शनिवार, 13 मार्च 2010

भाषा और चिंतन

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने मानव चेतना के आधार के रूप में श्रम की महत्वपूर्णता और उपयोगिता पर विचार किया था। इस बार हम, मानव चेतना के आधार रूप के एक और महत्वपूर्ण पहलू यानि मानव की भाषा और इसके जरिए चिंतन के विकास पर चर्चा करेंगे।

चलिए आगे बढते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्तमात्र उपस्थित है।
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भाषा और चिंतन

मनुष्य की चेतना ( consciousness ) के विकास का एक और प्रबल साधन उसकी भाषा है। यह चिंतन ( thoughts ) की प्रत्यक्ष वास्तविकता ( direct reality ) है। विचार हमेशा शब्दों में व्यक्त किए जाते हैं, अतः यह कहा जा सकता है कि भाषा विचार की अभिव्यक्ति का रूप है

भाषा एक विशेष संकेत प्रणाली है। प्रत्येक भाषा अलग-अलग शब्दों, अर्थात उन पारंपरिक ध्वनि संकेतों से बनी होती है, जो विभिन्न वस्तुओं और प्रक्रियाओं के द्योतक होते हैं। भाषा का दूसरा संघटक अंग है व्याकरण के कायदे, जो शब्दों से वाक्य बनाने में मदद करते हैं। ये वाक्य ही विचार व्यक्त करने का साधन हैं। एक भाषा के शब्दों से, व्याकरणीय कायदों की बदौलत असंख्य सार्थक वाक्य बोले या लिखे जा सकते हैं और पुस्तकों या लेखों की रचना की जा सकती है।

जीव-जंतु केवल किसी ठोस स्थिति तक सीमित परिघटनाओं के बारे में अपने साथियों को संकेत दे सकते हैं, जबकि मनुष्य भाषा के माध्यम से अन्य मनुष्यों को विगत, वर्तमान तथा भविष्य के बारे में सूचित कर सकता है, और सबसे महत्वपूर्ण बात कि उन्हें सामाजिक अनुभव बता सकता है। इस तरह भाषा विविधतम विचारों की अभिव्यक्ति, लोगों की भावनाओं और अनुभवों का वर्णन, गणितीय प्रमेयों का निरूपण तथा वैज्ञानिक व तकनीकी ज्ञान की रचना करना संभव बनाती है।

यद्यपि चिंतन और चेतना प्रत्ययिक ( ideal ) हैं, परंतु उन्हें व्यक्त करने वाली भाषा भौतिक ( material ) है। यह इसलिये कि मौखिक और लिखित भाषा को मनुष्य अपने संवेद अंगों, इन्द्रियों से समझ सकता है। सामूहिक श्रम की प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न और विकसित भाषा चिंतन के विकास का एक महत्वपूर्ण साधन बन गई। भाषा की बदौलत मनुष्य विगत पीढ़ियों द्वारा संचित अनुभव को इस्तेमाल कर सकता है और अपने द्वारा पहले कभी न देखी या न महसूस की गई परिघटनाओं के संग्रहित ज्ञान से लाभ उठा सकता है। भाषा का जन्म समाज में हुआ, यह एक सामाजिक घटना है और दो अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य पूरे करती है, चेतना की अभिव्यक्ति और सूचना के संप्रेषण का। भाषा के द्वारा ज्ञान को संग्रहित, संसाधित और एक व्यक्ति से दूसरे को तथा एक पीढ़ी से दूसरी को अंतरित किया जाता है

उच्चतर जानवरों में आवाज़ से संकेत देने के कुछ सरल रूप पाये जाते हैं। मुर्गियां कई दर्जन ध्वनियां पैदा करती हैं, जो भय या आशंका के, चूज़ों को पुकारने और भोजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति के संकेत हैं। डोल्फिन जैसे अत्यंत विकसित स्तनपायियों में कई सौ ध्वनि संकेत हैं। परंतु फिर भी ये सच्चे अर्थों में भाषा नहीं है, जानवरों का संकेत देना संवेदनों पर आधारित है।
इन्हें प्रथम संकेत प्रणाली की संज्ञा दी जाती है। इनमें संयुक्तिकरण के कायदे नहीं होते, इसलिए इनके द्वारा प्रेषित सूचना बहुत सीमित होती है। जानवरों की संकेत व्यवस्था में सूचना की लगभग उतनी ही इकाइयां होती हैं, जितनी की अलग-अलग संकेतों की संख्या, जबकि मानवीय भाषा विविधतापूर्ण ज्ञान के असीमित परिमाण को संप्रेषित और व्यक्त कर सकती है।

मानवीय भाषा द्वितीय संकेत प्रणाली है। यह श्रम की प्रक्रिया और लोगों के सामाजिक क्रियाकलाप के दौरान इतिहासानुसार उत्पन्न हुई तथा बाह्य विश्व और स्वयं मनुष्य को जानने और रूपांतरित करने का एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गई। इस संकेत प्रणाली का प्रमुख विभेदक लक्षण यह है कि पारिस्थितिक संकेत शब्दों  तथा उनसे बने वाक्यों के आधार पर मनुष्य के लिए सहजवृत्तियों से परे निकलना और ज्ञान को असीमित परिमाण और विविधता में विकसित करना संभव हो जाता है।

मानवसम वानरों को मौखिक भाषा सिखाने के सारे प्रयत्न विफल रहे हैं, क्योंकि इन जानवरों के ध्वनि उपकरण मनुष्य की वाणी की विविधतापूर्ण, सुपष्ट उच्चारित ध्वनियों का उत्पादन करने में समर्थ नहीं होते हैं। हाल के वर्षों में यह संभव साबित हो गया है कि कुछ चिंपाज़ियों को सरलतम भावनाएं ( भूख, भय, आदि ) व्यक्त करने के लिए मूक-बधिर भाषा की अलग-अलग भाव-भंगिमाओं का इस्तेमाल करना सिखलाया जा सकता है। ये वानर भाव-भंगिमाओं की इस भाषा में ज़्यादा से ज़्यादा इस तरह की बातें व्यक्त कर सकते हैं, "मुझे पीने को दो", "गुडिया को ले आओ", आदि। अधिक जटिल प्रस्थापनाएं उनके लिए बहुत कष्टप्रद होती हैं, जिनमें ऐसी अमूर्त संकल्पनाएं शामिल होती हैं, जिनके बिना चिंतन का विकास असंभव है।

वानरों के बोलने के क्रियाकलाप के विकास की एक बड़ी बाधा यह है कि उनके मस्तिष्क मनुष्य की वाणी को आत्मसात करने लायक काफ़ी बड़े और विकसित नहीं होते हैं। इस प्रकार के जो अध्ययन किये गए हैं, वे निश्चय ही वैज्ञानिक दिलचस्पी के विषय हैं, किंतु साथ ही वे यह दर्शाते हैं कि उच्चतर मानवसम वानर, मनुष्य के मानसिक क्रियाकलाप में अंतर्निहित द्वितीय संकेत प्रणाली को स्वाधीन रूप से विकसित करने में असमर्थ होने के अलावा उसमें पारंगत होने में भी अक्षम हैं।

श्रम की प्रक्रिया के दौरान चिंतन और चेतना के विकास के आधार व साधन के रूप में उत्पन्न भाषा मनुष्य का एक विशेष और विभेदक लक्षण है।

यह श्रम क्रिया ही थी, जिसके दौरान पारस्परिक समझ की, अनुभव के विनिमय की आवश्यकता तथा समन्वित ढंग से आदेशों का पलन करने की और महत्वपूर्ण सूचनाओं को संचित व संचारित करने की आवश्यकता पैदा हुई। इसके फलस्वरूप उस भाषा का शनैः शनैः विकास तथा जटिलीकरण होता गया, जो प्रारंभ में श्रम क्रिया के साथ सीधे-सीधे गुंथी थी।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वास्तविकता के परावर्तन के उच्चतम रूप में मानव चेतना के विकास को आगे बढ़ानेवाले बुनियादी कारक थे श्रम और भाषा।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

