शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

योग्यता के गुण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में ‘योग्यता’ के अंतर्गत योग्यता की संकल्पना को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम योग्यता की गुणात्मक अभिलाक्षणिकताओं पर चर्चा करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



योग्यता के गुणात्मक तथा परिमाणात्मक पहलू
( qualitative and quantitative aspects of ability )

मनुष्य की योग्यता उसका एक वैयक्तिक-मानसिक गुण है, जो उसे दूसरे मनुष्यों से भिन्न बनाती है। लोगों से एक जैसे परिणामों की अपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि वे योग्यता की दृष्टि से भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी कारण योग्यता की चर्चा करते समय इन भिन्नताओं को अभिलक्षित करना आवश्यकहै। वे गुणात्मक तथा परिमाणात्मक दोनों हो सकती हैं। अध्यापक के लिए यह जानना भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है कि छात्र में किस प्रकार की सक्रियता की योग्यता है और फलस्वरूप उसके व्यक्तित्व की कौन-सी वैयक्तिक-मानसिक विशेषताएं उसके कार्यकलाप की प्रक्रिया में उसकी सफलता की आवश्यक शर्त के रूप में शामिल होती है ( योग्यता के गुणात्मक पहलू ) और छात्र की योग्यता कितनी मात्रा में दत्त सक्रियता की अपेक्षाओं की पूर्ति करती है, वह दूसरों की तुलना में कितनी जल्दी, सुगमतापूर्वक तथा बुनियादी रूप में आदतें, कौशल और ज्ञान आत्मसात् करता है ( योग्यता का परिमाणात्मक पहलू )।


योग्यता की गुणात्मक अभिलाक्षणिकताएं
( qualitative characteristics of ability )

गुणात्मक अभिलाक्षणिकताओं के पहलू से देखने पर योग्यता मनुष्य के मानसिक गुणों के बहुमुखी समुच्चय ( versatile set ) के रूप में प्रकट होती है, जो व्यक्ति को भिन्न-भिन्न विधियों का उपयोग करते हुए किसी विशिष्ट सक्रियता में सफलता प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। यहां संगठनात्मक योग्यता ( organizational ability ) की अभिव्यक्ति का एक उदाहरण नीचे दिया जा रहा है :

दसवीं कक्षा का किशोर नेता विपिन का चरित्र-निरूपण अध्यापकों ने इस तरह किया है - वह ऐसा व्यक्ति है, जिसमें असाधारण संगठनात्मक क्षमता है, वह पहलकदमी प्रदर्शित करता है, उसमें प्रेक्षण की शक्ति, प्रवीणता ( proficiency ), व्यवहार-कुशलता, कड़ी अपेक्षाओं से जुड़ी साथीपन की भावना तथा अन्य लोगों की चिंता, उत्तरदायित्व की अनुभूति, वैयक्तिक आकर्षण, लोगों की दिलचस्पी, उनके चरित्रों, रुचियों तथा संभावनाओं का सही-सही मूल्यांकन करने की क्षमता है। उसकी योग्यता दूसरे किशोर नेताओं से केवल बेहतर तथा अधिक ही नहीं है, अपितु वह कुछ अन्य किशोर नेताओं की योग्यता से गुणगत रूप से भिन्न है।


उसी स्कूल की नवीं कक्षा का मनोज संदेहास्पद कारनामों की पहल करनेवाला है। वह भी बेहतरीन संगठनकर्ता है, परंतु सर्वथा भिन्न प्रकार का। उसकी संगठन-योग्यता मनोवैज्ञानिक गुणों के भिन्न समुच्चय से उत्पन्न होती है। ये गुण हैं : क्रूरता, अपनी मंडली के हर सदस्य की कमजोरियों का फायदा उठाने और उनसे खिलवाड़ करने की तत्परता तथा कुशलता, उद्यमशीलता, सत्तालोलुपता, निरंतर डींग हांकते रहना और उसके साथ-साथ दुःसाहसिकता की प्रवृत्ति, आदि।

किसी न किसी तरह के कार्यकलाप की, एक ही तरह की अथवा मिलती-जुलती उपलब्धियों का आधार सर्वथा भिन्न-भिन्न योग्यताओं का संयोजन ( combination ) होता है। यह चीज़ हमारे समक्ष व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पहलू उजागर कर देती है। यह है एक प्रकार के गुणों की दूसरे गुणों से प्रतिपूर्ति ( compensation ) की व्यापक संभावनाएं, जिन्हें मनुष्य कठोर तथा अडिग परिश्रम के ज़रिए अपने अंदर विकसित कर सकता है। मनुष्य की योग्यता की प्रतिपूर्तिकारी संभावनाएं, उदाहरण के लिए, अंधों तथा बधिरों की विशेष शिक्षा-दीक्षा में प्रकट होती है।

अपनी शैशवावस्था में ही दृष्टि तथा श्रवण-शक्ति खो बैठी एक लड़की पारुल में, विशेष अध्यापन के दौरान, न केवल ज्ञान-विज्ञान विषयक कार्य करने की योग्यता ही उजागर तथा विकसित हुई, अपितु उसकी साहित्यिक योग्यता भी प्रकाश में आई। शिक्षा की सही प्रणाली तथा सतत प्रयासों ने पारुल के लिए अपने अंदर विश्लेषकों की संवेदनशीलता का विकास करने, स्पर्श, घ्राण तथा कम्पन के संवेदनों का अत्यंत उच्च स्तर प्राप्त करना संभव बनाया, जिन्होंने उसमें अन्य योग्यताओं के अभाव की कुछ हद तक प्रतिपूर्ति की।


