शनिवार, 25 अगस्त 2012

व्यक्तिगत प्रयासों से क्रांति नहीं हुआ करती

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत करने की योजना है। इस बार उनसे सीधी बातचीत शुरू होने से पहले, एक अन्य मानवश्रेष्ठ से हुआ संवाद जिसमें कि उस युवा मानवश्रेष्ठ के बारे में संवाद स्थापित हुआ था, प्रस्तुत किया जा रहा है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



व्यक्तिगत प्रयासों से क्रांति नहीं हुआ करती


हमारे एक छोटे भाई हैं...जिनसे अभी हाल ही में संपर्क हुआ है...एकदम युवा है...भगतसिंह से एकाध साल कम...उर्जा, जज्बे और इस उम्र के रूमान से भरपूर...शायद यही उनकी समस्या भी है...उनके साथ हुई बातचीत के कुछ मुख्य बिंदु आपको संप्रेषित कर रहे हैं...आप कुछ कहें...मार्गदर्शन कर सकते हैं...कुछ सैद्धांतिक पाठ...जैसा कि हमेशा हमें मिलता रहता है...( इस टिप्पणी के साथ उस युवा मानवश्रेष्ठ के मेल-संवाद संलग्न थे )

दिलचस्प। इस तरह के नामुराद अब कम ही दिखाई देते हैं।

यह व्यक्तित्व, अपरिपक्व युवा ही लग रहा है। हालांकि परिपक्वता का सामान्यतयाः उम्र से कोई संबंध नहीं होता, और खासकर अभी के समय में तो कतई नहीं। परिस्थिगत exposure किसी को भी सापेक्षतः अधिक परिपक्व बना सकते हैं। कई लोग तो पूरी उम्र काट कर निबट लेते हैं, और सामान्य परिपक्वता तक भी नहीं पहुंच पाते। पारिवारिक पृष्ठभूमि में उपलब्ध उर्वरता के साथ जिन्हें अद्यतन ज्ञान की उपलब्ता मिल जाती है, वे अपनी उम्र के सापेक्ष ज्यादा मानसिक विकास कर पाते हैं। परिवेश की जटिलता तो अपनी जगह है ही। इस तरह से देखा जाए तो इस युवा मित्र की अपरिपक्वता सापेक्षतः कई प्रोढ़ परिपक्वताओं पर भारी है।

पर फिर भी यह आदर्शवादी रूझान, ठोस पारिस्थितिक वास्तविकताओं के विश्लेषण की सटीकता से अभी महरूम लग रहा है और बचकाना सैद्धांतिकता में उलझा हुआ लग रहा है। सैद्धांतिकता में शुरुआती आधार तो महसूस हो रहा है, क्योंकि उसने ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के जो पसंदगी के नाम लिए हैं, वे सब सामाजिक परिवर्तनों की आकांक्षा के मामले में तो एक हैं, परंतु उनकी वैचारिकी के अंतर्विरोधों को उसकी विश्लेषण क्षमता अलगा नहीं पा रही लगती हैं। उसकी चेतना आदमीयत के मूलभूत आधारों तक तो पहुंच गई है, अब उसे आगे सही दिशा में परवान चढ़ना है, वरना यह अतिरिक्त उत्साह उसकी संभावनाओं को नष्ट भी कर सकता है।

भगतसिंह की परंपरा से उसकी उर्जा जुड़ती दिखाई देती है, अतएव क्या यह ठीक नहीं होगा कि उसे दुनिया को समझने के लिए अभी और सैद्धांतिक, दार्शनिक अध्ययन करना चाहिए, तभी वह वैज्ञानिक नज़रिया विकसित होगा जो दुनिया को समझने की ठोस पूर्वापेक्षाएं विकसित करता है। दुनिया को बदलने की सिर्फ़ आकांक्षा ही पर्याप्त नहीं होती, इस तरह से इतिहास में कई संभावनाएं बिना किसी सार्थकता के बुलबुले की तरह उछलकर नष्ट होती ही रही हैं। इसलिए यह भी समझना पड़ेगा कि बदलाव की प्रक्रिया क्या होती हैं, कैसे परवान चढ़ती हैं और उनमें एक व्यक्ति के नाते किसी की भी भूमिका क्या हो सकती है।