चेतना के आधार के रूप में श्रम

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने मनुष्य और पशुओं के बीच विभाजक रेखा को, उनके मानस के तात्विक अंतरों को समझने की कोशिश की थी। इस बार हम, मानव चेतना के आधार के रूप में श्रम की महत्वपूर्णता और उपयोगिता पर विचार करेंगे।

चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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चेतना के आधार के रूप में श्रम

पिछली बार हमने मनुष्य और पशुओं के मानस में भेदों को समझने की कोशिश की थी। परंतु, इसका क्या कारण है कि जानवरों में चिंतन के केवल प्रारंभिक रूप होते हैं और वे ना तो समस्याओं को हल कर सकते हैं. ना उन कार्यों को कर सकते हैं, जिन्हें मनुष्य कर सकता है, करता है? दरअसल काम के कारण मनुष्य का चिंतन और चेतना जानवरों के मानसिक क्रियाकलाप से गुणात्मक रूप से भिन्न है। किंतु क्या यह सुनिश्चित है कि जानवर काम नहीं कर सकते?

एक विशेष प्रकार का उकाब अपनी चोंच में एक गोल पत्थर उठाए, शुतुरमुर्ग के अंडे के ऊपर उड़ता है, और उसे गिराकर अंड़े को तोड लेता है, जिसे वह अपनी चोंच से तोड़ने में असमर्थ था। चिंपाजी ऊंचाई में लटके हुए केलों को तोडने के लिए एक छड़ी या ड़ड़े का तत्परता से इस्तेमाल कर लेते हैं। उद्यमी मधुमक्खियों तथा चींटियों के बारे में अनेक कथाएं गढ़ी गयी हैं। परंतु इस सब के बावज़ूद, जानवर काम ( यानि श्रम ) नहीं करते। वे जीवित रहने, भोजन पाने, अपने प्राकृतिक अंगों ( दांतों, पंजों, चोंचों, आदि ) से घोंसले औए बिल बनाने के लिए आवश्यक प्राकृतिक सामग्री को ही काम में लाते हैं।

मनुष्य के काम का विशिष्ट लक्षण यह है कि वह अपने और प्रकृति के बीच औज़ारों को ले आता है। मनुष्य औज़ारों के जरिए प्रकृति से प्राप्त सामग्री का अनुकूल इस्तेमाल ही नहीं करता, बल्कि उसमें फेरबदल भी करता है और उसे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक विशेष रूप प्रदान करता है। श्रम की प्रक्रिया में वह प्रकृति का मानवीकरण करता है और अक्सर ऐसी वस्तुओं की भी रचना करता है, जिनका प्रकृति में कोई अस्तित्व नहीं होता।

प्रकृति के साथ जानवरों का संबंध अपरोक्ष ( direct ) होता है। जानवर स्वयं प्रकृति के अंग हैं। किंतु मनुष्य और प्रकृति के बीच उत्पादन के औज़ार हैं ( उपकरण, औज़ार, जटिल यांत्रिक विधियां और मशीनें )। इसलिए प्रकृति और मनुष्य के बीच का रिश्ता परोक्ष और व्यवहित ( indirect & mediated ) है, यानि उसे औज़ारों के द्वारा कार्यरूप दिया जाता है। इस तरह से मनुष्य अपने को प्रकृति से विलग कर लेता है और स्वयं को उसके मुकाबले में खड़ा कर लेता है। लेकिन क्या उकाब और चिंपाजी के उपरोक्त उदाहरण इसका खंड़न नहीं करते?

काम करने या श्रम की जिस प्रक्रिया से हमारे दूर के पूर्वज मनुष्यों में परिवर्तित हुए वह ठीक इसी काम के लिए विशेष औज़ारों को बनाने और ढ़ालने के साथ संबंधित थी, ना कि प्रकृति में आसानी से उपलब्ध वस्तुओं के उपयोग से। उकाब ने अपने पत्थर को बनाया-संवारा नहीं। चिंपाजी अपने ड़ंड़े को रंदे या छैनी से नहीं संवारता है। किंतु हमारे पुरानतम पूर्वजों तक ने पत्थर के आदिम औज़ार बनाए, वे एक पत्थर की मदद से दूसरे को संवारते थे। यही कारण है कि जानवरों के कोई भी क्रियाकलाप, जिनमें वे कभी-कभी प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग करते हैं, मनुष्य के काम से गुणात्मक भिन्न होते हैं।

श्रम आसपास की वस्तुओं को रूपांतरित तथा उनमें फेर-बदल करना ही संभव नहीं बनाता, बल्कि स्वयं मनुष्य के रूपांतरण तथा विकास की और ले जाता है

परिवेशी परिस्थितियों के घातक परिवर्तन ने मनुष्य के पूर्वजों के लिए अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि बड़ी कठिन बना दी थी, जलवायु के बिगड़ते जाने के कारण आहार प्रचुर मात्रा में नहीं मिल पाता था। उनके सामने दो ही विकल्प थे, या तो एक जाति के तौर पर विलुप्त हो जाएं या फिर अपने व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन लाकर परिस्थितियों को अपने लिए बेहतर और अनुकूलित करें। आवश्यकता ने प्राज्ञ मानव के वानरसदृश पूर्वजों को सामूहिक श्रमपूर्व सक्रियता का सहारा लेने को विवश किया।

यूथ के भीतर मनुष्य के पुरखों का सहजवृत्तिमूलक संपर्क शनैः शनैः श्रम सक्रियता पर आधारित सहजीवन में विकसित हुआ। एक ही समुदाय के सदस्यों के आपसी संबंधों में यह परिवर्तन, यानि संयुक्त सक्रियता, सहजीवन और उत्पादों के विनिमय की शुरूआत, यूथ से समाज में संक्रमण का आधार और साधन बनीं। इस प्रकार श्रम की उत्पत्ति और समाज के निर्माण ने मनुष्य के वानराभ पूर्वजों का मानवीकरण किया

श्रम ने मानव चेतना के विकास को भी प्रेरित किया। कुछ निश्चित संक्रियाओं को सैंकड़ों हज़ारों वर्षों की अवधि में अरबों बार दोहराकर मनुष्य ने अपने अंगों विशेष रूप से हाथों, को परिष्कृत बनाया और इन्हीं अंगों की सक्रियता के कारण मस्तिष्क के विकास की अन्योन्यक्रिया भी शुरू हुई। श्रम-सक्रियता में मनुष्य का ध्यान बनाए जा रहे औज़ार पर, या औज़ारों द्वारा किये जा रहे प्रकृति में बदलाव पर, यानि अपनी सक्रियता पर संकेन्द्रित होता है। सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के मद्देनज़र यह जरूरी हो जाता है कि व्यक्ति अपनी सक्रियता कों आलोचनात्मक दृष्टि से देखे। इस तरह मनुष्य की सक्रियता, चेतना पर आधारित सक्रियता बन जाती है, फलतः चेतना के विकास का पूर्वाधार बनती है