ऐसे बहुत-से प्रमाण हैं, जो बताते हैं कि पूर्ण श्रवण-शक्ति जैसी महत्त्वपूर्ण सांगीतिक योग्यता का अभाव, संगीत के प्रति पेशेवर रुख़ अपनाने के मार्ग में बाधक नहीं बन सकता। संगीत की पूरी पकड़ से वंचित प्रशिक्षार्थी ध्वनीरूप की पकड़, सांगीतिक स्वरांतराल के बारे में स्मरण-शक्ति, आदि गुणों का साकल्य अपने अंदर विकसित करने में सफल रहे, उन्होंने सुरों में वैसे ही अंतर करने की क्षमता प्राप्त की, जैसे कि संगीत की पूरी पकड़ की क्षमता से युक्त लोग किया करते हैं।

कुछ योग्यताओं की सहायता से दूसरी योग्यताओं के अभाव की प्रतिपूर्ति करनेवाली विशेषताएं लगभग प्रत्येक मनुष्य के सामने अपार संभावनाओं के द्वार खोल देती है, उसके लिए व्यवसायों के चयन की परिधि का विस्तार करती हैं और उसे अपने व्यवसाय में पारंगत बनने की संभावना प्रदान करती हैं।

कुल मिलाकर योग्यताओं की गुणात्मक अभिलाक्षणिकताएं, इस प्रश्न का उत्तर देना संभव बनाती हैं कि श्रम-सक्रियता के किस क्षेत्र ( डिज़ाइन, शिक्षाशास्त्र, अर्थव्यवस्था, खेलकूद, आदि ) में मनुष्य अपनी प्रतिभा प्रकट कर सकता है, किस क्षेत्र में उसकी सफलताएं तथा उपलब्धियां सबसे अधिक प्रकट हो सकती हैं। इस कारण योग्यताओं की गुणात्मक अभिलाक्षणिकताएं, परिमाणात्मक पहलू से अविच्छेद्य रूप से जुड़ी होती हैं। यह पता लग जाने पर कि कौन-से ठोस मानसिक गुण संबद्ध कार्यकलाप की अपेक्षाओं से मेल खाते हैं, हम इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं कि वे संबद्ध मनुष्य मे कितनी मात्रा में विकसित हैं - अपने सहयोगियों तथा सहपाठियों की तुलना में कम या अधिक।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

योग्यता की संकल्पना ( concept of ability )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में ‘चरित्र’ की संरचना के अंतर्गत चरित्र का स्वरूप तथा अभिव्यंजनाओं पर चर्चा की थी, इस बार से हम ‘योग्यता’ पर चर्चा शुरू करेंगे और योग्यता की संकल्पना को समझने की कोशिश करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



योग्यता की संकल्पना
( concept of ability )

कक्षा में दो छात्रों के उत्तर लगभग एक ही होते हैं, फिर भी उनके प्रति अध्यापक का रुख़ भिन्न-भिन्न होता है : वह एक छात्र की प्रशंसा करता है और दूसरे से असंतुष्ट रहता है। ‘उनकी योग्यताएं ( abilities ) भिन्न-भिन्न है’, वह समझाता है, ‘दूसरा छात्र कहीं बेहतर उत्तर दे सकता था।’। दो छात्र संस्थान में प्रवेश लेते हैं, उनमें से एक उत्तीर्ण हो जाता है, जबकि दूसरा अनुत्तीर्ण रह जाता है। क्या यह पहले छात्र की अधिक योग्यता का प्रमाण है? इस प्रश्न का उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता, जब तक हम यह नहीं पता लगा लेते कि उनमें से प्रत्येक की तैयारी पर कितना समय लगा है। ज्ञान की प्राप्ति में सफलता ( success ) योग्यताओं का एकमात्र चिह्न नहीं है।

योग्यता मनुष्य की वह मानसिक विशेषता है, जिसपर ज्ञान ( knowledge ), कौशल ( skills ), आदतों ( habits ) की प्राप्ति निर्भर करती है, परंतु जिसे ऐसे ज्ञान, कौशल तथा आदतों तक सीमित नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा न होता, तो परीक्षा में मिले नंबरों, ब्लैकबोर्ड पर उत्तरों अथवा टेस्ट में सफलताओं या असफलताओं के आधार पर परीक्षक के लिए व्यक्ति की योग्यता के विषय में अंतिम निर्णय देना संभव हो जाता। दरअसल मनोवैज्ञानिक अनुसंधान तथा शिक्षाशास्त्रीय अनुभव बताता है कभी-कभी कोई मनुष्य, जिसे आरंभ में कोई काम करना ठीक से नहीं आता और इसलिए दूसरों से पिछड़ जाता है, प्रशिक्षण के फलस्वरूप बहुत जल्दी संबंधित हुनरों तथा आदतों में पारंगत होने लगता है और शीघ्र अपने बाक़ी सब साथियों से आगे निकल जाता है। वह दूसरों की तुलना में अधिक योग्यता प्रदर्शित करता है। ज्ञान, कौशल और आदतें आत्मसात करते हुए योग्यता साथ ही ज्ञान तथा कौशल तक संकुचित होकर नहीं रह जाती। योग्यता तथा ज्ञान, योग्यता तथा कौशल, योग्यता तथा आदत एक-दूसरे के समरूप नहीं है।

