शनिवार, 30 सितंबर 2017

समाज के आधार और अधिरचना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में उत्पादन पद्धति पर चर्चा की थी, इस बार हम समाज के आधार और अधिरचना को समझने और सुपरिभाषित करने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।

समाज के आधार और अधिरचना
( basis and superstructure of the society )

ऐतिहासिक प्रत्ययवाद/भाववाद ( historical idealism ) के दृष्टिकोण से समाज अलग-अलग व्यक्तियों और ऐसे एकल व्यक्तियों का समुच्चय है, जो निर्णय लेते हैं और ख़ुद जोखिम उठाकर लागू करते हैं। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति   जैसे एक वीरान द्वीप में अकेले रहनेवाला, एक प्रकार का रॉबिन्सन क्रूसो है। ऐसे विचार घोर व्यक्तिवाद ( extreme individualism ) को व्यक्त करते हैं। बेशक, समाज के मामलों में व्यक्तिगत पहल, अविष्कार तथा उद्यम ( enterprise ) ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उनके द्वारा अनेक जटिल समस्याओं का समाधान हुआ है, किंतु व्यक्तिवाद का अर्थ, व्यष्टिक ( individual ) क्रियाकलाप के महत्व को मानने तथा उसे उचित ठहराने में नहीं, बल्कि उसे जनगण की सामूहिक, संयुक्त कार्र्वाइयों और जनता की एकजुटता की संभावना ही के ख़िलाफ़ खड़ा करने और सामूहिक/सामाजिक मूल्यों और आधारों को नकारने में निहित है। परंतु इसके बावजूद, वर्ग संघर्ष, ट्रेड-यूनियनों, राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के कार्यों, आदि कि बुनियाद में समान लक्ष्यों तथा हितों के आधार पर निर्मित ऐसी ही एकजुटता अंतर्निहित होती है।

समाज की प्रत्ययवादी तथा व्यक्तिवादी संकल्पना के विपरीत ऐतिहासिक भौतिकवाद ( historical materialism ) इसे एक जटिल प्रणाली ( complex system ) या एक ऐसा सामाजिक अंगी ( social organism ) मानता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न सामाजिक बंधनों और संबंधों के ज़रिये अन्य सबसे जुड़ा होता है। समाज को समझने और उसके विकास तथा उसकी कार्यात्मकता ( functioning ) के नियमों का अध्ययन करने के लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले मौजूदा सामाजिक बंधनों ( ties ), संबंधों और प्रक्रियाओं को समझा जाये। ऐसे स्थायी बंधनों और संबंधों ही के कारण, पीढ़ियों में परिवर्तन के बावजूद समाज की मुख्य विशेषताएं सदियों तक बनी रहती हैं, वह एक ही वस्तुगत प्रतिमान ( objective patterns ) से संचालित होता है। अतः समाज की जीवन को समझने की कुंजी अलग-अलग ‘रॉबिन्सन क्रूसोओं’ के अध्ययन में नहीं, बल्कि उन सामाजिक संबंधों व संयोजनों ( connections ) के अध्ययन में निहित है, जो लोगों के विभिन्न समूहों और अलग-अलग व्यक्तियों को अपने दायरे में ले लेते हैं।

इनमें से कौनसे संबंध निर्धारक ( determinant ) हैं? उत्पादन पद्धति ( mode of production ) को समाज के विकास तथा उसकी कार्यात्मकता के आधार के रूप में मान्यता देकर ऐतिहासिक भौतिकवाद इस बात को मान्यता देता है कि उत्पादन संबंध ( relation of production ) ही निर्धारक हैं। अन्य सारे संबंध और क्रियाकलाप के रूप ( मसलन, पारिवारिक-घरेलू, क़ानूनी, नैतिक, राजनीतिक, कलात्मक, सौंदर्यात्मक, सैनिक, राष्ट्रीय व अन्य संबंध ) और उनके अनुरूप चेतना भी, वस्तुतः उत्पादन संबंधों के आधार पर ठीक वैसे ही बनते हैं, जैसे आधारशिलाओं पर एक इमारत बनायी जाती है। इसलिए समाज की आर्थिक प्रणाली की रचना करनेवाले उत्पादन संबंधों को समाज का आधार ( basis ) और वैचारिक, क़ानूनी तथा राजनीतिक संबंधों तथा उन सार्वजनिक संगठनों व संस्थानों को, जिनके ज़रिये ये संबंध कार्यान्वित होते हैं, समाज की अधिरचना ( superstructure ) कहा जाता है। अधिरचना में सामाजिक चेतना के वे विभिन्न रूप भी शामिल हैं, जो वस्तुगत सामाजिक घटनाओं तथा प्रक्रियाओं को परावर्तित ( reflect ) करते हैं।

