रविवार, 24 सितंबर 2017

समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में उत्पादन पद्धति - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार यहां समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में उत्पादन पद्धति पर चर्चा जारी थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


समाज के विकास तथा कार्यात्मकता के आधार के रूप में 
उत्पादन पद्धति - ३
(mode of production as the basis of the development and functioning of society - 3)

आधुनिक पूंजीवादी समाज में उत्पादक शक्तियां ( productive forces ), स्वचालित मशीनों तथा रोबोटों का उपयोग करनेवाली जटिल तकनीकों ( complex technologies ) पर आधारित हैं। उत्पादन की प्रक्रिया में लाखों लोगों को शामिल किया गया है। फलतः उत्पादक शक्तियों का स्वभाव सामाजिक है। परंतु उत्पादन के संबंध, स्वामित्व ( ownership ) के उस निजी ( private ) पूंजीवादी रूप पर आधारित हैं, जो उन उत्पादक शक्तियों के विकास के स्वभाव व स्तर के अनुरूप था, जो पूंजीवाद के विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में बनी थीं। उस काल में उत्पादन के पूंजीवादी संबंध, समाज की उत्पादक शक्तियों के साथ बहुत अधिक पूर्णता के साथ मेल खाते थे और उनके द्रुत विकास के लिए गुंज़ाइश बनाते थे। अब उत्पादन के पूंजीवादी संबंध, उत्पादक शक्तियों के स्वभाव तथा विकास के स्तर से मेल नहीं खाते हैं। यद्यपि ये संबंध तकनीकी प्रगति को नहीं रोक सकते हैं, तथापि वे उसकी गति को बहुत मंद कर देते हैं और उत्पादक शक्तियों के विकास को रोकते हैं। 

फलतः लोगों के संकल्प व इच्छा से अलग, उत्पादक शक्तियों के सामाजिक स्वभाव के अनुरूप ही, उत्पादन के साधनों पर नये, सामूहिक, समाजवादी स्वामित्व की स्थापना करने की एक वस्तुगत ऐतिहासिक आवश्यकता पैदा हो जाती है। इसका तात्पर्य है कि पूंजीवादी शोषण तथा प्रतियोगिता के संबंधों के स्थान पर उत्पादन के नये संबंध, अर्थात पारस्परिक सहायता व मदद के और समाजवादी प्रतिद्वंद्वता व सहयोग के संबंध निश्चय ही वस्तुगत रूप से बनेंगे।

अतः उत्पादक शक्तियों के साथ उत्पादन संबंधों की अनुरूपता के नियम के प्रभावांतर्गत जब नये प्रकार के स्वामित्व की स्थापना होती हैं, तो फलतः स्वामित्व के संबंधों द्वारा निर्धारित अन्य संबंध भी बदलते हैं। ऐसा मुख्यतः भौतिक संपदा के वितरण ( distribution ) के क्षेत्र में होता है। पूंजीवादी समाज में जो बड़ी पूंजी ( capital ) के स्वामी होते हैं, वे सबसे ज़्यादा मुनाफ़े ( profit ) भी प्राप्त करते हैं। अमीर ज़्यादा अमीर और ग़रीब ज़्यादा ग़रीब बनते जाते हैं। इसके विपरीत समाजवादी समाज में भौतिक संपदा ( material wealth ) और सामाजिक कोशों ( social funds ) को, सर्वोपरि रूप से, श्रम के परिमाण ( quantity ) तथा गुणवत्ता ( quality ) के अनुसार वितरित किया जाता है। फलतः उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन के साथ उत्पादन संबंध पूर्णतः भिन्न हो जाते हैं।

लोग ऐसे दूरगामी सामाजिक सुधारों से अवगत हो सकते हैं और उन्हें बढ़ावा दे सकते हैं या वे उन प्रभुत्वशाली वर्गों के हितों की रक्षा करते हुए उनका विरोध भी कर सकते हैं जिन्हें पुराने उत्पादन संबंधों को बनाए रखने की चिंता रहती है। परंतु वे, एक ऐतिहासिक प्रक्रिया ( historical process ) के रूप में उत्पादन के समाजवादी संबंधों की देर-सवेर होने वाली स्थापना को रोक नहीं सकते, क्योंकि यह स्थापना उत्पादक शक्तियों के विकास के वस्तुगत स्वभाव ( objective character ) पर आश्रित होती है। उत्पादन पद्धति की लाक्षणिकता को दर्शानेवाले उत्पादन संबंधों की क़िस्म और, सर्वोपरि, उत्पादन के अन्य सारे संबंधों का निर्धारण करनेवाले स्वामित्व की क़िस्म का ठीक इसी अर्थ में वस्तुगत स्वभाव होता है और वे लोगों के संकल्प और उनकी इच्छाओं पर निर्भर नहीं होते। लोग उत्पादन के विकास के नियमों और सर्वोपरि उत्पादन की शक्तियों के विकास स्तर के साथ अनुरूपता के नियम की संक्रिया को कमोबेश बढ़ावा दे सकते हैं या उसमें रुकावट डाल सकते हैं, लेकिन वे इन नियमों का उच्छेदन ( abolish ) नहीं कर सकते, उन्हें रूपांतरित ( transform ) नहीं कर सकते और उनकी क्रिया को रोक नहीं सकते।

इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना पर सचमुच पारंगति हासिल करने के लिए यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि ऐतिहासिक युग इस बात में एक दूसरे में भिन्न नहीं होते कि लोग क्या-क्या उत्पादित करते हैं, बल्कि इस बात में भिन्न होते हैं कि वे कैसे उत्पादित करते हैं, यानी उत्पादन पद्धति ( mode of production ) में भिन्न होते हैं। लोग केवल भौतिक वस्तुओं का ही उत्पादन नहीं करते, वे धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों का, कलात्मक वस्तुओं, नैतिक मानकों तथा मानदंडों, न्यायिक क़ानूनों, आदि का भी ‘उत्पादन’ करते हैं, यानी उनकी रचना, विकास तथा विस्तारण करते हैं। इनकी रचना बौद्धिक ( intellectual ), आत्मिक उत्पादन के अंतर्गत आती है, लेकिन ये सब अधिकांशतः भौतिक संपदा की उत्पादन पद्धति पर निर्भर हो्ते है। बेशक, कलाकृति व साहित्य की रचना के लिए समुचित भौतिक वस्तुओं तथा दशाओं की ज़रूरत होती है। 

फलतः संपदा की उत्पादन पद्धति में परिवर्तन, आत्मिक उत्पादन में परिवर्तन पर प्रभाव डालता है तथा उत्पादन प्रक्रिया में लोगों के क्रियाकलाप और उसके आधार पर उत्पन्न होने वाले संबंध, सामाजिक क्रियाकलाप तथा सामाजिक संबंधों के अन्य सारे रूपों का निर्धारण करते हैं। इस प्रकार भौतिक उत्पादन पद्धति समाज के विकास तथा कार्यात्मकता का आधार सिद्ध होती है और उसे संचालित करनेवाले वस्तुगत नियम, सामाजिक विकास की अन्य सारी नियमसंगतियों की बुनियाद है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

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