ठीक जिस प्रकार बीज, अनाज की बाली के मामले में एक संभावना है, जो उसमें से केवल इस शर्त पर उग सकता है कि मिट्टी की बनावट, गठन तथा नमी, मौसम, आदि अनुकूल हों, उसी तरह मनुष्य की योग्यता भी आदतों, कौशल और ज्ञान के मामले में संभावना ( possibility, potential ) होती है। इस ज्ञान तथा कौशल का वास्तविक आत्मसात्करण तथा संभावना का यथार्थ में रूपांतरण बहुत सारी अवस्थाओं पर निर्भर करते हैं। उनमें से कुछ अवस्थाएं हैं : इस ज्ञान तथा कौशल में मनुष्य के पारंगत बनने में इर्द-गिर्द के लोगों ( परिवार, स्कूल, व्यवसाय समूह आदि ) की दिलचस्पी. अध्यापन की प्रक्रिया की कारगरता, श्रम-सक्रियता का संगठन जिसमें इन आदतों और कौशलों की जरूरत पड़ती है तथा वे दृढ़ बनते हैं, आदि।

योग्यता संभावना है और कौशल का किसी निश्चित क्षेत्र में आवश्यक स्तर, एक वास्तविकता है। संगीत के प्रति बच्चे का झुकाव इस बात की कदापि गारंटी नहीं है कि वह संगीतकार बनेगा। इसे संभव बनाने के लिए विशेष प्रशिक्षण, अध्यापक तथा छात्र की लगन तथा परिश्रमशीलता, सुस्वास्थ्य, वाद्ययंत्रों, संगीत लिपियों की विद्यमानता तथा बहुत-सी अन्य अवस्थाओं की आवश्यकता पड़ती है, जिनके बिना उसकी योग्यता भ्रूणावस्था में ही मिट जाएगी।

मनोविज्ञान सक्रियता के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवयवों - ज्ञान, आदतों तथा कौशल - का योग्यता के साथ सादृश्य से इन्कार करते हुए उनकी एकता पर ज़ोर देता है। योग्यता अपने को केवल विशिष्ट कार्यकलाप में उजागर करती है, जो उसके बिना असंभव है। स्वभावतः,  मनुष्य की चित्रकारिता की योग्यता की बात ही नहीं की जा सकती, अगर उसने इस ललित कला में कोई कौशल विकसित नहीं किया है। केवल चित्रकारिता की विशेष शिक्षा की प्रक्रिया में ही यह पता चल सकता है कि शिक्षार्थी में योग्यता है या नहीं। वह योग्यता इस बात में उजागर होती है कि वह कितनी सहजता तथा शीघ्रतापूर्वक काम की विधि में पारंगत बनता है, रंगों के संयोजन की अनुभूति प्राप्त करता है और परिवेशी जगत के सौंदर्य को पहचानना सीखता है।

यदि कोई अध्यापक किसी स्कूली बच्चे में योग्यता के अभाव का दावा केवल इस आधार पर करता है कि उसमें कौशल और आदतों की आवश्यक प्रणाली, पुख़्ता ज्ञान, काम करने की विधियों का अभाव है, तो वह यक़ीनन जल्दबाज़ी में निष्कर्ष निकालता है, गंभीर मनोवैज्ञानिक ग़लती करता है। ऐसे सुविदित उदाहरण कम नहीं हैं, जिनसे पता चलता है कि कई व्यक्तियों की योग्यताओं को उनके बचपन में इर्द-गिर्द के लोगों से मान्यता नहीं मिली, परंतु आगे चलकर उन्होंने विश्व-ख्याति पाई। यहां अल्बर्ट आइन्स्टीन की चर्चा करना काफ़ी है, जिन्हें माध्यमिक स्कूल में मामूली स्तर का छात्र समझा जाता था।

एक ओर, योग्यता तथा दूसरी ओर, कौशल, ज्ञान और आदतों की एकता किस में प्रकट होती है? योग्यता, कहना चाहिए, ज्ञान , कौशलों तथा आदतों में नहीं, अपितु उनके आत्मसात्करण की गत्यात्मकता ( dynamics of assimilation ) में , अर्थात इस बात में उजागर होती है कि ज्ञान तथा कौशल को आत्मसात् करने की प्रक्रिया, अन्य अवस्थाओं के एक समान होने की सूरत में कितनी शीघ्रतापूर्वक, गहनतापूर्वक तथा दृढ़तापूर्वक पूर्ण होती है, जिसका संबंध कार्यकलाप के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हुआ करता है।

और ठीक यहीं वह अंतर प्रकट होता है, जो हमें योग्यता की बात करने का अधिकार देता है। अतः, योग्यता मनुष्य की वैयक्तिक-मानसिक विशेषता और संबद्ध सक्रियता की सफलतापूर्वक पूर्ति की शर्त है तथा व्यक्ति द्वारा आवश्यक ज्ञान, कौशल और आदत आत्मसात् करने की गत्यात्मकता में अंतर को प्रकट करती है। यदि वैयक्तिक गुणों की निश्चित समष्टि सक्रियता की अपेक्षाओं से मेल खाती है, जिसमें मनुष्य शिक्षाशास्त्रीय कसौटी के आधार पर परिभाषित पर्याप्त अवधि के दौरान पारंगत बन जाता है, तो हमें यह निष्कर्ष निकालने का आधार मिल जाता है कि उसके पास इस कार्यकलाप के लिए योग्यता है। इसके विपरीत अन्य अवस्थाओं के समान होते हुए यदि मनुष्य इस सक्रियता की पूर्ति नहीं कर पाता, तो यह मानने का आधार है कि उसमें तदनुरूप मानसिक गुणों का, यानि आवश्यक योग्यता का अभाव है।

