शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

अनिवार्यता और संयोग - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा को आगे विस्तार दिया था, इस बार हम उसी चर्चा को नियमानुवर्तिताओं के संदर्भ में और आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग - ३
( necessity and chance ) - 3

अब तक की चर्चा के आधार पर, हम तो यह मान सकते हैं कि घटनाएं केवल सांयोगिक होती हैं और यह कि सब कुछ अनिवार्य, अवश्यंभावी है और यह ही कि कुछ घटनाएं सांयोगिक होती है तथा कुछ अनिवार्य। इन मान्यताओं के समर्थकों का दृढ़ विश्वास है कि हर घटना या तो शत प्रतिशत अनिवार्यता है या शत प्रतिशत संयोग और एक ही घटना में दोनों विलोम ( opposites ) नहीं पाये जा सकते। किंतु वास्तविकता तो यह है कि हर घटना इन विलोमों का संपात या एकत्व होती है। ऐसा क्यों?

प्रेक्षण से हमें पता चलता है कि हर नियम-नियंत्रित क्षेत्र की अलग-अलग घटनाएं एक दूसरे से काफ़ी भिन्न होती हैं। तो यहां पुनरावृत्ति ( recurrence ) कहां हैं? और यदि पुनरावृत्ति नहीं है, तो नियम ( law ) कहां हैं? नियमों का इसके अलावा और कोई महत्त्व नहीं होता कि वे प्रवृत्ति ( trend, tendency ) या औसत को दिखायें। आर्थिक नियमों की ही तरह ही प्रकृति में भी यही बात देखने में आती है। जीवों और वनस्पतियों की लाखों जातियों में यह प्रवृत्ति बार-बार दोहराई जाती है कि जो जातियां अपने को परिवेश के अनुकूल नहीं बना पातीं, वे मर जाती हैं, और जो बना लेती हैं, वे जीवित रहती हैं।

द्वंद्ववाद के नियमों ( laws of dialectics ) के प्रसंग में हम यह बता चुके हैं कि प्रकृति और समाज में पूर्ण, शत प्रतिशत पुनरावृत्ति कभी नहीं होती। कुछ संबंधों की पुनरावृत्ति बेशक और अवश्य होती है, हालांकि वह पूर्ण नहीं, बल्कि स्थूल पुनरावृत्ति ही है। अनिवार्यता इसी में प्रकट होती है। नियम का सार यही है कि किसी अलग घटना के लिए बहुसंख्य संभावनाओं की गुंजाइश छोड़ने के साथ-साथ वह उनकी हद, संभव और असंभव के बीच की सीमा निर्धारित करता है।

उदाहरण के लिए, एक अणु दूसरे अणु से टकराकर उसे जो ऊर्जा अंतरित करता है, उसका मान कुछ भी हो सकता है। किंतु नियम इस ‘कुछ भी’ की सीमा निर्धारित करता है और इस सीमा के बाद असंभाव्यता ( impossibility ) का क्षेत्र आ जाता है। यह असंभव है कोई अणु दूसरे अणु को अपने में निहित ऊर्जा से अधिक ऊर्जा अंतरित करे। अलग-अलग घटनाओं का नियम से विचलन ( deviation ) उस नियम द्वारा निर्धारित सीमाओं में ही होता है। नियम का उल्लंघन ( violation ), नियम के विपरीत घटना असंभव है।

नियम जिन बहुसंख्य घटनाओं का निष्कर्ष ( conclusion ) होता है, उनमें से हर एक घटना इस या उस दिशा में, कम या अधिक मात्रा में नियम से विचलन ही है और उस अर्थ में वह संयोग है, जिसका निस्संदेह सदा कोई न कोई कारण होता है। यह नियम का उल्लंघन नहीं, अपितु उसकी पूर्ति है : संयोग अनिवार्यता की अभिव्यक्ति का एक रूप है। नियम संयोगों के रूप में ही साकार बनता है, वह संयोगों के ‘बिखराव’ की सीमाओं को निर्धारित करता है। किसी नियम को उद्घाटित कर पाना इसीलिए कठिन होता है कि वह अपने विलोम, अर्थात नियम से विचलनों - में ही प्रकट होता है : सार्विक ( universal ), अनिवार्य और आवृत्तिशील संबंध केवल एकाकी, काफ़ी हद तक दोहराई न जानेवाली, सांयोगिक घटनाओं में प्रकट होता है। ऐसे कोई तथ्य नहीं हैं, जो या तो मात्र सांयोगिक हों, या मात्र अनिवार्य। हर तथ्य इन दो विलोमों की एकता ( unity of opposites ) दिखाता है।

कभी-कभी कुछ विद्वानों को कहते पाया जाता है कि बहुसंख्यीय पिण्डों ( जैसे घोल में विद्यमान अणुओं और अन्तरिक्षीय किरणों में विद्यमान सूक्ष्मकणों ) के मामले में तो अनिवार्यता वस्तुतः संयोग के रूप में प्रकट होती है और नियम हर पृथक अणु या सूक्ष्मकण का भाग्य अलग रूप से पूर्वनिर्धारित किये बिना, स्थूल या औसत रूप में क्रियान्वित होता है। मगर जहां तक क्लासिक यांत्रिकी ( classic mechanics ) के नियमों से नियंत्रित एकाकी पिंडों का सवाल है, तो उनमें शुद्ध अनिवार्यता ही देखने में आती है, जो संयोग के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। इन विद्वानों के अनुसार, यहां नियम पूर्ण यथातथ्यता और अपरिहार्यता के साथ हर अलग पिण्ड के भाग्य को पूर्वनिर्धारित करते हैं। प्रमाण के तौर पर वे कहते हैं कि पृथ्वी, मंगल और अन्य ग्रह अरबों वर्षों से बिल्कुल एक ही सी गतियों को दोहरा रहे हैं, जिन्हें क्लासिकी यांत्रिकी ने ठीक-ठीक निरुपित कर दिया था।