अपनी सक्रियता से, श्रम से परिवेश को प्रभावित करते और बदलते हुए मनुष्य ने साथ ही अपनी प्रकृति को भी बदला। श्रम के प्रभाव से हाथ के नये प्रकार्य पैदा हुए, जिससे उसमें और भी परिष्कृतता आती गई, मस्तिष्क के साथ सटीक समन्वय से उसमें और भी दक्षता बढ़ती गई। हाथ न केवल पकड़ने का साधन, बल्कि स्वयं प्रकृति को, वस्तुपरक यथार्थ को जानने का उपकरण भी बन रहा था। श्रम के प्रभाव से सक्रिय हाथ शनैः शनैः सक्रिय स्पर्श से संबंधित एक विशेषिकृत अंग में परिवर्तित हो गया और स्पर्श, विश्व के संज्ञान का केवल मनुष्य द्वारा प्रयुक्त तरीका है। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य का हाथ श्रम करने वाला अंग ही नहीं, श्रम का उत्पाद भी है

हाथ का विकास सारे शरीर के विकास के साथ हुआ। हाथ के कार्यों के विशेषीकरण से हमारे रोमिल पुरखों को खड़े होकर चलने की आदत ड़ालने में मदद मिली। काम करते हुए हाथों पर निरंतर आंखों का नियंत्रण रहता है, जो दृष्टि का अंग है। जाहिरा तौर पर दृष्टि और स्पर्श के बीच कई तादात्मयता पैदा हुई। और यह सब मस्तिष्क के जरिए हो रहा था। नये तंत्रिका केंद्रों के निर्माण के फलस्वरूप मस्तिष्क का आयतन ही नहीं बढ़ा, उसकी संरचना भी जटिलतर होती गई। मस्तिष्क के जो भाग हाथों की क्रिया का नियंत्रण करते हैं, वे ही मनुष्य की वाणी तथा भाषा का, जो मनुष्य की मानसिक क्रियाकलाप का केंद्र हैं, भी नियमन करते हैं।

अपनी बारी में, मस्तिष्क के विकास से, काम की प्रविधियों ( techniques ), औज़ार बनाने के तरीकों, सामूहिक अंतर्क्रिया की आदतों तथा परिवेशीय जगत के बारे में सूचनाओं का संचय करना और उन्हें आने वाली पीढ़ीयों को हस्तांतरित करना संभव हुआ। श्रम की प्रक्रिया में मनुष्य ने जिन विविध वस्तुओं में फेर-बदल तथा रूपांतरण किये, उनके अनुगुणों को जानने तथा उनका अध्ययन करने में मदद मिली। यह ऐसी चीज़ है, जो जानवरों की पहुंच से बाहर है।

इस प्रकार, श्रम की प्रक्रिया मानसिक क्रियाकलाप के उच्चतम रूप यानि चिंतन और चेतना का आधार बनी। अपने को प्रकृति से विलग करके मनुष्य प्रकृति के प्रति अपनी विरोधी स्थिति से ही अवगत नहीं हुआ, बल्कि यह भी जान गया कि वह चेतना युक्त विशेष प्राणी है और इसी कारण से अन्य जीवित प्राणियों से भिन्न है।

चेतना की उत्पत्ति का अर्थ था वास्तविकता के परावर्तन के एक उच्चतर रूप में संक्रमण। यह संक्रमण प्रकृति के प्रति अपने को निष्क्रियता से अनुकूलित करने के बजाए वास्तविकता को अपने अनुकूल बनाना और अपने लक्ष्यों के अनुरूप वास्तविकता में परिवर्तन करना तथा ऐसी वस्तुओं की रचना करना सीखने में निहित था, जो प्रकृति में नहीं होती। अपनी पीढ़ी का अनुभव अगली पीढ़ी को सिखाने, सहजातियों को श्रम-प्रणालियों के इस्तेमाल का प्रशिक्षण देने और उनके बीच कार्यों का बंटवारा करने की आवश्यकता ने संप्रेषण की आवश्यकता पैदा की। सहजवृत्तियों की भाषा इसके लिए स्पष्टतः अपर्याप्त थी।

अतः श्रम के साथ और श्रम की प्रक्रिया में मानवीय भाषा भी उत्पन्न हुई, जो संप्रेषण का उच्चतर रूप है।
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अगली बार हम चेतना के विकास के एक और साधन के रूप में भाषा पर चर्चा करेंगे।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

मनुष्य और पशुओं के मानस में भेद

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने मानसिक कार्यकलाप के भौतिक अंगरूप में, मस्तिष्क को समझने की कोशिश की थी। जैसा कि पिछली प्रविष्टियों में बार-बार मानव व्यवहार का पशुओं के साथ तुलनात्मक उल्लेख होता रहा है, यह समीचीन और रोचक रहेगा कि हम मनुष्य और पशुओं के बीच विभाजक रेखा को, उनके मानस के तात्विक अंतरों को देख लें और समझ का हिस्सा बनाने की कोशिश कर लें। यह मानव चेतना के आधार के रूप में श्रम पर चर्चा शुरू करने से पहले, प्रासंगिक भी रहेगा।

चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मनुष्य और पशुओं के मानस में भेद

इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य के मन और पशुओं के मानस में बहुत बड़ा अंतर है।

बहुसंख्य प्रयोगों ने दिखाया है के उच्चतर पशुओं का चिंतन पूर्णतः व्यवहारिक होता है। सभी जीव-जंतु केवल एक निश्चित, प्रत्यक्षतः अनुभूत स्थिति के दायरे में ही कार्य कर सकते हैं, वे इसकी सीमाओं को लांघने और इसकी विशिष्टताओं को अनदेखा करके, मात्र सामान्य मूलतत्व पर ध्यान देने तथा उसे ह्रदयंगम करने में असमर्थ हैं। हर पशु अपने सामने मौजूद स्थिति का दास होता है।

इसके विपरीत मानव व्यवहार की विशेषता यह है कि मनुष्य में अपने सामने मौजूद स्थिति से निरपेक्ष ( अनासक्त ) होने और उस स्थिति के कारण जो परिणाम पैदा हो सकते हैं, उनका पूर्वानुमान करने की क्षमता है। इसी कारण जहाज़ी, जहाज़ के पेटे में हुए मामूली छेद की तुरंत मरम्मत करने लगते हैं, और पायलट अपने विमान में थोड़ा ही ईंधन रह जाने पर निकटतम हवाई अड्डे की खोज करने लगता है। मनुष्य अपने सामने मौजूद स्थिति के दास नहीं होते और वे भविष्य का पूर्वानुमान भी कर सकते हैं।

इस प्रकार अगर पशुओं का ठोस, व्यवहारिक चिंतन उन्हें अपने सामने मौजूद स्थिति के प्रत्यक्ष प्रभाव की दया पर छोड़ता है, तो मनुष्य की अमूर्त चिंतन की क्षमता उसे अपने सामने मौजूद स्थिति से अपेक्षाकृत स्वतंत्र बनाती है। मनुष्य परिवेश के तात्कालिक प्रभावों का ही नहीं, उनके भावी परिणामों का भी परावर्तन कर सकता है। मनुष्य सचेतन ढ़ंग से, आवश्यकता के अपने ज्ञान के अनुसार कार्य कर सकता है। अन्य जीवधारियों के मानस से मनुष्य के मन का पहला मुख्य भेद यही है।

मनुष्य और पशु के बीच दूसरा भेद यह है कि मनुष्य में औज़ार बनाने और सुरक्षित रखने की योग्यता होती है। पशु किसी निश्चित, यथार्थतः अनुभूत स्थिति में अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं के लिए ही चीज़ों का औज़ारों के रूप में प्रयोग करते हैं। उस ठोस स्थिति के बाहर वह औज़ार को ना तो पहचानता हैं ना उसे भावी उपयोग के लिए संभालकर ही रखता है। ज्यों ही औज़ार का काम पूरा हो जाता है, उसका औज़ार के रूप में अस्तित्व तुरंत खत्म हो जाता है। उदाहरण के लिए, वानर ने जिस डंडे को अभी-अभी वृक्ष से फल तोडने के लिए इस्तेमाल किया था, उसके कुछेक मिनट बाद ही वह उसके टुकड़े-टुकड़े कर सकता है अथवा किसी दूसरे वानर को यह करते देख सकता है। जीव-जंतु स्थायी वस्तुओं की दुनिया में नहीं रहते।