परंतु इसका अर्थ, स्वभावतः, यह नहीं है कि हर मनुष्य आवश्यक कौशलों तथा ज्ञान में सामान्यतया पारंगत नहीं बन सकता, इसका अर्थ केवल यह है कि पारंगत बनने की प्रक्रिया लंबी होगी, अध्यापक को अधिक मेहनत करनी पड़ेगी और अधिक समय लगाना पड़ेगा, अपेक्षाकृत कम उल्लेखनीय परिणाम पाने पर बहुत शक्ति लगानी पड़ेगी। इस बात की संभावना भी वर्जित नहीं होती कि मनुष्य की योग्यता अंततः विकसित हो सकती है।

मनुष्य की वैयक्तिक-मानसिक विशेषताओं के रूप में योग्यता को, व्यक्तित्व के अन्य गुणों तथा विशेषताओं के, अर्थात व्यक्ति की बुद्धि ( intelligence ), स्मरण-शक्ति ( memory ) के गुणों, उसके चरित्र के गुणों तथा भावनात्मक विशेषताओं, आदि के साथ मुक़ाबले में नहीं रखना चाहिए, अपितु उन सबके साथ एक ही क़तार में रखना चाहिए। इन गुणों में से यदि एक या कई, सक्रियता की किसी संबद्ध क़िस्म की अपेक्षाओं से मेल खाते हों या इनके प्रभाव में गठित होते हों, तो यह हमें संबद्ध वैयक्तिक-मानसिक गुण को योग्यता मानने का आधार प्रदान करता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

चरित्र निर्माण के लिए प्राकृतिक-सामाजिक पूर्वाधार

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में ‘चरित्र’ की संरचना के अंतर्गत चारित्रिक गुणों के प्रबलन को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम चरित्र का स्वरूप तथा अभिव्यंजनाओं पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



चरित्र का स्वरूप तथा अभिव्यंजनाएं

प्रकृति तथा स्वभाव

स्वभाव की भांति चरित्र मनुष्य की शरीरक्रियात्मक विशेषताएं ( physiological features ) और, सबसे पहले, उसके तंत्रिका-तंत्र की क़िस्म ( type of nervous system ) पर अपनी निर्भरता प्रकट करता है। स्वभाव के गुण चरित्र की अभिव्यंजनाओं पर अपनी छाप डालते हैं, उसके मूल तथा रूपों की गत्यात्मक ( dynamic ) विशेषताएं निर्धारित करते हैं। अंततः, स्वभाव तथा चरित्र के गुण मनुष्य के सामान्य रूप-आकृति को, उसके व्यक्तित्व की अखंड अभिलाक्षणिकता ( characteristics ) को निर्धारित करते हुए एक अखंड समष्टि ( integrated, monolithic collectivity ) में मिल जाते हैं।

स्वभाव की विशेषताएं, चरित्र के निश्चित गुणों के विकास में सहायता दे सकती हैं अथवा उसे अवरुद्ध ( blocked ) कर सकती हैं। भावशून्य मनुष्य, क्रोधी तथा उत्साही मनुष्य की तुलना में अपने अंदर पहलकदमी और इच्छाशक्ति का विकास करना कठिन पाता है। भीरूता और चिंता पर क़ाबू पाना उदास मनुष्य के लिए गंभीर समस्या है। सामूहिक गतिविधियों में गठित चरित्र, क्रोधी मनुष्य में अधिक संयतता ( moderation ) तथा आत्मालोचना ( self-criticism ) का, उत्साही मनुष्य में धैर्य का, भावशून्य मनुष्य में क्रियाशीलता का विकास करने के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करता है।

चरित्र निर्माण के लिए प्राकृतिक तथा सामाजिक पूर्वाधार

चरित्र का स्वरूप, उसे बदलने की संभावना अथवा असंभावना तथा उनके गुणों का गठन, मनोवैज्ञानिकों के लिए लंबे अरसे से वाद-विवाद का विषय रहे हैं और बहुधा दैनंदिन चेतना के लिए लाक्षणिक निरुपाधिक कथनों ( typical unconditional statements ) का कारण रहे हैं।

व्यक्ति अपने चारित्रिक गुणों के गठन के बाद सामाजिक परिपक्वता ( social maturity ) प्राप्त करता है। गठन की यह प्रक्रिया दृष्टिगोचर नहीं होती, इसलिए मनुष्य को यह लगता है कि वह तो हमेशा से वही रहा है, जो वह आज है। अतः यह मत उत्पन्न होता है कि मनु्ष्य के चारित्रिक गुण उसे प्रकृति से प्राप्त होते हैं, वे अंतर्जात ( inborn ) होते हैं। इस तरह के कथन अत्यंत प्रचलित हैं : "वह अपनी प्रकृति से ही कायर और बदमाश है", अथवा " झूठ बोलना उसकी जन्मजात विशेषता है", अथवा यहां तक कह दिया जाता है कि "यह तो उसका पुश्तैनी गुण है"। दरअसल यह बात असामान्य नहीं है कि दो भाई, जिनका एक ही परिवार में जन्म हुआ है, जिनकी लगभग एकसमान सी परवरिश हुई है, जिनकी आयु में दो-तीन साल का अंतर है, जो एक ही स्कूल में पढ़ते हैं, जिनके साथ उनके मां-बाप आम तौर पर एकसमान व्यवहार करते हैं, अपने चारित्रिक गुणों में एक दूसरे से ज़रा भी नहीं मिलते। इससे यह मत विश्वसनीय सा बन जाता है कि मनुष्य को अपने चारित्रिक गुण प्रकृति से मिलते हैं।

