शनिवार, 19 सितंबर 2015

विश्लेषण और संश्लेषण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की साम्यानुमान पद्धति पर चर्चा की थी, इस बार हम विश्लेषण और संश्लेषण की पद्धतियों को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



विश्लेषण और संश्लेषण
( Analysis and Synthesis )

जब वैज्ञानिकगण किसी नयी वस्तु का अध्ययन शुरू करते हैं, तो उन्हें उसके बारे में नियमतः अत्यंत सामान्य अमूर्त ( abstract ) ज्ञान होता है, जो उस वस्तु के अलग-अलग अनुगुणों ( properties ) और लक्षणों ( characteristics ) को परावर्तित करता है। यह ज्ञान अध्ययन की हुई घटना या प्रक्रिया को व्यावहारिक कार्यों में लागू करने के लिए तो दूर की बात, उसकी गहरी समझ के लिए भी पर्याप्त नहीं होता।

उनके बारे में सारी की सारी अपेक्षित जानकारी हासिल करने और उन्हें संनियमित ( govern ) करने वाले नियमों को खोजने के लिए प्रदत्त वस्तु को एक विशेष प्रणाली ( system ) के रूप में प्रस्तुत करना जरूरी है। इसके बाद इस प्रणाली को विखंडित करके उसके पृथक-पृथक तत्वों तक के विविध स्तरों की उपप्रणालियों में विस्तारित किया जाता है। एक प्रणाली को उसकी उपप्रणालियों तथा तत्वों में विखंडित करना और उन उपप्रणालियों व तत्वों का क़दम ब क़दम अध्ययन करना विश्लेषण ( analysis ) कहलाता है। दूसरे शब्दों में, विश्लेषण साकल्य ( whole ) का सरलतर घटक अंगों, पक्षों और अनुगुणों में मानसिक विखंडन है, उनका सोद्देश्य और सुव्यवस्थित अध्ययन है। इसके दौरान अध्ययनाधीन वस्तु के अलग-अलग अनुगुनों व लक्षणों, अंशों और तत्वों के बारे में सूचनाएं संचित की जाती है। विषय-वस्तु का उसके घटक अंगों में मानसिक विंखंडन और उनकी जांच अनुसंधानकर्ता को उनकी संपूर्ण विविधता से सर्वाधिक मौलिक, सारभूत और आंतरिक विशेषताओं को छांटने में, उन्हें गौण, सांयोगिक तथा बाह्य विशेषताओं से पृथक करने में समर्थ बना देता है। ऐसी मानसिक संक्रियाओं से उस मूलतः सामान्य विशेषता को प्रकट करना संभव हो जाता है, जो संपूर्ण विविध तत्वों को प्रदत्त वस्तु की गुणात्मक विशेषता ( qualitative determinacy ) में एकीभूत करता है।

परंतु संज्ञानात्मक प्रक्रिया ( cognitive process ) विश्लेषण पर ही समाप्त नहीं हो जाती, क्योंकि इसके दौरान एक प्रकार के साकल्य के रूप में वस्तु की मूल प्रारंभिक संकल्पना ( concept ) वस्तुतः लुप्त हो जाती है। वस्तु के बारे में नया और इस बार नितांत ठोस व समृद्ध ज्ञान प्राप्त करने के लिए संज्ञान की एक नयी अवस्था को अमल में लाना आवश्यक होता है। इस अवस्था को संश्लेषण कहते हैं। संश्लेषण ( synthesis ) विश्लेषण का तार्किक अनुक्रम ( continuation ) है, उसका दूसरा पक्ष है जो विविधता की एकता के रूप में मूर्त ( concrete ) का पुनरुत्पादन करता है। इसमें विश्लेशण के दौरान प्राप्त सारे ज्ञान को कुछ नियमों के अनुसार ऐसे समेकित व परस्पर संयोजित किया जाता है कि वे अध्ययनाधीन वस्तु की उपप्रणालियों तथा तत्वों के अनुगुणों, लक्षणों, संबंधों तथा उनके बीच संयोजनों को सर्वाधिक सटीकता ( exactly ) तथा पूर्णता से परावर्तित करते हैं। दूसरे शब्दों में, संश्लेषण विश्लेषित के अंगों, पक्षों तथा तत्वों के संपर्कों और संबंधों का मानसिक संयोजन तथा पुनरुत्पत्ति है, और साकल्य की एकता में उसका बोध ( comprehension ) है। जब ज्ञान का समेकन या संश्लेषण पूरा हो जाता है, तब हमें वस्तु की एक अखंडित संकल्पना तथा एकीकृत ज्ञान फिर से हासिल होता है।

किंतु, मूल प्रारंभिक ज्ञान के विपरीत यह अपकर्षित या अमूर्त नहीं, बल्कि मूर्त होता है और सूचनाओं का एक ऐसा परिमाण उपलब्ध कराता है, जिससे अध्ययन की गयी वस्तुओं को बदलना, रूपांतरित ( transform ) करना और उन्हें नियोजित ( planned ) उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यावहारिक क्रियाकलाप में इस्तेमाल करना संभव हो जाता है। मूर्त की और अग्रसरण ( advancing ), विचाराधीन वस्तु के संपर्कों और संबंधों की विविधता व पूर्णता में उसकी मानसिक पुनरुत्पत्ति, एक पेचीदा विश्लेषण-संश्लेषणात्मक प्रक्रिया है। विश्लेषण से संश्लेशण में संक्रमण की प्रक्रिया को अनेक बार दोहराया जा सकता है। इस कार्यविधि की प्रत्येक नयी पुनरावृत्ति से मानो ज्ञान का एक नया सर्पिल ( spiral ) प्राप्त होता जाता है। संज्ञान की विधियां दोहरायी जाती हैं, किंतु संज्ञान के द्वंद्वात्मक सर्पिल के एक नये, उच्चतर स्तर पर।

संज्ञान की वैज्ञानिक पद्धतियों के रूप में विश्लेषण और संश्लेषण को पृथक नहीं किया जा सकता है। साकल्य को समझने के लिए विश्लेषण की मदद से उसके घटकों का अध्ययन करना जरूरी है, दूसरी तरफ़, घटकों की भूमिका और कार्य को संश्लेषण के द्वारा साकल्य के संज्ञान से ही समझा जा सकता है। विश्लेषण अनुसंधानकर्ता को संवेदनात्मक-मूर्त से अमूर्त की ओर, और संश्लेषण अमूर्त से मानसिक रूप से मूर्त की तरफ़ बढ़ने में मदद करता है। विश्लेषण और संश्लेषण का उपयोग वैज्ञानिक अनुसंधान तक ही सीमित नहीं है, उन्हें सभी सैद्धांतिक या व्यावहारिक समस्याओं के समाधान में इस्तेमाल किया जाता है।

अध्ययन-सामग्री का विश्लेषण-संश्लेषणात्मक प्रसंस्करण ( processing ) उसके रचनात्मक स्वांगीकरण ( assimilation ) की एक शर्त है। ऐसी सामग्री का विश्लेषण, बोध तथा व्यवस्थापन द्वंद्वात्मक चिंतन को विकसित करता है, जबकि उसे यांत्रिक ढंग से याद करना व्यर्थ होता है : एक सीमा तक उससे किसी व्यक्ति की याददाश्त बेहतर हो सकती है, लेकिन फिर यह बेकार का बोझ ही सिद्ध होता है। सच्चे वैज्ञानिक ज्ञान का तक़ाज़ा है कि विश्लेषण और संश्लेषण को उनकी एकता में इस्तेमाल किया जाये। यदि कोई व्यक्ति अपने को विश्लेषण ही तक सीमित रखता है, तो वह पूर्ण, मूर्त ज्ञान हासिल नहीं कर सकता या विचाराधीन वस्तु, प्रक्रिया अथवा घटना के सार को नहीं समझ सकता। यदि कोई व्यक्ति अपने को केवल सतही संश्लेषण तक ही सीमित रखता है, तो वह संज्ञान को अनिश्चित और बहुधा व्यर्थ प्रयास में परिणत कर देगा।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

1 टिप्पणियां:

बेनामी ने कहा…

आपके अनुसार, ''विज्ञान'' शब्द की क्या व्याख्या हो सकती है ?

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