शनिवार, 5 मार्च 2016

प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद - १

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने प्रकृति और समाज के अंतर्संबंधों पर चर्चा की शुरुआत की थी, इस बार हम प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद का पहला हिस्सा प्रस्तुत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्रकृति और समाज के बारे में एक संवाद - १
( a dialogue about nature and society - 1 )

प्रकृति तथा समाज के अंतर्संबंध तथा अंतर्विरोधों पर विभिन्न दृष्टिकोणों पर प्रकाश डालने और ऐतिहासिक आशावादियों ( historical optimists ) के विचारों की सत्यता को दर्शाने के लिए हम दो प्रतीकात्मक पात्रों, निराशावादी ( pessimist ) और आशावादी ( optimist ) के बीच एक संवाद यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

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निराशावादी - मानवजाति का सारा इतिहास बतलाता है कि समाज के विकास का नतीजा प्रकृति का विनाश है। लोग अंततः पर्यावरण को नष्ट कर देंगे और स्वयं अपने अस्तित्व की दशाओं को ख़त्म कर डालेंगे।

आशावादी - परंतु अतीत में जो कुछ हुआ, भविष्य में भी वैसा ही होना कोई जरूरी नहीं है। लोगों ने विराट अनुभव अर्जित कर लिया है, वे शक्तिशाली उपकरणों तथा वैज्ञानिक ज्ञान का उपयोग करते हैं और उनके ज़रिये वे पर्यावरण के विनाश को रोक सकते हैं।

निराशावादी - बिल्कुल उल्टी बात। तकनीक के पीछे-पीछे प्राकृतिक संसाधनों का क्षयीकरण होता जाता है। ख़ुद देखिये : मोटरकारें, ट्रेक्टर, तापबिजलीघर, विशाल समुद्री जहाज और विमान प्रतिदिन करोड़ों बैरल तेल व तेल उत्पाद फूंक रहे हैं। उर्वरकों, दवाओं, कृत्रिम रेशों, नयी सामग्री, आदि के उत्पादन के लिए रासायनिक कारख़ाने भी तेल का इस्तेमाल कर रहे हैं। यही बात कोयले के बारे में भी कही जा सकती है। किंतु तेल और कोयले के प्राकृतिक भंडार निश्चय ही सीमित हैं। जब वे ख़त्म हो जायेंगे तो लोग क्या करेंगे?

आशावादी - किंतु इन खनिज ईंधनों के नये स्रोतों की खोज भी लगातार हो रही है।

निराशावादी - यह सच तो है, लेकिन देर-सवेर वे भी निःशेष ( exhausted ) हो जायेंगे। यही नहीं, जो यंत्र तेल के उत्पाद जलाते हैं वे साथ ही साथ वायुमंडलीय आक्सीजन भी जलाते जाते है। एक छोटी कार एक घंटे में उतनी ही आक्सीजन नष्ट करती है, जितनी कि एक बड़ा, सदियों पुराना कोई पेड़ वायुमडल में २४ घंटे के अंदर विसर्जित करता है। हम विशाल जंगलों को भी लगातार नष्ट कर रहे हैं और उनकी लकड़ी को तापन, निर्माण तथा काग़ज़ बनाने के लिए इस्तेमाल में ला रहे हैं। इसके अलावा, जंगल की आगों के कारण भी, जो हमारे युग में अधिक से अधिक बार लग रही है, जंगलों का विनाश हो रहा है। और ज़रा सारी फैक्टरियों की चिमनियों की बात सोचिये जो वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड और दूसरे हानिकारक अपशिष्टों ( waste ) का विसर्जन कर रही हैं; इसमें यह बात भी जोड़ दीजिये कि पृथ्वी की सतह का हरित वानस्पतिक आवरण भी विनाशक ढंग से घट गया है और आप यह समझ लीजिये कि हम पर ऊर्जा साधनों के ख़त्म होने का ही नहीं, बल्कि आक्सीजन की भूख का ख़तरा भी मंडरा रहा है।

आशावादी - आप एक बहुत ही निराशावादी तस्वीर पेश कर रहे हैं।

निराशावादी - बात यहीं पर ख़त्म नहीं होती। पृथ्वी की, और ख़ासकर शहरों की तेज़ी से बढ़ती हुई आबादी के लिए मीठा पानी पर्याप्त नहीं है। यही नहीं, शहरी मल-पदार्थों और औद्योगिक अस्वास्थ्यकर अपशिष्टों से नदियों तथा सागरों का पानी दूषित हो रहा है। उनसे मछलियां और जलीय वनस्पति नष्ट हो रही है और प्लैंक्टन ( plankton ) मारे जा रहे हैं, जो समुद्री प्राणियों का खाद्य हैं। इसके अलावा, उर्वर ज़मीन तथा प्राकृतिक भूदृश्यावलियों, आदि का विनाश भी इस तस्वीर में जोड़ देना चाहिए।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

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