास के साथ कल्पना पृष्ठभूमि में चली जाती है और उसका स्थान ठोस, सकारात्मक ज्ञान ले लेता है

किंतु स्थायित्व देर तक नहीं बना रहता। वैज्ञानिक जानकारी का संचय बढ़ने और शोध-प्रणालियों में आगे सुधार होने के कारण सर्वाधिक ‘विश्वसनीय’ सिद्धांत भी देर-सबेर ऐसे तथ्यों से टकराते हैं, जो सामान्य स्वीकृत मान्यताओं से मेल नहीं खाते और जिनकी अभी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती। ऐसे में कल्पना की, अत्यंत साहसिक कल्पना की आवश्यकता पुनः पैदा हो जाती है। कल्पना विज्ञान में क्रांति संभव बनाती है, नई दिशाओं में शोध का मार्ग प्रशस्त करती है और सदा वैज्ञानिक प्रगति की अगली क़तारों में रहती है

इससे स्पष्ट है कि मानव जीवन में कल्पना की भूमिका अत्यंत बड़ी है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 23 जुलाई 2011

कल्पना और खेल

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में कल्पना पर चल रही चर्चा में कल्पना की प्रक्रियाओं पर बात की थी, इस बार हम कल्पना और खेल पर विचार करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



कल्पना और खेल
( imagination and games )

स्कूलपूर्व और आरंभिक स्कूली आयुवर्ग के बच्चों में, जिनकी सक्रियता का मुख्य रूप खेल है, कल्पना की प्रक्रियाओं का बड़ी तेज़ी से विकास होता है।

खेल का मुख्य तत्व एक ऐसी काल्पनिक स्थिति है, जिसमें बच्चा अपने द्वारा संचित सभी धारणाओं और बिंबों का खुलकर प्रयोग करता है, क्योंकि उसपर तर्क ( logic ) के नियमों और सत्याभास के तकाज़ों का कोई अंकुश नहीं होता। कल्पना के बिंब खेल का कार्यक्रम बन जाते हैं : अपनी पायलट के रूप में कल्पना करते हुए बच्चा अपने व्यवहार और समवयस्क साथियों के व्यवहार का उसके अनुरूप गठन करता है। भूमिकामूलक खेल, बच्चे को सोचने के लिए प्रचुर सामग्री मुहैया करने के साथ-साथ उसमें महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व-गुणों ( साहस, संकल्प, आत्मानुशासन, सूझ-बूझ, आदि ) का विकास करते हैं। एक काल्पनिक स्थिति में अपने और अन्य बच्चों के व्यवहार का किसी वास्तविक संदर्भ-व्यक्ति के व्यवहार से मिलान करके बच्चा आवश्यक मूल्यांकन और तुलनाएं करना सीखता है।

कल्पना सक्रियता के संगठन तथा निष्पादन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है और स्वयं कई प्रकार की सक्रियताओं से बनी होती है तथा तब समाप्त हो जाती है, जब बच्चा काम बंद कर देता है। स्कूलपूर्व अवस्था में बच्चे की कल्पना को आरंभ में किसी बाह्य सहारे ( मुख्यतः खिलौनों ) की आवश्यकता होती है, किंतु फिर वह शनैः शनैः एक स्वतंत्र आंतरिक सक्रियता में परिणत हो जाती हैं और बच्चे को साधारण शाब्दिक सृजनात्मक कार्य ( कहानियां व कविताएं गढ़ना ) और कलात्मक कार्य ( चित्र बनाना , आदि ) में लगने की संभावना देती हैं। बच्चे की कल्पना का विकास भाषा के आत्मसात्करण के साथ-साथ और इसलिए वयस्कों से संप्रेषण की प्रक्रिया में होता है। भाषा, वाक् ( speech ) बच्चों को पहले न देखी हुई वस्तुओं की भी कल्पना करने में समर्थ बनाती है। उल्लेखनीय है कि वाक् का विकास अवरुद्ध होने से कल्पना पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और वह कम सजीव तथा सीमित बन जाती है।

