हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार हमने अजैव जगत में परावर्तन के कुछ रूपों की चर्चा की थी।
इस बार जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर एक नज़र ड़ालेंगे। यह एक महत्ववपूर्ण और दिलचस्प पड़ाव है जो परावर्तन के जटिलीकरण और उससे चेतना की उत्पत्ति तथा जैविक परावर्तन के क्रमिक विकास की पड़ताल से जुड़ा है।
समय की योजना है कि इस पर मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान के बारे में यहां विस्तार से प्रचुर सामग्री समेकित और प्रस्तुत की जा सके, ताकि जिज्ञासू प्रवृत्ति के मानवश्रेष्ठों को इच्छित संदर्भ-संकेत मिल सकें।
समय निमित्त मात्र है।
००००००००००००००००००००००
पृथ्वी में जीवन अरबों वर्ष पहले उत्पन्न हुआ, और इसकी उत्पत्ति में कोई चमत्कारिकता नहीं है। गर्म महासागर में तथा जलीय वाष्प से भरपूर वायुमंडल में हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, आक्सीजन और अन्य तत्वों की प्रचुरता थी। जटिल भौतिक-रासायनिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप उनसे कार्बनिक यौगिकों की रचना हुई। अनेक वैज्ञानिकों के कार्यों की बदौलत आधुनिक विज्ञान में इन यौगिकों को प्रयोगशाला में हासिल करने की विधियों का विकास हुआ।
अजैव से जैव पदार्थ में परिवर्तन की व्याख्या के लिए अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किये गए। ओपारिन ने सुझाया कि ज्यों ही कार्बन-आधारित जैव द्रव्य बन गये, जिनमें कार्बन के परमाणु विविध प्रकार से नाइट्रोजन, आक्सीजन, हाइड्रोजन, फ़ास्फ़ोरस और गंधक के परमाणुओं से जुड़े होते हैं, जैव पदार्थ की उत्पत्ति के लिए आधार तैयार हो गया। आधुनिक विज्ञान इस मत के समर्थन में काफ़ी प्रमाण प्रस्तुत करता है।
ओपारिन के सिद्धांत के अनुसार जैव द्रव्यों का निर्माण लगभग दो अरब वर्ष पहले पृथ्वी के वायुमंडल में मुक्त आक्सीजन की उत्पत्ति और तत्जनित प्रकाश-रासायनिक अभिक्रियाओं एवं प्रकाश-संश्लेषण की बदौलत शुरू हुआ था। आद्य महासागर बहुत कुछ जैव द्रव्यों के काढ़े जैसा था, जो समय के साथ विराट अणुओं वाले अत्यंत जटिल कार्बन-आधारित द्रव्यों में संश्लेषित हो गया। ( इसके विपरीत भी एक सिद्धांत है, जिसका प्रतिपादन आल्फ़ेद कास्तलेर ने किया और इसके अनुसार आणविक यौगिकों का व्यवस्थित स्वरूप सामान्य अवस्थाओं में बढ़ने की बजाए घटते ही जाता है। इस कारण इसकी अत्यंत कम संभावना है कि जैव योगिकों की उत्पत्ति पृथ्वी पर हुई होगी। दूसरे शब्दों में, इस सिद्धांत का प्रतिपादक जीवन के पृथ्वी से इतर मूल की प्राक्कल्पना का समर्थन करता है)
अस्थिर और सहजता से अपने घटकों में विखंड़ित होनेवाले अणु, अपने स्थिर अस्तित्व के लिए (स्थायित्व के लिए) अपने से बाहर के प्राकृतिक परिवेश के साथ सतत चयापचयी विनिमय पर ( यानि परिवेश के द्रव्यों के चयनात्मक आत्मसातीकरण और अपघटन के उत्पादों के उत्सर्जन पर ) निर्भर थे। इस तरह विराट अणु वास्तव में स्वयं अपना उत्पादन करने वाले तंत्रों में परिवर्तित हो गए, जो स्वोत्प्रेरक ढ़ंग से द्रव्यों की उनके प्राकृतिक परिवेश के साथ विनिमय की प्रक्रिया का नियमन करते थे।
