गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ खुराक - ३

हे मानवश्रेष्ठों,
समय यहां श्रृंखला के बीच में कुछ टिप्पणियों को देने की गुस्ताख़ी कर रहा है।
समय का उद्देश्य इन्हें यहां दस्तावेज़ीकृत करना है, और साथ ही उन मानवश्रेष्ठों तक इन्हें पंहुचाना है जो इनसे महरूम रहे हैं। उम्मीद है आपके दिमाग़ को कुछ खुराक मिलने की संभावनाएं तो हैं ही।
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विजयादशमी पर विशेष - रामसेतु... प्रविष्टि पर ‘बुराभला’ पर टिप्पणी:

...आपकी या श्रृद्धालुओं की आस्था पर जाहिरा तौर पर सवाल खडे़ नहीं किये जा सकते, आखिर यह व्यक्तिगत मामला है और सभी स्वतंत्र हैं कि वे ज्ञान और समझ के किस स्तर पर रहना पसंद करते हैं, उन्हें कहां सुभीता लगता है।

परंतु यहां आप इसे तार्किक औए वैज्ञानिक रूप के साथ रख रहे हैं और आस्था के लिए तार्किक ज़मीन तैयार कर रहे हैं, इसलिए यह नाचीज़ यह टिप्पणी करने की हिमाकत कर रहा है, आशा है मुआफ़ करेंगे और अन्यथा नहीं लेंगे।

अगर आप वाकई वैज्ञानिक तरीकों से इतिहास और मानवजाति के क्रमविकास को समझना चाहते हैं तो आपकों वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ लिखे इतिहास और ऐतिहासिक समझ से गुजरना पड़ेगा। ना कि तथ्यों और निष्कर्षों का मनचाहा मानसिक जाल बुनकर अपने को तुष्ट करने का रास्ता अख्तियार करना पड़ेगा। और निश्चिंत रहें, उसके बाद भी हमारे पास गर्व करने के लिए काफ़ी सामग्री होगी साथ ही ढ़ेर सारे सबक भी होंगे जिनसे भविष्य को संवारने का उचित रास्ता निकाल सकने की असीम संभावनाएं भी मौजूद रह सकें।

और वैज्ञानिक तरीके से संपुष्ट इतिहास की समझ कहती है, कि हमारे महान ग्रंथ वेदों का समय ही ईसा पूर्व १५००, यानि कि आज से ३५०० वर्ष प्राचीन हैं, और इनका संकलन और लिपिबद्धिकरण तो और बहुत बाद की चीज़ हैं।

हड़प्पा सभ्यता के नगरों के निर्माण का समय २७०० ईसा पूर्व, यानि आज से लगभग ४७०० वर्ष पूर्व का निश्चित हुआ है। जाहिर है सिंधु घाटी की यह सभ्यता वेदों की आर्य सभ्यता से भी प्राचीन है। इसकी खोज ने, जो कि आज से लगभग ८०-९० वर्ष पूर्व ही हुई है, आर्यों के यहीं के होने या बाहर से आने वाले विवाद को भी खत्म कर दिया, और यह निश्चित हो गया कि आर्य ईरान की तरफ़ से आए थे और उनसे पहले यहां सापेक्षतः उनसे बहुत विकसित सभ्यता मौजूद थी।

हमारे इतिहास को जब वैदिक नज़रिए से देखा जाता है, तो काल के उस हिस्से का अध्ययन पूर्ववैदिक और उत्तरवैदिक काल के रूप में किया जाता है। वेदों के समय की सभ्यता का स्तर वेदों से ही मिल सकता है, जिससे साफ़ संकेत मिलते हैं आर्य उस वक्त खानाबदोश अवस्थाओं के पशुपालक अवस्थाओं से गुजर रहे थे। उनके वेद कालीन देवता भी अलग थे, जिनमें इन्द्र सबसे प्रमुख थे, और आपकी जानकारी के लिए यह भी काफ़ी महत्वपूर्ण होगा कि वेदकालीन देवताओं में उत्तरवैदिक देवतागणों जैसे कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि के लिए कोई जिक्र नहीं है। हमारे इन महान देवी-देवताओं का बखान हम बाद के महान ग्रंथों उपनिषदों और पुराणों में पाते हैं जो कि निश्चित ही वेदों के बाद के हैं।