इसके अतिरिक्त, प्राणियों की औज़ार-निर्माण तथा उपयोग से संबंधित सक्रियता का स्वरूप कभी सामूहिक नहीं होता। वानर अपने साथी वानर के कार्य को अधिक से अधिक देख ही सकता है। वह उसमें कभी हाथ नहीं बंटायेगा या उसके साथ मिलकर कार्य नहीं करेगा। किंतु इसके विपरीत मनुष्य पूर्वनिर्मित योजना के अनुसार औज़ार बनाता है, वांछित उद्देश्य को पाने के लिए उसे इस्तेमाल करता है और समान भावी परिस्थितियों के लिए उसे संभालकर रखता है। मानव अपेक्षाकृत स्थाई वस्तुओं की दुनिया में रहता है। वह औज़ार को अन्य लोगों के साथ मिलकर भी इस्तेमाल करता है और कुछ से उसके उपयोग का अनुभव सीखता है तथा कुछ को उसे सिखाता है।

मनुष्य के मानस की तीसरी विभेदक विशेषता उसकी सामाजिक अनुभव को आत्मसात् करने की योग्यता है। सामजिक अनुभव व्यक्ति के व्यवहार का निर्धारक तत्व है और मनुष्य के मन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। बच्चा जन्म के समय से ही सामाजिक संपर्क के व्यवहारों, उपकरणों तथा तकनीक के उपयोग की प्रणालियां सीखना शुरू कर देता है। मानवजाति की सांस्कृतिक प्रगति के आत्मसातिकरण की प्रक्रिया के दौरान उसकी मानसिक क्रियाओं में गुणात्मक परिवर्तन आता है। वह अपने से ऐच्छिक स्मृति, ऐच्छिक ध्यान और अमूर्त चिंतन जैसी सर्वोच्च मानवीय विशेषताएं विकसित करता है।

अमूर्त चिंतन के विकास की भांति ज्ञानेन्द्रियों का विकास भी यथार्थ के अधिक पर्याप्त परावर्तन का एक तरीका है। अतः मनुष्य और पशुओं के बीच चौथा बुनियादी भेद उनकी ज्ञानेन्द्रियों में भेद से संबंध रखता है। बेशक, मनुष्य और पशु दोनों ही अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं से उदासीन नहीं रहते हैं। परिवेशी विश्व की परिघटनाएं और वस्तुएं उनमें बाह्य प्रभावों के प्रति कुछ ख़ास प्रकार के रवैये, सकारात्मक और नकारात्मक संवेग जगा सकती है। फिर भी केवल मनुष्य में दूसरे के दुख या हर्ष में सहभागी होने की विकसित क्षमता है और केवल मनुष्य ही प्रकृति के सौंदर्य का आनंद उठा सकता है अथवा संज्ञान की प्रक्रिया में बौद्धिक संतोष की भावना अनुभव कर सकता है।

मनुष्यों और पशुओं के मानस में जो भेद हैं, उसकी जड़ उनके विकास की परिस्थितियों में हैं। यदि पशुजगत में मानस की प्रगति जैव उदविकास के नियमों पर आधारित थी, तो मनुष्य मन, मानव चेतना का विकास सामाजिक-ऐतिहासिक विकास के नियमों से निर्देशित होता है। मानव समाज के अनुभव को आत्मसात् किये बिना, अन्य मनुष्यों के संपर्क में आए बिना कोई भी व्यक्ति अपने में परिपक्व मानवीय भावनाओं, ऐच्छिक ध्यान, स्मृति तथा अमूर्त चिंतन का विकास नहीं कर सकता और सच्चे अर्थों में व्यक्ति नहीं बन सकता। जंगली जानवरों के बीच पले तथा बड़े हुए मानव शिशुओं की सच्ची कहानिया इसका प्रमाण हैं। बंदर का बच्चा दुर्भाग्यवश अपने झुंड़ से बिछड़ जाने पर भी बंदर जैसे ही व्यवहार करेगा, मगर मनुष्य का बच्चा मनुष्य तभी बनेगा, जब वह लोगों के बीच पलेगा तथा बड़ा होगा

मनुष्य के मानस की उत्पत्ति जैव पदार्थ के लंबे उदविकास का परिणाम थी। मन के विकास के वैज्ञानिक विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चेतना की उत्पत्ति के लिए कुछ जैव पूर्वापेक्षाएं थी। मनुष्य के पुरखे में निश्चय ही वस्तुमूलक सक्रिय चिंतन की योग्यता थी और वह बहुत से साहचर्य भी बना सकता था। हाथों जैसे अग्र अंगों वाले मानवपूर्व प्राणी निश्चित परिस्थितियों में साधारण औज़ार बना और इस्तेमाल कर सकते थे। यह सब हमें आज पाये जाने वाले मानवाभ वानरों में भी मिलता है।

किंतु मन, चेतना को सीधे पशुओं के उदविकास का परिणाम मानना गलत होगा : मनुष्य सामाजिक संबंधों का उत्पाद है। सामाजिक संबंधों की जैव पूर्वापेक्षा यूथ या झुंड़ था। मनुष्य के पूर्वज यूथ बनाकर रहते थे, जिससे परस्पर सहायता और बहुसंख्य शत्रुओं से रक्षा के लिए अनुकूलतम परिस्थितियां पैदा होती थीं।

वानर के नर बनने में, यूथ के समाज में परिवर्तित होने में निर्णायक भूमिका श्रम ने, यानि औज़ारों के संयुक्त निर्मा्ण तथा उपयोग पर आधारित सक्रियता ने अदा की।

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अगली बार हम मानव चेतना के आधार के रूप में इसी श्रम पर थोड़ा और विस्तार से चर्चा करेंगे।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

रविवार, 24 जनवरी 2010

मानसिक कार्यकलाप के भौतिक अंगरूप में, मस्तिष्क

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने मन, चिंतन और चेतना में अंतर तथा मानसिक और दैहिक, प्रत्ययिक और भौतिक को समझने की कोशिश की थी। इस बार हम मानव चेतना की विशिष्ट प्रकृति पर चर्चा शुरू करते हुए, मानसिक कार्यकलाप के भौतिक अंगरूप में, मस्तिष्क को समझने की संक्षिप्त कोशिश करेंगे।

चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मानसिक कार्यकलाप के भौतिक अंगरूप में, मस्तिष्क
( The brain as the material organ of mental activity )


ह्वेल का मस्तिष्क उसके शरीर के मुकाबले करीब ५०० गुना हलका होता है, शेर का करीब १५० गुना और मनुष्य का केवल ६०-६५ गुना हलका होता है। इससे यह जाहिर होता है कि उच्चतर स्तनपायियों के जीवन में मानसिक कार्यों या क्रियाकलाप ( psychic activities or functions ) तथा शरीर के अन्य क्रियाकलापों के बीच के अनुपात में बहुत विविधता होती है। बेशक मुद्दा यह नहीं है कि मस्तिष्क का आयतन और वज़न कितना होता है, बल्कि यह है कि वह क्या क्रियाकलाप करता है।

मनुष्य के तथा उच्चतर स्तनपायियों के मानसिक, बौद्धिक, या आत्मिक कार्यकलाप के बीच एक बुनियादी, गुणात्मक अंतर होता है। मनुष्य प्रकृति में नहीं पायी जाने वाली चीज़ों की रचना करने, गणितीय प्रमेयों को सिद्ध करने, कलाकारी व यंत्रों का निर्माण करने तथा पृथ्वी की सीमाओं से परे अंतरिक्ष में उड़ने में भी समर्थ होता है, इनमें से हर काम जानवरों की सामर्थ्य से बाहर है। ये सब काम मस्तिष्क के क्रियाकलाप के जरिए किये जाते हैं, जो कि सजीव भूतद्रव्य का उच्चतम, सर्वाधिक जटिल और संगठित रूप है।