इन अणुओं में और, सर्वोपरी, समस्त जीवित अंगियों के अंगों की रचना करने वाले प्रोटीन के अणुओं में, ऐसे अनुगुण थे, जो हमारे लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। बाहरी वस्तुओं के प्रभावांतर्गत वे विखंड़ित नहीं हुए, गुणात्मक भिन्न प्रणालियों में रूपांतरित नहीं हुए, बल्कि संरक्षित रहे और उनका अस्तित्व बना रहा। इसका यह अर्थ है कि इन अणुओं से विरचित पदार्थ के अंशों या तत्वों के पारस्परिक आंतरिक विन्यास में एक परिवर्तन हो गया। बाह्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप कणों तथा तत्वों के बीच उर्जा संपर्क परिवर्तित हुए, किंतु स्वयं पदार्थ की प्रणाली का अपने घटक अंगों और तत्वों में विखंड़न नहीं हुआ। जब ऐसे परिवर्तन लाने वाले कारकों की संक्रिया बंद हो जाती है, तो विषयी अपनी पहले वाली स्थिति में वापस आ जाता है।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि अजैवजगत और निर्जीव प्रकृति से जैवजगत तथा सजीव प्रकृति में संक्रमण की अवधि, परावर्तन के रूपों के विकास की एक नयी अवस्था थी। जटिल जैविक प्रणालियों के स्तर पर भी परावर्तन इस बात में देखा जाता है कि विषय ( बाह्य प्रभावों ) की क्रिया के प्रति विषयी अपनी कुछ आंतरिक संरचनाओं में बदलाव के जरिए अनुक्रिया करता है। जब क्रिया बंद हो जाती है, तो ये संरचनाएं अपनी मूल अवस्था पर लौट आती हैं और इस तरह परावर्तन के विषयी के लिए अस्तित्वमान रहना और विकसित होना संभव हो जाता है।
अतएव, यह सोचने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हैं कि परावर्तन के भ्रूण रूपों से युक्त ऐसी जैव संरचनाएं ही अनेक भूवैज्ञानिक युगों के दौरान विकसित होकर आज के जैव तंत्रों के पुरखे बनीं।
संद्रवावक्षेपों ( कोएसर्वेट ) के नाम से ज्ञात प्रोटीन के अणुओं की भांति, जो संभवतः आधुनिक जीवधारियों के आद्य प्ररूप थे, सभी प्रकार के जैव द्रव्य, बाह्य प्रभावों के परावर्तन के ढ़ंग के मामले में ही जड़ प्रकृति से भिन्न होते हैं। यह परावर्तन स्वयं पर्यावरणीय प्रभावों, उनकी तीव्रता तथा स्वरूप पर ही नहीं, अपितु जीवधारी की आंतरिक दशा पर भी निर्भर होता है। हर जीवधारी सभी बाह्य क्षोभकों ( उद्दीपकों, exciter ) के प्रति चयनात्मक, अर्थात सक्रिय रवैया अपनाता है और इस तरह जैव प्रकृति की एक गुणात्मक नयी विशेषता, स्वतःनियमन का प्रदर्शन करता है।
उदविकास की लंबी प्रक्रिया के फलस्वरूप वर्तमान अवयवियों ने क्षोभनशीलता (उद्दीपनशीलता) से लेकर संवेदन, प्रत्यक्ष, स्मृति और चिंतन यानि मानसिक जीवन की विभिन्न अभिव्यक्तियां तक, परावर्तन के अनेकानेक रूप विकसित कर लिये हैं।
००००००००००००००००००००
इस बार इतना ही।
अगली प्रस्तुतियों में, जैव जगत में परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर प्रमुखता से नज़र ड़ालेंगे, और थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