अधिरचना, आधार पर निर्मित तथा उससे निर्धारित ही नहीं होती, बल्कि आधार पर एक सक्रिय प्रतिप्रभाव ( active feedback effect ) भी डालती है। इसलिए हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वर्ग समाजों ( class societies ) की अधिरचना में वे सार्वजनिक संगठन व संस्थान शामिल होते हैं, जो विभिन्न सामाजिक समूहों तथा वर्गों के हितों ( interests ) को व्यक्त करते हैं और इस कारण से आधार पर भिन्न-भिन्न ढंग से प्रभाव डालते हैं। कुछ, उन वर्गों और सामाजिक समूहों के हितों को व्यक्त करते हुए उसे मजबूत और ठोस बनाते हैं, जिनके लिए यह आधार समाज में प्रभावी स्थिति ( dominant position ) को सुनिश्चित बनाता है। अधिरचना के, अधिकारविहीन व सत्ताविहीन शोषित वर्गों और समूहों के हितों को व्यक्त करनेवाले अन्य तत्व, आधार को कमजोर बनाते हैं और उसे परिवर्तित करने तथा अंततः नये उत्पादन संबंधों, नयी उत्पादन पद्धति और फलतः एक नयी सामाजिक प्रणाली की स्थापना का प्रयास करते हैं। वर्ग समाजों में अधिरचना के सबसे महत्वपूर्ण तत्व राज्य और राजनीतिक पार्टियां हैं। अब हम अधिरचना की इन सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाओं की तरफ़ ध्यान देंगे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 24 सितंबर 2017

समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में उत्पादन पद्धति - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार यहां समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में उत्पादन पद्धति पर चर्चा जारी थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में 
उत्पादन पद्धति - ३
(mode of production as the basis of the development and functioning of society - 3)

आधुनिक पूंजीवादी समाज में उत्पादक शक्तियां ( productive forces ), स्वचालित मशीनों तथा रोबोटों का उपयोग करनेवाली जटिल तकनीकों ( complex technologies ) पर आधारित हैं। उत्पादन की प्रक्रिया में लाखों लोगों को शामिल किया गया है। फलतः उत्पादक शक्तियों का स्वभाव सामाजिक है। परंतु उत्पादन के संबंध, स्वामित्व ( ownership ) के उस निजी ( private ) पूंजीवादी रूप पर आधारित हैं, जो उन उत्पादक शक्तियों के विकास के स्वभाव व स्तर के अनुरूप था, जो पूंजीवाद के विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में बनी थीं। उस काल में उत्पादन के पूंजीवादी संबंध, समाज की उत्पादक शक्तियों के साथ बहुत अधिक पूर्णता के साथ मेल खाते थे और उनके द्रुत विकास के लिए गुंज़ाइश बनाते थे। अब उत्पादन के पूंजीवादी संबंध, उत्पादक शक्तियों के स्वभाव तथा विकास के स्तर से मेल नहीं खाते हैं। यद्यपि ये संबंध तकनीकी प्रगति को नहीं रोक सकते हैं, तथापि वे उसकी गति को बहुत मंद कर देते हैं और उत्पादक शक्तियों के विकास को रोकते हैं। 

फलतः लोगों के संकल्प व इच्छा से अलग, उत्पादक शक्तियों के सामाजिक स्वभाव के अनुरूप ही, उत्पादन के साधनों पर नये, सामूहिक, समाजवादी स्वामित्व की स्थापना करने की एक वस्तुगत ऐतिहासिक आवश्यकता पैदा हो जाती है। इसका तात्पर्य है कि पूंजीवादी शोषण तथा प्रतियोगिता के संबंधों के स्थान पर उत्पादन के नये संबंध, अर्थात पारस्परिक सहायता व मदद के और समाजवादी प्रतिद्वंद्वता व सहयोग के संबंध निश्चय ही वस्तुगत रूप से बनेंगे।

