शनिवार, 4 जनवरी 2014

द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार यहां विषय-प्रवेश हेतु एक संक्षिप्त भूमिका प्रस्तुत की गई थी, इस बार हम ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर चर्चा शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - १
( a brief history on the concept of dialectics - 1 )

हमारे आस-पास विद्यमान विश्व अविराम बदल रहा है, गतिमान और विकसित हो रहा है। यह बात हमारे दैनिक जीवन से, विज्ञान के जरिए, मानवीय क्रियाकलापों और राजनीतिक संघर्षों से प्रदर्शित होती है। इनमें से कुछ परिवर्तनों की तरफ़ हमारा ध्यान नहीं जाता, जबकि कुछ अन्य जनता के लिए, राज्यों, मनुष्यजाति तथा समग्र प्रकृति के लिए बहुत महत्त्व के होते हैं। असीम ब्रह्मांड अनवरत गतिमान है, ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं, तारे जन्मते हैं और बुझ जाते हैं। हमारा भूमंडल - यह पृथ्वी - भी परिवर्तित हो रहा है : द्वीपों और पर्वतों का उद्‍भव होता है, ज्वालामुखी फटते हैं, भूकंप आते हैं, सागर के तटों और नदियों के किनारों की रूपरेखाएं बदलती हैं और जीव-जंतु व वनस्पतियां भी रूपांतरित हो रही हैं। अपने क्रम-विकास ( evolution ) की लंबी राह में मनुष्य और समाज में, आदिम समूहों ( primitive groups ) से लेकर वर्तमान राजनीतिक व्यवस्थाओं तक, उल्लेखनीय परिवर्तन हो गए हैं।  दुनिया के नक़्शे में भी परिवर्तन हो रहे हैं : जिन देशों पर पहले स्पेनी, फ़्रांसीसी, ब्रिटिश और पुर्तगाली उपनिवेशवादियों का शासन था, वे स्वतंत्र हो कर स्वाधीन राज्य बन गए हैं।

इस दुनिया में जीवित बचे रहने, उसके अनुकूल बन सकने और अपने लक्ष्यों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप इसे बदलनें के लिए मनुष्य को इसकी विविधता का अर्थ जानना और समझाना होता है। ऐसी समस्याओं पर प्राचीन काल के लोग भी दिलचस्पी रखते थे, जैसे विश्व क्या है और इसमें किस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं? क्या विभिन्न वस्तुओं के बीच कोई संयोजन सूत्र है? विश्व गतिमान क्यों हैं और गति का मूल क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए, कई सभ्यताओं के पुरोहितों ने ग्रहों की गति के प्रेक्षण तथा सौर व चंद्र ग्रहणों का वर्णन करने के लिए अनेक वर्ष बिताए। लोग प्रेक्षण और वर्णन ( observation and description ) से चलकर विश्व के गहनतर ज्ञान ( deep knowledge ) की ओर बढ़े - उन्होंने उसका स्पष्टीकरण ( clarification ) देने का प्रयत्न किया। प्राचीन चिंतकों ने महसूस किया कि विश्व में होनेवाली गति की भूमिका को ध्यान में लाए बिना उसे समझना असंभव है। फलतः इस प्रश्न कि ‘क्या गति का अस्तित्व ( existence ) है?’ में एक प्रश्न और आ जुड़ा कि ‘इस गति का कारण ( reason ) क्या है?’ और यह एक और अधिक तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न पेश करने के समकक्ष था। जैसा कि दर्शन में बहुधा होता है, उसकी अनुक्रिया में विभिन्न मत तथा उत्तर सामने आए। इसके फलस्वरूप विश्व को समझने के उपागम की दो विरोधी विधियां बन गईं - द्वंद्ववाद और अधिभूतवाद।