उसे राजनीति और विभिन्न वादों को समझना होगा, उनके अंतर्विरोधों और उनकी ऐतिहासिक भूमिकाओं को समझना होगा, तब जाकर कहीं उनमें से चुनाव का सवाल खड़ा होगा। यह समझना होगा कि कोई भी वाद या राजनैतिक सोच ऐसे ही आसमान से नहीं टपक पड़ते, या व्यक्तिगत चेतनाओं में उतर नहीं आते। वे समाज के ऐतिहासिक क्रम-विकास की अवस्थाओं में तात्कालीन परिस्थितियों की निश्चित अभिव्यक्ति होते हैं। विकास की अवस्थाओं में गतिरोध उत्पन्न होने पर समाज की प्रगतिशील शक्तियों और प्रतिगामी या यथास्थितिवादी शक्तियों के आपसी अंतर्द्वंद और संघर्ष नई संभावनाएं, नये वाद, नई राजनैतिक सोच पैदा करता रहता है। जाहिर है किसी एक वाद और राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था के तहत मनुष्य तभी तक चल सकता है, जब तक कि वह सामाजिक विकास की अग्रगामी अवस्थाओं को तुष्ट करता रह सकता है। विकास की एक निश्चित सी अवस्था में पहुंचने के बाद उत्पादन और सामाजिक विकास के साथ यह प्रयुक्त प्रणाली परिस्थितियां बदलने के कारण लयबद्ध नहीं रह पाती, नई सामाजिक अवस्थाओं और प्रणालीगत आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम नहीं रह जाती और जाहिरा तौर पर ढ़ांचागत आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता पैदा होती है, इसीलिए अवश्यंभावी तौर पर प्रणालियां बदल दी जाती हैं। इसी तरह नये सामाजिक और राजनैतिक ढ़ांचे अस्तित्व में आते हैं। इतिहास यही हमें सिखाता है।

यह बात इसलिए कही गई है कि व्यवस्थागत बदलाव की भी अपनी नियमसंगतियां होती है, कुछ परिस्थितिगत पूर्वापेक्षाएं होती हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि कोई भी, कभी भी, कहीं भी अपनी सुविधानुसार या अपने संयोगों के अनुसार आंदोलन का झंड़ा उठाए और क्रांति करने निकल पड़े। इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि यह हतोत्साहित या निराश करने वाली बात है, या यह कि फिर क्या खाली बैठे रहा जाए और निष्क्रिय रूप से परिस्थितियों का इंतज़ार किया जाए। यह समझना ही होगा कि यह अगर पूरी ईमानदारी और समर्पण के साथ किया जा रहा है तो सिर्फ़ अतिउत्साह और क्रांतिकारी रूमान में अपने आपको बेवज़ह, निरर्थक बलिदान करने की राह है, जिससे कि अक्सर उनके हश्र के उदाहरणों से परिवर्तनकारी धाराओं में गतिरोध ही पैदा होते हैं।

ना वैचारिक, भौतिक तैयारी के युद्ध में उतरजाना बेमानी है, और यह अधिक हास्यास्पद और दुर्भाग्यपूर्ण हो सकता है, जबकि ऐसे हालात हो कि कहीं प्रत्यक्ष युद्ध ही नहीं चलता दिखाई दे रहा हो। भारत में, जहां कि गरीबों, दलितों, महनतकशों, किसानों की हालत चिंताजनक है, फिर भी प्रतिरोधी आंदोलनों और क्षमताओ की प्रभावी धारा अभी नहीं बन पा रही है। उनकी हालत खराब है, अशिक्षा है, भाग्य, भगवान और धर्म की बेड़िया हैं, क्षेत्र और जातिवादी अभिव्यक्तियां हैं, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है, आदि-आदि। नेतृत्वकारी मध्यमवर्गी शक्तियां, उदारवाद के फलों का हिस्सा हड़पने और हड़प सकने के सपनों में उलझी है। उसकी अभी की व्यावहारिक परेशानियों के मद्देनज़र वह सिर्फ़ कुछ सुधारवादी आंदोलनों में अपने आपको सिर्फ़ अभिव्यक्त करके खुश है। अभी यही हो रहा है कि सभी तरह के बदलाव के अभियान, परिस्थितिगत बदलावों की आवश्यकताओं के मद्देनज़र सही भूमिका तलाशने की जगह, खु़द परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलित हो जा रहे है, और परिवर्तनकारी धार को कुंद कर ले रहे है।

इस युवा में काफी दृढ़ता है। व्यक्तित्व में दृढ़ता अत्यन्त जरूरी अवयव है। इससे बगैर अपने आपको, अपने मंतव्यों के हितार्थ साधना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। लेकिन दूसरों की चेतना में सार्थक हलचल और मनोनुकूल सकारात्मकता पैदा करने के महती उद्देश्य से थोड़ी सी नम्यता की भी आवश्यकता होती है। अपने मनोनुकूल लोगों का समूह बन जाना अत्यंत ही आसान कार्य है। हम ज़्यादा कठिन कार्य चुन सकें, किसी अपरिपक्व चेतना में सार्थक हस्तक्षेप कर सकें, अपने आपको अनजानों में विस्तार दे सकें। ऐसा लगे कि हमारे, और हमारे स्वस्थ विचारों के होने का कोई असली मतलब सिद्ध हुआ, ज़िंदगी सिमट कर ना रह गई। यही वे कामनाएं हैं, जिन्हें अपने परिवेश में साकार होते देख पाने का स्वप्न हमारी चेतना में होने चाहिएं।

ये युवा मित्र अभी जैसा कि आपने कहा रूमान में हैं। इसके मनोविज्ञान को हमें समझना चाहिए। मनुष्य, वास्तविकताओं से इसलिए भागता है, क्योंकि ये निश्चित ही सुखद नहीं है। जिनके लिए ये सुखद हैं, वे इन्हें कायम रखना चाहते हैं। वे वस्तुस्थिति को सापेक्षतः ज्यादा बेहतर समझते हैं, इसीलिए भ्रमजालों में फंस सकने और फंसे रहने की परिस्थितियां बनाए रखने में काफ़ी उर्जा का व्यय करते हैं। जिन थोड़े से विद्रोही व्यक्तित्वों को ये उचित नहीं जान पड़ती वे इन्हें तुरंत बदलने के रूमान की तरफ़ सहज आकर्षित होते हैं।

मनुष्य के लिए व्यक्तिगत रूप से सोचें, तो इन वास्तविकताओं में ही रहना और भोगना, उसकी पारिस्थितिक मजबूरी है, पूरा सेट-अप है, इससे वह नहीं भाग सकता। यानि भौतिक स्तर पर जिजीविषा हेतु जूझने और खपने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, यह वस्तुगत सत्य, जीवन ख़ुद सिखा देता है। अब जीवन की वास्तविकताओं से पलायन संभव नहीं है, ये सुखद भी नहीं है, जूझना और खपना जहां नियति है, व्यक्तिगत स्तर पर अपने अस्तित्व के अनुभव और उसके आनंद के अवसर नहीं हैं, अपना होना और उसको बेहतर बनाने और उसके जरिए अपनी बौद्धिक और सामाजिक उपयोगिता साबित कर सकने और सुकून पाने की संभावनाए बड़ी लचर हैं। वह कहां से व्यक्तिगत सुकून लाए? कहां अपनी सामाजिक उपयोगिता तलाशे?

जाहिर है इसीलिए हम कई व्यक्तियों को अपने जीवन से इतर, कुछ ऐसे ही क्रियाकलापों में, सामाजिक गतिविधियों में, सुधार की संभावनाओं में और कुछैकों को आमूलचूल परिवर्तनकारी आकांक्षाओं में अपना अस्तित्व तलाशते पाते हैं। पर हमें समझना होगा कि जो इन क्रियाकलापों और मनोव्यवहार को समझते हैं, अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता महसूस करते हैं उनके लिए निराशा का माहौल तो है ही, इसमें तो कोई शक ही नहीं है, पर यदि निराशा ज्यादा हावी हो रही है, तो इसमें भी शक नहीं कि उनकी वैचारिक स्थिति और समझ पूरी तरह वस्तुगत नहीं हो पाई है, वे अतिआशावादी हैं, वे अपने को इस भाववादी विचार से नहीं उबार पाये हैं कि विचार मात्र से चीज़ों को बदला जा सकता है। परिस्थितियां नियामक और प्राथमिक होती हैं, और इनसे उत्पन्न विचार इनके नियमन की कोशिश करते हैं। यह द्वंद चलता रहता है। जाहिर है कि जीवन परिस्थितियों में बदलाव लाए बिना, वैचारिक उन्नयन की आशा अपने आप में एक बहुत बड़ा भ्रम है।