इसका क्या कारण है कि लगभग एक जैसी परिस्थितियों के होते हुए भी जीवन मनुष्य के व्यक्तित्व को भिन्न-भिन्न प्ररूपों के अनुसार "ढाल दिया करता है"? सबसे पहले यह मानना और जानना आवश्यक है कि "स्रोत सामग्री" ( source material ) भिन्न-भिन्न लोगों के मामले में सचमुच एक जैसी नहीं होती।

मनुष्य मस्तिष्क के, जो उच्च तंत्रिका-सक्रियता की एक या दूसरी क़िस्म से युक्त होता है, प्रकार्यों की भिन्न-भिन्न विशेषताओं के साथ जन्म लेता है। ये मानसिक नहीं, अपितु शरीरक्रियात्मक विशेषताएं होती हैं, फिर भी वे इस बात का पहला कारण होती हैं कि बच्चों पर एक जैसे प्रभाव भिन्न-भिन्न मानसिक परिणामों को जन्म दे सकते हैं। ये विशेषताएं वे अवस्थाएं निर्धारित करती हैं, जिनमें मन तथा चेतना का विकास होता है। शरीरक्रियात्मक अवस्थाओं से ये अंतर लोगों के चरित्र में अंतरों का पहला कारण मात्र है।

यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि "एक जैसी अवस्थाओं" की धारणा ( एक ही परिवार तक में ) नितांत सापेक्ष ( relative ) है। अकेला यही तथ्य कि बड़ा भाई अपने को बड़ा मानने और कुछ मामलों में छोटे भाई से ( जो रक्षा के लिए उसकी ओर देखता है या उसके निरंकुश व्यवहार के ख़िलाफ़ विद्रोह करता है ) श्रेष्ठ समझने का आदी है, बहुत ही असमान मानसिक परिस्थितियों को जन्म दे देता है, जो हेकड़ी अथवा चिंताशीलता, उत्तरदायित्व अथवा उदासीनता, निःस्वार्थपरता अथवा ईर्ष्या जैसे चारित्रिक गुणों के गठन में सहायक अथवा बाधक बनती हैं।

परिवार में अन्य परिस्थितियां भी भाइयों पर भिन्न-भिन्न प्रभाव डाल सकती हैं। पहले और दूसरे बच्चे ( अक्सर मां-बाप से दूसरे या छोटे बच्चे को ज़्यादा लाड़-प्यार मिलता है ) के जन्म के बीच परिवार के हालात में परिवर्तन, परिवार के अंदर संबंधों में परिवर्तन, लालन-पालन के दौरान के परिवेश के साथ अलग-अलग सुखद या दुखद अनुभव, अच्छे मित्र, जो एक भाई पर ज़्यादा ध्यान दे सकते हैं और दूसरे को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं, उनके अध्यापकों की शिक्षाशास्त्रीय प्रतिभा में अंतर, आदि, ये सब चीज़ें दो व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न मानसिक गुणों तथा वैयक्तिक विशेषताओं के गठन में मदद दे सकती हैं।

अंतरिक्षयान की कक्षा के निर्धारण में शुरुआती आधार-सामग्री ( दिशा, आरंभिक वेग, आदि ) में जरा सी ग़लती के घातक परिणाम होते हैं, यान कभी वहां नहीं पहुंच पाएगा, जिस ओर उसको भेजा जाता है। यही बात मनुष्य के साथ होती है। बच्चे के लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा में छोटी-सी चूक, वयस्क हो जाने पर जीवन के उसके आरोहण-पथ ( progression route ) पर ऐसे चारित्रिक गुणों में प्रकट हो सकती है, जो उसे किसी बंद गली में पहुंचा सकते है, और उसकी ही नहीं, अपितु उसके नज़दीकी लोगों तक की नींद हराम कर सकते हैं।

चरित्र बहुत हद तक आत्म-शिक्षा का परिणाम होता है। उसमें मनुष्य की आदतें संचित होती हैं। चरित्र लोगों के कार्यकलाप में प्रकट होता है, परंतु उसमें ही वह गठित भी होता है। यदि कोई व्यक्ति आत्म-आलोचना जैसे चारित्रिक गुण का विकास करना चाहता है, तो उसे आत्म-आलोचना करनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि उसे दूसरे लोगों की ही नहीं, अपितु अपनी त्रुटियों के प्रति भी असहिष्णु ( intolerant ) होना चाहिए, यानि उन पर पर्दा नहीं डालना चाहिए, अपनी आंखें खुली रखनी चाहिए। जैसा कि एक मानवश्रेष्ठ ने कहा था, "जीना सिर्फ़ तभी सीखा जा सकता है, जब तदनुरूप ढंग से जीया जाए।"

श्रम तथा अध्ययन की तो बात ही क्या, दैनंदिन जीवन, परिवार सदस्यों के बीच संबंध, मानव चरित्र का विद्यालय होते हैं। अध्यापकों तथा मां-बाप के समक्ष एक दायित्वपूर्ण कार्य सदैव उपस्थित रहता है : बच्चों के चरित्र में होनेवाले परिवर्तनों को ठीक समय पर देखना और उन्हें ध्यान में रखते हुए आचरण-व्यवहार तथा शिक्षा-दीक्षा के मामले में अपने लिए दिशा तय करना। शिक्षा-दीक्षा के मामले में शिक्षाशास्त्रीय व्यवहार के घिसे-पिटे सांचे ऐसे मामलों में ख़ास तौर पर ख़तरनाक होते हैं, जब बच्चे की ओर व्यक्तिगत ध्यान देने की आवश्यकता होती है।

