रविवार, 31 दिसंबर 2017

व्यष्टिक, विशेष तथा सामान्य

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ऐतिहासिक भौतिकवाद के बुनियादी उसूल को निरूपित किया था, इस बार हम सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के सिद्धांत के अंतर्गत व्यष्टिक, विशेष तथा सामान्य को समझने का प्रयास करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं का सिद्धांत
(the theory of socio-economic formations)
व्यष्टिक, विशेष तथा सामान्य
(the individual, particular and general)

यह जानने के लिए अपने चारो तरफ़ की वस्तुओं पर एक नज़र डालना काफ़ी है कि वे सब, किसी न किसी तरह, एक दूसरे से भिन्न हैं। यहां तक की बिलियर्ड की दो समरूप गेंदें भी जब सूक्ष्मता से तोली जाती हैं तो उनके बीच एक ग्राम के हजारवें अंश का अंतर होता है। हालांकि क्‍वांटम यांत्रिकी इस बात की पुष्टि करती है कि एकसमान नाम के प्राथमिक कण एक दूसरे से अप्रभेद्य (indistinguishable) होते हैं, फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी प्रदत्त (given) क्षण पर वे भिन्न-भिन्न स्थानों में हो सकते हैं और भिन्न-भिन्न परमाणुओं की रचना कर सकते हैं और परमाणु भिन्न-भिन्न अणुओं के अंश की तथा अणु भिन्न-भिन्न भौतिक वस्तुओं के अंश की। बेशक सर्वोपरि बात यह है कि लोग एक दूसरे से भिन्न होते हैं और ये भिन्नताएं हैं सूरत, चरित्र, कुशलताओं, नियतियों, जातीयता, भाषा, आदि की। संक्षेप में हमारे गिर्द सारी घटनाओं (phenomena) और प्रक्रियाओं (processes) में अनूठे लक्षण (features) और गुण-धर्म (attributes) होते हैं, जो उनमें अंतर्निहित (inherent) होते हैं, यानी उनमें व्यष्टिकता (individuality) होती हैयह अनुगुण (property), प्रवर्ग (category) "व्यष्टिक" (individual) ( या अनन्य unique, एकल single ) में परावर्तित होता है

इसके साथ ही ऐसी पूर्णतः व्यष्टिक घटनाएं तथा प्रक्रियाएं नहीं है, जो अन्य किसी से न मिलती-जुलती हों। मसलन, सारे कौव्वों के पंख काले होते हैं, सारे तरलों में तरलता का एक-सा अनुगुण होता है। लोगों को एक दूसरे से भिन्न बनानेवाले व्यष्टिक अंतरों के बावजूद उनमें एकसमान लक्षण तथा अनुगुण भी होते हैं, यानी ऐसे विशेष लक्षण होते हैं जिनके आधार पर उन्हें कई समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। लोगों को उनकी आयु, लिंग, वर्ग, बालों के रंग, रुधिर-वर्ग, जातीयता, भाषा, आदि के अनुसार विभिन्न समूहों में बांटा जा सकता है। ठीक इसी तरह, रासायनिक तत्वों को उनकी रासायनिक संरचना में अंतर के बावजूद क्षारीय धातुओं, हैलोजनों तथा निष्क्रिय गैसों ( जिनमें से प्रत्येक के अपने विशेष रासायनिक अनुगुण होते हैं ) में विभाजित किया जा सकता है। उनकी नियतियां, रूपरंग तथा ठोस क्रियाकलाप कुछ भी क्यों न हो, सिकंदर तथा जुलियस सीज़र, नेपोलियन व सुवोरोव के व्यक्तित्वों में अनेक एकसमान लक्षण देखें जा सकते हैं : संकल्प, साहस, सैनिक प्रतिभा, संगठन की योग्यता, आदि जिनकी बदौलत उनका महान सेनापति बनना संभव हुआ। 

