रविवार, 21 जून 2009

टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ खुराक

हे मानव श्रेष्ठों,
समय बडा़ व्यस्त है।

फिलहाल समय द्वारा की गई टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ खुराक दीजिए।
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"कविताएं और कवि भी" पर की गई टिप्पणी के अंश:

.....आपकी यह बात ही कि “ऋत की विराट परिकल्पना पतित होकर ईश्वर की सर्व सुलभ समझ में प्रतिष्ठित हुई और उसके आगे सम्पूर्ण समर्पण ही एक मात्र राह दिखाई गई। जन के लिए यह आवश्यक था लेकिन इससे हानि यह हुई कि संशय और प्रश्न नेपथ्य में चले गए। इसके कारण धीरे धीरे एक असहिष्णु मानस विकसित हुआ।” सभी कुछ कह देती है।

यह प्रक्रिया पूरे विश्व में लगभग एक ही तरह से विकसित हुई, और जाहिर है इसके पीछे आत्मगत या मनोगत कारणों के बजाए शुद्ध भौतिक कारणों का अस्तित्व रहा है।
आप यदि इसे व्यापकता दें तो आपकी यह अवधारणा सभी आदर्शवादी विचारधाराओं को, इस्लाम को भी अपने में समेट लेने की क़ूवत रखती है। अलग से कुछ कहने की प्रासंगिकता समय को महसूस नहीं हुई, इसलिए ही यह गरीब संशय में आ गया।

भारतीय चिंतन परंपरा में भी दोनों धाराएं यानि संशय और विश्वास, समानान्तर रूप से चले हैं ना कि एक ही विकसित होती परंपरा में। जाहिर है कि इस विरोधी विचार्धाराओं में असहिष्णुता ही हो सकती थी, और इतिहास साक्षी है कि संशय की परंपरा का परिस्थितियों के अनुकूलन के कारण बलपूर्वक दमन कर दिया गया। बृहस्पतियों, न्याय-वैशैषिकों, चार्वाकों, सुश्रुतों, योगियों, बुद्धों, धर्मकीर्तियों आदि-आदि को समूल नष्ट कर दिया गया, उनकी संशयवादी विचारधारा को या तो खत्म कर दिया गया या आदर्शवादी मुलम्में में प्रक्षिप्त।

भक्तिकाल तो बहुत बाद की चीज़ है। परंतु आपका इस पर यह कहना सही है कि इसी के बाद आम मानस में ईश्वर के आगे संपूर्ण समर्पण या ईश्वर की वर्तमान अवधारणा का बोलबाला हुआ।

खैर, समय की चिंताएं ऐसे ही व्यापक परिप्रेक्ष्यों के संदर्भ में थी, और जाहिर है आपकी जुंबिश में भी ये ही शुमार हैं।

आप इस पर खुद भी संशय में है, परंतु नग्न सत्यों और ज्वलंत समस्याओं के नाम पर बौद्धिक प्रगतिशीलता को तो दाव पर लगाना या स्थगित कर देना सही कदम नहीं हो सकता ना।

आप ही के शब्दों में आज संशय और ऋत की पुनर्प्रतिष्ठा की आवश्यकता है, जो बस मानव मेधा की सतत प्रगतिशील और विकसित होने की प्रवृत्ति को मान दे और उसका पोषण करे। ना कि इनके खिलाफ़ संघर्ष में खुद बर्बर खिलाफती, तालिबानी,प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी तरीके अपनाने को विवश हो जाए।.....

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"कोलाहल" पर की टिप्पणी का अंश:

......समय का उद्देश्य चिंतन की दिशाओं पर कुछ अलग इशारे करने का था,....

......समय ने कहा था,‘पुरस्कार होंगे तो तिकड़म तो होगी ही । पुरस्कारों की चर्चा करते-करते आप भी आखिरकार पुरस्कार के चक्कर में पड़ गए’।

पहली बात शायद ज्यादा साफ़ है। जब पुरस्कार होंगे, उनके जरिए धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होने के अवसर होंगे, और मानव-श्रेष्ठों के मन में धन और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षाएं होंगी, तो फिर पुरस्कारों को पाने के लिए मानव-श्रेष्ठ हर संभव कोशिश भी करेंगे। तिकडमें भी होंगी, बहुत कुछ होगा और होता भी है, सभी जानते ही हैं। पहले वाक्य से समय का मतलब यही था।

दूसरा वाक्य यदि इस तरह लिखा गया होता जैसा कि इसे होना चाहिए था, और जैसा कि समय का आशय था, "पुरस्कारों की चर्चा करते-करते आप भी आखिरकार एक और पुरस्कार की स्थापना की चर्चा के चक्कर में पड़ गए." तो शायद ज्यादा ठीक होता।