कल्पना बच्चे के व्यक्तित्व के सामान्य विकास की एक महत्त्वपूर्ण पूर्वापेक्षा ( prerequisites ) है। उसके बिना बच्चा अपनी सृजन-शक्तियों का खुलकर इस्तेमाल नहीं कर सकता। एक लेखक, बच्चों के बारे में सूक्ष्म तथा गहन प्रेक्षणों और निष्कर्षों के लिए प्रसिद्ध अपनी पुस्तक में एक ऐसी मां का किस्सा बताते हैं, जिसे बच्चों का परीकथाएं व काल्पनिक कहानियां पढ़ना पसंद नहीं था और जिसका बेटा मानो परीकथाएं न पढ़ने देने का बदला लेने के लिए उसे सुबह से शाम तक अपनी मनगढ़ंतों से परेशान किये रहता था : "कभी वह गढ़ता है कि उसके कमरे में एक लाल हाथी आया था, कभी वह हठ करता है कि उसका एक दोस्त भालू है, जिसका नाम कोरा है, और कभी किसी को अपने बगलवाली कुर्सी पर नहीं बैठने देता, क्योंकि वह कहता ‘देखते नहीं, इसपर कोरा बैठा हुआ है!’ या कभी वह एकाएक मां से चिल्लाकर कहता है, ‘खबरदार, उधर न जाना, वहां भेड़िए हैं!’" जब किसी कारणवश ( अधिकांशतः शिक्षा में किसी गंभीर दोष के  कारण ) बच्चों की कल्पना विकास नहीं कर पाती, तो वे सर्वथा यथार्थ ( real ), मगर असामान्य चीज़ों के अस्तित्व में संदेह करने लगते हैं। इस संबंध में इसी पुस्तक में एक घटना का जिक्र है। एक बार एक कक्षा में शार्कों के बारे में पढ़ाया जा रहा था, सहसा एक बच्चा खड़ा होकर चिल्लाया, ‘शार्क-वार्क कुछ नहीं होता!’

स्कूलपूर्व अवस्था में कल्पना सामाजिक अनुभव के आत्मसात्करण की एक सबसे महत्त्वपूर्ण पूर्वापेक्षा होती हैबच्चे के चेतन मन में परिवेश से संबंधित सही, पर्याप्त धारणाएं केवल कल्पना के ज़रिए जड़े जमाती हैं। इस संबंध में किसी जाने-पहचाने बिंब का निर्माण करने वाले घटकों ( ingredients ) का तथाकथित विपर्यय ( rearrangement ) अथवा क्रम-परिवर्तन बड़ा महत्त्व रखते हैं। उदाहरण के लिए, एक चारवर्षीया लड़की गाती है, ‘लो ये टुकड़ा दूध का और भरा गिलास केक का’। ऐसे विपर्ययों में सभी बच्चों को आनंद आता है और संवेगात्मक हास्य प्रभाव की आवश्यकता से उत्पन्न अन्य सभी काल्पनिक बिंबों की भांति वे भी उनकी कल्पना का परिणाम होते हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि यथार्थ के इस प्रकार के जान-बूझकर किए गए विरूपण ( distortion ) के साथ-साथ मापदंड़ ( standards ) जैसी विश्व की एक सही समझ भी मौजूद रहती है, जो इन अनर्गलताओं का खंड़न करती है और सच कहा जाए, तो उनकी मदद से बच्चे की चेतना में और भी गहरे जम जाती हैं। वस्तुओं का ग़लत बेतुका समन्वय ( communion ) उनके बीच नियमसंगत संबंधों का अहसास करने में सहायक होता है और इस तरह बच्चे की संज्ञानमूलक सक्रियता ( cognitive activity ) का एक कारगर औज़ार ( tool ) बन जाता है।

अतएव यह कहने के लिए पर्याप्त मनोवैज्ञानिक प्रमाण मौजूद हैं कि कल्पनाजनित बिंब बच्चे के लिए संज्ञान का और सामाजिक अनुभव के आत्मसात्करण का साधन होते हैं। कल्पना बच्चे को खेल में विश्व का संज्ञान करने और वयस्कों को अपनी सृजनात्मक सक्रियता में इस विश्व का रूपांतरण ( conversion ) करने की संभावना देती है