अतः उत्पादक शक्तियों के साथ उत्पादन संबंधों की अनुरूपता के नियम के प्रभावांतर्गत जब नये प्रकार के स्वामित्व की स्थापना होती हैं, तो फलतः स्वामित्व के संबंधों द्वारा निर्धारित अन्य संबंध भी बदलते हैं। ऐसा मुख्यतः भौतिक संपदा के वितरण ( distribution ) के क्षेत्र में होता है। पूंजीवादी समाज में जो बड़ी पूंजी ( capital ) के स्वामी होते हैं, वे सबसे ज़्यादा मुनाफ़े ( profit ) भी प्राप्त करते हैं। अमीर ज़्यादा अमीर और ग़रीब ज़्यादा ग़रीब बनते जाते हैं। इसके विपरीत समाजवादी समाज में भौतिक संपदा ( material wealth ) और सामाजिक कोशों ( social funds ) को, सर्वोपरि रूप से, श्रम के परिमाण ( quantity ) तथा गुणवत्ता ( quality ) के अनुसार वितरित किया जाता है। फलतः उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन के साथ उत्पादन संबंध पूर्णतः भिन्न हो जाते हैं।

लोग ऐसे दूरगामी सामाजिक सुधारों से अवगत हो सकते हैं और उन्हें बढ़ावा दे सकते हैं या वे उन प्रभुत्वशाली वर्गों के हितों की रक्षा करते हुए उनका विरोध भी कर सकते हैं जिन्हें पुराने उत्पादन संबंधों को बनाए रखने की चिंता रहती है। परंतु वे, एक ऐतिहासिक प्रक्रिया ( historical process ) के रूप में उत्पादन के समाजवादी संबंधों की देर-सवेर होने वाली स्थापना को रोक नहीं सकते, क्योंकि यह स्थापना उत्पादक शक्तियों के विकास के वस्तुगत स्वभाव ( objective character ) पर आश्रित होती है। उत्पादन पद्धति की लाक्षणिकता को दर्शानेवाले उत्पादन संबंधों की क़िस्म और, सर्वोपरि, उत्पादन के अन्य सारे संबंधों का निर्धारण करनेवाले स्वामित्व की क़िस्म का ठीक इसी अर्थ में वस्तुगत स्वभाव होता है और वे लोगों के संकल्प और उनकी इच्छाओं पर निर्भर नहीं होते। लोग उत्पादन के विकास के नियमों और सर्वोपरि उत्पादन की शक्तियों के विकास स्तर के साथ अनुरूपता के नियम की संक्रिया को कमोबेश बढ़ावा दे सकते हैं या उसमें रुकावट डाल सकते हैं, लेकिन वे इन नियमों का उच्छेदन ( abolish ) नहीं कर सकते, उन्हें रूपांतरित ( transform ) नहीं कर सकते और उनकी क्रिया को रोक नहीं सकते।

इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना पर सचमुच पारंगति हासिल करने के लिए यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि ऐतिहासिक युग इस बात में एक दूसरे में भिन्न नहीं होते कि लोग क्या-क्या उत्पादित करते हैं, बल्कि इस बात में भिन्न होते हैं कि वे कैसे उत्पादित करते हैं, यानी उत्पादन पद्धति ( mode of production ) में भिन्न होते हैं। लोग केवल भौतिक वस्तुओं का ही उत्पादन नहीं करते, वे धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों का, कलात्मक वस्तुओं, नैतिक मानकों तथा मानदंडों, न्यायिक क़ानूनों, आदि का भी ‘उत्पादन’ करते हैं, यानी उनकी रचना, विकास तथा विस्तारण करते हैं। इनकी रचना बौद्धिक ( intellectual ), आत्मिक उत्पादन के अंतर्गत आती है, लेकिन ये सब अधिकांशतः भौतिक संपदा की उत्पादन पद्धति पर निर्भर हो्ते है। बेशक, कलाकृति व साहित्य की रचना के लिए समुचित भौतिक वस्तुओं तथा दशाओं की ज़रूरत होती है। 