पिछली बार हमने अजैव जगत में परावर्तन के कुछ रूपों की चर्चा की थी।
इस बार जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर एक नज़र ड़ालेंगे। यह एक महत्ववपूर्ण और दिलचस्प पड़ाव है जो परावर्तन के जटिलीकरण और उससे चेतना की उत्पत्ति तथा जैविक परावर्तन के क्रमिक विकास की पड़ताल से जुड़ा है।
समय की योजना है कि इस पर मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान के बारे में यहां विस्तार से प्रचुर सामग्री समेकित और प्रस्तुत की जा सके, ताकि जिज्ञासू प्रवृत्ति के मानवश्रेष्ठों को इच्छित संदर्भ-संकेत मिल सकें।
समय निमित्त मात्र है।
००००००००००००००००००००००
पृथ्वी में जीवन अरबों वर्ष पहले उत्पन्न हुआ, और इसकी उत्पत्ति में कोई चमत्कारिकता नहीं है। गर्म महासागर में तथा जलीय वाष्प से भरपूर वायुमंडल में हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, आक्सीजन और अन्य तत्वों की प्रचुरता थी। जटिल भौतिक-रासायनिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप उनसे कार्बनिक यौगिकों की रचना हुई। अनेक वैज्ञानिकों के कार्यों की बदौलत आधुनिक विज्ञान में इन यौगिकों को प्रयोगशाला में हासिल करने की विधियों का विकास हुआ।
अजैव से जैव पदार्थ में परिवर्तन की व्याख्या के लिए अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किये गए। ओपारिन ने सुझाया कि ज्यों ही कार्बन-आधारित जैव द्रव्य बन गये, जिनमें कार्बन के परमाणु विविध प्रकार से नाइट्रोजन, आक्सीजन, हाइड्रोजन, फ़ास्फ़ोरस और गंधक के परमाणुओं से जुड़े होते हैं, जैव पदार्थ की उत्पत्ति के लिए आधार तैयार हो गया। आधुनिक विज्ञान इस मत के समर्थन में काफ़ी प्रमाण प्रस्तुत करता है।
ओपारिन के सिद्धांत के अनुसार जैव द्रव्यों का निर्माण लगभग दो अरब वर्ष पहले पृथ्वी के वायुमंडल में मुक्त आक्सीजन की उत्पत्ति और तत्जनित प्रकाश-रासायनिक अभिक्रियाओं एवं प्रकाश-संश्लेषण की बदौलत शुरू हुआ था। आद्य महासागर बहुत कुछ जैव द्रव्यों के काढ़े जैसा था, जो समय के साथ विराट अणुओं वाले अत्यंत जटिल कार्बन-आधारित द्रव्यों में संश्लेषित हो गया। ( इसके विपरीत भी एक सिद्धांत है, जिसका प्रतिपादन आल्फ़ेद कास्तलेर ने किया और इसके अनुसार आणविक यौगिकों का व्यवस्थित स्वरूप सामान्य अवस्थाओं में बढ़ने की बजाए घटते ही जाता है। इस कारण इसकी अत्यंत कम संभावना है कि जैव योगिकों की उत्पत्ति पृथ्वी पर हुई होगी। दूसरे शब्दों में, इस सिद्धांत का प्रतिपादक जीवन के पृथ्वी से इतर मूल की प्राक्कल्पना का समर्थन करता है)
अस्थिर और सहजता से अपने घटकों में विखंड़ित होनेवाले अणु, अपने स्थिर अस्तित्व के लिए (स्थायित्व के लिए) अपने से बाहर के प्राकृतिक परिवेश के साथ सतत चयापचयी विनिमय पर ( यानि परिवेश के द्रव्यों के चयनात्मक आत्मसातीकरण और अपघटन के उत्पादों के उत्सर्जन पर ) निर्भर थे। इस तरह विराट अणु वास्तव में स्वयं अपना उत्पादन करने वाले तंत्रों में परिवर्तित हो गए, जो स्वोत्प्रेरक ढ़ंग से द्रव्यों की उनके प्राकृतिक परिवेश के साथ विनिमय की प्रक्रिया का नियमन करते थे।
