रविवार, 22 जुलाई 2018

व्यष्टिक और सामाजिक चेतना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत कलात्मक चेतना और कला पर चर्चा की थी, इस बार हम व्यष्टिक और सामाजिक चेतना के संबंधो को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



व्यष्टिक और सामाजिक चेतना
( Individual and Social Consciousness )



अभी तक हमने सामाजिक चेतना के विभिन्न रूपों की जांच की। उनका व्यष्टिक चेतना से, यानी व्यक्ति की अपनी चेतना से क्या संबंध है?

समाज व्यक्तियों की समष्टि है। महान कलाकृतियों के सर्जक (creators) अलग-अलग व्यक्ति थे ( शेक्सपियर, पुश्किन, माइकलएंजेलो, रेपिन, पिकासो, रविंद्रनाथ ठाकुर, प्रोकोफ़ियेव, ब्रुकनर, आदि )। विज्ञान की महानतम खोजें तथा विश्व का परावर्तन (reflection) करने वाले सर्वाधिक गहन सिद्धांतों के रचयिता न्यूटन, आइंस्टीन, बोर तथा विनर जैसे लोग भी व्यक्ति थे। हमें व्यष्टिक चेतना की अभिव्यक्तियां (manifestations) विश्व विज्ञान तथा कला में ही नहीं, बल्कि दैनिक जीवन में भी दिखाई पड़ती हैं और वे सब अभिव्यक्तियां भिन्न-भिन्न होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी ही आकांक्षाएं और चिंताएं, जीवन पर अपने ही दृष्टिकोण, विभिन्न समस्याओं व कर्तव्यों, आदि की अपनी ही समझ होती है। संक्षेप में, संसार में जितने लोग हैं, उतनी ही व्यष्टिक नियतियां हैं, जीवन पर उतने ही दृष्टिकोण, लक्ष्य और व्यवहार हैं।

पहली नज़र में ऐसा प्रतीत होगा कि चेतना के व्यष्टिक प्रदर्शनों में लगभग कुछ भी सर्वनिष्ठ (common) नहीं है और कि वे प्रत्येक व्यक्ति के संकल्प (will) तथा उसके जीवन की दशाओं पर निर्भर होते हैं। जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे (१८४४-१९००) ने तो यह दावा तक किया था कि सामाजिक चेतना का कोई अस्तित्व नहीं है, केवल अलग-अलग व्यक्तियों के चिंतन तथा चेतना का अस्तित्व है, क्योंकि उन्होंने यह तर्कणा की कि चेतना सिर के अंदर विकसित होती है और व्यक्तियों के सिर होते हैं परंतु किसी समाज का कोई सिर नहीं होता। यह एक घोर व्यक्तिवादी दृष्टिकोण था। साथ ही, उन पुराने भौतिकवादियों का ख़्याल भी ग़लत था, जिन्होंने व्यष्टिक चेतना को सीधे-सीधे व्यक्तिगत जीवन की दशाओं तथा उसकी अनावर्तनीय (unrepeatable) परिस्थितियों से निगमनित (deduced) किया। फ्रांसीसी भौतिकवादी प्रबोधक हेल्वेतियस (१७१५-१७७१) का विचार था कि व्यक्ति ठीक ऐसी ही परिस्थितियों द्वारा शिक्षित होता है; एक ही परिवार के दो बच्चों का आगे चलकर जीवन पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाने तथा उनके व्यक्तिगत स्वभावो व लक्ष्यों में अंतर होने के लिए बाल्यकालीन भ्रमण के दौरान उनके द्वारा भिन्न रास्तों का अपनाया जाना काफ़ी है।