द्वंद्ववाद क्या है

शुरू-शुरू में ‘द्वंदवाद’ ( dialectics ) का तात्पर्य विभिन्न मतों के टकराव के द्वारा सत्य तक पहुंचने के लक्ष्य से वार्तालाप करने की कला से होता था। अफ़लातून  ने द्वंदवादी का वर्णन एक ऐसे व्यक्ति के रूप में किया है, जो प्रश्न पूछना और उत्तर देना जानता है, जो किसी वस्तु या घटना के बारे में हर संभव आपत्तियां उठाने के बाद ही उस वस्तु या घटना की परिभाषा सुझाता है। ऐसे एक महान द्वंदवादी सुकरात  थे, जिन्होंने ऐसी ही जांच-पड़ताल संबंधी वार्तालापों के द्वारा सत्य की खोज में अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया था। ऐसे वार्तालापों के दौरान सुकरात प्रश्न पूछते, उत्तरों का खंड़न करते और अपने विरोधियों के दृष्टिकोणों में अंतर्विरोधों ( contradictions ) का उद्‍घाटन करते थे। वार्तालाप करने, विरोधी मतों की तुलना करके सत्य का पता लगाने, विश्लेषण करने और उनका खंड़न करने की यह विधि द्वंदवाद कहलाती थी। कालांतर में यह कुछ भिन्न अर्थ का द्योतक बन गया।

शुरू में ‘सोफ़िस्ट’ ( वितंडावादी ) का अर्थ ‘प्रज्ञा-वान’ या ‘उस्ताद’ था। जो प्रज्ञानी और वाक्कुशल प्रशिक्षक मामूली वेतन पर विवाद की कला सिखाते थे, उन्हें सोफ़िस्ट कहा जाता था। ये लोग, जो दुनिया के पहले वेतनभोगी अध्यापक थे, अपने शिष्यों को ‘सोचना, बोलना और कर्म करना’ सिखाते थे। किंतु उनका मुख्य उद्देश्य वार्तालाप के समय दूसरे पक्ष पर किसी भी तरीक़े से हावी होना होता था, जिसमें हर प्रकार के छल और धोखाधड़ी भी अनुज्ञेय ( permissible ) थी। वितंडावादियों का विश्वास था कि एक निश्चित लक्ष्य को पाने के लिए कोई भी साधन इस्तेमाल किया जा सकता है। एक वितंडावादी जीतना चाहता है, किसी भी क़ीमत पर अपने को सही सिद्ध करना चाहता है। इस तरह के कई दार्शनिकों ने अनेकों कूटतर्क सोच निकाले थे, जिनके जरिए वे अजीबोगरीब युक्तियां और निष्कर्ष पेश किया करते थे। वितंडावादी के कूटतर्क वास्तविकता ( reality ) को विरूपित ( deform ) करते हैं, यह द्वंदवाद का विरोधी होता है, हालांकि यह बाहरी तौर पर उसका एक रूप ग्रहण करने का प्रयत्न करता है।

एक वितंडावादी से भिन्न द्वंद्ववादी के वार्तालाप का लक्ष्य, तर्कणा की दार्शनिक कला की सहायता से सत्य तक पहुंचना होता है। बताया जाता है कि प्रसिद्ध द्वंद्वात्मक चिंतक सुकरात  ने कहा था : "मैं केवल यह जानता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता किंतु मैं ज्ञानोपार्जन का प्रयास कर रहा हूं।"



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

6 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

जरूरी विषय है। इसे जारी रखें।

आशुतोष कुमार ने कहा…

इस टीप ने प्यास जगाई है . अगले अंशों की प्रतीक्षा रहेगी .

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

सरल सहज भाषा में गंभीर विवेचन !

Vidrohee ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुत। यह बहुत ही रोचक होगा अगर आप प्राचीन भारतीय और चीनी दर्शन सिद्धांतों में उपस्थित समानताएं और अंतर को भी प्रस्तुत करें।

प्रवीण ने कहा…

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अच्छी, हर किसी के जानने योग्य लेखमाला....


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चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

फ़ॉलो करता हूँ.. बहुत कुछ सीखने को मिलेगा... !!

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