फलतः संपदा की उत्पादन पद्धति में परिवर्तन, आत्मिक उत्पादन में परिवर्तन पर प्रभाव डालता है तथा उत्पादन प्रक्रिया में लोगों के क्रियाकलाप और उसके आधार पर उत्पन्न होने वाले संबंध, सामाजिक क्रियाकलाप तथा सामाजिक संबंधों के अन्य सारे रूपों का निर्धारण करते हैं। इस प्रकार भौतिक उत्पादन पद्धति समाज के विकास तथा कार्यात्मकता का आधार सिद्ध होती है और उसे संचालित करनेवाले वस्तुगत नियम, सामाजिक विकास की अन्य सारी नियमसंगतियों की बुनियाद है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 17 सितंबर 2017

समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में उत्पादन पद्धति - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में उत्पादन पद्धति पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में 
उत्पादन पद्धति - २
(mode of production as the basis of the development and functioning of society - 2)

उत्पादन कार्य करते समय लोग उत्पादन के संबंधों की स्थापना में भाग लेते हैं, जो उनके संकल्प ( will ) व चेतना ( consciousness ) पर निर्भर नहीं होते। उत्पादन संबंध उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग की प्रक्रिया में लोगों के बीच बनने वाले संबंध हैं। अतः भौतिक संपदा के उत्पादन की प्रक्रिया या उत्पादन की प्रणाली के दो अंतर्संबंधित पक्ष होते हैं - उत्पादक शक्तियां ( productive forces ) और उत्पादन के संबंध ( relations of production )। उत्पादक शक्तियां उत्पादन पद्धति की अंतर्वस्तु हैं और उत्पादन के संबंध उसका रूप हैं। अंतर्वस्तु किसी भी घटना का निर्धारक या प्रमुख पक्ष होती है। लेकिन रूप भी एक महत्वपूर्ण सक्रिय भूमिका अदा करता है। यह घटना के अनुरूप होने पर उसके विकास को बढ़ावा देता है और जब यह अनुरूपता गड़बड़ा जाती है तो यह विकास में बाधक बन जाता है।

उत्पादन पद्धति के दो पक्षों के बीच एक वस्तुगत ( objective ) व अनिवार्य, यानी नियमसंचालित संबंध होता है। इस संबंध को ऐतिहासिक भौतिकवाद के संस्थापकों ने खोजा, उसका अध्ययन किया और उसे उत्पादन पद्धति के विकास का संचालन करनेवाले विशेष वस्तुगत नियम की शक्ल में निरूपित किया। इस नियम को उत्पादक शक्तियों के स्वभाव तथा विकास स्तर के साथ उत्पादन संबंधों की अनुरूपता ( correspondence ) का नियम कहते हैं। यह इस बात पर बल देता है कि उत्पादन संबंध, उत्पादक शक्तियों के जितने ज़्यादा अनुरूप हों भौतिक उत्पादन उतनी ही सफलता से विकसित होता है। परंतु यह अनुरूपता, निरपेक्षतः पूर्ण तथा स्थिर कभी नहीं होती है। किसी भी उत्पादन पद्धति के सर्वाधिक गतिशील पक्ष ( mobile side ) होने के नाते उत्पादक शक्तियां, देर-सवेर, अपने विकास में उत्पादन संबंधों से आगे निकल जाती हैं। उनके बीच अननुरूपता ( non-conformity ) या सांमजस्यहीनता ( disharmony ) उत्पन्न हो जाती है। उत्पादन संबंध, अपरिवर्तित रहकर उत्पादन में प्रेरक बल ( motive force ) होने की बजाय उसमें बाधक हो जाते हैं और तब नये उत्पादन संबंध बनाने की वस्तुगत आवश्यकता पैदा हो जाती है। इसके फलस्वरूप एक नयी उत्पादन पद्धति ( mode of production ) उत्पन्न होती है और साथ ही साथ सारे सामाजिक संबंध तथा सामाजिक क्रियाकलाप के अन्य सारे रूपों में भी बदलाव हो जाता है।

जैसा कि हम देखते हैं, उत्पादन संबंध, उत्पादन पद्धति के विकास तथा परिष्करण में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। जब हम कहते हैं कि ये संबंध लोगों के संकल्प तथा इच्छाओं से स्वतंत्र रूप में स्थापित होते हैं, तो हम उनके वस्तुगत, भौतिक स्वभाव ( material character ) पर बल देते हैं। किंतु, आख़िरकार, एक दूसरे के साथ संबंध क़ायम करते हुए, उदाहरणार्थ, सहयोग के या प्रतिद्वंद्विता और प्रतियोगिता के, पारस्परिक सहायता या संघर्ष के संबंध क़ायम करते हुए लोग यह समझते हैं कि वे क्या कर रहे हैं और उन्हें अपने कर्मों के बारे में कुछ न कुछ हद तक ज्ञान होता है। तो हम यह कैसे कह सकते हैं कि उत्पादन पद्धति की प्रक्रिया में बने उनके संबंध वस्तुगत होते हैं?

