शनिवार, 27 अप्रैल 2013

परिस्थितियां ही व्यक्ति का निर्माण करती हैं

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



परिस्थितियां ही व्यक्ति का निर्माण करती हैं

एक जिज्ञासा है: ‘जब हम यह मानते हैं कि वस्तुएँ, भौतिक-भौगोलिक-सामाजिक-पारिवारिक आदि वातावरण हमारी सोच बनाते हैं तब हममें जो कमी है, वह तो उन परिस्थितियों की देन है। फिर व्यक्ति दोषी कैसे हुआ?…इस तरह हम स्वयं को जिम्मेदार कैसे मानें?’ यहाँ निवेदन होगा कि इसे यह न समझा जाय कि हम ऐसे तर्कों से या खोजने वाली बातों से खुद को निर्दोष मानना या साबित करना चाहते हैं।...यह सवाल हम सालों से सोचते रहे हैं, अपने को लेकर ही नहीं बहुतों को लेकर।

सही है, कौन कहता है कि कोई भी माने अपने को जिम्मेदार। व्यक्ति परिवेश की उपज है, तो जैसा भी व्यक्ति है, उसके लिए परिवेश ही जिम्मेदार है। मतलब, यदि हमें बेहतर व्यक्ति चाहिए तो एक बेहतर परिवेश की रचना करनी ही होगी।

जिम्मेदारी यहीं से शुरू होती है। जिन्हें यह नहीं पता उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। पर अब जो यह जान गये हैं कि परिवेश को बदले बिना, एक बेहतर परिवेश की रचना किए बगैर दुनिया को बेहतर नहीं बनाया जा सकता, जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। इसी तरह जो अपने व्यवहार, विचारों के उत्स और उनकी गैरवाज़िबता को जान गये हैं, वे अब इसे सही करना, इनसे लड़ने की और इन्हें बदलने की कोशिश नहीं करते, तो यह उनकी गैरजिम्मेदारी ही होगी। यदि थोड़ी सी भी परिस्थितियां उनके साथ हैं, तो उन्हें यह करना ही चाहिए। वे अब परिवेश बगैरा की बात करते हैं तो ये उनकी चालाकी ही समझी जाएगी।

आपकी यह बात कुछ समझ नहीं आई कि वास्तव में आपकी जिज्ञासा क्या है? थोड़ा और खोलिए, थोड़ा और निश्चित कीजिए। फिर से लिखिए।

इसका अर्थ था कि किसी अपराधी को, किसी भी व्यक्ति को हम दोषी कैसे मानें? जब हम यह मानते हैं व्यक्ति स्वयं की नहीं परिवेश की उपज है। जैसे हम कहते हैं कि वह अलगाववादी, पूँजीवादी है। उसे हम कैसे दोष दें जब किसी के निर्माण उसका कोई हाथ ही नहीं। जैसे आपने कहा था धर्म के मामले में व्यक्ति को नहीं स्थितियों को दोषी मानना चाहिए। या फिर जैसे हमारे अन्दर अहंकार है, तो हमारा दोष क्या है? वह तो मैंने नहीं पैदा किया। यह एक महत्वपूर्ण सवाल है।
पहले जो लिखा था उसी को आगे बढ़ाते हैं। पारिवेशिक परिस्थितियां ही व्यक्ति का निर्माण करती हैं। जब हम यह समझ रहे होते हैं तो इसका मतलब यह होता है कि हम उसके व्यक्तित्व के चारित्रिक गुणों के उत्स को समझने का प्रयत्न कर रहे होते हैं ताकि उसकी वस्तुस्थिति को समझा और समझाया जा सके। दूसरा हम उसकी प्रवृत्तियों को सामाजिक कसौटियों पर कसकर यह तय कर रहे होते हैं कि ये ग़लत हैं या सही हैं। यह इसलिए भी कि हम व्यक्तिगत रूप से दोष तय करके और उसे तदअनुसार सज़ा देकर मात्र ही अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं होलें। यह इस वर्तमान व्यवस्था का काम करने का तरीका है। पर वे परिस्थितियां जो इस तरह की प्रवृत्तियां पैदा करती हैं वे अनछुई ही पड़ी रहती है और इस तरह के ही अन्य व्यक्ति पैदा करती रहती हैं। यदि समस्या को मूल से ही समाप्त करना है तो इस मूल यानि वैसी परिस्थितियों को ही ख़त्म करना होगा। यदि किसी की कोई प्रवृत्तियां आक्रामक स्तर पर समाज के लिए खतरनाक हो उठती है और वह सुधार की गुंजाइश से बाहर हो गया है तो उसको विभिन्न तरीकों से प्रतिबंधित भी करना होगा ही। यह व्यक्तिगत से ज़्यादा व्यवस्थागत मामला अधिक है।

व्यक्तिगत तौर पर इसे समझना इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि हम व्यक्तिगत तौर पर अपने व्यवहार को समुचित रूप से व्यवस्थित कर सकें। व्यक्तिगत रूप से दोषारोपण, नफ़रत, द्वेष आदि से मुक्त रहकर अपनी सक्रियता में अधिक विनम्रता, अधिक परिपक्वता और जिम्मेदारी से पेश आना ला सकें और सामने वाले में बदलाव की प्रक्रिया में अपना सकारात्मक योगदान करने के लिए प्रस्तुत हो सकें।

हमें लग रहा है कि आप इस मामले को अपने इस सवाल से ज़्यादा संदर्भित करना चाह रहे हैं कि हमारे अंदर अहंकार है, तो हमारा दोष क्या है, वह हमने तो पैदा नहीं किया? व्यक्तिगत चीज़ों से निपटना थोड़ा सा भिन्न हो उठता है।

कोई व्यक्ति अधिकतर अपनी प्रवृत्तियों की नकारात्मक पहचान से परिचित नहीं होता। यह दूसरे लोग ही आंक रहे होते हैं कि वह स्वार्थी है, अहंकारी है, कंजूस है, क्रोधी है आदि-आदि। हो सकता है लोगों के द्वारा उसका यह आकलन उस तक भी पहुंचता हो। अब चूंकि यह प्रवृत्तियां उसकी परिस्थितियों की उपज़ होती हैं, इसका मतलब यह भी तो है कि उन परिस्थितियों में ये उसके अस्तित्व के लिए आवश्यक भी होती हैं, फलतः व्यक्ति उन्हें सही और बेहद जरूरी मान रहा होता है, इसीलिए उनसे चिपका रहता है, उनके पक्ष में सैद्धांतिक तर्क भी गढ़ रहा होता है।

जैसे कि यह कहना भी कि परिस्थितियों के कारण ही वह ऐसा है, इसमें उसका दोष क्या है? एक ऐसे ही तर्क की तरह है। यदि वह जान गया है कि उसकी परिस्थितिवश पैदा हो गई कुछ प्रवृत्तियां एक बेहतर व्यक्तित्व और सामाजिक कसौटियों के सापेक्ष सही नहीं है, तो उनको बनाए रखने की हर कोशिश ग़लत ही कही जाएंगी यदि उसकी तात्कालिक परिस्थितियों में वह ऐसा कर भी सकता हो। अपने लंबे अनुकूलन से लड़ना मुश्किल भी होता है और कष्टदायक भी। यथास्थिति के अनुसार ढ़लना और उसे बनाए रखना, यथास्थिति को परिवर्तित कर अपने अनुकूल बनाने की प्रक्रिया से हमेशा आसान होता है। अतः जो व्यक्तिगत तौर पर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझते हैं, अपने व्यक्तित्व को अधिक बेहतर बनाना चाहते हैं, उनको तो यह कठिन चुनौतियां स्वीकार करनी ही होंगी। व्यक्तिगत स्तर पर भी और सामाजिक व्यवहार के स्तर पर भी।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

3 टिप्पणियां:

निर्झर'नीर ने कहा…

main to chahta hun dunia ka har insan is blog ko padhe ,,

k.c. maida ने कहा…

कठिन परिस्थीतियां ही सफलता की जननी होती है।

TeckKept ने कहा…

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