अब चूंकि रामायण में इन भी देवी-देवताओं का चरित्र-चित्रण काफ़ी विस्तार से हुआ है, तो जाहिरा तौर पर यह निष्कर्ष निकलना लाजिमी है कि वाल्मिकी रामायण का समय वेदों और पुराणों के बाद का ही है। यह दोहराना अब महत्व नहीं रखता कि वेदों का समय आज से ३५०० वर्ष पूर्व का है, अतः रामायण का काल भी इनके बाद ही ठहराया जा सकता है।

जाहिर है कि इसके समय को ७००० वर्ष पूर्व ले जाना आस्था का विषय तो हो सकता है, परंतु तर्क और वैज्ञानिकता का नहीं।

अतएव आस्था है तो उसे आस्था ही रहने दिया जाए। आस्था को तर्कों और वैज्ञानिकता के दृष्टिकोणों से तौलेंगे तो हो सकता है कि आस्था पर चोट पहुंचने की परिस्थितियां पैदा हों। जो कि जाहिर है हमारा और आपका उद्देश्य या इच्छित कतई नहीं है।

राम हमारे और हमारे जनमानस की आस्था के नायक हैं, उन्हें आस्था की, श्रृद्धा की विषयवस्तु ही रहने दें, उन्हें तर्क और वैज्ञानिकता से तौलना इस आस्था औए श्रृद्धा के खिलाफ़ ही जाएगा।.....

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क्या पुनर्जन्म संभंव है? एक बेबाक....प्रविष्टि पर ‘तस्लीम’ पर टिप्पणी:

...लोकप्रिय मामलों में ऐसा होता ही है। आखिर अधिकतर लोग अपने सामान्य सूचनापरक ज्ञान के ही आधार पर ही, उपलब्ध हो पाए ज्ञान के आधार पर ही जीवन के भवसागर में उतरे हुए हैं।

बाकी सब तो है जैसा ही है।
आपकी लिखी एक बात ने चौंकाया। ‘आत्मा की खोज अभी जारी है।’
क्या खूब!

समस्या यहीं से तो शुरू होती है, और वहीं आप संशय छोड़ देते हैं।

अगर आत्मा की खोज अभी जारी है, यानि कि आत्मा के बारे में अभी कुछ खास नहीं कहा जा सकता। आत्मा की उपस्थिति के विचार का ही विस्तार हैं ये सभी मामले, जो आपस में गुंथे हुए हैं।

आत्मा का विचार सबसे प्राचीन है, आदिमकालीन। इसी से हर भौतिक वस्तुओं में आत्मा, देवत्वरोपण, ईश्वर, परमआत्मा आदि-आदि की संकल्पनाएं पैदा हुईं। पुनर्जन्म की अवधारणा का अविष्कार तो इनके सापेक्ष काफ़ी आधुनिक है। हमारे यहां वेदों के समय तक यह पैदा नहीं हुई थी।

अगर आप ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ इसे देखेंगे तब पता पड़ेगा कि इस अवधारणा की उत्पत्ति, लगभग राज्यों और उनके शोषण की उत्पत्ति के साथ-साथ हुई।

यदि आत्मा है, तो ईश्वर है, चेतना से पदार्थ की उत्पत्ति है, भूत-प्रेत हैं, जादू-चमत्कार हैं, पुनर्जन्म है, सारी भूल-भुलैयाएं हैं।

इसलिए आत्मा के प्रश्न से जूझना सबसे प्राथमिक है। आप आत्मा के अस्तित्व के सवाल को स्थगित रखकर या अभी संदेह में रखकर, बाकी की बातों के लिए तर्कों के जरिए पुरजोर लड़ाई नहीं लड़ सकते।

विज्ञान की उत्पत्ति के समय ही सर्वप्रथम उसकी उर्जा इन्हीं सब के अस्तित्व को टटोलने में ज्यादा खर्च हुई थी, इसे ऐसे भी कह सकते है पदार्थ और चेतना के संबंधों को समझने के इन प्रयासों से ही विज्ञान की उत्पत्ति हुई थी।

असल विज्ञान जितनी उर्जा खर्च कर सकता था, कर ली गई, और अब उसके पास इन फ़ालतू की चीज़ों के लिए समय नहीं है। अब केवल सूडोसाईंस की कुछ धाराएं ही इस सब पर अभी भी साधनों और उर्जा का अपव्यय करने में लगी हुई हैं, और यह यथास्थिति बनाए रखने की, आम जनमानस को उलझाए रखने की कवायदें वर्तमान व्यवस्था के हितों के अनुकूल हैं, अतः वह इन्हें प्रश्रय और प्रचार उपलब्ध कराता रहता है।

सारी स्थिति विज्ञान और अद्यतन दर्शन के सामने बिल्कुल साफ़ है, यह बात अलग है कि वह आपकी कितनी पहुंच में हैं।.....
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स्त्रियों में मनोरोग पराशक्तियां और कुछ विचार...प्रविष्टि पर ‘संचिका’ पर टिप्पणी:

...ग्रामीण इलाकों और शहरों में भी ग्रामीण परिवेशगत मानसिकताओं में इन परिघटनाओं का व्यापक असर है।

आपने इसे यहां उठाकर सही दृष्टि और सरोकारों के साथ विश्लेषित करने का समुचित प्रयास किया है। आप इसमें दो चीज़े औए जोड़ सकती हैं।

एक तो इन परिघटनाओं के पीछे के कुछ काम संबंधी आधार जो कि अक्सर अनछुए रह जाते हैं, या इस तरीके से इन्हें देखना और विश्लेषित करना काम संबंधी वर्जनाओं और अनैतिकताओं के घटाघोपों के चलते जानबूझकर छोड़ दिया जाता है।

दूसरा, जिसका कि आपने सिर्फ़ इशारा किया है पर उसे पुरजोर तरीके से उठाया जाना चाहिए ही, अक्सर ऐसे मामलों का पूरी चेतना और होशोहवास के साथ सृजित किया जाना। यह पूरी तरह से जानबूझकर किया जाता है और इसके पीछे के कारणों को आपने यहां रखा ही है।

कई मामलों में साहित्यिक सी भाषा में यह कहा जा सकता है कि इस तरह की परिघटनाएं पुरूष सत्ता के प्रति उन्हीं के बनाए हथियारों के साथ, हाशिए की स्त्रियों का यह एक विद्रोह है जो इस तरह उन्हें एक छद्म ही सही पर अपनी इच्छित परिस्थितियों के निर्माण का एक अल्पकालिक और कभी-कभी तो दीर्घकालिक भी, अवसर देता है।

पराशक्तियों के मामले में भी सही इशारे किए हैं आपने। जो दावा करता है, संदिग्ध तो वह ऐसे ही हो जाता है, क्योंकि उसे दावा करने की जरूरत पड़ी। यानि कि वह यह दावा करके इसके जरिए कुछ पाना चाहता है।

बहुत कम बार ही ये रोगी-सोगी होते हैं। बाकि जिन्हें दिलचस्पी है वे ऐसे अधिकतर मामलों के पीछे की झूंठ-सिद्धी की कई कहानियां ढूंढ़ सकते हैं।.....
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इसी प्रविष्टि पर आदरणीय वत्स जी की टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी:

...आधुनिक ज्ञान पुरातन का ही विस्तार होता है, क्रमिक विकास की प्रक्रिया में होता है। नये अनुभव और प्रमाण, पुरानी कई चीज़ों को गलत साबित करते हैं और कई पुरानी चीज़ों की कमियों को रेखांकित कर उसे और सटीक बनाते हैं।

उपवास और यज्ञादि की भी ऐसी ही चीरफ़ाड़ की गई और परंपराओं से जुड़े इन क्रियाकलापों में कुछ तार्किकता ढ़ूंढ़ने की कोशिश की गई कि आखिर इनमें क्या कुछ ऐसा है जिससे मानवजाति फ़ायदा उठा सकती है। यह वत्स जी का इछ्छित है।

समझदारी का तकाज़ा वत्स जी के इच्छित को तो शामिल करता ही है, साथ ही इसे और आगे लेजाकर जो व्यर्थ शाबित हुआ है उससे मुक्ति पाने की मांग भी रखता है।

समस्या यही पैदा होती है।

स्त्रियां किसी विशेष दिन व्रत-उपवास रखती हैं, अगर वे अपने आपको थोड़ा पढे-लिखों में शुमार भी करवाना चाहती हैं तो पूछने पर वे ऐसे ही वत्स जी की तरह जवाब देंगी कि देखो इस बहाने थोड़ा ड़ाईटिंग बगैरा हो जाती है जी।

अगर उनसे कहा जाए कि यह तो ठीक है, चलिए ऐसा कीजिए आप उस विशेष दिन को छोड़ दीजिए, और किसी दिन यह विज्ञान-सिद्ध फ़ायदे उठा लीजिए।

तब असलियत सामने आती है कि इनका यह विज्ञान-सिद्ध रूप नहीं वरन पारंपरिक धार्मिक विश्वास असल मूल में हैं। और इसीलिए यह होता है कि विज्ञान-सिद्धि जाती है भाड़ में और ढ़ोंग बन कर रह जाती है।

अक्सर लोग व्रत-उपवास में सामान्य दिनों से अधिक कैलौरी का सेवन करते हुए देखे जाते हैं, उन्होंने अपने मतलब के हिसाब से कई तोड़ निकाल लिए हैं। असल मंतव्य धार्मिक छद्म के जरिए मिलने वाली उसी मनोवैज्ञानिक, मानसिक तसल्ली का ही है जिसका जिक्र लवली कुमारी कर रही हैं।

किसी अंश की वैज्ञानिकता से, किसी भी पूरे पाखंड़ को जायज नहीं ठहराया जा सकता। वत्स जी तो शायद ही सहमत हों, पर और मानवश्रेष्ठ इस पर विचार कर सकते हैं।

वत्स जी की विधि का ही प्रयोग करके यह भी तो कहा जा सकता है कि कब तक वे सदियों पूर्व की मानसिकता और परिस्थितियों के अनुसार कही और लिखी बातों की भूलभुलैया मे भटके रहकर उसे ही परम ज्ञान की घुट्टी के रूप में परोसते रहेंगे और मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान से नज़रें चुराते रहेंगे।.....
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तो चलें समय के उस फ़लक पर...प्रविष्टि पर ‘ज्योतिष दर्शन’ पर टिप्पणी:

...जब बात प्राकॄतिक परिधटनाओं के संदर्भ में कही जा रही हो जैसा कि आईंस्टीन और बकौल निशांत मिश्र, स्टीफन हॉकिंग के निहितार्थ हैं, बात एकदम वाज़िब है।

विज्ञान के अनुसार प्राकृतिक परिघटनाओं की नियमसंगतता को सिद्धांत के रूप में तभी निरूपित माना जा सकता है, जब यह नियमसंगीतियों के जरिए वस्तुगतता के संदर्भ में निश्चित भविष्यवाणी करने में समर्थ सिद्ध होता है।

समस्या यह है कि व्यवस्थागत असुरक्षाओं के चलते, अपने व्यक्तिगत भविष्य को जानने की उत्कंठा में मनुष्य इन वैज्ञानिक प्रास्थापनाओं में प्रयुक्त हुए मिलते-जुलते अभीष्ट शब्दों को देखकर, उनका सही निहितार्थ समझे बगैर इनका मनमाफ़िक, अपने मंतव्यों के निहितार्थ उपयोग करने लगता है और समाज में विद्यमान भ्रमों की संपुष्टि के जरिए अपने अस्तित्व की प्रतिष्ठा और दोहन की जुंबिशों में जुट जाता है।

वैज्ञानिक ज्ञान के जरिए अब तक समझ आई प्राकृतिक परिघटनाओं और दर्शन की ऐतिहासिक भौतिकवादी अवधारणाओं के जरिए सामाजिक परिघटनाओं की भाविष्यवाणियां की जा सकती हैं, और की भी जाती हैं।