आइये, उत्पादन संबंधों पर कुछ अधिक विस्तार से विचार करें। उनके निम्नांकित घटक हैं : (१) उत्पादन के बुनियादी साधनों, सर्वोपरि, श्रम के उपकरणों पर स्वामित्व ( ownership ) के संबंध, (२) उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पन्न प्रत्यक्ष संबंध, और अंतिम (३) श्रम के उत्पादों के वितरण ( distribution ) से जुड़े संबंध, यानी वितरण के संबंध। उत्पादन के इन सारे संबंधों में निर्धारक है स्वामित्व के संबंध ( property relations ), शेष सब उन पर आश्रित हैं। सामाजिक विकास की किसी भी अवस्था में विद्यमान उत्पादन पद्धति की क़िस्म भी, स्वामित्व की क़िस्म पर निर्भर होती है। स्वामित्व के प्रकारों में भेद के अनुरूप ही उत्पादन पद्धति की पांच मुख्य क़िस्में हैं : आदिम-सामुदायिक, दास-प्रथात्मक, सामंती, पूंजीवादी और समाजवादी।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि स्वामित्व, जैसा कि पूंजीवादी दार्शनिक और अर्थशास्त्री कहते हैं, वस्तुओं का विशिष्ट लक्षण नहीं है। एक ही मशीन पूंजीवादी व्यवस्था में निजी संपत्ति है और समाजवादी व्यवस्था में सामाजिक संपत्ति। स्वामित्व, उत्पादन के साधनों के संदर्भ में संबंध का एक विशेष रूप है, जो वस्तुगत ऐतिहासिक आवश्यकता के फलस्वरूप लोगों के बीच स्थापित होता है और जो समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास के स्वभाव और स्तर पर निर्भर होता है। मसलन, आदिम समाज में पत्थर के औज़ारों का अस्तित्व था, उस हालत में लोग निजी संपत्ति ( private ownership ) तथा पूंजीवादी मुनाफ़े के विनियोजन ( appropriation ) पर आधारित पूंजीवादी संबंधों की स्थापना नहीं कर सकते थे। उस काल में विद्यमान उत्पादक शक्तियों के निम्न स्तर के लिए मुनाफ़े के उत्पादन को सुनिश्चित बनाना असंभव था। इसलिए, उत्पादन के साधनों पर आम स्वामित्व ( common ownership ) पर आधारित आदिम समाज के सामूहिक संबंध उन आदिम लोगों के संकल्प तथा उनकी चेतना द्वारा नहीं, बल्कि भौतिक उत्पादन की शक्तियों के विकास के स्वभाव तथा स्तर के अनुरूप बने थे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 10 सितंबर 2017

समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में उत्पादन पद्धति - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में समाज के विकास पर चर्चा की थी, इस बार हम समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में उत्पादन पद्धति पर चर्चा शुरू करेंगे

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में 
उत्पादन पद्धति - १
(mode of production as the basis of the development and functioning of society - 1)

वास्तविक जीवन में, लोग विविध प्रकार के कामधाम करते हैं, जैसे पारिवारिक-घरेलू कार्य और उत्पादन, राजनीतिक, वैज्ञानिक, अध्यापकीय, धार्मिक, सैनिक, क्रीड़ा-कलाप, आदि। इनमें से किसी भी कार्य को संपन्न करने में वे एक दूसरे के साथ कुछ निश्चित संबंध क़ायम करते हैं। पहले के युगों के चिंतकों ने, जो नियमतः समाज के प्रभुत्वशाली वर्गों ( dominant classes ) के हितों को व्यक्त करते थे, मुख्य भूमिका बौद्धिक क्रियाकलाप ( intellectual activity ) को दी। ऐसा इसलिए हुआ कि बौद्धिक क्रियाकलापों से जुड़ी आत्मिक संस्कृति का उत्पादन, यानी दार्शनिक, धार्मिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक और अन्य विचारों का विस्तारीकरण प्रभुत्वशाली, शासक वर्गों का विशेषाधिकार ( privilege ) था।