इस तरह व्यष्टिक या एकल घटनाओं में ऐसे गुण-घर्म और अनुगुण होते हैं जो उन्हें एक दूसरे से विभेदित ही नहीं करते, बल्कि उन्हें एक दूसरे के समान भी बनाते हैं। इस आधार पर हम उन्हें समूहों में रख सकते हैं और समूह के सामूहिक लक्षण निश्चित कर सकते हैं। घटनाओं और प्रक्रियाओं के कुछ समुच्चयों में अंतर्निहित वस्तुगत विशेषताओं (objective traits) तथा अनुगुणों ( properties) को प्रवर्ग "विशेष" (particular) से परावर्तित (reflected) किया जाता है

घटनाओं तथा प्रक्रियाओं के पृथक समूहों में अंतर्निहित अनुगुणों और गुण-धर्मों के साथ ही वस्तुगत यथार्थता (objective reality ) में एक प्रदत्त क़िस्म की सारी घटनाओं तथा प्रक्रियाओं की सार्विक लाक्षणिक विशेषताएं, अनुगुण और संबंध भी होते हैं। उन्हें "सामान्य" (general) या "सार्विक" (common, universal) प्रवर्ग से परावर्तित किया जाता है। सारे रासायनिक तत्वों में सार्विक यह तथ्य है कि उनके परमाणुओं की संरचना में एक परमाणविक नाभिक तथा इलैक्ट्रोनों का खोल होता है। लिंग, भाषा, नस्ल, जाति, आदि के बावजूद सारे लोगों की सामान्य विशेषता यह है कि वे सब तर्कबुद्धिसंपन्न सामाजिक सत्व (rational social beings) हैं, जो औज़ारों के जरिये विविध वस्तुएं बनाने में समर्थ होते हैं। इस तरह, हम एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रवर्ग "व्यष्टिक", "विशेष" और "सामान्य" हमारे परिवेशीय जगत के वस्तुगत अनुगुणों को परावर्तित करते हैं

स्वयं यथार्थता (reality) में सामान्य, विशेष तथा व्यष्टिक के बीच गहरा द्वंद्वात्मक संयोजन (dialectical connections) होता है। सामान्य और विशेष, व्यष्टिक में विद्यमान तथा उसके द्वारा व्यक्त होते हैं और विलोमतः कोई भी व्यष्टिक वस्तु तथा प्रक्रिया में कुछ विशेष और सामान्य विद्यमान होता है। यह कथन प्रकृति, समाज तथा चिंतन में अनुप्रयोज्य (applicable) है। प्रत्येक पौधा तथा जंतु सामान्य जैविक नियमों के अंतर्गत होता है और साथ ही ऐसे विशेष नियमों से भी संनियमित (governed) होता है, जो केवल उसकी प्रजातियों के लिए ही लाक्षणिक होते हैं। इसी प्रकार, प्रत्येक अलग-अलग व्यक्ति चाहे उसका व्यक्तित्व कितना ही मेधापूर्ण क्यों न हो, अपने व्यवहार तथा सामाजिक क्रियाकलाप में एक विशेषता को व्यक्त करता है, जो उसकी जाति, व्यवसाय और श्रम-समष्टि (work collective) की लाक्षणिकता होती है और साथ ही वह उन सामान्य गुणों को भी प्रदर्शित करता है, जो उसकी संस्कृति, उसके ऐतिहासिक युग और सामाजिक वर्ग (class) के लोगों में अंतर्निहित होते हैं। इसके साथ ही साथ सामान्य और विशेष, व्यष्टिक के बग़ैर तथा उससे पृथक रूप में विद्यमान नहीं होते हैं।

सामान्य, विशेष तथा व्यष्टिक के संबंध को स्पष्ट करने तथा यह दर्शाने के बाद कि वह प्रकृति और समाज दोनों पर लागू होता है अब हम सामाजिक विकास के सबसे सामान्य नियमों की चर्चा कर सकते हैं। यह समस्या सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के सिद्धांत से अविभाज्य है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

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