प्राकृतिक परिघटनाओं के सापेक्ष सामाजिक परिघटनाओं के मामले में सटीक भविष्यवाणियां थोड़ी मुश्किल होती हैं, क्योंकि यहां वस्तुगत यथार्थता के साथ, एक और तत्व जुड़ जाता है वह है चेतनागत यथार्थता। इनकी अन्योन्यक्रियाएं निरंतर नये-नये प्रभाव और निर्भरता पैदा करती रहती हैं, और वस्तुगत यथार्थ को निरंतर परिवर्तित करती रहती हैं।

तो प्राकृतिक परिघटनाओं के मामले में नियमसंगतता को समझने के बाद उनकी नियमों के अंतर्गत तयशुदा नियति से ऐसे भ्रामिक वक्तव्य निकाले जा सकते हैं जिनसे सत्य का आभास भी होता है और जो भ्रमों को और बढा़कर काल्पनिक कपोल कल्पनाओं के नये नये द्वार खोल सकता हो, जैसे यह कथन या निष्कर्ष जो कि यहां निकाला गया है कि सब कुछ पूर्व नियत है और हर चीज़ का एक निश्चित भविष्य है।

फिर यह संभावना पैदा हो सकती है कि इसे साधारणतयः मनुष्य अपने जीवन और समाज से जोड़कर देखने लगता है, और ऐसी ही चिंतन और निष्कर्षों की और उद्यत होता है जिसे कि आपने बाद में विवेचित किया है।

और आपकी समझ भी इस घलमपेल को समझ पा रही है, इसीलिए आपके सामने यह अनुत्तरित प्रश्नों और कल्पनाओं को छोड जाती है।.....
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वियोजित अनुभव, उनका मानसिक असंतुलन और...प्रविष्टि पर ‘संचिका’ पर टिप्पणी:

...आपने सही कहा है कि व्यक्ति अपनी सामाजिक अन्योन्यक्रियाओं के जरिए अपने एक मानसिक जगत का निर्माण करता है। अपेक्षाओं की पूर्ति की भौतिक संभावनाएं, व्यवहारिक रूप में, इन मानसिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति को संचालित और नियंत्रित करती रहती हैं।

असुरक्षा और अनिश्चितता का माहौल, अपेक्षित आदर्श परिस्थितियों और क्रूर वास्तविकताओं के मध्य एक द्वंद बनाए रखता है। इनसे विचलन और अपरिपक्वता, मानसिक अस्थिरता पैदा करती है और ऊल-जलूल व्यवहार में अपनी अभिव्यक्ति पाती है।

समस्या यह भी है कि आजकल मानसिक चिकित्सा के नाम पर भी व्यापारिक और सतही मानसिकता हावी है। इस ओर गंभीर प्रयासों का अभाव है। मनोवैज्ञान और शारीरिक चिकित्सा को आपस में गड्ड-मड्ड कर दिया गया है और मानसिक रोगी के मनोवैज्ञानिक अध्ययन और कौंसिलिंग का अभाव नज़र आता है। रोगी और मनोचिकित्सक दोनों के पास समय और मनोव्यवहार की गहराई टटोलने की समझ का अभाव है, और परिणति तात्कालिक ईलाज़ यानि मष्तिष्क को सुन्न कर मानसिक क्रिया व्यवहार को स्थगित करने की प्रवृति के रूप में सामने आ रही है।

ये दवाइयां उन्हें इसकी लत ड़ालती है और रोगी, संबंधियों और मनोचिकित्सक, सभी को अपने मुफ़ीद लगती हैं। असली मनोवैज्ञानिक सवाल पृष्ठ्भूमि में ही रह जाते हैं।.....
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नारीयां क्यो बनाती हैं यौन संबंध? एक....प्रविष्टि पर ‘साईब्लॉग’ पर टिप्पणी:

...आपने एक रोचक विषय उठाया है, कम से कम पुरूषों के लिए तो है ही।

पुरूषप्रधान समाज की मानसिकता इसे ऐसे ही रूप में लेने को अभिशप्त है, जैसा कि विवेक और जाकिर भाई की टिप्पणियों से जाहिर होता है। भले ही यह आपका मंतव्य रहा हो या नहीं।

इसलिए समझदारी का तकाज़ा कहता है कि प्रस्तुति और विश्लेषण का तरीका ऐसा होना चाहिए कि यह सिर्फ़ प्रचलित मानसिकताओं की सनसनीखेज़ तुष्टि का जरिया भर बन कर ना रह जाएं बल्कि एक सहिष्णु यथार्थ समझ की सही दिशा की राह प्रशस्त करता हो।

शरद कोकास एक गंभीर इशारा जरूर कर रहे हैं पर वहां भी यौन संबंधों का हथियारगत इस्तेमाल अवश्य ही मिलेगा।पुरूष प्रधान समाज में स्त्री के अधिकार सीमित हैं। स्त्री पुरूष के लिए संपत्ति है और इसके अनुरूप ही भोग्या सामग्री। उसके लिए यौन संबंध यौन तुष्टि के साथ-साथ अपनी सत्ता के प्रस्फुटिकरण और प्रदर्शन का साधन भी हैं। इसीलिए वह यौन संबंधों के लिए अवसरवादी है और अपनी सत्ता और स्त्री की निर्भरता के चलते अवसरों की संभावनाएं भी खूब रखता है।

इस सारे जंजाल में स्त्री व्यक्तित्व की आधिकारिक उपस्थिति कहीं भी अभिव्यक्त नहीं होती। इसीलिए वह वह बराबरी के, प्रेम के, भावनात्मक संबंधों के अवसरों के लिए हमेशा प्रतीक्षारत रहती है।

स्त्री के व्यक्तित्व का यही खालीपन, लंपट पुरूषों के लिए और अधिक अवसर उपलब्ध कराता है। और फिर धोखा, छल, मोहभंग जैसी अवस्थाओं की परिणति अस्तित्व में आती हैं।

स्त्री केवल यौन तुष्टि के उपकरण के रूप में अपनी पुरजोर उपस्थिति दर्ज़ कर पाती है। पुरूष जब कभी भावुकता में भी होता है तो इसकी परिणति यौन संबंध तक खींच ले ही जाता है।

कुलमिलाकर लाबलुब्बेआब यह कि सामान्यतया स्त्री के लिए पुरूष की यह यौन जरूरत और उसकी पूर्ति के लिए स्त्री की भौतिक उपस्थिति की आवश्यकता उसके लिए एक हथियार की तरह उभरने की संभावना पैदा करती है जिसका कि इस्तेमाल तात्कालिक रूप से अपना मनोइच्छित प्राप्त करने में किया जा सकता है।

इसी की अभिव्यक्ति, जैसा कि इस आलेख में जिक्र है, भौतिक वस्तुओ, उसके क्रियाकलापों में सहायता और भावनात्मक संतुष्टि को यौन संबंधों के जरिए प्राप्त करने के रूप में होती है।

जहां बराबरी के से संबंधों की उपस्थिति होती है, वहां फिर भी इनके पृष्ठभूमि में होने की संभावनाएं हो सकती हैं।

मनुष्य की यौन संबंधों की सहज और प्राकृतिक जरूरत इसी व्यवस्थागत रूप के चलते विकृतियों के लिए अभिशप्त है।.....
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आशा है कि कई विषयों पर चिंतन हेतु आपके दिमाग़ को निश्चित ही कुछ ख़ुराक तो मिली ही होगी।
आप चाहे तो किसी पर भी संवाद को आगे बढ़ाया जा सकता है।

शुक्रिया।

समय
समय के साये में - आपके दिमाग़ से रूबरू आपकी ज़िंदगी का आईना

बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार भूतद्रव्य (Matter) की परिभाषा और मंतव्य पर चर्चा की गई थी।
आज यहां यह देना काफ़ी दिलचस्प हो सकता है कि भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?

आज की चर्चा का यही विषय है। समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?