इन अणुओं में और, सर्वोपरी, समस्त जीवित अंगियों के अंगों की रचना करने वाले प्रोटीन के अणुओं में, ऐसे अनुगुण थे, जो हमारे लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। बाहरी वस्तुओं के प्रभावांतर्गत वे विखंड़ित नहीं हुए, गुणात्मक भिन्न प्रणालियों में रूपांतरित नहीं हुए, बल्कि संरक्षित रहे और उनका अस्तित्व बना रहा। इसका यह अर्थ है कि इन अणुओं से विरचित पदार्थ के अंशों या तत्वों के पारस्परिक आंतरिक विन्यास में एक परिवर्तन हो गया। बाह्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप कणों तथा तत्वों के बीच उर्जा संपर्क परिवर्तित हुए, किंतु स्वयं पदार्थ की प्रणाली का अपने घटक अंगों और तत्वों में विखंड़न नहीं हुआ। जब ऐसे परिवर्तन लाने वाले कारकों की संक्रिया बंद हो जाती है, तो विषयी अपनी पहले वाली स्थिति में वापस आ जाता है।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि अजैवजगत और निर्जीव प्रकृति से जैवजगत तथा सजीव प्रकृति में संक्रमण की अवधि, परावर्तन के रूपों के विकास की एक नयी अवस्था थी। जटिल जैविक प्रणालियों के स्तर पर भी परावर्तन इस बात में देखा जाता है कि विषय ( बाह्य प्रभावों ) की क्रिया के प्रति विषयी अपनी कुछ आंतरिक संरचनाओं में बदलाव के जरिए अनुक्रिया करता है। जब क्रिया बंद हो जाती है, तो ये संरचनाएं अपनी मूल अवस्था पर लौट आती हैं और इस तरह परावर्तन के विषयी के लिए अस्तित्वमान रहना और विकसित होना संभव हो जाता है।
अतएव, यह सोचने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हैं कि परावर्तन के भ्रूण रूपों से युक्त ऐसी जैव संरचनाएं ही अनेक भूवैज्ञानिक युगों के दौरान विकसित होकर आज के जैव तंत्रों के पुरखे बनीं।
संद्रवावक्षेपों ( कोएसर्वेट ) के नाम से ज्ञात प्रोटीन के अणुओं की भांति, जो संभवतः आधुनिक जीवधारियों के आद्य प्ररूप थे, सभी प्रकार के जैव द्रव्य, बाह्य प्रभावों के परावर्तन के ढ़ंग के मामले में ही जड़ प्रकृति से भिन्न होते हैं। यह परावर्तन स्वयं पर्यावरणीय प्रभावों, उनकी तीव्रता तथा स्वरूप पर ही नहीं, अपितु जीवधारी की आंतरिक दशा पर भी निर्भर होता है। हर जीवधारी सभी बाह्य क्षोभकों ( उद्दीपकों, exciter ) के प्रति चयनात्मक, अर्थात सक्रिय रवैया अपनाता है और इस तरह जैव प्रकृति की एक गुणात्मक नयी विशेषता, स्वतःनियमन का प्रदर्शन करता है।
उदविकास की लंबी प्रक्रिया के फलस्वरूप वर्तमान अवयवियों ने क्षोभनशीलता (उद्दीपनशीलता) से लेकर संवेदन, प्रत्यक्ष, स्मृति और चिंतन यानि मानसिक जीवन की विभिन्न अभिव्यक्तियां तक, परावर्तन के अनेकानेक रूप विकसित कर लिये हैं।
००००००००००००००००००००
इस बार इतना ही।
अगली प्रस्तुतियों में, जैव जगत में परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण पर प्रमुखता से नज़र ड़ालेंगे, और थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय