शनिवार, 22 जनवरी 2011

शाब्दिक और अशाब्दिक संप्रेषण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संप्रेषण और भाषा पर विचार किया था, इस बार हम शाब्दिक और अशाब्दिक संप्रेषण पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



शाब्दिक संप्रेषण : वाक्

वाक् ( speech ) शाब्दिक ( verbal ) संप्रेषण, अर्थात भाषा ( language ) की सहायता से संप्रेषण की प्रक्रिया ( process ) है। शाब्दिक संप्रेषण के माध्यम के नाते शब्दों को सामाजिक अनुभव द्वारा निश्चित अर्थ दिये हुए होते हैं। शब्दों को ज़ोर से बोला, मन में दोहराया, कागज़ या किसी और चीज़ पर लिखा जा सकता है। जैसा कि मूक-बधिरों के मामले में होता है, उनका स्थान निश्चित अर्थों से युक्त विशेष इशारे भी ले सकते हैं। वाक् लिखित ( written )  और मौखिक ( oral ), दो प्रकार की होती है और अपनी बारी में मौखिक वाक् को संवादात्मक ( dialogue ) तथा एकालापात्मक ( monologue ) में बांटा जाता है।

मौखिक वाक् का सरलतम रूप संवाद ( dialog ) या बातचीत है, जिसमें दो या अधिक व्यक्ति किन्हीं प्रश्नों पर संयुक्त रूप से परिचर्चा करते हैं। संवादात्मक वाक् में संभाषियों के कथनों, किन्हीं शब्दों अथवा शब्द-समूहों की पुनरावृत्तियों, प्रश्नों, स्पष्टीकरण, केवल संभाषियों द्वारा समझे गये इशारों, विभिन्न सहायक शब्दों, विस्मयादिबोधकों को शामिल किया जाता है। इस वाक् की विशेषताएं काफ़ी हद तक इस बात पर निर्भर होती हैं कि संभाषी एक दूसरे को कितना समझते हैं और उनके बीच कैसे संबंध हैं। अधिकांशतः कोई अध्यापक अपने घर में जिस ढंग से बातचीत करता है, वह कक्षा में उसके बोलने के ढंग से बहुत भिन्न होता है। बातचीत का संवेगात्मक स्तर भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। संभ्रम, आश्चर्य, आह्लाद, भय अथवा क्रोध की अवस्था में आदमी का ना केवल लहज़ा बदल सकता है, बल्कि वह भिन्न क़िस्म के शब्द तथा मुहावरे भी इस्तेमाल करता है।

मौखिक वाक् का दूसरा भेद एकालाप ( monolog ) है, जिसमें एक ही व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों को संबोधित करते हुए बोलता है। यह भाषण, कहानी, रिपोर्ट या ऐसी ही कोई अन्य चीज़ हो सकती है। एकालापात्मक वाक् की संरचना अधिक जटिल होती है और उसमें अधिक विस्तार से विषय का प्रतिपादन, संगति बनाए रखने और व्याकरण तथा तर्क के नियमों का ज़्यादा कड़ाई से पालन करने की अपेक्षा की जाती है। इसके उन्नत रूप व्यक्तित्वविकास के अपेक्षाकृत बाद के चरण में प्रकट होते हैं। ऐसे वयस्क प्रायः मिल जाते हैं, जो आपस में बातचीत तो बड़ी सहजता से कर लेते हैं, किंतु भाषण करने, रिपोर्ट पेश करने आदि में हकलाने लगते हैं। यह आम तौर पर शिक्षक और अभिभावकों के द्वारा उनकी एकालापात्मक वाक् के विकास पर पर्याप्त ध्यान न दिये जाने का परिणाम होती है।

मानवजाति के इतिहास में लिखित वाक् बहुत बाद में जाकर प्रकट हुई। उसकी उत्पत्ति समय और स्थान द्वारा विभाजित लोगों के बीच संप्रेषण की आवश्यकता के कारण हुई। उसने चित्राक्षरों से, यानि एक पूरे विचार अथवा प्रत्यय को व्यक्त करने वाले चित्रों या चित्रलेखों से आधुनिक वर्णमाला तक का, जो थोड़े-से वर्णों या अक्षरों की मदद से हज़ारों शब्द लिखना संभव बना देती है, लंबा रास्ता तय किया है।

लेखन मानवजाति द्वारा संचित अनुभव को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंतरित करने का सर्वाधिक विश्वसनीय तरीक़ा सिद्ध हुआ है, क्योंकि मौखिक वाक् द्वारा इस अनुभव के अंतरण में विकृति ( distortion ) तथा बदलाव का और यहां तक कि पूर्ण विलोपन का भी ख़तरा छिपा हुआ है। लिखने और पढ़ने से, मनुष्य के बौद्धिक क्षितिज के विस्तार में, उनके द्वारा नये ज्ञान के अर्जन ( acquisition ) तथा संप्रेषण में बड़ी मदद मिलती है। लिखित वाक् सटीक शब्दों का प्रयोग करने, तर्क तथा व्याकरण के नियमों को ध्यान में रखने, विषय की गहराई में जाने और विचारों में संगति बनाए रखने के लिए प्रेरित करती है। प्रायः कोई चीज़ लिख लेने से उसे समझ लेना और याद रखना आसान हो जाता है।

