शनिवार, 15 जनवरी 2011

संप्रेषण की अवधारणा

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने मनुष्य की सक्रियता के मुख्य प्ररूप और उनके विकास के अंतर्गत सक्रियता के प्रमुख रूप श्रम पर विचार किया था, इस बार हम संप्रेषण की अवधारणा पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संप्रेषण की अवधारणा

संप्रेषण का जटिल स्वरूप

परिवेशी विश्व के साथ लोगों की अन्योन्यक्रिया उन वस्तुपरक संबंधों के दायरे में विकसित होती है, जो लोगों के बीच उनके सामाजिक जीवन में और मुख्यतः उनकी उत्पादन-सक्रियता के दौरान बनते हैं। लोगों के किसी भी यथार्थ समूह में वस्तुपरक संबंधों, जैसे निर्भरता, अधीनता, सहकार, परस्पर साहायता, आदि के संबंधों का पैदा होना अनिवार्य है। समूह के सदस्यों के अंतर्वैयक्तिक संबंधों व सहकार के अध्ययन का मुख्य उपाय विभिन्न सामाजिक कारकों और दत्त समूह के सदस्यों की अन्योन्यक्रिया का गहराई में विश्लेषण करना है। लोगों के वास्तविक इरादों और भावनाओं का अनुमान उनके कार्यों से ही लगाया जा सकता है

किसी भी तरह के उत्पादन के लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता होती है। उत्पादन करने के लिए लोगों का एकजुट होना आवश्यक है। फिर भी कोई भी समुदाय तब तक सफल संयुक्त कार्य नहीं कर सकता, जब तक इस कार्य में भाग लेने वालों के बीच संपर्क न हो, जब तक उनके बीच पर्याप्त समझ न हो। संयुक्त सक्रियता के लिए आपस में संप्रेषण के संबंध क़ायम करना आवश्यक है। संप्रेषण को यों परिभाषित किया जा सकता है : संप्रेषण लोगों के बीच संपर्क स्थापित व विकसित करने की एक जटिल प्रक्रिया है, जिसकी जड़ें संयुक्त रूप से काम करने की आवश्यकता में होती हैं

संप्रेषण में सयुक्त सक्रियता में भाग लेनेवालों के बीच जानकारी का आदान-प्रदान शामिल रहता है ( प्रक्रिया का संसूचनात्मक पहलू )। अपने परस्पर संपर्क में लोग संप्रेषण के एक प्रमुख साधन के तौर पर भाषा का सहारा लेते हैं। संप्रेषण का दूसरा पहलू संयुक्त कार्यकलाप में भाग लेनेवालों की अन्योन्यक्रिया, यानि शब्दों ही नही, अपितु क्रियाओं का भी आदान-प्रदान है। जब आदमी कोई चीज़ खरीदता है तो वह ( ग्राहक ) औए विक्रेता, दोनों आपस में कोई शब्द कहे बिना भी संप्रेषण करते हैं : ग्राहक पैसे देता है और विक्रेता उसे माल थमाता है और यदि कुछ पैसे वापस करने हैं तो उन्हें वापस करता है।

संप्रेषण का तीसरा पहलू अंतर्वैयक्तिक समझ है। उदाहरण के लिए, बहुत कुछ इसपर निर्भर करता है कि संप्रेषण में भाग लेनेवाला कोई पक्ष दूसरे पक्ष को भरोसेमंद, चतुर और जानकार व्यक्ति मानता है या उसके बारे में बुरी राय रखता है तथा उसे भोंदू व बेवक़ूफ़ समझता है। इस तरह संप्रेषण की एक ही प्रक्रिया में हम जैसे कि तीन पहलू पाते हैं : संसूचनात्मक ( जानकारी का विनिमय ), अन्योन्यक्रियात्मक ( प्रक्रिया में भाग लेनेवालों की संयुक्त सक्रियता ) और प्रत्यक्षात्मक ( एक दूसरे के बारे में धारणा )। इन तीन पहलुओं की समष्टि के रूप में देखे जाने पर संप्रेषण संयुक्त सक्रियता के संगठन और उसके सहभागियों के बीच संबंधों की स्थापना के एक साधन के रूप में सामने आता है।