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 16 जुलाई 2011

कल्पना की प्रक्रियाएं

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में कल्पना पर चल रही चर्चा में कल्पना के भेदों पर बात की थी, इस बार हम कल्पना की प्रक्रियाओं पर विचार करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



कल्पना की प्रक्रियाएं
और उनका विश्लेषणात्मक व संश्लेषणात्मक स्वरूप

मनुष्य की सक्रियता में कल्पना की भूमिका जान लेने के बाद आवश्यक है कि हम उन प्रक्रियाओं व उनकी संरचना पर ग़ौर करें, जिनके फलस्वरूप मन में बिंब उत्पन्न होते हैं।

मन में कल्पना के बिंब कैसे पैदा होते हैं, जो मनुष्य के व्यावहारिक तथा सृजनात्मक कार्यकलाप में उसका मार्गदर्शन करते हैं, और इन बिंबों की संरचना क्या है? कल्पना की प्रक्रियाओं का स्वरूप विश्लेषणात्मक व संश्लेषणात्मक होता है। वे प्रत्यक्ष ( perception ), स्मृति और चिंतन की प्रक्रियाओं से काफ़ी अधिक समानता रखती हैं। प्रत्यक्ष और स्मृति में ही, विश्लेषण ( analysis ) वस्तु की कतिपय सामान्य, आवश्यक विशेषताओं को पहचानना और अनावश्यक विशेषताओं को अनदेखा करना संभव बनाता है। इस विश्लेषण की परिणति संश्लेषण ( synthesis ) में, अर्थात् एक ऐसे मानक के निर्माण में होती है, जिससे मन उन वस्तुओं का अभिज्ञान करता है, जो चाहे कितनी भी क्यों न बदल जाएं, आपस में एक निश्चित मात्रा में समानता फिर भी बनाए रखती हैं। कल्पना में विश्लेषण और संश्लेषण का कार्य भिन्न होता है और बिंबों के सक्रिय उपयोग की प्रक्रिया में वे भिन्न प्रवृत्तियां प्रकट करते हैं।

स्मृति की मुख्य प्रवृत्ति बिंबों को सुरक्षित रखना और उन्हें मानक के अधिकतम समीप लाना है। दूसरे शब्दों में, स्मृति का कार्य अतीत की किसी व्यवहार-स्थिति की या पहले कभी प्रत्यक्ष एवं ह्रदयंगम की हुई वस्तु की हूबहू नक़ल प्रस्तुत करना है। इसके विपरीत कल्पना की मुख्य प्रवृत्ति परिकल्पनों ( बिंबों ) को रूपांतरित ( conversion ) करना और एक नई, पहले अज्ञात स्थिति के मॉडल का निर्माण संभव बनाना है। दोनों प्रवृत्तियां सापेक्ष हैं : हम अपने पुराने परिचितों को वर्षों बाद भी और शक्ल-सूरत, कपड़ों, आवाज़, आदि के काफ़ी बदल जाने पर भी पहचान जाते हैं ; ठीक इसी तरह हम अपनी कल्पना द्वारा पैदा किये गए नये बिंब में पुराने जाने-पहचाने लक्षणों का समावेश कर सकते हैं।

कल्पना के क्रियातंत्रों के सिलसिलें में इस बात को रेखांकित करना आवश्यक है कि कल्पना सारतः परिकल्पनों ( बिंबों ) के रूपांतरण की प्रक्रिया, मस्तिष्क में पहले से विद्यमान बिंबों के आधार पर नए बिंबों के निर्माण की प्रक्रिया है। कल्पना ( imagination ) या स्वैर-कल्पना ( phantasy ) को यथार्थ ( reality ) का नये, अपरिचित, अप्रत्याशित संयोगों ( unexpected combination ) तथा साहचर्यों ( associations ) में परावर्तन ( reflection ) कहा जा सकता है। वास्तव में, हम चाहे किसी सर्वथा असामान्य वस्तु की भी कल्पना क्यों न करें, उसकी ग़ौर से जांच करने पर हम यही पाएंगे कि हमारी कल्पना द्वारा सृजित बिंब के सभी घटक वास्तविक जीवन से, हमारे विगत अनुभव से लिए गए हैं और बहुत सारे तथ्यों के सायास ( intended ) तथा अनायास ( unintended ) विश्लेषण के परिणाम हैं।

