शनिवार, 11 जुलाई 2015

संज्ञान में व्यवहार की भूमिका

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत सत्य की द्वंद्ववादी शिक्षा पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम सत्य के ही संदर्भों में संज्ञान में व्यवहार की भूमिका का समाहार करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान में व्यवहार की भूमिका
( the role of practice in knowing )

यह समझने के बाद कि सत्य क्या है, अब यह पूछा जा सकता कि वस्तुगत सत्य ( objective truth ) को कैसे प्रमाणित किया जाता है, उसे कैसे परखा जाता है और उसे किससे निष्कर्षित ( drawn ) किया जाता है तथा सत्य और असत्य ज्ञान ( knowledge ) के बीच कैसे भेद किया जाता है। हालांकि हम यहां पहले ही इस पर विस्तार से चर्चा कर चुके हैं फिर भी एक बार पुनः संज्ञान में व्यवहार की भूमिका का इस उदेश्य से भी समाहार कर लेते हैं।

मानव क्रियाकलाप का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रूप व्यवहार ( practice ) है। यह हमारे परिवेशीय जगत, प्रकृति और समाज को रूपांतरित ( transform ) करने की ओर लक्षित, संवेदनात्मक भौतिक क्रिया ( sensual material activity ) है और संज्ञान की प्रक्रिया सहित सामाजिक व बौद्धिक क्रियाकलाप के अन्य सारे रूपों ( forms ) का आधार है। फलतः व्यवहार में केवल श्रम ( labour ) की प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि समाज को रूपांतरित करने के जनगण के सारे कार्यकलाप भी शामिल हैं। हम व्यवहार को मुख्यतः इस दृष्टिकोण से तो समझते ही हैं कि यह मानव चिंतन और सामाजिक क्रियाकलाप की क्षमता के विकास तथा परिष्करण ( perfecting ) को कैसे प्रभावित करता है। व्यवहार का दूसरा पहलू ( aspect ) यह है कि संज्ञानात्मक ( cognitive ) क्रियाकलाप में व्यवहार की बुनियादी ( fundamental ) भूमिका होती है, यह व्यवहार ही है जो इस क्रियाकलाप को संभव बनाता है और सत्य ज्ञान को असत्य ज्ञान से विभेदित ( distinguish ) करता है

मनुष्य बाह्य जगत का महज़ प्रेक्षण ( observation ) या चिंतन-मनन ( contemplation ) मात्र नहीं करता, बल्कि अपनी जीवन क्रिया के, और सर्वोपरि श्रम की प्रक्रिया के दौरान उसे परिवर्तित तथा पुनर्निर्मित ( remake ) करता है। इसी प्रक्रिया में, समाज सहित भौतिक जगत के सारे अनुगुणों ( properties ) और संयोजनों ( connections ) का गहनतम ज्ञान प्राप्त होता है। अगर मनुष्य केवल चिंतन-मनन तथा निष्क्रिय प्रेक्षण तक सीमित रहता, तो यह ज्ञान मानव संज्ञान के लिए अलभ्य ( inaccessible ) होता। चूंकि मनुष्य का व्यवहार सतत गतिमान, परिवर्तनशील तथा निरंतर विकासमान है, इसलिए व्यावहारिक क्रियाकलाप में प्राप्त हमारा ज्ञान अधिक जटिल, सटीक ( exact ) और विकसित होता जाता है। फलतः व्यवहार ज्ञान का स्रोत ( source ) मात्र नहीं है, बल्कि उसके विकास और परिष्करण का आधार भी है

पिछली प्रविष्टियों में हम भली-भांति देख समझ चुके हैं कि वस्तुगत जगत के संवेदनात्मक बिंबों ( sense images ) की रचना ख़ुद ही, काफ़ी हद तक, मनुष्य के व्यावहारिक क्रियाकलाप पर और सारी संस्कृति पर निर्भर होती है। इस तरह व्यवहार, संज्ञान की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है और संवेदनात्मक ( sensory ) और अनुभवात्मक ( empirical ) ज्ञान के बनने के स्तरों पर प्रभाव डालने लगता है। संकल्पनाओं ( concepts ) और निर्णयों ( judgments ) की रचना पर तो इसका प्रभाव और भी स्पष्ट हो जाता है। हर मानसिक ( mental ) या बौद्धिक ( intellectual ) क्रिया, भौतिक वस्तुओं के साथ किये जानेवाले क्रियाकलाप यानी व्यवहार के प्रभावांतर्गत ही रूपायित ( shaped ) और विकसित होती है। जब संकल्पनाएं ( अपकर्षण abstraction ) तथा उनमें निहित कथनों ( statements ) की रचना प्रक्रिया पूरी हो जाती है और हमें यह फ़ैसला करना होता है कि कौनसे कथन सत्य हैं और कौनसा असत्य, तो हम फिर व्यवहार का सहारा लेते हैं, जो इस बार हमारे ज्ञान की सत्यता को परखने के साधन, यानी सत्य की कसौटी ( criterion of truth ) के रूप में काम करता है।