ऐतिहासिक भौतिकवाद की असाधारण उपलब्धि यह समझ है कि समाज के विकास का वास्तविक आधार ( और बौद्धिक क्रियाकलापों सहित अन्य सारी क़िस्मों के कार्यों का आधार ) श्रम की प्रक्रिया, यानी भौतिक संपदा का उत्पादन है। यह प्रस्थापना, जो हमें सरल और बोधगम्य जान पड़ती है, अपने समय के लिए ( जब इसे पेश किया गया था ) समाज के जीवन की समझ में एक वास्तविक क्रांति थी।

जैसा कि हम यहां पहले देख चुके हैं, श्रम और लक्ष्योन्मुख व्यावहारिक कार्यकलाप ही वह मुख्य कारण था, जिसने मनुष्य को जंतु जगत से विलग किया और साथ ही चेतना की उत्पत्ति का आधार था। श्रम ऐतिहासिक विकास और समाज की कार्यात्मकता का आधार है

श्रम प्रक्रिया क्या है? और इसकी संरचना क्या है? इस प्रक्रिया के मूलभूत तत्व निम्नांकित हैं : (१) मनुष्य और उसका ज्ञान व कुशलताएं ; (२) श्रम के औज़ार, यांत्रिक विधियां, उपकरण तथा तकनीकी युक्तियां ; (३) काम की वस्तुएं, जिन्हें मनुष्य प्रकृति से हासिल करता या जिनकी रचना करता और जिन्हें औज़ारों के ज़रिये तैयार माल बनाता है। औज़ारों और श्रम की वस्तुओं को संयुक्त रूप से उत्पादन के साधन ( means of production ) कहा जाता है। वे भौतिक हैं और वस्तुगत रूप में विद्यमान होते हैं। मनुष्य और उसके ज्ञान व कुशलताओं और उत्पादन के समुपयुक्त साधनों से समाज की उत्पादक शक्तियां ( productive forces ) निर्मित होती हैं। यह उत्पादन का वह पक्ष है, जिससे मनुष्य प्रकृति को प्रभावित करता है। औज़ारो के ज़रिये बाह्य जगत पर क्रिया करते हुए मनुष्य उसे परिवर्तित करता है, बाह्य घटनाओं व प्रक्रियाओं को एक ऐसा रूप प्रदान करता है, जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक उपयुक्त होता है। अपने परिवेशीय जगत को परिवर्तित करते हुए वह स्वयं को भी परिवर्तित करता है। 

मेहनतकशों के ज्ञान व कुशलताओं में परिवर्तन व विकास, औज़ारों तथा संपूर्ण उत्पादन साधनों में परिवर्तन के बाद आते हैं। इसके फलस्वरूप उत्पादक शक्तियों के विकास का स्तर भी ऊंचा उठता है और वे अधिक अच्छी और परिष्कृत हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, कृत्रिम रेशों जैसी नयी कृत्रिम सामग्री ( श्रम की वस्तु ) की रचना के फलस्वरूप नयी कताई मशीनों का अविष्कार हुआ, उसके लिए नये उत्पादन ज्ञान तथा कुशलताओं की जरूरत पड़ी। अपनी बारी में पश्चोक्त ने इन मशीनों को और उत्पादन की सारी तकनीक को सुधारना संभव बनाया, जिसने सामान्यतः उत्पादन शक्तियों के विकास को बढ़ावा दिया।

इस तरह, हम देखते हैं कि उत्पादक शक्तियों में विशुद्ध भौतिक घटक ( औज़ार, यंत्रादि ), और मानसिक, बौद्धिक घटक ( उत्पादन का ज्ञान व कुशलताएं ) दोनों शामिल हैं, किंतु उत्पादन के विकास का प्रमुख, निर्धारक पक्ष भौतिक घटक है। इससे भी अधिक, श्रमिक रूपी मनुष्य प्रमुख उत्पादक शक्ति है, क्योंकि औज़ारों को काम में लानेवाला वही है और वही उत्पादन के समस्त साधनों को परिवर्तित करने में भी योग देता है। हमारे युग में, उत्पादक शक्तियों के विकास के विकास के लिए विशेष वैज्ञानिक ज्ञान की ज़रूरत होती है। यही कारण है कि विज्ञान एक प्रत्यक्ष उत्पादक शक्ति बन रहा है और ज्ञान की भूमिका लगातार बढ़ रही है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 3 सितंबर 2017