एक परिवार में दूसरे शिशु, लड़के का जन्म तब हुआ, जब उसकी बहिन १२ वर्ष की हो चुकी थी। बेटी की परवरिश मां-बाप के प्रति पूर्ण आज्ञा-पालन के वातावरण में हुई थी, उसने कभी भी मां-बाप की अवज्ञा नहीं की - इसलिए नहीं कि इसके वास्ते कोई कारण रहा हो। मां-बाप की अपेक्षाएं बहुत ही विवेकसम्मत होती थीं। परंतु जिस रूप में ये अपेक्षाएं की जाती थीं, वह कठोर और कड़ा होता था तथा हर आपत्ति के प्रति असहिष्णुता बरती जाती थी। मां-बाप ने बेटे की भी इसी तरह परवरिश की। परंतु जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि जिस चीज़ को बेटी शिरोधार्य कर लेती थी, उनका बेटा मौन, परंतु हठपूर्वक प्रतिरोध करता था। यह कहना कठिन है कि इसकी शुरुआत कब हुई - स्वयं मां-बाप इसे उस समय से जोड़ते हैं, जब बेटा दादी के पास गया था। परंतु स्कूल में उसके आरंभिक वर्षों में ही दोनों पक्षों का यह विकट, क्लांतिकर ( fatiguing ) संघर्ष शुरू हो गया था। लड़का अपने मन की बात प्रकट नहीं करता था, अशिष्टता से पेश आता था, शक्की हो गया था। धीरे-धीरे हालात और खराब होते गए।

मां-बाप एक मनोविज्ञानी से मिले और हैरानीभरे स्वर में बोले : "यह रही आपके सामने उसकी बहिन। उससे ही पूछकर देखिए। क्या हमने उसकी किसी और ढंग से परवरिश की? बिल्कुल वैसे ही परवरिश की। बेटी के रूप में हमें किस तरह का इन्सान मिला ! और बेटा - उसने हमारी नाक कटवा दी है !"

"बिल्कुल वैसे ही परवरिश की !" बच्चों की परवरिश के लक्ष्यों तथा अंतर्वस्तु ( contents ) की दृष्टि से बात ऐसी ही है। इस मामले में मां-बाप का व्यवहार उच्च कोटि का था। परंतु परवरिश की उन विधियों ( methods ) को, जो बेटी के चरित्र के शायद कुछ अनुरूप रही होंगी, विवेकहीन ढंग से बेटे की, जिसका चरित्र बिल्कुल भिन्न प्रकार का था, परवरिश पर लागू करने से टकराव का होना अवश्यंभावी था। परिवार को झटके न लगते, अगर मां-बाप ने अपने बेटे के चरित्र को ठीक से आंका होता और उसके लिए तदनुरूप ही सही ‘कुंजी’ का उपयोग करने की कोशिश की होती।

एक जैसी शिक्षाशास्त्रीय विधियों को यदि भिन्न-भिन्न वैयक्तिक ( individual ) गुणोंवाले लोगों पर लागू किया जाए, तो सर्वथा विपरीत परिणाम निकल सकते हैं। यह तो शैक्षणिक कार्य की विधियों का स्वयंसिद्ध तथ्य है। बच्चे के व्यक्तित्व के गठन में घिसे-पिटे सांचों से बचने के लिए उसके चरित्र को गढ़ने के प्रति सृजनशील रुख़ ( creative approach ) अपनाना आवश्यक है। यह कंटीला पथ हो सकता है, परंतु गंभीर, सोच-समझकर, लीक से हटकर लिए जाने वाले निर्णय घिसे-पिटे शिक्षाशास्त्रीय सूत्रों से अधिक फलप्रद हो सकते हैं, यदि उसके प्रभावों पर अलग-अलग कार्रवाइयों से नहीं ( ‘बच्चे से यह या वह कराया’), अपितु चरित्र गढ़ने की प्रक्रिया के परिणामों के आधार पर निर्णय दिया जाए।

अतः चरित्र मनुष्य को प्रकृति से नहीं मिलता। ऐसा कोई चरित्र नहीं है, जिसे न बदला जा सके। इस बात का हवाला देना कि "मेरा चरित्र ही ऐसा है और मैं इस मामले में कुछ भी नहीं कर सकता", मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सर्वथा आधारहीन है। प्रत्येक मनुष्य अपने चरित्र की समस्त अभिव्यक्तियों के लिए उत्तरदायी होता है और प्रत्येक मनुष्य उसे आत्म-शिक्षा के माध्यम से सुधारने की स्थिति में होता है।

यदि चारित्रिक गुणों को नैसर्गिक, शरीरक्रियात्मक पूर्वाधारों के साथ जोड़ना ग़लत है ( हालांकि चरित्र के नैसर्गिक पूर्वाधारों को ध्यान में रखना भी आवश्यक है ), तो उनका पुश्तैनी मूल होने का दावा करना और भी ग़लत होगा। एकयुग्मज जुड़वों के, जिनमें शरीररचनात्मक-शरीरक्रियात्मक विशेषताओं का एक जैसा आनुवंशिक आधार होता है, अध्ययनों ने उनके स्वभावों में सादृश्य सिद्ध किया है, परंतु चरित्रों में नहीं। यदि एकयुग्मज जुड़वां भिन्न-भिन्न परिवारों में पाले-पोसे जाएं, तो उनके चरित्र भिन्न-भिन्न सिद्ध होते हैं।

पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः इस तरह की रिपोर्टें पढ़ने को मिलती हैं कि एकयुग्मज जुड़वां कितनी भी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में रखे जाएं, उनमें एक जैसी रुचियों, रुझानों तथा चारित्रिक गुणों का ही विकास होता है। किंतु इस तरह की भी रिपोर्टें हैं कि कतिपय मनोविज्ञानियों द्वारा तथ्यों का जानबूझकर मिथ्याकरण किया गया है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व की जैविक प्रकृति को सिद्ध करने के लिए किसी तरह की हितबद्धता में हैं। तथ्य बताते हैं कि भिन्न-भिन्न अवस्थाएं तथा परिस्थितियां एकसमान आनुवंशिक आधार होने के बावजूद भिन्न-भिन्न ही नहीं, अपितु परस्परविरोधी चारित्रिक गुणों का गठन कर सकती हैं।

अतः, चरित्र मनुष्य के पूर्ण जीवन के दौरान निर्मित होता है। मनुष्य सामाजिक संबंधों की प्रणाली में, अन्य लोगों के साथ संयुक्त सक्रियता तथा संप्रेषण में स्वयं अपने व्यक्तित्व का विकास करता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

चारित्रिक गुणों का प्रबलन

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में ‘चरित्र’ की संरचना के अंतर्गत ‘मनुष्य के आचरण-व्यवहार के कार्यक्रम’ के रूप में चरित्र को समझने की कोशिश  की थी, इस बार हम चारित्रिक गुणों के प्रबलन पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



चारित्रिक गुणों का प्रबलन

चारित्रिक गुणों की, जिनका मनुष्य के अनुभव ने पता लगाया है तथा भाषा में दर्ज किया है, संख्या बहुत बड़ी है। अतः उन सबको गिनाने और उनका वर्णन करने से कोई लाभ नहीं है, इसकी और बड़ी वज़ह यह भी है कि मनोविज्ञान में उनका कोई सटीक वर्गीकरण ( उन्हें छोड़कर, जिन्हें वह व्यक्ति के दृष्टिकोंणों के साथ जोड़ देता है ) नहीं है। चारित्रिक गुणों को की बहुविविधता ( multi-diversity ) उनकी गुणगत विविधता तथा मौलिकता ( originality ) में ही नहीं, अपितु संख्यागत मात्रा में भी प्रकट होती है। दरअसल लोग कम या अधिक संदेहशील, कम या अधिक उदार, कम या अधिक स्पष्टवादी हो सकते हैं। जब इस या उस चारित्रिक गुण की संख्यागत मात्रा चरम सीमा पर पहुंच जाती है और मानक ( standard ) के छोर (end ) को स्पर्श कर लेती है, तब हम चरित्र प्रबलन ( character reinforcement ) की बात करते हैं।

चरित्र प्रबलन, व्यक्तित्व के कतिपय गुणों की अतिरंजना ( exaggeration ) के फल के रूप में मानक के चरम रूपांतर ( extreme transmutation of standard ) होते हैं। तब व्यक्ति में एक प्रकार के खिंचाव-कारक ( stretch factor ) के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि प्रकट होती है, जब कि अन्य प्रकार के ऐसे कारकों के मामले में उसमें भावनात्मक स्थिरता दिखायी देती है। मनुष्य के चरित्र में कमज़ोर कड़ी अक्सर केवल कठिन परिस्थितियों में प्रकट होती है, जो अनिवार्य रूप से अपेक्षा करती हैं। शेष सारी अन्य कठिनाइयां, जो संबद्ध व्यक्ति के चरित्र के संवेदनशील बिंदु को स्पर्श नहीं करतीं, उसके द्वारा बिना तनाव और क्रम-भंग के झेली जा सकती हैं और वे उसके लिए और उसके आस-पास के लोगों के लिए किसी तरह की मुसीबत पैदा नहीं करतीं। घोर प्रतिकूल परिस्थितियों में चरित्र प्रबलन, विकृतिजन्य रोगों, व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तनों को, यानि मनोविकृति को ( चारित्रिक विकृति व्यक्तित्व के सामाजिक अनुकूलन को अवरुद्ध कर देती है और व्यवहारतः उसे अपरिवर्त्य ( immutable ) बना देती है, हालांकि सही ढंग से उपचार किए जाने पर उसे कुछ हद तक दुरस्त किया जा सकता है ) जन्म देता है, परंतु उसे मानसिक रोग मानना ठीक नहीं है।

चरित्र प्रबलन का वर्गीकरण बहुत जटिल कार्य है तथा भिन्न-भिन्न अनुसंधानकर्मियों ने उसके भेदों को भिन्न-भिन्न नाम दिए हैं। चरित्र प्रबलन के सबसे महत्त्वपूर्ण भेद निम्नलिखित हैं : अंतर्मुखी ( introversive ) चरित्र, जिसकी अभिलाक्षणिकताएं अल्पभाषिता, अन्य लोगों के साथ संप्रेषण में कठिनाई और अपनी ही बंद दुनिया में रहना है ; बहिर्मुखी ( extrovert ) चरित्र, जिसकी अभिलाक्षणिकताएं हैं भावावेशपूर्ण उत्तेजना, संप्रेषण तथा सक्रियता की कामना ( बहुधा उसकी आवश्यकता तथा महत्त्व की ओर ध्यान दिए बिना भी ), अभिरुचियों की अस्थिरता, कभी-कभी डींगबाज़ी, सतहीपन, नैष्ठिक आचरण ( loyal conduct ) ; अनियंत्रणीय ( uncontrollable ) चरित्र, उसकी अभिलाक्षणिकताएं हैं आवेगशीलता ( impulsiveness ), टकराव की प्रकृति, आपत्तियों के प्रति असहिष्णुता ( intolerance ) और कभी-कभी संदेहशीलता।

किशोरों के चरित्र के तंत्रिकातापी प्रबलन की मुख्य विशेषताएं हैं ख़राब मिज़ाज, चिड़चिड़ापन, बेहद थकावट, रोगभ्रम। अपने परिवेश से चिड़चिड़ाहट और अपने पर तरस खाने के कारण थोड़ी देर के लिए क्रोध का उफान आ जाता है, परंतु तंत्रिका-तंत्र के जल्द थक जाने से क्रोध शीघ्र ठंड़ा पड जाता है और उसका स्थान मेल-मिलाप और पश्चाताप की भावना तथा अश्रुधारा ले लेती है।

संवेदनशील ( sensitive ) चरित्र की विशेषताएं हैं भीरूता, मन की बात मन में रखना, शर्मीलापन। संवेदनशील किशोर अधिक, खास तौर पर नये संगी-साथियों से कतराते हैं, हमउम्रों की शरारतों के ऐसे साहसिक कार्यों में भाग नहीं लेते, जिनमें जोखिम उठाना पड़ता है, वे छोटे बच्चों के साथ खेलना पसंद करते हैं। वे परीक्षाओं से डरते हैं, बहुधा कक्षा में उत्तर देने से इसलिए डरते हैं कि कहीं उनसे ग़लती न हो जाए अथवा अपने उत्तर बहुत बढ़िया होने से वे अपने सहपाठियों की ईर्ष्या का पात्र न बन जाएं। किशोरों में अपनी त्रुटियों पर काबू पाने की सशक्त कामना का विशेष कारण होता है। वे उन क्षेत्रों में नहीं, जिनमें वे अपनी योग्यता प्रदर्शित कर सकते हैं, अपितु उन क्षेत्रों में अपने व्यक्तित्व की प्रतिष्ठापना करने का प्रयास करते हैं, जिनमें वे अपनी दुर्बलता अनुभव करते हैं। लड़कियां यह दिखाने का प्रयास करती हैं कि वे प्रफुल्लचित्त हैं। भीरू और शर्मीले बालक हेकड़ी और अकड़ की मुद्रा अपनाते हैं तथा अपनी स्फूर्ति और इच्छा-शक्ति का प्रदर्शन करने का प्रयत्न करते हैं। परंतु जब स्थिति उनसे साहसपूर्ण संकल्प की अपेक्षा करती है, तो उनका तुरंत दम सूख जाता है। अगर कोई उनका विश्वास पाने में सफल हो जाए और वे यह अनुभव करने लगें कि मिलनेवाले की उनसे सहानुभूति है और वह उनका समर्थन कर रहा है, तो वे ‘मैं किसी की परवाह नहीं करता’ का मुखौटा उतार फैकते हैं और उनका कोमल तथा संवेदनशील चित्त, अपने से हद से ज़्यादा कठोर अपेक्षाएं करने की उनकी भावना, आत्म-भर्त्सना तथा आत्म-ताड़ना से परिपूर्ण उनका जीवन, सब कुछ प्रकट हो जाता है। अप्रत्याशित रुचि तथा सद्‍भावना हेकड़ी और अक्खड़पन को सहसा अविरल अश्रुधारा में बदल सकती है।

निदर्शनात्मक ( exemplary ) चरित्र की अभिलाक्षणिकताएं हैं आत्म-केंद्रिकता, दूसरे लोगों का ध्यान निरंतर अपनी ओर खींचने, अपने को प्रशंसा तथा सहानुभूति का पात्र बनाने की उभरी हुई प्रवृत्ति। झूठ बोलना, दिखावा करने और इतराने की प्रवृत्ति, नाटकबाज़ी ( ठीक आत्म-हत्या की हद तक जाने का स्वांग भरना ) - ये सब किसी भी तरह के साधन से अपने को हमउम्रों से भिन्न रूप में दिखाने की इच्छा से निर्धारित होते हैं। उदाहरण के लिए, एक ऊंची कक्षा की छात्रा को गुमनाम चिट्ठियां मिलने लगीं, जिनमें उसे धमकियां दी जाती थीं, उस पर आक्षेप किए जाते थे। वह आंखों में आंसू लिए हुए ये चिट्ठियां अध्यापकों तथा सहेलियों को दिखाती, उनसे सहायता तथा रक्षा की याचना करती। परंतु जांच-पड़ताल से जल्द पता चल गया कि वह पूरे स्कूल का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए अपने नाम ये चिट्ठियां ख़ुद लिखती थी। इस तरह उसने चरित्र के निदर्शनात्मक गुण प्रकट किए।

सही ढंग की शिक्षा-दीक्षा से चरित्र प्रबलनों की प्रवृत्तियों को रोकना संभव है। अध्यापकों तथा मां-बाप को, जिन्हें पता होता है कि बच्चे में ‘सबसे कम प्रतिरोध का पहलू’ कौन सा है, उसे मनोजन्य खिंचावों के प्रतिकूल प्रभावों से बचाना चाहिए। संवेदनशील किशोर-किशोरियां अपने प्रति बुरे कामों के लिए संदेह किए जाने, आक्षेप लगाए जाने को सहन नहीं कर पाते, जो उनके अतिरंजित नहीं, अपितु वास्तविक आत्म-मूल्यांकन के विपरीत होते हैं। इसके साथ ही शिक्षा-दीक्षा के वे प्रभाव बहुत सहायक होते हैं, जो संवेदनशील किशोरों की भीरूता की प्रतिपूर्ति करते हैं : उन्हें कक्षा के सक्रिय सहपाठियों के समूह की सामाजिक गतिविधियों में शामिल किया जा सकता है, जहां उनके लिए अपनी तुनकमिज़ाजी और शर्मीलेपन पर काबू पाना आसान होता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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