रविवार, 12 अगस्त 2018

समाजवाद के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता पर चर्चा की थी, इस बार हम समाजवाद के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


समाजवाद के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका में बढ़ती
(Growth of the Role of the Subjective Factor under socialism)

सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता (relative independence) पर विचार करते और इसके विविध रूपों की सक्रियता पर जोर देते समय हमने यह साबित किया कि वे सब सामाजिक यथार्थता (reality) के विविध पक्षों को परावर्तित (reflect) ही नहीं करते, बल्कि उस पर एक सक्रिय प्रतिप्रभाव (active reverse effect) भी डालते हैं। यह प्रभाव विभिन्न प्रकार की प्रगतिशील प्रवृतियों के विकास को बढ़ावा भी दे सकता है और साथ ही उनके वास्तवीकरण (realisation) को रोक भी सकता है। ऐतिहासिक प्रक्रिया में आत्मगत (subjective)’ मानवीय कारक की महत्वपूर्ण भूमिका दोनों ही मामलों में अभिव्यक्त होती है।

यह भूमिका किसमें निहित है? आज मानवीय कारक (human factor) इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया है? समाज का विकास, एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया होते हुए भी अलग-अलग लोगों या पृथक-पृथक सामाजिक समूहों द्वारा अपने लिए तय कुछ निश्चित लक्ष्यों की समझ के साथ हमेशा संबद्ध (connected) होता है। इन उद्देश्यों की उपलब्धि और लक्ष्यों की पूर्ति और उपलब्धि, क्रियाकलाप की पद्धति के चयन तथा लिये गये निर्णय पर निर्भर हैं। यहां दो संभावनाएं विद्यमान हैं।

पहली यह है कि लोग अपने लिए अलभ्य (unattainable) लक्ष्य निश्चित करते हैं, अपने कार्यों का गलत निरूपण करते हैं, कुविचारित फ़ैसले लेते हैं और कार्य पद्धति का ऐसा तरीक़ा छांटते हैं जो प्रदत्त दशाओं, प्रदत्त समय, प्रदत्त स्थान तथा प्रदत्त समाज के लिए अनुपयुक्त (unsuitable) होता है, या इच्छित परिणामों की उपलब्धि के लिए कारगर नहीं होता है। इस प्रकार के फ़ैसले और ऐसी कार्रवाइयां सामाजिक प्रगति को रोक सकती हैं, जीवन के हालतों को बदतर बना सकती हैं और अवांछित (undesirable) तथा कभी-कभी विनाशक (disastrous) परिणामों पर पहुंचा सकती है। यह इस बात का द्योतक भी है कि सामाजिक विकास के ग़लत ढंग से अनुबोधित (understood) नियमसंगतिया तथा वस्तुगत परिस्थितियां लोगों से इस बात का `बदला' लेती हैं कि उन्हें उनकी जानकारी नहीं है, कि उन्होंने उनका अध्ययन नहीं किया और अपने क्रियाकलाप में उन्हें परावर्तित नहीं किया। देर-सवेर ये नियमसंगतिया और उनकी ग़लत समझ के परिणाम उन्हें अपने ग़लत फ़ैसलों को बदलने तथा वस्तुगत यथार्थता के अधिक अनुरूप ज़्यादा सही कार्य पद्धति को खोजने के लिए बाध्य कर देते हैं। पर जब तक ऐसा होता है तब तक ग़लत ढंग से लिये गये फ़ैसलों पर चलने तथा अलभ्य लक्ष्यों का अनुसरण करने वाले लोगों को अपनी ग़लतियों की भारी क़ीमत अदा करनी पड़ती है।

दूसरी संभावना यह है कि लोगों को वस्तुगत नियमितताओं का गहन तथा ठीक अवबोध होता है और वे सामाजिक सत्व की वास्तविक दशओं व प्रवृतियों को समझते हैं। इस कारण से वे वास्तविक, विज्ञानसम्मत लक्ष्यों तथा किये जा सकनेवाले कार्यों को प्रस्तुत करने में समर्थ होते हैं। वे सच्चे फ़ैसले लेने और कार्य के कारगर तथा विश्वसनीय साधनों को काम में लाने में समर्थ होते हैं। बेशक, इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता है कि ऐसी स्थिति में सब कुछ सरल और आसान हो जाएगा तथा लक्ष्य संघर्ष के बिना ही सुलभ्य हो जाएंगे और समुचित कार्रवाई को कठिनाइयों और बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। जीवन की वस्तुगत जटिलता (complexity) और अंतर्विरोधी (contradictory) स्वभाव के कारण तथा इस कारण से कि समाज में लोगों, सामाजिक तथा व्यवसायिक समूहों की बड़ी संख्या और साथ ही अपने-अपने हितों की रक्षा करने वाले विभिन्न संगठन एक ही समय क्रियाशील हैं, इसलिए प्रमुख और समान लक्ष्यों की उपलब्धि में कठिनाइयों और बाधाओं का आना स्वाभाविक है।

