रविवार, 30 मार्च 2014

विरोधियों की एकता तथा संघर्ष का नियम - दूसरा भाग

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत विरोधियों की एकता तथा संघर्ष के नियम पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



विरोधियों की एकता तथा संघर्ष का नियम - दूसरा भाग
( पिछली बार से जारी...)

यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि किस तरह के अंतर्विरोध ( contradiction ) विकास का स्रोत ( source ) हो सकते हैं। अंतर्विरोध स्वयं स्थिर नही रहते। घनीभूत, परिवर्तनहीन अंतर्विरोध, यानि जिनमें ‘घनीभूत’ परिवर्तनरहित विरोधी पक्ष ( opposite sides ) समाहित ( contained ) होते हैं, विकास के स्रोत का काम नहीं कर सकते। एक चुंबक के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों के बीच संबंध अपरिवर्तनशील है, जिससे चुंबक के ध्रुव स्वयं किसी नये अनुगुणों ( properties ), काल में अविपर्येय ( irreversible ) और दिशागत विकास को जन्म नहीं देते। परिवर्तनशील, गत्यात्मक ( mobile ) अंतर्विरोधों की बात बिल्कुल अलग है। जैसे कि पहले जीवित अंगियों के उपचयन और अपचयन का उदाहरण दिया गया था। जीवित अंगियों में स्वांगीकरण ( assimilation ) तथा विस्वांगीकरण ( dissimilation ) के बीच अंतर्विरोध लगातार उत्पन्न होते हैं, वर्द्धित होते हैं तथा उनका समाधान होता रहता है। इन विरोधी प्रक्रियाओं के बीच संतुलन गड़बड़ाता रहता है, और अंतर्विरोधों के समाधान के रूप में अविपर्येय परिवर्तन ( irreversible changes ) होते हैं, अंगी का विकास होता है।

चिंतन ( thought ) के विकास में भी ऐसी ही प्रक्रिया देखी जाती है। प्रत्येक वस्तु या परिघटना में असीम अनुगुण, पहलू ( aspects ) आदि होते हैं। उन सबको पूरी तरह से और बिल्कुल सही-सही जानना असंभव है। जब हम किसी वस्तु या परिघटना ( phenomenon ) पर सोच-विचार करते हैं, तो हम पहले एक पहलू का अध्ययन करते हैं, उसका संज्ञान प्राप्त करते हैं और फिर दूसरे का। जो संकल्पनाएं ( concepts ) और विचार इन पहलुओं को परावर्तित ( reflect ), अभिव्यक्त करते हैं, वे हमेशा एक दूसरे के अनुरूप ( correspond ) नहीं होते। इससे वस्तु या परिघटना के बारे में हमारे ज्ञान में कुछ निश्चित अंतर्विरोध उत्पन्न हो जाते हैं। जितना ही ये अंतर्विरोध संचित ( accumulate ) होते जाते हैं, उनका समाधान करने की, उन्हें एकीकृत करने की, एक ही एकल में समेकित करने की जरूरत पैदा होती और बढ़ती जाती है, और अध्ययनशील वस्तु या परिघटना का हमारा ज्ञान उतना ही गहन होता जाता है। इस तरह संज्ञान की प्रक्रिया के अंतर्विरोधों के समाधान के जरिए हम समग्र वस्तु या परिघटना के तथा उसके अलग-अलग पहलुओं व अनुगुणों के बीच नियम-संचालित कडियों के बारे में मूलतः नया ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसी में चिंतन का विकास व्यक्त होता है। इस तरह, विभिन्न संकल्पनाओं और विचारों का टकराव ( clashes ) और उनके बीच विसंगतियों ( discrepancies ) तथा अंतर्विरोधों का समाधान हमारे ज्ञान के विकास का सत्य स्रोत प्रमाणित होता है।