किंतु ऐसे प्रमाण में विश्वास तब तक ही किया जा सकता था, जब तक माप ( measurement ) अपेक्षाकृत अल्प सटीक यंत्रों की मदद से किये जाते थे। अधिक परिशुद्ध यंत्र इस्तेमाल करके वैज्ञानिकों के पता लगाया है कि अपनी कक्षा पर पृथ्वी का हर चक्कर पूर्ववर्ती चक्कर से भिन्न होता है और इसी तरह उसकी सूर्य के गिर्द परिक्रमाएं भी एक सी नहीं होती।

यह पाया गया है कि हर अलग पिण्ड ( body ) की गति का प्रक्षेप पथ ( trajectory ) लाखों अतिसूक्ष्म हिस्सों से बना हुआ है जिनमें से हर एक, नियम द्वारा निर्धारित पथ से विचलन दिखाता है। ये अतिसूक्ष्म हिस्से नियम के अनुरूप तभी होते हैं, जब उन्हें समष्टि के रूप में लिया जाता है। यह बात सभी एकाकी पिण्डों पर लागू होती है। उनमें से हर एक उसमें अधिक गहरे स्तर में निहित बहुसंख्य तत्वों का योग है। दूसरे शब्दों में, एकाकी पिण्ड वास्तव में अपने अधिक गहरे स्तर पर बहुसंख्यीय पिण्ड ही है और जिस नियम से वह नियंत्रित होता है, वह उस पिण्ड के बहुसंख्य तत्वों के उससे विचलनों का योग है।

इसलिए ही कहा गया था कि सामाजिक विज्ञान का संबंध ( सामान्यतः सारे विज्ञान का भी ) बहुसंख्यीय परिघटनाओं से है, न कि एकाकी घटनाओं से। इस तरह यदि एकाकी और बहुसंख्यीय परिघटनाओं ( phenomenon ) का अंतर सापेक्ष है, तो परिशुद्ध नियमों और केवल औसत, प्रवृत्ति के रूप में ही काम करने वाले नियमों का अंतर भी सापेक्ष ( relative ) है। नियम, हर तरह का नियम संकीर्ण, अपूर्ण और स्थूल होता है

इस प्रश्न को द्वंद्वात्मक ढंग से समझना न केवल विज्ञान, अपितु तकनीक के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस बात को इलेक्ट्रॉनिकी के क्षेत्र में काम करनेवाले विशेष तीक्ष्णता के साथ महसूस करते हैं, क्योंकि वहां अनिवार्यता और संयोग की द्वंद्वात्मक समझ के बिना काम नहीं चल सकता। इलेक्ट्रॉनिकी से इतर क्षेत्रों में भी पुराना यंत्रवादी दृष्टिकोण नयी मशीनें डिज़ायन करने में तभी तक सहायक हो सकता है, जब तक कि वे अपेक्षाकृत कम जटिल हैं और उनसे अधिक ऊंची परिशुद्धता ( accuracy ) की अपेक्षा नहीं की जाती। किंतु इस पुराने दृष्टिकोण के आधार पर कोई ऐसा यंत्र बनाया भी जाता है, जिसमें किसी न किसी बात में एक दूसरे से असंबद्ध बहुत से पुर्जे हैं और जिससे सर्वाधिक परिशुद्ध लेथमशीनों से भी हज़ारों गुना अधिक परिशुद्धता की अपेक्षा की जाती है, तो उसमें किसी छोटे से पुर्जे के ख़राब होने की देर है कि सारा यंत्र ख़तरे में पड़ जायेगा।

यंत्र ( machine ) से जितनी ही अधिक परिशुद्धता और जटिलता की अपेक्षा की जायेगी, वह उतना ही कम विश्वसनीय होगा। उदाहरण के लिए, १९६२ में संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा शुक्र ग्रह की ओर छोड़े गये एक रॉकेट को बीच ही में इसलिए नष्ट कर देना पड़ा कि कंप्यूटर के लिए बनाये गये प्रोग्राम में एक हाइफन - डैश - चिह्न छूट गया था। उल्लेखनीय है कि इस रॉकेट के बनाने पर  १.८ करोड़ डालर ख़र्च हुए थे। इसलिए पिछले कुछ समय से ऐसे यंत्र बनाने पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है, जिनके पुर्जों में नियम से थोड़ा-बहुत विचलन के लिए गुंजाइश हो और यदि कोई एक या कुछ पुर्जे ख़राब भी हो जायें, तो भी शेष पुर्ज़े और इस तरह सारा यंत्र ठीक ढंग से काम करते रहें। अत्यधिक जटिल और अति परिशुद्ध यंत्रों की विश्वसनीयता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि तभी की जा सकती है, जब अनिवार्यता और संयोग के सहसंबंध को द्वंद्वात्मक ढंग से समझा जाये।

ऐसी समझ की आवश्यकता के बारे में २० वीं सदी में क्वाण्टम यांत्रिकी, आनुवंशिकी और साइबरनेटिकी ने इतने अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत कर दिये हैं जो कि अनिवार्यता और संयोग के प्रश्न पर द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण की महत्ता को स्थापित करते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

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