प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में समाज का विकास

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना के पूर्वाधारों के रूप में मनुष्य व उसके क्रियाकलाप पर चर्चा की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे और देखेंगे कि समाज का विकास एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया है।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में समाज का विकास
( development of society as a natural-historical process )

एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में समाज के विकास का सिद्धांत इस प्रश्न का उत्तर देता है कि मानव क्रियाकलाप के दोनों पक्षों, भौतिक ( material ) और प्रत्ययिक ( ideal ), में से कौन सा पक्ष प्राथमिक और निर्धारक है और कौनसा पक्ष द्वितीयक और निर्धारित है।

प्रकृति में जारी प्रक्रियाओं में से कोई भी मनुष्य के संकल्प ( will ) व उसकी चेतना पर निर्भर नहीं होती। वे सब वस्तुगत ( objective ) या प्राकृतिक होती हैं। अतः, प्रकृति की घटनाओं का विनियमन ( govern ) करनेवाले नियम वस्तुगत हैं। क्या समाज के विकास के वस्तुगत नियम, यानी ऐसे कुछ नियम हो सकते हैं, जो जनगण की चेतना पर निर्भर नहीं होते? याद रहे कि लोगों के क्रियाकलाप में दो पक्ष होते हैं - भौतिक और प्रत्ययिक। इतिहास की भौतिकवादी समझ इस प्रश्न का स्वीकारात्मक उत्तर देती है। इतिहास के अनुभव का सामान्यीकरण ( generalisation ) करते हुए यह समझ इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि सामाजिक विकास के नियम उतने ही वस्तुगत ढंग से और अनिवार्यतः काम करते हैं, जितने कि प्रकृति के नियम, मात्र बुनियादी अंतर यह है कि वे लोगों के क्रियाकलाप के ज़रिये संक्रिया ( operate ) करते हैं। यही कारण है कि समाज के विकास को एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया कहा जाता है।

यह हो सकता है कि लोग इससे अवगत ( aware ) न हो कि उनके क्रियाकलाप, उनके संकल्प तथा इरादों से परे अंततः वस्तुगत सामाजिक नियमों से संचालित होते हैं। ऐसे मामलों में, वे कहते हैं कि समाज स्वतःस्फूर्त ढंग से ( spontaneously ) विकसित होता है। स्वतःस्फूर्तता का यह मतलब नहीं है कि लोग नितांत अचेतन ढंग से ( unconsciously ) काम करते हैं। सामान्य, स्वस्थ लोगों के लिए ऐसा करना बिल्कुल असंभव है। स्वतःस्फूर्त अवस्था में लोगों को केवल अपने सीधे व्यक्तिगत तथा समूहगत लक्ष्यों की जानकारी होती है और वे उन्हीं को निरूपित करते हैं तथा उन्हें हासिल करने के लिए ऐसे साधनों का चयन करते हैं, जो सामाजिक विकास के नियमों पर निर्भर नहीं होते। इस मामले में ऐसा भी हो सकता है कि उनके क्रियाकलाप के परिणाम निश्चित लक्ष्यों के अनुरूप ( correspond ) न हों। जब लोग सामाजिक विकास के वास्तविक, सच्चे नियमों के प्रति सचेत ( conscious ) हों, तो उनके क्रियाकलाप समुचित अर्थों में सचेत होते हैं। सचेत सामाजिक क्रियाकलाप की अवस्था में ही उसके परिणाम लक्ष्यों के अधिकाधिक अनुरूप होते हैं और वे उन्हें प्राप्त कर पाते हैं, क्योंकि इस मामले में स्वयं लक्ष्यों को वस्तुगत ऐतिहासिक नियमितताओं पर समुचित ध्यान देकर प्रस्तुत व निरूपित किया जाता है।

एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में इतिहास की संकल्पना ( concept ) मानव क्रियाकलाप के भौतिक पक्ष की निर्धारक भूमिका की मान्यता ( recognition ) पर आधारित है। साथ ही, यह इस तथ्य को भी ध्यान में रखती है कि इस क्रियाकलाप का आत्मिक/प्रत्ययिक पक्ष महत्वपूर्ण सक्रिय भूमिका निभाता है। यह भौतिक पक्ष पर सुस्पष्ट प्रभाव डाल सकता है, हालांकि यह प्रभाव स्वयं लोगों की जीवन क्रिया की भौतिक दशाओं से निर्धारित एवं सीमित होता है। प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के इन दो पक्षों की अंतर्क्रिया ( interaction ) तथा पारस्परिक प्रभाव को अच्छी तरह से समझने के लिए निम्नांकित महत्वपूर्ण प्रस्थापनाओं ( propositions ) को ध्यान में रखने की जरूरत है।

"...‘इतिहास’ ऐसा कोई विशिष्ट व्यक्तित्व नहीं है, जो स्वयं अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मनुष्य को एक साधन की शक्ल में इस्तेमाल करता हो ; इतिहास, अपने लक्ष्यों का अनुसरण करते हुए मनुष्य के क्रियाकलाप के सिवा और कुछ नहीं है।"

"...मानवजाति अपने लिए हमेशा केवल ऐसे ही कार्यभार ( tasks ) निर्धारित करती है, जिन्हें वह संपन्न कर सकती है। कारण यह है कि मामले को ग़ौर देखने पर हम पायेंगे कि स्वयं कार्यभार केवल तभी उपस्थित होता है, जब उसे संपन्न करने के लिए जरूरी भौतिक परिस्थितियां पहले से तैयार होती हैं, या कम से कम तैयार हो रही होती हैं।"

उपरोक्त प्रस्थापनाओं से यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि सामाजिक चेतना तथा सामाजिक विकास के लक्ष्यों और कार्यभारों के निरूपण ( formulation ) की कितनी बड़ी भूमिका है। और साथ ही यह भी कि इन कार्यभारों का स्वभाव तथा अंतर्वस्तु ( content ), भौतिक दशाओं से तथा मानव क्रियाकलाप के साधनों से निर्धारित होती है। इसलिए यह स्पष्ट है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद का विरोध करनेवाले वस्तुस्थिति को विरूपित ( distort ) करते हैं, मानव क्रियाकलाप के प्रत्ययिक, मानसिक पक्ष के महत्व का समुचित आकलन नहीं कर पाते हैं, वे या तो उसे अतिरिक्त महिमामंडित ( glorify ) करते हैं या उसके महत्व का अवआकलन ( underestimate ) करते हैं। इसके साथ ही, वे यह भी नहीं समझ पाते हैं कि इतिहास की वास्तविक अंतर्वस्तु के रूप में लोगों के सोद्देश्य क्रियाकलाप को समुचित मान्यता देने से, इस वास्तविकता के साथ कोई अंतर्विरोध या खंडन नहीं होता कि इस क्रियाकलाप का निर्धारक पक्ष ( determinant side ) भौतिक दशाएं तथा उनके क्रियान्वयन के साधन ( means of realisation ) हैं।

हम यहां पहले भूतद्रव्य ( matter ) तथा चेतना के संबंध पर विचार करते समय प्रमाणित कर चुके हैं कि भूतद्रव्य वह वस्तुगत यथार्थता ( objective reality ) है, जो मस्तिष्क के उत्पादों से परे ( outside ) तथा उनसे स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान ( independently exist ) है। इसके विपरीत चेतना ( consciousness ) मस्तिष्क के क्रियाकलाप का परिणाम है और इस अर्थ में आत्मगत ( subjective ) है। इस वर्णन के साथ सादृश्य ( analogy ) के अनुसार ही हम आगे मानव क्रियाकलाप के वस्तुगत यानी भौतिक, और प्रत्ययिक यानी मानसिक पक्षों के बारे में तथा सामाजिक विकास के वस्तुगत और आत्मगत कारकों ( factors ) के बारे में भी चर्चा करेंगे। उनकी अंतर्क्रिया की बेहतर समझ हासिल करने के लिए हमें मानव क्रियाकलाप के विविध रूपों की सविस्तार जांच करनी होगी तथा उनके आधार में निहित वस्तुगत नियमों को प्रकाश में लाना होगा।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम
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