प्रकृति के अपने विकास के नियम हैं, इसी तरह समाज के विकास के भी अपने नियम हैं। क्रांतियां पहले भी यह होती रही हैं, और आगे भी अवश्यंभावी है। समाज का ढ़ांचा जब उसके विकास को अवरुद्ध करने लगता है, तो समाज स्वयं पुराने ढ़ांचे को तोडकर नये ढ़ांचे का निर्माण करता है जो कि विकास की परिस्थितियों के लिए ज़्यादा मुफ़ीद होता है। इसी को क्रांति कहते हैं। आदिम सामुदायिक समाज से सामंती समाज में, और फिर सामंती समाज से लोकतांत्रिक पूंजीवादी समाज में संक्रमण इसी तरह हुआ है। यह किसी व्यक्ति या विचार पर निर्भर नहीं होती, यह समाज के विकास की परिस्थितियों पर निर्भर होती है, बल्कि व्यक्ति या विचार भी समाज की इन्हीं ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज होते हैं

इसलिए हमारे युवा मित्र को समझना होगा कि वे सिर्फ़ सोच-विचार कर, भावनाओं के आधार पर, किसी सही और सार्थक आंदोलन को जन्म नहीं दिया जा सकता, बिना परिस्थितियों तथा इनके बदलाव की वास्तविक आवश्यकताओं और इसके लिए परिवर्तनकारी शक्तियों के संगठित संघर्षों की श्रृंखलाओं के, अपने व्यक्तिगत प्रयासों से क्रांति नहीं कर सकते, भारत को बदल नहीं सकते। इस रूमान से बाहर आना ही होगा, और बदलाव की प्रक्रिया का समुचित अंग बनना होगा। 

इसलिए यह भी समझना होगा कि फिर हस्तक्षेपों की भूमिका क्या हो सकती है। इन हालातों में जाहिर है कि एक लंबी लड़ाई, लंबे संघर्षों की राह अवश्यंभावी है। इसलिए अपने आपको उसी के अनुरूप तैयार करना होगा। अपने आपको, अपने विचारों को, अपनी उर्जा और पक्षधरता को, बचाए रखना और बनाए रखना महती आवश्यकता है, वरना येन-केन प्रकारेण व्यवस्था सभी को अनुकूलित कर ही लेती है, बहाने हज़ार मिल ही जाते हैं।

तो पहले इस युवा मित्र को खुद को ज़िंदा रखने के आधार तलाशने चाहिए, ऐसे आधार जिनसे अपनी वैचारिकी को बनाए रखा जा सके, अपने आपको और अधिक परिपक्व बनाया जाना चाहिए, अपनी दार्शनिक और राजनैतिक समझ और सोच को पुख़्ता और निष्कर्षात्मक करना चाहिए, एक दिशा और पक्षधरता तय करनी चाहिए, अपने परिवेश के संघर्षों की आग को पहचानना और उनमें भागीदारी करना शुरू करना चाहिए, परिस्थितिगत भूमिकाएं चुननी चाहिए और उनका निर्वाह करना चाहिए, पूरी जिम्मेदारी और समझदारी के साथ।

अपने आपको समाज से विलगाना, जैसा कि युवा मित्र ने अपने परिवार और समाज संबंधी जिक्र किये हैं, व्यक्तिवादिता की तरफ़ ले जाते हैं। समाज से अलग और पृथक किसी व्यक्ति का अस्तित्व नहीं हो सकता। वे जिस भी राह पर चलेंगे, वहां-वहां एक नया परिवार, एक नया समाज अपने चारों तरफ़ बुनते चलेंगे। और उनकी अपेक्षाएं, आवश्यकताएं, अंतर्निर्भरताएं ऐसे कई अनेकों बंधन बनाती चलेंगी। कहां-कहां से भागते रहेंगे, बंधनों से बचकर। ये बंधन नहीं, मनुष्य की जैविक उपस्थिति के अंतर्संबंधित आयाम हैं। इनको, इन्हीं के साथ, अपने उद्देश्यों के लिए चैनलाइज़ करना सीखना होगा।

अब आप जानें, आप ये विचार उन तक किस तरह पहुंचाते हैं। यह रूढ़ और रूखें है, आप ठीक तरह से उनसे संवाद कीजिए। आप उन्हें हमारा मेल दे सकते हैं, जहां यदि वे चाहे तो संवाद स्थापित कर सकते हैं। ताकि यदि कुछ विस्तार से, या बिंदु विशेष पर बात करनी हो तो की जा सके।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

3 टिप्पणियां:

ZEAL ने कहा…

Very impressive .

बेनामी ने कहा…

आपके ब्लॉग से निरंतर सीखने को मिलता रहता है ......

Unknown ने कहा…

sahi bat hai,

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