मस्तिष्क के अननुकूलित ( unconditioned ) और अनुकूलित ( conditioned ) प्रतिवर्त ( reflexes ) मानसिक क्रियाकलाप का आधार होते हैं। जब बाहरी वस्तुएं संवेद अंगों के तंत्रिकीय अंतांगों ( nerve endings ) पर क्रिया करती हैं, तो तंत्रिका प्रणाली के जरिए नियंत्रित जैव-विद्युत आवेग ( संकेत ) मस्तिष्क को प्रेषित किये जाते हैं। वे कई जटिल भौतिक-रासायनिक परिवर्तनों को उभारते हैं, जिनके दौरान प्राप्त संकेत परिवर्तित होता है और अंगी की जवाबी प्रतिक्रिया को जन्म देता है। इस संकेत के आधार पर मस्तिष्क तदनुरूप आंतरिक अंग या चलन-अंगों को एक जवाबी आवेग प्रेषित करता है, जिससे सर्वाधिक सोद्देश्य क्रिया संपन्न होती है। जब एक जानवर भोजन को देखता है तो उसकी लार टपकने लगती है, जब आदमी किसी बहुत गर्म वस्तु को छूता है तो वह अपने हाथ को तुरंत पीछे हटा लेता है। इस प्रक्रिया को अननुकूलित प्रतिवर्त या सहजवृत्ति ( instinct ) कहते हैं।

जो संकेत अननुकूलित प्रतिवर्त उत्पन्न करते हैं, वे अंगी के समस्त क्रियाकलाप के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण विषय और प्रक्रियाएं है। अनुकूलित प्रतिवर्त, अननुकूलित प्रतिवर्तों से बनते हैं। उदाहरण के लिए, यदि एक कुत्ते को खिलाने से पहले हमेशा घंटी बजायी जाए, तो समय बीतने पर उसका शरीर खाना न दिये जाने पर भी केवल घंटी बजाने पर ही लार टपकाने लगेगा। प्रकृति में इस प्रकार के अनुकूलित प्रतिवर्त जानवर को पर्यावरण की तेजी से बदलती हुई दशाओं के प्रति अपने को अनुकूलित करने में मदद देते हैं। उपरोक्त उदाहरण में घंटी भोजन का एक ‘स्थानापन्न’ ( substitute ) बन गयी तथा एक महत्वपूर्ण कार्य का एक अनुकूलित संकेत थी।

अनुकूलित और अननुकूलित प्रतिवर्त उच्चतर जानवरों तथा मनुष्य के मस्तिष्क के गोलार्धों के कोर्टेक्स द्वारा बन कर तैयार होते हैं। मस्तिष्क के जो भाग दृश्य, श्रव्य, स्पर्शीय तथा गंध संबंधी उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षण ( perceive ) करते हैं, उनके बारे में अब काफ़ी सही जानकारी है और उन भागों के बारे में भी ज्ञात है, जो विविध अंगों की क्रियाओं पर नियंत्रण रखते हैं। जब जानवरों और मनुष्य में ( बीमारी या चोट लगने के कारण ) तंत्रिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, तो तदनुरूप कार्य बुरी तरह से गड़बड़ा जाते हैं। इससे असंदिग्ध रूप से स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्ययिक मानसिक कार्यकलाप ( ideal psychic activities ) अपनी प्रकृति से ही भौतिक मस्तिष्क के कार्यों का परिणाम हैं।

यह साबित कर दिया गया है कि उच्चतर जानवरों तथा मनुष्य के प्रमस्तिष्क गोलार्धों के दायें और बायें अर्धांश भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। बाह्य जगत के बारे में रूपकात्मक ( figurative ), संवेदनात्मक सूचनाएं ( ध्वनियों के संवेदन, गंधें, दृश्य बिंब, आदि ) दाये गोलार्ध में स्मृति की शक्ल में संचित ( accumulated ), संसाधित ( processed ), और संग्रहित ( stored ) होती हैं। एक प्रकार के कायदे और मानक ( rules and norms ) बाये गोलार्ध में संग्रहित होते हैं। इस तरह, मस्तिष्क और मानसिक क्रियाओं के बारे में हमारा ज्ञान गहनतर होता जा रहा है और आगे और भी गहरा होता जाएगा।
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यही भौतिक मस्तिष्क, मानव चेतना का आधारभूत है।
अगली बार हम मानव चेतना के आधार के रूप में श्रम पर चर्चा करेंगे।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

शनिवार, 9 जनवरी 2010

मन, चिंतन और चेतना

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने यथार्थता के सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन में अंतर को समझने की कोशिश की थी। इस बार हम परावर्तन के विकास की अब तक की चर्चा को भी संदर्भित करते हुए मानसिक और दैहिक, प्रत्ययिक और भौतिक संदर्भों में, ‘मन’ की संकल्पना को समझने की कोशिश करेंगे।

चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मानसिक और दैहिक, प्रत्ययिक और भौतिक

तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क भौतिक है। उनमें विभिन्न विविध भौतिक तथा रासायनिक प्रक्रियाएं होती हैं, जैसे उपापचयन, जैव-विद्युत आवेगों का प्रस्फुटन और संचरण, आदि। मस्तिष्क और बाहरी भौतिक जगत की अंतर्क्रिया को ही हम सामान्यतयाः चित् या मन कहते हैं और इसके कार्य को मानसिक क्रिया कहते हैं।

अगर मन की वस्तुगत अवधारणा को थोड़ा समझना चाहे तो इसमें निम्नांकित बाते शामिल होती हैं : ( १ ) वस्तुओं तथा वस्तुगत जगत में विभिन्न प्रक्रियाओं के हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त, यानि दृश्य, संवेदक, प्रकाशिक, श्रव्य, स्पर्शमूलक तथा गंधात्मक बिंब ; ( २ ) लक्ष्यों के चयन तथा उनकी उपलब्धि की क्षमता ( मनुष्य में संकल्प तथा ऐच्छिक व्यवहार इसी क्षमता से विकसित हुए हैं ) जो केवल सोद्देश्य व्यवहार करने वाले उच्चतर जानवरों में ही अंतर्निहित होती हैं ; ( ३ ) भावावेग, अनुभव, अनुभूतियां, जिनके द्वारा जानवर पर्यावरणों के प्रभावों के प्रति सीधे-सीधे अनुक्रिया करते हैं ( मसलन क्रोध, उल्लास, भय, लगाव, आदि ) ; ( ४ ) सूचना, और सर्वोपरी व्यवहार का नियंत्रण करने और पर्यावरण के प्रति अनुकूलित होना संभव बनाने वाले कायदों, मानकों, मापदंड़ों को संचयित तथा उनका विश्लेषण करने की क्षमता ( मनुष्य में चेतना और चिंतन इसी क्षमता से उत्पन्न होते हैं ) ।

यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि मस्तिष्क के क्रियाकलाप का उत्पाद होने के कारण मन को बाहरी वास्तविकता के सरल निष्क्रिय परावर्तन में सीमित नहीं किया जा सकता है। मन बाहरी वास्तविकता की हूबहू, दर्पण-प्रतिबिंब जैसी छवि नहीं होता है। उसमें सूचना ग्रहण तथा उसे रूपातंरित करने की क्षमता और मानसिक बिंबों व क्रियाओं को, सक्रियता से मिलाने और तुलना करने तथा इसके आधार पर मानसिक बिंबों और क्रियाओं का पुनर्गठन करने की क्षमता होती है।