कल्पना की प्रक्रिया में बिंबों का संश्लेषण तरह-तरह के रूप ग्रहण करता है ( देखें साथ का चित्र )। बिंबों के संश्लेषण का सबसे सामान्य रूप योजन ( combine ) अथवा यथार्थ में अलग-अलग मिलने वाले विभिन्न गुणों को, विशेषताओं या हिस्सों को आपस में जोड़ना है। परीकथाओं के बहुत से पात्रों ( जलकन्याओं, नागदैत्य, सींग और बड़े दांतों वाले राक्षसों, आदि ) की परिकल्पना के मूल में यही योजन का सिद्धांत है। इसका उपयोग इंजीनयरी में भी किया जाता है ( जैसे जल-स्थलगामी टैंक, जिसमें टैंक तथा नौका की विशेषताओं का संयोजन ( combination ) किया गया है )।

परिकल्पनों के रूपांतरण के एक तरीक़े के नाते योजन से मिलती-जुलती अतिरंजना ( exaggeration ) है, जिसमें वस्तुओं का आवर्धन या लघुकरण ही नहीं किया जाता ( उदाहरणार्थ, बड़े डील-डौलवाले को पहाड़ जैसा बताना और नन्हें लड़के को हाथ के अंगूठे जैसा चित्रित करना ), बल्कि वस्तु के अंगों की संख्या अथवा उनकी स्थिति में परिवर्तन भी किया जा सकता है ( इसकी मिसालें बहुत हाथों या सिरों वाले देवी-देवता, सात सिरों वाले नाग आदि हैं )।

काल्पनिक बिंब की रचना प्रखरीकरण ( sharpening ) के ज़रिए, यानि किन्हीं बातों पर विशेष बल देकर भी की जाती है। दोस्ती की भावना से या द्वेष प्रकट करने के लिए बनाए गए कार्टून इसकी मिसालें हैं। एक और प्रणाली सरलीकरण ( simplification ) है, जिसमें कल्पना के बिंब एक दूसरे में समाहित हो जाते हैं और उनके अंतरों को अनदेखा करके केवल समानताओं पर ही ज़ोर दिया जाता है। इसकी एक मिसाल वह बेल-बूटों वाला डिज़ायन है, जिसके तत्व प्रकृति से लिए गए हैं। अंत में, कल्पना में बिंबों का संश्लेषण प्ररूपण ( typification ) द्वारा भी किया जाता है। यह प्रणाली कथा-साहित्य, मूर्तिशिल्प और चित्रकला में बहुप्रचलित है। इसमें एक जैसी वस्तुओं अथवा परिघटनाओं की तात्विक, मुख्य विशेषताओं को उभारकर उन्हें ठोस बिंबों में साकार किया जाता है।

सृजन की प्रक्रिया के लिए विभिन्न साहचर्यों का पैदा होना आवश्यक है। साहचर्यों के निर्माण की सामान्य प्रवृत्ति सृजन की आवश्यकताओं एवं अभिप्रेरकों पर निर्भर होती है। सृजनात्मक कल्पना की विशिष्टता यह है कि वह साहचर्यों के जाने-पहचाने क्रम का अनुसरण नहीं करती और उन्हें सृजनकर्ता के मन पर छाई हुई भावनाओं, विचारों तथा इच्छाओं के मातहत कर देती है। यद्यपि साहचर्यों का क्रियातंत्र वही रहता है ( यानि साहचर्यों का साम्य, संलग्नता अथवा विरोध के आधार पर उत्पन्न होना ), परिकल्पनों ( बिंबों ) का चयन फिर भी इन्हीं निर्धारणकारी प्रवृत्तियों से निदेशित होता है।