सामाजिक जीवन में भी हम देखते हैं कि उत्पादन व उपभोग जैसे विरोधी पक्षों की पारस्परिक क्रिया के परिणामस्वरूप इन दोनों में और फिर सारे समाज में परिवर्तन होते हैं। समाज की उपभोग की जरूरतें उत्पादन को प्रभावित करती हैं और उसमें परिवर्तन लाती हैं। इन जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उत्पादन तदनुरूप दिशा में विकसित होता है। मिसाल के लिए, उपनिवेशी पराधीनता की अवधि में उत्पादन को मुख्यतः साम्राज्यवादी देशों की आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में लगाया जाता था, परंतु राष्ट्रीय स्वाधीनता की प्राप्ति सारे उत्पादन को राष्ट्रीय विकास की आवश्यकता-पूर्ति की ओर लगाना जरूरी बना देती हैं। आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रयत्न में उत्पादन को बेहतर बनाया जाता है तथा और भी अधिक विकसित किया जाता है और आवश्यकताएं भी तदनुसार परिवर्तित व विकसित होती हैं। बदली हुई आवश्यकताएं उत्पादन के लिए नये कार्य प्रस्तुत कर देती हैं और उसकी अनुक्रिया में उत्पादन में फिर परिवर्तन होते हैं और यह सिलसिला जारी रहता है।

समाज के सारे इतिहास पर विचार करने तथा उसके प्रेरक बलों की बात सोचने पर हम देखते हैं कि युद्धों व क्रांतियों, सांस्कृतिक व आर्थिक संबंधों, औद्योगिक मंदियों व उत्कर्षों के विविधतापूर्ण अंतर्गुथन में विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक समूहों, वर्गों तथा राज्यों का टकराव तथा अनवरत संघर्ष लगातार व्यक्त होता रहता है, जो कभी उभार पर होता है और कभी उतार पर। इस संघर्ष के फलस्वरूप नये सामाजिक और राजनीतिक संबंध बनते हैं, पुराने राज्य विखंडित तथा नये गठित होते हैं और नयी सामाजिक-आर्थिक विरचनाएं ( formations ) जन्म लेती हैं, विकसित होती तथा फलती-फूलती हैं। इसीलिए यह जोर दिया जाता है कि विभिन्न सामाजिक शक्तियों, विशेषतः वर्गों का संघर्ष ( struggle of classes ) इतिहास का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रेरक बल और उसके विकास का वास्तविक स्रोत है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि, विरोधियों के बीच अंतर्क्रिया परिवर्तन और नयी गुणात्मक अवस्था में संक्रमण ( transition ) की ओर ले जाती हैं। इससे यह प्रकट होता है कि अंतर्विरोध ही वस्तुओं और घटनाओं की गति और विकास का स्रोत हैं। दूसरे शब्दों में, विरोधियों का संघर्ष और उनके बीच विद्यमान अंतर्विरोधों की उत्पत्ति, वृद्धि और खास तौर पर उनका समाधान ही किसी भी विकास का, चाहे वह कहीं भी और किसी भी रूप में क्यों न हो, वास्तविक स्रोत है। यहां भी यह ध्यान में रखा जाना महत्त्वपूर्ण है कि विरोधियों का संघर्ष एक दूसरे से भिन्न तथा एक दूसरे की विरोधी किन्हीं भी घटनाओं की नहीं, बल्कि सिर्फ़ ऐसी घटनाओं की अंतर्क्रिया, टकराव, उनके समाधान तथा अंतर्वेधन ( interpenetration ) को अभिव्यक्त करता है जो आवश्यक, आंतरिक, नियम-संचालित संबंधों से परस्पर जुड़ी होती हैं।

इस प्रकार, वस्तुओं और घटनाओं की विशेषता ऐसे विरोधी पहलू हैं, जो परस्पर एकत्व की अवस्था में होते हैं। इसके साथ ही वे महज़ सह-अस्तित्व में ही नहीं होते, बल्कि अनवरत अंतर्विरोध और पारस्परिक संघर्ष की स्थिति में होते हैं। विरोधियों का यही संघर्ष वास्तविकता की आंतरिक विषय-वस्तु, उसके विकास का स्रोत है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

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