परंतु पहली और दूसरी संभावना के बीच मूल अंतर यह है कि दूसरी सूरत में नियोजित (planned) लक्ष्य की तरफ़ गति अधिक तेज़ होती है और ग़लतियां कम होती हैं। ऐसी स्थिति में लोग हमेशा दूसरी ही संभावना को कार्यान्वित क्यों नहीं करते? बात यह है कि वास्तविक समाज में सामान्यतः सामाजिक चेतना, सामाजिक सत्व (social being) के मु्क़ाबले पिछड़ी हुई होती है। वास्तविकता का सही, गहरा और, उससे भी अधिक, वैज्ञानिक बोध हमेशा उपलब्ध होना दूर की बात है, क्योंकि विविध सामाजिक शक्तियां, अर्थात सामाजिक-वर्गीय अंतर्विरोध तथा संघर्ष, विभिन्न पूर्वाग्रह, वैचारिक उसूल, सामाजिक मनोदशाएं तथा भावावेग, सूचना की कमी, आदि चेतना, यानी सामाजिक विकास के आत्मगत कारकों को प्रभावित करती है। सही फ़ैसला लिया जाना तथा लक्ष्यों और वस्तुस्थिति का सच्चा बोध अक्सर नेताओं, राजनीतिक चिंतकों तथा विचारकों के व्यक्तिगत गुणों के कारण बाधित हो जाता है। जिन लोगों पर सामाजिक लक्ष्यों और वैचारिकी का निर्धारण निर्भर होता है, उनमें अगर सही निर्णय लेने में बाधक गुण हों, तो वे अक्सर समुचित लक्ष्यों तथा कार्यों की ग़लत समझ पर जा पहुंचते हैं। यही वजह है कि अंततोगत्वा वस्तुगत कारक ( विकासमान सामाजिक सत्व ) के निर्णायक होने के बावजूद कभी-कभी आत्मगत कारक ऐतिहासिक विकास में उल्लेखनीय भूमिका अदा कर सकता है

समाजवादी समाज में प्रतिरोधी (antagonistic) अंतर्विरोधों पर काबू पा लिया जाता है, जिसकी वजह से सामाजिक यथार्थता की पूर्णतर तथा गहनतर समझ के लिए और लक्ष्यों तथा उनकी उपलब्धि के साधनों के वैज्ञानिक निर्धारण के लिए वस्तुगत पूर्वाधारों (objective preconditions) की रचना हो जाती है। परंतु इसका यह मतलब नहीं है कि समाजवादी समाज में लिए गए सारे फ़ैसले और सामाजिक कार्रवाइयों की सारी पद्धतियां स्वतः सही होती हैं और कि वे फ़ैसले रायों के संघर्ष, हितों के टकराव और गंभीर राजनीतिक व आत्मिक प्रयत्नों के बिना ही ले लिये जाते हैं। समाजवादी समाज में आत्मगत कारक की, और सामाजिक समस्याओं के सही समाधान में सचेत, सक्रिय रचनात्मक चिंतनशील व्यक्तियों की भूमिका में तेजी से बढ़ती होती है

समाज के जीवन को नई प्रेरणा देने तथा सामाजिक-आर्थिक विकास में निर्णायक त्वरण (acceleration) लाने के लिए समाज के फ़ौरी (immediate) लक्ष्यों तथा उसके निकट भविष्य की संभावनाओं, दोनों के अधिक गहन बोध की तथा यह समझने की जरूरत है की उन्नति में बाधक क्या है और कौन सी शक्तियां उसे बढ़ावा दे सकती हैं, आगे ले जा सकती हैं। किंतु केवल पार्टी तथा राज्य के नेताओं की इसकी जानकारी होना काफ़ी नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि परिवर्तनों की ऐतिहासिक आवश्यकता की समझ प्रत्येक व्यक्ति की चेतना तथा हृदय में पैठे, और सारी श्रम समष्टियों (work collectives), सामाजिक समूहों तथा सामाजिक संगठनों द्वारा अपनायी जाये

इन सब बातों से यह प्रकट होता है कि समाजवाद के निर्माण में मौलिक प्रतिरोधी अंतर्विरोधों से रहित समाज में ऐतिहासिक प्रकृति काफ़ी हद तक आत्मगत कारक पर निर्भर होती है। इसलिए उसे सक्रिय किया जाना चाहिए। इस प्रकार, समाजवादी समाज में आत्मगत कारक की भूमिका को ऊंचा उठाने की समस्या को निरूपित करना, ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन के विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

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