उदाहरण के लिए, घड़ीसाज़ का निशान साधारण आदमी के दिमाग़ में क्या साहचर्य पैदा कर सकता है? उसकी कल्पना शायद यों काम करेगी : "घड़ीसाज़...घड़ी...मेरी घड़ी धीमी हो जाती है...सफ़ाई करवा ही लेनी चाहिए।" यदि उसी निशान पर किसी कवि की नज़र पड़ती है, तो हो सकता है कि उसके मन में कुछ ऐसी पंक्ति उभरे : "कर दे कोई इस तरह ही...यों ही गुजरे साल की भी मरम्मत।" एक बाह्य छाप ( घड़ीसाज़ के निशान ) से जागॄत हुई उसकी कल्पना ने साहचर्यों की एक पूरी श्रॄंखला पैदा कर दी : "घड़ीसाज़...मरम्मत घड़ी की...समय की...मिनटों...हफ़्तों...महीनों...साल की..." और यही उसकी संवेगात्मक चेतना के फ़िल्टर से गुज़रकर उपरोक्त काव्यात्मक बिंब में साकार बना। जाने-पहचाने संबंधों के परंपरागत क्रम से हटे साहचर्यों की ऐसी विशिष्ट श्रॄंखला, सृजनात्मक कल्पना का एक अनिवार्य पहलू है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 9 जुलाई 2011

कल्पना के भेद

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में कल्पना पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम कल्पना के भेदों पर विचार करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



कल्पना के भेद

कल्पना की लाक्षणिक विशेषताएं हैं क्रियाशीलता ( activeness ) और प्रभाविता ( effectiveness )। किंतु कल्पना को मनुष्य की, परिवेशी विश्व के रूपांतरण ( conversion ) की ओर लक्षित सक्रियता के उपकरण के तौर पर ही इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, बल्कि कतिपय ( certain ) परिस्थितियों में वह सक्रियता का स्थानापन्न ( substitute ) भी बन जाती है। ऐसे मामलों में अस्थाय़ी तौर पर मनुष्य , असमाध्य प्रतीत होने वाले कार्यभारों, काम करने की आवश्यकता, जीवन की कठिनाइयों, अपनी त्रुटियों के परिणामों, आदि से बचने के लिए यथार्थ से कटी हुई काल्पनिक विचारों व धारणाओं की दुनिया में सिमट जाता है। कई मनुष्य सक्रियता से कतराकर खोखले स्वप्नों की दुनियां में जा छिपते हैं। यहां कल्पना ऐसे बिंबों की रचना करती है, जिन्हें यथार्थ में साकार न किया जाता है और न प्रायः वे साकार हो सकते हैं। कल्पना के इस रूप को निष्क्रिय कल्पना ( passive imagination ) कहा जाता है।

मनुष्य जान-बूझकर भी निष्क्रिय कल्पना का सहारा ले सकता है। जान-बूझकर पैदा किए गए, किंतु उन्हें यथार्थ में साकार बनाने में सक्षम इच्छा से कटे हुए काल्पनिक बिंबों को मनोविलास या दिवास्वप्न कहते हैं। आनंददायी, सुखद, प्रीतिकर वस्तुओं या स्थितियों के दिवास्वप्न सभी देखते हैं। वे दिखाते हैं कि कल्पना के उत्पादों और आवश्यकताओं के बीच प्रत्यक्ष संबंध है। किंतु कल्पना की प्रक्रियाओं में दिवास्वप्नों की प्रधानता मनुष्य की निष्क्रियता और उसके व्यक्तित्व के विकास में कुछ दोषों की परिचायक होती है। यदि मनुष्य निष्क्रिय है, यदि वह बेहतर भविष्य के लिए प्रयत्न नहीं करता और उसका वर्तमान जीवन कठिन तथा निरानंद है, तो वह प्रायः दिवास्वप्नों का सहारा लेगा, और अपने लिए ऐसे भ्रामक, काल्पनिक कल्पनालोक की रचना करेगा जहां उसकी आवश्यकताएं पूर्णतः तुष्ट होती हैं, जहां वह हमेशा ख़ुशक़िस्मत साबित होता है और ऐसी स्थिति पाता है, जिसे वास्तविक जीवन में पाने की वह कभी आशा भी नहीं कर सकता। निष्क्रिय कल्पना अनजाने में भी पैदा हो सकती है। ऐसा मुख्यतः चेतना के धुंधला पड़ने और दूसरी संकेत पद्धति के आंशिकतः अवरुद्ध होने की अवस्था में, अस्थायी निष्क्रियता के काल में, निद्रालुता तथा स्वप्न में, भावावस्था तथा विभ्रमों में होता है।