समय यही कहना चाहता था कि जब आप पुरस्कारों के पीछे की तिकडमों को समझते हैं, तो फिर लेख के अंत में एक और पुरस्कार स्थापित करने की चर्चा क्यूं कर करने लगे। क्योंकि समय को लगता है, इसका भी वही हश्र होने की अधिक संभावनाएं है और इसके पीछे की सोच को समय ने पहले वाक्य में रख ही दिया था।

आपने इसके बाद के वाक्य की चर्चा नहीं की, और वही समय की समझ के अनुसार ज्यादा महत्वपूर्ण था। समय आपके और पाठकों के चिंतन में इस दिशा को भी शामिल करवाना चाह रहा था, और इसीलिए इसका जिक्र पुनः कर रहा है।

समय ने कहा था:
"लेखन के उद्देश्यों पर ही दोबारा विचार करना होगा।"

यहां समय अपना आशय स्पष्ट कर देना चाहता है।

लेखकों को यह भी विचार दोबारा से करना होगा (जो अब तक नहीं कर पाएं है, या इस पर कुछ और विचार रखते हैं) कि आखिरकार लेखन का उद्देश्य क्या है, लेखन के वास्तविक सरोकार क्या हैं? बहुत से मानव-श्रेष्ठ लेखकों ने इस पर अपने विचारों को लिख छोडा है, उनसे गुजरना चाहिए।

क्या लेखन का उद्देश्य स्वान्तसुखाय है? क्या यह केवल व्यक्तिगत मनोविलास का माध्यम है, और आत्मसंतुष्टि इसका लक्ष्य? क्या सिर्फ़ यह अहम की तुष्टी, व्यक्तिगत महत्तवाकांक्षाओं की पूर्ति, सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का जरिया भर है?

या लेखन के उद्देश्यों को इनका अतिक्रमण नहीं करना चाहिए? क्या इसे सामाजिक सरोकारों से नहीं जुडना चाहिए? क्या सामाजिक चेतना की बेहतरी की चिंताएं इसमें शामिल नहीं होनी चाहिएं? क्या तार्किक और वैज्ञानिक सोच को आम करने की जिम्मेदारी इसमें शामिल नहीं होनी चाहिए? क्या अपनी बेहतरी के लिए चिंतित और संघर्षरत आमजन का पक्षपोषण इसमें नहीं झलकना चाहिए? क्या लेखन की दिशा को एक ऐसे आदर्श समाज की स्थापना, जिसमें समता और भाईचारा हो, जिसमें किसी भी मनुष्य का किसी भी तरह का शोषण संभव ना हो, जिसमें सभी की खुशहाली हो, हेतु प्रेरणास्रोत नहीं होना चाहिए?

और क्या लेखन के मूल में यही वास्तविक चिंताएं नहीं होनी चाहिएं?

और अगर ये चिंताए वाकई में लेखक के लेखन के मूल में हैं, तो जाहिर है, पुरस्कारों-सम्मानों का कोई विशेष मतलब नहीं रह जाता। फिर लेखक, अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए अपने इन्हीं आदर्शों और उनकी प्राप्ति को ही अपनी कसौटी बनाता है।

बस, समय का उद्देश्य यही कहना था।.....

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"अनवरत" पर एक प्रतिटिप्पणी :

........मानवजाति के अभी तक के ज्ञान के अनुसार इसको ऐसे कहा जाना कि विचार मस्तिष्क का आधार पाते है, पूरा सच नहीं है। इसके कारण विचारों की एक स्वतंत्र वस्तुगतता का बोध होता है जो कि मस्तिष्क पर अवलंबित है।
इसको ऐसे कहा जाना चाहिए कि वस्तुतः विचार मस्तिष्क का प्रकार्य है, उसके क्रियाकलापों का उत्पाद है। और इसके लिए आधार सामग्री उसे ऐन्द्रिक संवेदनों के जरिए मिलती है।

जाहिर है विचार अचानक आसमान से नहीं टपकते, वे किसी भी मनुष्य की प्रकृति और समाज के साथ के अंतर्संबंधों एवं अंतर्क्रियाओं के स्तर और विकास की प्रक्रियाओं में पैदा होते हैं, आकार लेते हैं।

इसीलिए आपका यह कहना सही है कि वस्तुगत जगत के बोध का स्तर विचारों का विकास करता है, उन्हें परिवर्तित या परिवर्धित करता है।

नये विचार भी इसी प्रक्रिया से जन्म लेते हैं, वे भी किसी आधारहीन कल्पना से अचानक पैदा नहीं होते। हर नयी समस्या वैचारिक जगत में अवरोध पैदा करती है और मनुष्य अपने पूर्व के संज्ञानों के आधार पर उन्हें विश्लेषित कर उनके हल की संभावनाओं की परिकल्पनाएं करता है, जाहिर है नये विचार करता है।