दीर्घ क्रमविकास के फलस्वरूप ये क्षमताएं, मनुष्य के उद्‍भव के साथ, रचनात्मक कार्य या क्रियाकलाप की विशिष्ट मानवीय क्षमता में तब्दील हो गयीं। परंतु इसके आदि रूपों को उच्चतर जानवरों के मानसिक क्रियाकलापों में देखा जा सकता है।

मानव चेतना की उत्पत्ति के बाद भी, मनुष्य में मानसिक क्रियाकलाप के ऐसे कई स्तर तथा रूप शेष हैं, जिनमें चेतना शामिल नहीं होती और जो सचेत नियंत्रण के अधीन नहीं होते तथा अचेतन मानसिक क्रियाकलाप का क्षेत्र बने रहते हैं। मन की उत्पत्ति तथा कार्यकारिता और मानसिक क्रियाकलाप में चेतन तथा अचेतन के संबंधों का विस्तार से अध्ययन मनोविज्ञान के विषयान्तर्गत किया जाता है।

संकल्पनाएं ‘चेतना’ ( consciousness ) तथा ‘चिंतन’ ( thinking ) अक्सर पर्यायों की भांति इस्तेमाल की जाती हैं। किंतु इनके बीच कुछ अंतर है। चिंतन का अर्थ, मुख्यतः, बाहरी वास्तविकता के बारे में ज्ञान की सिद्धी की प्रक्रिया, संकल्पनाओं, निर्णयों और निष्कर्षों की प्रक्रिया है, जिसकी प्रारंभिक अवस्था संवेदनों ( sensations ) तथा संवेद प्रत्यक्षों ( संवेदनों के जरिए हासिल सीधे अनुभवों ) की रचना है, जबकि चेतना का अर्थ है चिंतन की इस प्रक्रिया का परिणाम और पहले से ही रचित संकल्पनाओं, निर्णयों तथा निष्कर्षों को बाह्य जगत पर लागू करना, ताकि उसे समझा और परिवर्तित किया जा सके

इस तरह, चिंतन और चेतना मन के और मानसिक क्रियाकलाप के उच्चतम स्तर हैं। वे केवल मनुष्य में अंतर्निष्ठ ( inter-engrossed ) हैं। जानवरों में केवल उसके वे आद्य रूप, सरलतम तत्व या वे क्षमताएं होती हैं, जिनसे विकास की एक दीर्घावधि में मानव चिंतन और चेतना का जन्म हुआ।

चिंतन और चेतना सहित मन प्रत्ययिक ( idealistic ) है। यद्यपि वे भौतिक मस्तिष्क और भौतिक बाह्य जगत की अंतर्क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न हुए, तथापि उनमें वे अनुगुण और विशेषताएं नहीं होती जो सारी भौतिक घटनाओं में अंतर्निहित होती हैं। भौतिक घटनाएं किसी प्राणी की मानसिकता या उसमें हुए परिवर्तनों से निरपेक्ष होती है और लगातार सतत रूप से गतिमान हैं। इसके विपरीत मन में होने वाला कोई भी परिवर्तन, भौतिक मस्तिष्क तथा बाहरी भौतिक वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों पर निर्भर होता है।

भूतद्रव्यीय भौतिक जगत के संदर्भ में मन द्वितीयक है, क्योंकि भौतिक जगत उस पर निर्भर नहीं है और प्राथमिक है। मन सारे भूतद्रव्य में अंतर्निहित परावर्तन के अनुगुण के विकास का परिणाम है, परंतु यह सारे भूतद्रव्य द्वारा विकसित नहीं हुआ, बल्कि केवल जैव-पदार्थ के सबसे जटिल रूप- मस्तिष्क के द्वारा हुआ। यह दर्शाता है कि मन अपने भौतिक पात्र के बिना, उसे विकसित करने वाले मस्तिष्क के बिना अस्तित्वमान नहीं हो सकता है।

आधुनिक विज्ञान के तथ्यों पर भरोसा करते हुए, की द्वंद्वात्मक भौतिकवादी धारा यह दावा करती है कि मन द्वितीयक होते हुए भी अपने ही नियमों के अनुसार विकसित होता तथा संक्रिया करता है और उसे यांत्रिक रूप से भौतिक, रासायनिक या जैविक घटनाओं और प्रक्रियाओं में परिणत नहीं किया जा सकता।
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परावर्तन के विकास का साररूपी विवेचन और अवलोकन करने के पश्चात हम इस स्थिति में हैं कि मानव चेतना की विशिष्ट प्रकृति पर चर्चा शुरू की जा सके। अगली बार हम यही करेंगे।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने जीवन के क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति से संबंधित अवधारणाओं पर नज़र ड़ाली थी। इस बार हम यथार्थता के सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन में अंतर को समझने की कोशिश करेंगे। चेतना की उत्पत्ति के मद्देनज़र इनसे गुजरना एक पूर्वाधार का काम करेगा।

चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन

क्या तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उत्पत्ति का यह मतलब है कि उच्चतर जानवरों में चिंतन क्षमता तथा तर्कबुद्धि होती है और वे सचेत व्यवहार कर सकते हैं?

सरलतम एककोशिकीय अंगियों में यथार्थता ( reality ) का परावर्तन (Reflection, a reflex action, an action in return) अत्यंत आदिम रूप में होता है। यदि एक एककोशिकीय अंगी, अमीबा युक्त एक पात्र में अम्ल के सांद्रण ( concentration ) को बढ़ा दिया जाए, तो अमीबा उस तरफ़ को चला जाएगा, जहां अम्ल का सांद्रण कम है। यदि वह संयोगवश भोजन से टकरा जाता है, तो उसे अपने शरीर के किसी भी भाग से गड़प जाता है। इस तरह अमीबा अपने व्यवहार और गति के लिए कोई निश्चित दिशा और लक्ष्य तय नहीं करता।

उत्तेजनशीलता ( Excitability ) के आधार पर यथार्थता के प्रति मात्र निष्क्रिय अनुकूलन ही संभव हो सकता है। निष्क्रिय अनुकूलन का अर्थ है कि एक जीवित अंगी अपने अस्तित्व के लिए केवल पर्यावरण मे उपलब्ध अनुकूल दशाओं को ही चुनता है, किंतु उनकी रचना करना तो दूर, उन्हें खोजता तक नहीं है। पौधों सहित सभी बहुकोशिकीय अंगियों में भी उत्तेजनशीलता होती है। खिड़की पर रखा जिरेनियम का पौधा प्रकाशित पक्ष से अप्रकाशित पक्ष को हार्मोनों की गति के जरिए अपनी पत्तियों को उस दिशा की ओर मोड़ लेता है, जहां से उसकी जीवन क्रिया के लिए आवश्यक अधिक सौर प्रकाश उस पर पड़ता है। यह भी एक तरह का चयनात्मक ( Selective ), फिर भी निष्क्रिय अनुकूलन है, क्योंकि जिरेनियम न तो प्रकाश की खोज में जाता है और न ही प्रकाश की कमी होने पर उसकी रचना करता है।

जब तंत्रिकातंत्र अधिक जटिल हो गया और मस्तिष्क की उत्पत्ति हो गई, तो धीरे-धीरे निष्क्रिय से सक्रिय अनुकूलन में संक्रमण होने लगा। उच्चतर जानवरों में ( पक्षियों और ख़ास तौर से स्तनपायियों में ) सक्रिय अनुकूलन अपने निवास के लिए अनुकूल दशाओं की खोज से संबंधित होता है और व्यवहार के जटिल रूपों के विकास की ओर ले जाता है।