निष्क्रिय कल्पना को सायास ( intended ) और अनायास ( unintended ) में और सक्रिय कल्पना को सृजनात्मक ( creative ) तथा पुनरुत्पादक ( reproductive ) में विभाजित किया जा सकता है
 
पुनरुत्पादक कल्पना, वर्णनों के अनुरूप विभिन्न बिंबों के निर्माण पर आधारित होती है। उदाहरण के लिए, जब हम कोई पाठ्‍यपुस्तक या उपन्यास पढ़ते हैं अथवा किसी भौगोलिक मानचित्र या ऐतिहासिक वर्णनों का अध्ययन करते हैं, तो हमें इन स्रोतों में प्रतिबिंबित सामग्री को अपनी कल्पना में पुनरुत्पादित करते रहना पड़ता है। बहुत से स्कूली बच्चों में पुस्तक पढ़ते समय प्रकृति-वर्णनों या चरित्र-चित्रणों पर मात्र निगाह दौड़ा लेने या उन्हें बिल्कुल ही छोड़ देने की आदत पाई जाती है। परिणामस्वरूप वे अपनी पुनरुत्पादक कल्पना का इस्तेमाल नहीं करते और अपने कलात्मक बोध तथा संवेगात्मक विकास को अवरुद्ध कर डालते हैं। भौगोलिक मानचित्रों का अध्ययन पुनरुत्पादक कल्पना को इस्तेमाल करने का एक अच्छा साधन है। मानचित्र को देख-देखकर विभिन्न स्थानों की कल्पना करने से बच्चे में प्रेक्षण क्षमता का विकास होता है। रेखाचित्रों को और विभिन्न कोणों से वास्तविक पिंडों को ग़ौर से देखने से त्रिविम ज्यामिती के अध्ययन के लिए आवश्यक देशिक कल्पना के विकास में मदद मिलती है।

पुनरुत्पादक कल्पना के विपरीत सृजनात्मक कल्पना ऐसे नये बिंबों के स्वतंत्र निर्माण से संबंध रखती है, जिन्हें सक्रियता के मौलिक तथा मूल्यवान उत्पादों में साकार किया जाता है। श्रम की प्रक्रिया में पैदा हुई सृजनात्मक कल्पना, तकनीकी, कलात्मक, आदि हर प्रकार की सृजनात्मक सक्रियता का एक अनिवार्य घटक है और आवश्यकताओं की तुष्टि के उपायों व साधनों की खोज में चाक्षुष बिंबों ( visual images ) के सक्रिय व सोद्देश्य उपयोग का रूप लेती है।

मनुष्य का व्यक्तित्व का महत्त्व काफ़ी हद तक इसपर निर्भर होता है कि उसकी संरचना में किस प्रकार की कल्पना का प्राधान्य है। यदि किसी युवा में निष्क्रिय, खोखले मनोविलास की तुलना में सृजनात्मक कल्पना का प्राधान्य है, जो उसकी सक्रियता में साकार भी बनता है, तो यह दिखाता है कि उसके व्यक्तित्व का अच्छा विकास हुआ है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 2 जुलाई 2011

कल्पना ( imagination )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में चिंतन के भेदों पर चर्चा की थी, इस बार हम कल्पना पर विचार शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



कल्पना और समस्या-स्थिति
( imagination and problem-situation )