व्यवहार, क्रियाकलाप का विशिष्ट मानवीय ( human ) रूप है। जानवरों के सबसे ज़्यादा जटिल क्रियाकलाप भी व्यवहार नहीं माने जा सकते, क्योंकि व्यवहार का मूलाधार श्रम है। यही वजह है कि जानवरों को केवल सतही वस्तु-उन्मुख संयोजनों ( object-oriented connections ) की समझ ही उपलब्ध है, जबकि गहन संयोजनों, यानी वस्तुगत नियमों की समझ उन्हें उपलब्ध नहीं है। हम जानते हैं कि चींटियों का क्रियाकलाप अत्यंत जटिल होता है। ख़ास तौर पर वे अन्य कीटों ( एफ़िड़ों aphides ) की प्रतिरक्षा करती हैं और पालती भी हैं। इन कीटों को कभी-कभी ‘चींटियों की गाय’ भी कहा जाता है। वे इन्हें खिलाती-पिलाती हैं और इनके द्वारा स्रावित ( excreted ) पोषक मधु का उपयोग करती हैं। किंतु करोड़ों वर्षों की इस ‘बिरादरी’ ( community ) में, जिसे जैवसहचारिता ( biocenosis ) कहते हैं, चींटियों ने एफ़िड़ों की एक भी अधिक उत्पादक क़िस्म का विकास नहीं किया।

वहीं मनुष्यों को, जिन्होंने खेतीबाड़ी तथा पशुपालन का काम कुछ ही हज़ार साल पहले शुरू किया था, अपने सक्रिय व्यावहारिक क्रियाकलाप, प्रयत्न एवं त्रुटि ( trial and error ) की विधियों और अनेक बार पुनरावर्तित प्रयोगों ( repeated experiments ) के ज़रिये इस बात पर यक़ीन हो गया कि घरेलू जानवरों और पौधों को प्रभावित किया जा सकता है। उन्होंने फ़सलें उगाने तथा मवेशी पालने के क़ायदों की खोज ( discover ) तथा उनक निरूपण ( formulation ) किया और इस तरह से नितांत नयी नस्लों व क़िस्मों का विकास किया, जो प्राकृतिक जीवन में विद्यमान नहीं हैं। इस प्रकार, कृषि के क्षेत्र में व्यवहार से नये वस्तुगत सत्यों की खोज, उनकी पुष्टि तथा उपयोग हुआ।

ठोस पिंडों तथा तरलों ( मसलन, पानी ) की विशेषताओं को चाहे कितनी ही बार क्यों न देखा गया हो, उनके निष्क्रिय प्रेक्षण से यह कहना संभव नहीं हो सकता था कि पानी में डुबायी हुई वस्तु के भार में क्या परिवर्तन होते हैं। पानी में सोद्देश्य डुबाये हुए या संयोगवश डूबे हुए पिंडों के साथ व्यावहारिक क्रियाकलाप में कई बार वास्ता पड़ने पर काफ़ी समय बाद लोगों ने यह खोज की कि पानी में डूबी वस्तु का भार ठीक उतना ही कम हो जाता है, जितने पनी को वे विस्थापित ( displaced ) करती हैं ( आर्कमिड़ीज़ का नियम )। बाद में इस खोज को जहाज़ निर्माण के व्यवहार में भारी सफलता के साथ इस्तेमाल किया गया।

इस प्रकार, यह एक प्रस्थापना के रूप में कहा जा सकता है कि व्यवहार, प्रकृति और समाज के बारे में ज्ञान का स्रोत, ज्ञान के विकास का आधार और प्राप्त ज्ञान की सत्यता की कसौटी होता है



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

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