संप्रेषण और सक्रियता की एकता

संप्रेषण और संयुक्त सक्रियता के बीच घनिष्ठ संबंध स्वतः स्पष्ट है। फिर भी प्रश्न उठता है कि क्या संप्रेषण संयुक्त सक्रियता का घटक है या दोनों समानतः स्वतंत्र प्रक्रियाएं हैं? संयुक्त सक्रियता में व्यक्ति को अनिवार्यतः अन्य लोगों से मिलना और उनसे संप्रेषण करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, वह संपर्क बनाने, परस्पर समझ के लिए प्रयत्न करने, आवश्यक सूचना पाने तथा बदले में सूचना देने, आदि के लिए विवश होता है। यहां संप्रेषण सक्रियता के अंग, उसके महत्त्वपूर्ण सूचनात्मक पहलू और पहले प्रकार के संप्रेषण ( संप्रेषण - १ ) के रूप में सामने आता है।

किंतु सक्रियता की प्रक्रिया में, जिसमें संप्रेषण-१ शामिल है, कोई वस्तु बना लेने ( कोई औजार बनाना, विचार प्रकट करना, परिकलन करना, मशीन की मरम्मत करना, आदि ) के बाद मनुष्य वहीं पर नहीं रुक जाता : उसने जो वस्तु बनाई है, उसके जरिए वह अपने को, अपनी विशेषताओं को और अपने व्यक्तित्व को दूसरे लोगों तक पहुंचाता है। मनुष्य द्वारा सृजित कोई भी वस्तु ( घर, कविता, मशीनी पुरज़ा, पुस्तक, गीत, लगाया हुआ वृक्ष, आदि ) एक ओर सक्रियता का विषय होती है और, दूसरी ओर, एक ऐसा साधन कि जिससे मनुष्य सामाजिक जीवन में अपनी हैसियत जताता है, क्योंकि यह वस्तु दूसरे लोगों के लिए बनाई गई है। यह वस्तु लोगों के बीच संबंध स्थापित करती है और एक ऐसी साझी वस्तु के उत्पादन के अर्थ में संप्रेषण को जन्म देती है कि जो उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों की समान रूप से है।

परंतु वर्तमान व्यवस्था में, श्रम के फलों के कारण लोगों के बीच साझी वस्तु के उत्पादन के अर्थ में समझे गये संप्रेषण में बाधा पड़ती है। अपने श्रम को किसी वस्तु में साकार बनाकर उत्पादक यह निश्चित नहीं कर सकता कि वह अपने को उनमें सुरक्षित रखेगा, जिनके लिए वह वस्तु बनाई गई थी। क्योंकि उसके श्रम का उत्पाद वह वस्तु, जो उसकी नहीं रह पाती, अब उसके व्यक्तित्व का नहीं, अपितु उस वस्तु के स्वामी के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रकार संप्रेषण, परस्पर समझ और परस्पर आदर में आरंभ से ही विघ्न पड़ता है। आदर्श स्थिति वह होगी, जब व्यक्तित्व को किसी अन्य के आर्थिक हितों के लिए बलिदान नहीं किया जाता और श्रम के उत्पाद उनके होते हैं जो उन्हें पैदा करते हैं।

मनुष्य अपने को मनुष्य में ही जारी रख सकता है, इसी में उसका अमरत्व, उसका सौभाग्य और उसके जीवन की सार्थकता है। जीव-जंतुओं के विपरीत मनुष्य जब अपनी वंश-वृद्धि करता है, तो वह अपने वंशजों के लिए अपने आदर्श, सौंदर्यकांक्षाएं और जो भी उच्च तथा उदात्त है, उसके प्रति प्रतिबद्धता भी छोड़ जाता है। अपने को दूसरे में जारी रखने के रूप में संप्रेषण दूसरे प्रकार का संप्रेषण है, जिसे हम संप्रेषण-२ कह सकते हैं। यदि संप्रेषण-१ संयुक्त सक्रियता का सूचनात्मक पहलू है, तो संप्रेषण-२ सामाजिक दृष्टि से मूल्यवान और व्यक्तिगत दृष्टि से महत्त्वपूर्ण वस्तु के उत्पादन की ओर लक्षित संयुक्त सक्रियता का अन्योन्यक्रियात्मक पहलू है। यहां संबंध उलट जाता है और सक्रियता संप्रेषण की एक आवश्यक पूर्वापेक्षा के रूप में सामने आती है।

इस प्रकार सक्रियता संप्रेषण का एक अंग तथा एक पहलू है और संप्रेषण सक्रियता का एक अंग, एक पहलू है। दोनों ही सूरतों में संप्रेषण तथा सक्रियता परस्पर अविभाज्य हैं



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

2 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

महत्वपूर्ण कड़ी!

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुन्दर ग्यानवर्द्धक आलेख। धन्यवाद।

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