चिंतन की भांति कल्पना ( imagination ) भी उन उच्चतम संज्ञानमूलक प्रक्रियाओं ( cognitive processes ) में से एक है, जो केवल मनुष्य की मानसिक सक्रियता की विशेषता है। श्रम के परिणाम की कल्पना किए बिना मनुष्य कार्य आरंभ नहीं कर सकता। कल्पना की सहायता से अपेक्षित परिणाम का पूर्वानुमान ( prediction ) ही मानव श्रम को पशुओं के सहजवृत्तिक व्यवहार से अलग करता है। हर श्रम प्रक्रिया में कल्पना का तत्व अवश्य रहता है। कल्पना कला, रूपांकन, शोध, साहित्य, संगीत, आदि सभी सृजनात्मक ( creative ) कार्यों का एक बुनियादी पहलू है। सच कहा जाए, तो संगीत रचने या कहानी लिखने के लिए कल्पना जितनी महत्त्वपूर्ण होती है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण वह एक साधारण सी मेज़ बनाने के लिए भी है। कारीगर को मेज़ को सचमुच में बनाना शुरू करने से पहले उसकी ऐसे सभी ब्योरों के साथ मन में तस्वीर बना लेनी होती है, जैसे उसकी आकृति, ऊंचाई, लंबाई, चौड़ाई, पाये लगाने का तरीक़ा, उसकी खाने की मेज़, प्रयोगशाला में काम करने की मेज़ या लिखने की मेज़ का काम करने की उपयुक्तता, वग़ैरह।

कल्पना मनुष्य की सृजनात्मक सक्रियता का एक आवश्यक तत्व है और अपने को श्रम के उत्पाद का मानसिक बिंब बनाने में और कोई अनिश्चित समस्या-स्थिति पैदा होने पर व्यवहार का कार्यक्रम विकसित करने की संभावना प्रदान करने में व्यक्त करती है

एक मानसिक प्रक्रिया के नाते कल्पना का सर्वप्रथम और सर्वोपरि उद्देश्य श्रम की प्रक्रिया शुरू होने से पहले श्रम के अंतिम परिणाम ( उदाहरणार्थ, पूरी तरह तैयार मेज़ ) का ही नहीं, अपितु उसके मध्यवर्ती उत्पादों ( उदाहरणार्थ, जिन विभिन्न हिस्सों को जोड़कर मेज़ बनाई जानी हैं ) के भी बिंब ( images ) पैदा करना है। इस तरह कल्पना श्रम के अंतिम तथा मध्यवर्ती उत्पाद का एक मानसिक मॉडल पेश करके तथा उसके वास्तवीकरण में मदद देकर मनुष्य की सक्रियता के लिए मार्गदर्शक का कार्य करती है।

कल्पना चिंतन से घनिष्ठतः जुड़ी हुई है। चिंतन की भांति वह भी भविष्य का पूर्वानुमान करने में सहायक बनती है। प्रश्न उठता है कि चिंतन और कल्पना के बीच समानताएं और भेद क्या हैं। दोनों ही, समस्या-स्थिति ( problem-situation ) में यानि जब नये हल खोजना आवश्यक हो जाता है, तब उत्पन्न होते हैं। चिंतन की भांति कल्पना का अभिप्रेरक भी मनुष्य की आवश्यकताएं होती हैं। हो सकता है कि आवश्यकताओं की तुष्टि की वास्तविक प्रक्रिया से पहले उनकी काल्पनिक, आभासी तुष्टि की जाए, यानि एक ऐसी स्थिति की सजीव कल्पना की जाए कि जिसमें इन आवश्यकताओं को वास्तव में तुष्ट किया जा सकता है। किंतु कल्पना, यथार्थ का पूर्वाभास ( anticipation ) ठोस बिंबों के रूप में, सजीव परिकल्पनों के रूप में करती है, जबकि चिंतन की प्रक्रियाओं में यथार्थ का पूर्वाभासी परावर्तन ( anticipated reflection ) विश्व के सामान्यीकृत तथा अप्रत्यक्ष संज्ञान में सहायक धारणाओं का रूप लेता है।