उच्चतम स्तनपायियों में व्यवहार के और भी अधिक जटिल रूप पाये जाते हैं। मसलन, कई शिकारी जानवर अपने क्षेत्र की हदबंदी कर देते हैं और दूसरों को उसके अंदर शिकार नहीं करने देते। एक अनुसंधानकर्ता ने अपने प्रेक्षण के दौरान देखा कि एक भूखी मादा भेडिया एक जंगली हंस का ध्यान आकृष्ट करने तथा झील के तट पर पानी से कुछ दूर उसे अपनी तरफ़ खींचने के लिए घास में उलट-पलट कर, तथा अगल-बगल करवटें लेकर नाचते हुए एक ‘शौकिया नृत्य प्रदर्शन’ कर रही है, उसने हंस को पानी से बाहर काफ़ी दूर तक अपनी ओर आकृष्ट किया और जब उनके बीच की दूरी काफ़ी कम हो गयी, तो अपने शिकार पर झपट्टा मार दिया।

हम जानते हैं कि चींटियां और मधुमक्खियां अत्यंत जटिल संरचनाएं बनाती है, बीवर नामक जीव छतदार बिल और बिल तक जाने के लिए पानी के नीचे से रास्ता ही नहीं बनाते, बल्कि असली बांध भी बनाते हैं, इससे भी बड़ी बात यह है कि वे पानी के बाह्य प्रवाह के लिए तथा तलैया में स्तर के अनुसार नियंत्रण रखने के लिए एक निकास द्वार भी छोड़ देते हैं। इन सब बातों से जानवरों के कथित तर्कबुद्धिपूर्ण, सचेत व्यवहारक की बात कहने का आधार मिलता है, पर वास्तव में यह परावर्तन के अत्यंत विकसित रूपों के आधार पर, पर्यावरण के प्रति उच्चतर जानवरों के सक्रिय अनुकूलन मात्र का मामला हो सकता है।

उच्चतर जानवरों में सक्रिय अनुकूलन, अपने निवास के लिए अपने परिवेशी पर्यावरण का सक्रिय उपयोग, अधिक अनुकूल दशाओं की खोज तथा अपनी जीवन क्रिया के लिए, चाहे सीमित पैमाने पर ही क्यों ना हो, पर्यावरण को अपने अनुसार अनुकूलित करने में निहित होता है। किंतु उनके क्रियाकलापों में कोई योजना नहीं होती और वे बाह्य वास्तविकता को आमूलतः रूपांतरित नहीं करते।

जानवरों के व्यवहार के अनेक रूप, क्रमविकास के लाखों वर्षों के दौरान विकसित होते हैं और आनुवंशिकता द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होते हैं। व्यवहार के इन अंतर्जात ( inborn, inbred ) रूपों को सहजवृत्ति कहते हैं और वे अत्यंत जटिल हो सकती हैं। किंतु जीवन की दशाओं में तीव्र परिवर्तन होने पर ये जानवर, अपनी ही सहजवृत्तियों के ‘बंदी’ हो जाते हैं और अपने को नयी स्थितियों के अनुकूल बनाकर उन्हें बदलने में अक्षम होते हैं। इसके अलावा वे उन दशाओं को निर्णायक ढ़ंग से बदलने तथा उन्हें अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित करने की स्थिति में नहीं होते।

इस बात को स्पष्ट करने के लिए हम अत्यंत संगठित कीटों के जीवन से एक उदाहरण लेते हैं। चीड़ के पेड़ों पर रहने तथा जुलूस की शक्ल में चलनेवाले पतंगों की शुंडियां भोजन की तलाश में एक सघन कालम बनाकर आगे बढ़ती हैं। प्रत्येक शुंडी अपने आगेवाले को अपने रोयों से छूते हुए उसके पीछे-पीछे चलती है। शुंडियां महीन जालों का स्रावण करती हैं, जो पीछे से आनेवाली शुंडियों के लिए मार्गदर्शक तागे का काम देता है। सबसे आगेवाली शुंडी सारी भूखी सेना को चीड़ के शीर्षों की तरफ़, नये ‘चरागाहों’ की तरफ़, ले जाती है।

प्रसिद्ध फ़्रांसीसी प्रकृतिविद जान फ़ाब्रे ने अगुआई करने वाली शुंडी के सिर को कालम के अंत की शुंडी की ‘पूंछ’ की तरफ़ लगा दिया। वह फ़ौरन मार्गदर्शक तागे से चिपक गई और, इस तरह, ‘सेनापति’ शुंडी मामूली ‘सिपाही’ में तब्दील हो गई, तथा उस सबसे पीछे वाली शुंडी के पीछे-पीछे चलने लगी, जिससे वह जुडी हुई थी। इस तरह कालम का सिरा और दुम परस्पर जुड गये और शुंडियों ने एक ही स्थान पर एक मर्तबान के गिर्द अंतहीन चक्कर काटने शुरू कर दिये। सहजवृत्ति उन्हें इस मूर्खतापूर्ण स्थिति से छुटकारा दिलाने में असमर्थ सिद्ध हुई। भोजन पास ही रख दिया गया लेकिन किसी भी शुंडी ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। एक घंटा बीता, दूसरा बीता, दिन गुजर गये और शुंडियां, मंत्रमुग्ध जैसी चक्कर पर चक्कर लगाती रहीं। वे पूरे एक सप्ताह तक चक्कर लगाती रहीं, इसके बाद कालम टूट गया, शुंडियां इतनी कमजोर हो गयीं कि अब वे जरा भी आगे नहीं बढ सकीं।

स्पष्ट है कि शुरूआत में जो सवाल पेश किया गया था, उसका सिर्फ़ नकारात्मक उत्तर ही दिया जा सकता है। अर्थात तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उपस्थिति मात्र से ही, चिंतन क्षमता और तर्कबुद्धियुक्त सचेत व्यवहार पैदा हो पाना संभव नहीं हो जाता।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

जीवन का क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों के जटिलीकरण की सैद्धांतिक अवधारणाओं के सार-संक्षेप पर एक नज़र ड़ाली थी। आज हम यहां जीवन के क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति से संबंधित अवधारणाओं से गुजरेंगे।

यहां एक बात कहने की जरूरत महसूस हो रही है।

सैद्धांतिक अवधारणाएं, इनसे अब तक अपरिचित मानवश्रेष्ठों के लिए थोड़ा दुरूह होती हैं, पर यही दुरूहता गंभीर दिलचस्पी रखने वाले मानवश्रेष्ठों के लिए इन्हें समझे जाने की जरूरत और इस हेतु सक्रिय प्रयासों का रास्ता भी प्रशस्त करती है। दुरूहताओं से सप्रयास जूझना, इनके संबंध में मानवश्रेष्ठों की समझ को अंदर से मथता है और प्राप्त संगतियां और निष्कर्ष उसकी समझ का हिस्सा बनते हैं, जिससे कि अंततः उसका व्यवहार निर्देशित होता है।

बिना इस प्रक्रिया के प्राप्त ज्ञान, - जो पहले से प्राप्त अनुकूलित प्रबोधन के साथ अंतर्क्रियाएं तथा अंतर्संबध नहीं पैदा कर पाता, इसका स्वाभाविक विकास नहीं कर पाता - आंतरिक मानसिक जगत के लिए सिर्फ़ सूचनाओं का जंजाल बनता है (जिन्हें स्मृति कई बार, अक्सर भुला भी देती है), वह समझ और व्यवहार का हिस्सा नहीं बन पाता, मनुष्य का अपना एक सार्विक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा नहीं कर पाता।