रथ की संकल्पना या विचार का जन्म, पहिए की वस्तुगतता के बिना नहीं हो सकता। पक्षियों की उडानों के वस्तुगतता के बगैर वायुयान के विचार की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। बिना सोलिड स्टेट इलेक्ट्रोनिक्स के विकास के कंप्यूटर का नया विचार पैदा नहीं हो सकता था।

नये विचार, विचारों की एक सतत विकास की प्रक्रिया से ही व्युत्पन्न होते हैं, जिनके की पीछे वस्तुगत जगत के बोध और संज्ञान की अंतर्क्रियाएं होती हैं।

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तो हे मानवश्रेष्ठों,
बौद्धिक प्रगतिशीलता, लेखन के सरोकार और विचार पर आपको इनमें से कुछ बौद्धिक मसाला जरूर मिला होगा, जो कि शायद आपके विचारों को उद्वेलित कर पाए।

समय को तो मानवजाति द्वारा समेटा गया यह ज्ञान बहुत उद्वेलित करता है।

सामान्य तौर पर समय फिर हाज़िर होगा।

समय

8 टिप्पणियां:

Himanshu Pandey ने कहा…

इस प्रकार की अर्थ-गर्भित, सरोकार-युक्त, गंभीर टिप्पणियाँ विरल हैं इस ब्लॉग-जगत में । तोष उभर आया इन्हें पढ़कर । आभार ।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

महत्वपूर्ण टिप्पणियों को इस तरह संजोना भी महत्वपूर्ण है।

Alpana Verma ने कहा…

anoothi post!

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बढिया पोस्ट!!

संदीप ने कहा…

लेखन के उद्देश्‍यों के बारे में उठाए गए आपके प्रश्‍नों से सहमति।

Akanksha Yadav ने कहा…

आप लिख ही नहीं रहें हैं, सशक्त लिख रहे हैं. आपकी हर पोस्ट नए जज्बे के साथ पाठकों का स्वागत कर रही है...यही क्रम बनायें रखें...बधाई !!
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"शब्द-शिखर" पर देखें- "सावन के बहाने कजरी के बोल"...और आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाएं !!

Pushpa Bajaj ने कहा…

apke adhyatmik knoeledge ki to jitni tarif kare kam hai.
bahut acha.

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

यह आलेख बहुत कुछ पढ़वा गया। अपने साथ अन्य कई को भी।
कोलाहल पर आपके लेखन से संबंधित सवाल कि क्या इसीलिए लेखन हो, जिसमें बहुत सी बातें अपनी कहीं, वह जँची।

अनवरत पर की बात उतनी समझ में नहीं आई। आपकी नहीं अन्य लोगों कि इसलिए वहाँ टिप्पणी करके कुछ सवाल पूछ लिए हैं।

कविता विहंगम पर ज्यादा सवाल पूछना है।
बालसुब्रमण्यम जी की बात
"मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार, ये सब मानव समाज के विकास की मंजिलें हैं, और इनमें बुरा या अच्छा कुछ भी नहीं है। पूंजीवादी की भी प्रगतिशील भूमिका होती है - सामंतवाद का खात्मा करना। सामंतवाद के खात्मे के बाद ही पूंजीवाद स्थापित हो सकता है। पूंजीवाद के स्थापित होते ही सामंतवादी मू्ल्य, धर्म, जाति आदि की अवधारणाएं पुरानी पड़ जाती है, और उनके स्थान आ जाते हैं, नेशन, जिसे डा. शर्मा ने जाति नाम दिया है, की अवधारण सामने आती है। यह एक प्रगतिशील बात है।

इसलिए पूंजीवादी एजेंट होना सामंतवाद के ढांचे को ढहाने के परिप्रेक्ष्य में एक गौरवमय बात मानी जाएगी।

भक्ति आंदोलन का यही महत्व है।"

पर थोड़ा विस्तार में जाने की कृपा करें और बताएँ कि इसमें गलत क्या है?

गिरिजेश जी - "आर्य! एक साष्टांग अनुरोध है - अपने ब्लॉग पर 'राष्ट्र' यानि 'नेशन' पर कुछ लिखो न । संघियों ने 'राष्ट्र राष्ट्र' कह परेशान कर रखा है ।" पर मेरी भी सहमति है, मैं स्वयं राष्ट्र की बात करता हूँ और मेरी बात स्पष्ट समझने के लिए http://hindibhojpuri.blogspot.com/2011/06/blog-post_18.html देखें। मैं मानता हूँ कि अभी इस अवधारणा की सख्त आवशयकता है वरना पूँजीवादी साम्राज्यवाद बढ़ेगा और तेजी से बढ़ रहा है इसलिए इसकी आवश्यकता है।

क्या आप मानते हैं कि भारतीय मस्तिष्क पहले ही इतना विकसित था? आखिर नास्तिक दर्शन भी भारत में ही पहले पैदा हुआ था, क्यों? भारत पुराने देशों में से है और जीवित भी है, वजह क्या है? जवाब मेल से देने का कष्ट करेंगे।

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