निस्संदेह, समाज का सिर नहीं होता और जीवन की दशाएं, शिक्षा तथा लालन-पालन की विशिष्टताएं और व्यक्तिगत जीवनवृत्त (personal biography), व्यक्ति की व्यष्टिक चेतना को प्रभावित करते हैं। लेकिन इतना पूछना काफ़ी होगा कि क्या जर्मन फ़ासिस्ट हमलावरों के ख़िलाफ़ सोवियत जनों के संघर्ष को समर्पित शोस्ताकोविच की सातवीं सिंफ़नी की रचना मध्य युग में संभव थी या क्या प्राचीन काल का कोई एक कलाकार रेपिन अथवा पिकासो के जैसे रंगचित्रों का चित्रण कर सकता था, तो यह बात साफ़ हो जायेगी कि इन कृतियों की अंतर्वस्तु प्रदत्त युग, प्रदत्त जाति (nation) तथा प्रदत्त ऐतिहासिक अवधि की विशेषताओं से निर्धारित होती है। इसी प्रकार, सारे अलग-अलग अंतरों के बावजूद १८वीं सदी में किसी ने भी कभी मोटरगाड़ी खरीदने की कोशिश नहीं की। लोगों के व्यवहार के यह सारे अंतर, व्यष्टिक विशेषताओं के बावजूद, एक ओर, वस्तुगत सामाजिक सत्व (objective social being) के द्वारा तथा, दूसरी ओर, इसी के आधार (basis) पर उत्पन्न तथा उसे परावर्तित (reflect) करनेवाली, सामाजिक चेतना से निर्धारित होते हैं

ऐतिहासिक भौतिकवाद (historical materialism) व्यष्टिक चेतना, लक्ष्यों, संकल्प तथा कामनाओं (desires) से इनकार नहीं करता। वह यह मानता है कि उनका गहन अध्ययन करने तथा भौतिकवादी तरीक़े से स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत है। सामाजिक चेतना, वह `सार्विक' (general) है जो प्रदत्त समाज के व्यक्तियों की चेतना में उत्पन्न होता है क्योंकि वे एक निश्चित सामाजिक सत्व की दशाओं में रहते हैं और अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों को उस के संदर्भ में तथा उसके आधार पर निरूपित (formulate) करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की व्यष्टिक चेतना कई कारकों के प्रभावांतर्गत बनती है जिनमें उसका व्यक्तिगत मिज़ाज (temperament), उसकी व्यष्टिक विशेषताएं (peculiarities), लिंग, उम्र, माली हैसियत, पारिवारिक परिस्थितियां, स्थिति, कार्य दशाएं, आदि शामिल हैं। परंतु निर्णायक प्रभाव, निश्चित सामाजिक चेतना तथा अधिरचना (superstructure) के अन्य तत्वों सहित निश्चित सामाजिक सत्व के संदर्भ में निर्मित, सामाजिक परिवेश का होता है।

लोग अपने व्यावहारिक, उत्पादक, घरेलू तथा सामाजिक क्रियाकलाप में दृष्टिकोणों और उत्पादन तथा सामाजिक-राजनीतिक अनुभव का निरंतर विनिमय (exchange) करते हैं। इस विनिमय के दौरान सर्वनिष्ठ और समान दृष्टिकोणों का विकास होता है, एक प्रदत्त समूह या वर्ग के लिए, घटनाओं की समान समझ और मूल्यांकन (evaluation) का तथा समान लक्ष्यों का निरूपण होता है। उनके प्रभावांतर्गत व्यष्टिक लक्ष्य, दृष्टिकोण तथा आवश्यकताएं बनती हैं। इसलिए सामाजिक तथा व्यष्टिक चेतना एक ऐसी अनवरत (constant), जटिल (complex) अंतर्क्रिया (interaction) में होती है, जिसके ज़रिये महान चिंतकों के ही नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक व्यक्तित्व की रचनात्मक उपलब्धियां आत्मिक संस्कृति की समान निधि (treasury) में शामिल की जाती हैं। अतः सामाजिक और व्यष्टिक चेतना को एक दूसरे से पृथक करना तथा इससे भी अधिक उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करना एक बहुत बड़ी अधिभूतवादी (metaphysical) ग़लती है, जो इन घटनाओं के वास्तविक संपर्कों (link) तथा अंतर्क्रिया को गड़बड़ा देती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

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