आखिर यह अकारण नहीं होता कि न्यूटन जैसा महान वैज्ञानिक अपने जीवन के अंत समय में धार्मिकता की ओर उन्मुख हो जाता है, चोटी के वैज्ञानिक भाववादी मानसिकताओं में उलझे रहते हैं, रॉकेटों, चंद्रयानों को नारियल फोड़ कर अंतरिक्ष में भेजा जाता है, बड़े-बड़े डॉक्टर अलौकिक चमत्कारिकता में विश्वास करते पाये जाते हैं, और कई प्रबुद्ध और समझदार से लगते लोग अपने कार्यक्षेत्र में भी और इससे बाहर की चीज़ों के साथ भी अमूमन अपनी सामंती परंपराओं से प्राप्त मानसिकता औए समझ के साथ सोचते और व्यवहार करते नज़र आते हैं।

कभी अवसर उपलब्ध हुआ और समय मिला तो सामाजिक-वैयक्तिक मनोविज्ञान की इन स्वाभाविक परिणितियों पर विस्तार से चर्चा की जाएगी, फिलहाल आपके मनोजगत में हलचल के लिए इतने ही इशारे पर्याप्त से लग रहे है। आखिर कहा भी तो जाता है कि समझदार को इशारा काफ़ी होता है।

चलिए अपने उसी विषय पर लौटते हैं, और चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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जीवन का क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति

परावर्तन का आगे का विकास जीवन के क्रमविकास से संबद्ध था। जीवन भूतद्रव्य के अस्तित्व तथा उसकी गति का एक विशेष रूप है। इसके बुनियादी भौतिक वाहक हैं प्रोटीन और न्यूक्लीय अम्ल, जो जीवित अंगियों की संतानोत्पत्ति तथा आनुवंशिकता के संचारण और नियंत्रण को सुनिश्चित बनाते हैं। जीवित अंगियों के विशिष्ट लक्षण हैं उपापचयन, वृद्धि, उत्तेज्यता ( क्षोभनशीलता ), स्वपुनरुत्पादन, स्वनियमन और पर्यावरण के प्रति अनुकूलित होने की क्षमता। सरलतम अंगी एककोशिकीय हैं। जीवन का और अधिक परिष्करण लंबी, जटिल, अंतर्विरोधी विकास की प्रक्रिया के जरिए हुआ। इस प्रक्रिया को जैविक क्रमविकास कहते हैं।

क्रमविकास के दौरान जीवित अंगी अधिक जटिल और परिष्कृत बनते गये। चूंकि पर्यावरण तथा जीवन की सारी दशाएं धीरे-धीरे बदलीं, इसलिए अंगियों की वही किस्में जीवित बची रहीं, जो इन परिवर्तनों के लिए सर्वोत्तम ढ़ंग से अनुकूलित थीं। पर्यावरण के प्रति अनुकूलन दो प्रक्रियाओं पर आधारित है: पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होने वाले अनुगुण तथा विशेषताएं ( आनुवंशिकता ) और परिवर्तनशीलता ( उत्परिपर्तन )। विभिन्न कारणों से प्रभावांतर्गत अंगियों की कई विशेषताएं सहसा छलांगनुमा ढ़ंग से परिवर्तित हो जाती हैं। यह परिवर्तन सारी जाति की दृष्टि से सांयोगिक हो सकते हैं। यदि कोई अनेपक्षित परिवर्तन उपयोगी सिद्ध हुआ ( बाह्य जगत के प्रति बेहतर अनुकूलन की क्षमता और आनुवंशिकता के द्वारा संचारण ) तो उस अंगी के वंशज पौधों व जानवरों की अन्य जातियों के साथ अस्तित्व के लिए संघर्ष में अधिक आसानी से जीवित बचे रहे।

जीवित अंगी बाह्य पर्यावरण की क्रिया के ही विषय नहीं हैं, बल्कि स्वयं भी उसको प्रभावित करते हैं। अपने जीवन के क्रियाकलाप के दौरान, पर्यावरण के प्रति अनुकूलित होते समय वे एक निश्चित क्रिया या निश्चित कार्य करते हैं। यह परावर्तन के सिद्धांत के नज़रिए से विशेष महत्वपूर्ण है, क्योंकि जीवित अंगियों में परावर्तन सिर्फ़ उनकी आंतरिक संरचनाओं में प्रतिकूल परिवर्तनों से ही नहीं, बल्कि उनकी जीवन क्रिया से भी संबद्ध हैं।

जीवन संघर्ष के दौरान अंगी अधिक जटिल तथा परिष्कृत होते गये और इसी प्रक्रिया में एककोशिकीय से बहुकोशिकीय अंगियों में संक्रमण हुआ। बहुकोशिकीय अंगियों की कोशिकाओं के समूह और अंग अलग-अलग कार्य करने के लिए विशेषीकृत हो गये। समय बीतने पर तंत्रिका कोशिका नाम की कोशिकाओं के समूह पैदा होते हैं, जो परावर्तन का कार्य करने के लिए विशेषीकृत होते हैं।

जीवित अंगियों में परावर्तन उत्तेजनशीलता के अनुगुण के रूप में प्रकट होता है, यानि पर्यावरण के असर के प्रति अनुक्रिया करने की अंगी की क्षमता के रूप में। इसमें वह एक निश्चित समयांतराल में अपने को इस ढ़ंग से परिवर्तित कर लेता है कि वह उस प्रभाव के प्रति बेहतर ढ़ंग से अनुकूलित होने और अपने को जीवित तथा सुरक्षित रखने में समर्थ हो जाता है। उत्तेजनशीलता का आधार भौतिक जैव-विद्युतीय प्रक्रियाएं होती हैं।

क्रम-विकास की अगली अवस्था में अधिक विकसित प्राणियों ( मत्स्य, कीट, जलस्थलचारी, स्तनपायी ) में एक जटिल बहुशाखीय तंत्रिकातंत्र बन गया। नये विशेषीकरण के फलस्वरूप कुछ तंत्रिका कोशिकाएं पर्यावरण के केवल प्रकाश के प्रभावों, कुछ केवल ध्वनि प्रभावों और कुछ यांत्रिक प्तभावों का ही प्रत्यक्षण करने लगीं। कोशिकाओं का एक विशेष समूह अन्य के बीच संबंध स्थापित करनेवाला मध्यस्थ बन गया यानि तंत्रिका आवेगों को अन्य अंगों तक संचारित करने, पूर्ववर्ती प्रभावों के बारे में सूचना संग्रह ( स्मरण ) करने तथा पर्यावरण से प्राप्त संकेतों का विश्लेषण तथा उनमें फेरबदल करने के विशेष कार्य करने लगा। उच्चतर जानवरों में इन विशेष तंत्रिका कोशिकाओं से एक विशेष अंग की रचना हुई, जो पर्यावरण के सारे परावर्तनों तथा उसके साथ अंतर्क्रिया के नियंत्रण का कार्य करने लगा। यह अंग मस्तिष्क है।

तंत्रिकातंत्र और ख़ासकर मस्तिष्क की उत्पत्ति के साथ परावर्तन एक नये और अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंच गया। बाह्य जगत के वस्तुगत प्रभावों के प्रति अनुक्रिया के रूप में प्रतिकूल संरचनात्मक परिवर्तन ऐसे कार्य संबंधी परिवर्तनों से संपूरित हो गये, जो अंगी को बनाए या सुरक्षित रखने के लिए ही नहीं, बल्कि अपने प्राकृतिक वास-स्थल के प्रति तथा उसके साथ अंतर्क्रिया करने के लिए भी बेहतर अनुकूलित थे।
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इस बार इतना ही।
अगली प्रस्तुतियों में, यथार्थता के निष्क्रिय और सक्रिय परावर्तन पर नज़र ड़ालेंगे, और चेतना की उत्पत्ति की ओर आगे बढ़ेंगे।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय
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