अशाब्दिक संप्रेषण

लोगों के बीच संप्रेषण की तुलना तार-संचार से नहीं की जा सकती, जिसमें सिर्फ़ शाब्दिक संदेशों का विनिमय ( exchange ) मात्र होता है। मानव संप्रेषण में अनिवार्यतः उसमें भाग लेने वाले की भावनाएं समाविष्ट रहती हैं। वे एक निश्चित ढ़ंग से संदेशों की विषयवस्तु तथा संप्रेषण के भागीदारों से जुडी होती हैं और शाब्दिक संदेश का अंग बनकर सूचना के विनिमय के एक विशिष्ट पहलू का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिसे अशाब्दिक ( nonverbal ) संप्रेषण कहा जा सकता है। अशाब्दिक संप्रेषण के साधन हैं इशारे, भंगिमाएं, लहजा, विराम, मुद्राएं, हास्य, आंसू, इत्यादि, जो शाब्दिक संप्रेषण के माध्यम शब्दों की अनुपूर्ति और कभी-कभी उनका स्थान भी ले लेनेवाली संकेत पद्धति का काम करते हैं। उदाहरण के लिए, अपने मित्र के साथ घटी दुखद घटना के बारे में जानकर आदमी उससे अपनी सहानुभूति शब्दों के साथ-साथ अशाब्दिक संप्रेषण के संकेतों से भी प्रकट करता है, जैसे चहरे पर विषाद का भाव, नीची आवाज़, गाल हथेली पर टिकाना तथा सिर हिलाना, कंधे पर हाथ रखकर दबाना या थपथपाना, गहरी सांसे लेना, वग़ैरह।

संवेगों की एक विशिष्ट भाषा के तौर पर अशाब्दिक संप्रेषण के साधन भी शब्दों की भाषा के जैसे ही, सामाजिक विकास के उत्पाद होते हैं और अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए बुल्गारियाई आदमी सिर नीचे झटकाकर अपनी असहमति व्यक्त करता है, जबकि भारतीय आदमी के लिए यह सहमति और पुष्टि का संकेत होता है। विभिन्न आयु वर्गों के लोग अशाब्दिक संप्रेषण के विभिन्न तरीक़े इस्तेमाल करते हैं। मसलन, छोटे बच्चे बड़ों से कुछ करवाने या उन्हें अपनी इच्छाएं बताने के लिए रुलाई का सहारा लेते हैं। शाब्दिक संप्रेषण का प्रभाव काफ़ी हद तक संभाषियों की संस्थिति पर भी निर्भर होता है, जैसे कि मुंह जरा-सा पीछे मोड़ कर कुछ कहना प्रापक के प्रति, संप्रेषक के उदासीनता अथवा अवज्ञाभरे ( disobedience ) रवैये का परिचायक होता है।

अशाब्दिक संप्रेषण के साधनों और शाब्दिक संदेशों के उद्देश्यों तथा अंतर्वस्तु ( content ) की परस्पर-अनुरूपता ( congruence ), संप्रेषण की संस्कृति का एक तत्व है। यह परस्पर-अनुरूपता काफ़ी महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि एक ही शब्द, अलग-अलग लहजों के साथ, अलग-अलग अर्थ संप्रेषित कर सकता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

3 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

भाषा जो बोली और लिखी जाती है, क्या अभिव्यक्ति का संपूर्ण माध्यम है? और अन्य शारीरिक संकेत (अभिनय) भाषा के सहायक हैं या केवल अलंकार?

Unknown ने कहा…

आदरणीय,

भाषा संप्रेषण का साधन होती है, और उसे बोलना यानि वाक् इसी भाषा यानि शाब्दिक संप्रेषण की प्रक्रिया है। अशाब्दिक संप्रेषण के साधन जैसे कि आपने कहा है शारीरिक संकेत (अभिनय) बगैरा, इसी शाब्दिक संप्रेषण का अंग बनकर ही उसे और सटीक तथा पुख़्ता करते हैं।

केवल अशाब्दिक संप्रेषण के साधन मनुष्य के कुछ इच्छित भावों या आवश्यकताओं मात्र को दूसरों तक संप्रेषित करने में भले ही सफ़ल रहें परंतु ये उसे संपूर्णता के साथ अभिव्यक्त नहीं कर सकते। इसी तरह कई मामलों में बिना इन अशाब्दिक साधनों के शाब्दिक संप्रेषण को सटीकता के साथ अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। कह सकते हैं कि इनके बीच एक द्वंदात्मक रिश्ता है।

इस तरह से देखा जा सकता है कि अन्य शारीरिक संकेत (अभिनय)कभी भाषा के सहायक के तौर पर भी काम में आते हैं, और कभी-कभी सिर्फ़ अलंकार के रूप में भी संप्रेषण को अलंकारित करते हैं।

इसी तरह जब प्रापक साक्षात सामने नहीं होता तब मनुष्य इसी लिखी-बोली भाषा के जरिए ही अपने आपको संपूर्ण अभिव्यक्त करने की भरसक कोशिश करता ही है।

मुख्य बात परस्पर संप्रेषण और उसकी सटीकता की है, उसके लिए मनुष्य यथासंभव साधनों का प्रयोग करके अपने आपको संपूर्णता के साथ अभिव्यक्त करना चाहता है।

शुक्रिया।

Jivan ने कहा…

बहुत ही अच्छा आलेख है संप्रेषण पर, हालाँकि भाषा अधिक शुद्ध होने की वजह से लेख को समझने में समय लग गया

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