अतः मन में ऐसी दो पद्धतियां ( methods ) होती हैं, जो किसी समस्या-स्थिति में मनुष्य की सक्रियता के परिणामों का पूर्वाभास कर सकती हैं, एक बिंबों ( परिकल्पनों ) की सुगठित पद्धति और दूसरी धारणाओं की सुगठित पद्धति। जहां कल्पना, बिंब-चयन की संभावना पर आधारित होती है, वहीं चिंतन का आधार धारणाओं के नये योगों की संभावना है। ये चयन ( selection ) और योग ( summation ) प्रायः एक साथ दो स्तरों पर संपन्न होते हैं, क्योंकि बिंब और धारणाएं अंतर्संबद्ध ( inter-related ) हैं : उदाहरण के लिए, तार्किक चिंतन द्वारा किया गया कार्य-प्रणाली का चयन, कार्य की सजीव कल्पना से अभिन्नतः जुड़ा हुआ होता है।

चिंतन और कल्पना की तुलना करते हुए यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि किसी समस्या-स्थिति में अधिक अनिश्चितता ( uncertainty ) हो सकती है और किसी समस्या-स्थिति में कम। उदाहरण के लिए, यदि किसी कार्यभार अथवा वैज्ञानिक समस्या के प्राथमिक तथ्य मालूम हैं, तो उसका समाधान मुख्य रूप से चिंतन के नियमों पर निर्भर होगा। किंतु यदि समस्या-स्थिति में अनिश्चितता का तत्व बहुत अधिक है और प्राथमिक तथ्यों का सही-सही विश्लेषण कठिन है, तो बात दूसरी ही होगी। इस सूरत में कल्पना के क्रियातंत्र काम करने लगेंगे। जैसे कि साहित्यिक सृजन में कल्पना की महत्त्वपूर्ण भूमिका का कारण काफ़ी हद तक यही है। कल्पना में अपने पात्रों की नियति पर दृष्टिपात करते हुए उसका किसी इंजीनियर या डिज़ायनर से कहीं अधिक अनिश्चितता से सामना होता है, क्योंकि मानव मन तथा व्यवहार के नियम भौतिकी के नियमों से कहीं ज़्यादा पेचीदे और कहीं कम ज्ञात हैं।

समस्या-स्थिति के तथ्यों को देखते हुए किसी कार्यभार ( assignment ) को कल्पना की मदद से भी पूरा किया जा सकता है और चिंतन की मदद से भी। यह सोचना ग़लत न होगा कि कल्पना संज्ञान के उस चरण में सर्वाधिक सक्रिय रहती है, जब स्थिति की अनिश्चितता अपने चरम पर होती है। स्थिति जितनी ही जानी-पहचानी, सही और सुनिश्चित होगी, उसमें कल्पना के लिए उतनी ही कम जगह होगी। स्पष्ट है कि जिन परिघटनाओं के नियम मालूम हैं, उन परिघटनाओं को जानने के लिए कल्पना की कोई ज़रूरत नहीं होती। दूसरी ओर, यदि उपलब्ध तथ्य-सामग्री अस्पष्ट है, तो निश्चायक उत्तर ( conclusive answer ) चिंतन से नहीं मिल सकता और तब कल्पना का सहारा लेना पड़ता है।

कल्पना की शक्ति इसमें है कि वह मनुष्य को निर्णय पर पहुंचने और ऐसी सूरत में भी कि जब चिंतन के लिए आवश्यक पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं होती, समस्या-स्थिति से निकास पाने में मदद करती है। कल्पना की बदौलत चिंतन के कई चरणों को लांघा और अंतिम परिणाम का एक बिंब बनाया जा सकता है। किंतु कल्पना की शक्ति ही उसकी कमजोरी भी है। कल्पना द्वारा प्रस्तावित समाधानों ( solutions ) में प्रायः यथातथ्यता ( preciseness ) और वैज्ञानिक कड़ाई ( scientific strictness ) का अभाव होता है। फिर भी सूचना के अभाव में काम करने की आवश्यकता ने मनुष्य को कल्पना का उपकरण विकसित करने को प्रेरित किया। यह उपकरण कभी भी व्यर्थ सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि परिवेशी विश्व में अनन्वेषित क्षेत्र सदा ही रहेंगे।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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