अतीतकाल से ही लोग यह सोचने-विचारने लगे थे कि उनके गिर्द विद्यमान वस्तुएं किससे निर्मित हैं और कि उनका कोई सार्विक (Universal) नियम या आधार है या नहीं।

प्राचीन यूनान के पुरानतम दार्शनिकों ने अपनी अटकलों को दैनिक जीवन के अनुभवों तथा प्रेक्षणों पर आधारित किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि पानी ही हर चीज़ का मूल तत्व है। बाद के कुछ दार्शनिक वायु को सबका मूल तत्व समझते थे। फिर सूर्य की दिव्य अग्नि के विचार के चलते आग में सबका मूलतत्व देखा गया। और आगे इन मूलतत्वों में मिट्टी को भी जोड़ दिया गया और यह समझा गया कि सब कूछ इन चार तत्वों से निर्मित है और वही भूतद्रव्य है। किंतु अरस्तु के दृष्टिकोण से यह भूत्द्रव्य निष्क्रिय और अनाकार है और उसे रूप प्रदान करने के लिए एक विशेष बल की आवश्यकता होती है।

प्राचीन भारत में भी लगभग इसी तरह का दृष्टिकोण उभर कर आया, जिसके कि अनुसार सब कुछ पंच तत्वों से निर्मित है। यहां आकाश को भी एक स्वतंत्र तत्व के रूप में सम्मिलित किया गया।

यूनान के दार्शनिक ल्युकिपस और डेमोक्रिटस ( लगभग ५०० ईसा पूर्व ) अदृश्य परमाणु को विश्व का आधार मानते थे। भारत में कणाद का परमाणुवाद भी यही निष्कर्ष स्थापित कर रहा था। लेकिन परमाणु के अस्तित्व की यह कल्पना कहा से पैदा हुई? साधारणतयः हवा में धूलिकणों को नहीं देखा जाता, परंतु अंधेरे में किसी दरार या छिद्र से आती रौशनी में अनगिनत कण किसी भी बाह्य आवेग के बिना चलते-फिरते नज़र आते हैं। अतः परमाणुवादियों ने दलील दी कि परमाणुओं को भी नहीं देखा जा सकता, किंतु ‘मानसिक दृष्टि’ या तर्कबुद्धि से उनकी कल्पना की जा सकती है, वे हमेशा विद्यमान रहते हैं और एक अनवरत गति उनमें अंतर्निहित होती है| यह दलीलें काफ़ी लंबे समय तक मात्र अटकलें ही बनी रही।

मध्ययुगीन दर्शन भौतिक जगत को दैवी रचना का फल मानता था। हर भौतिक वस्तु नीच, जघन्य और पापमय, अतः ध्यान के अयोग्य मानी जाती थी। यहां तक कि कई दार्शनिक धाराओं में तो संपूर्ण वस्तुगत जगत को ही माया, भ्रम घोषित कर दिया गया।

१७ वीं और १८ वीं शताब्दियों में विज्ञान के विकास के बाद ही विश्व की भौतिक प्रकृति एक बार फिर से दर्शन के ध्यान का केन्द्रबिंदु बनी। फ़्रांसीसी दार्शनिक देकार्त, अंग्रेज भौतिकविद न्यूटन और रूसी वैज्ञानिक लोमोनोसोव सूक्ष्म और कठोर कणिकाभ गोलियों जैसे गतिमान कणों को भूतद्रव्य का आधार मानते थे। चूंकि उस वक्त यांत्रिकी प्रमुख वैज्ञानिक शास्त्र था, और वह पदार्थों के विस्थापन और अंतर्क्रिया का अध्ययन करती थी इसलिए ‘भूतद्रव्य’ (Matter) की संकल्पना को ‘पदार्थ’ (Substance) के तदअनुरूप ही समझा जाता था। पदार्थ के सारे अनुगुण भूतद्रव्य पर आरोपित कर दिये गए।

१९ वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरूआत में भौतिक क्षेत्रों (विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र, गुरुत्व क्षेत्र) जैसी नयी घटनाओं की खोज ने भूतद्रव्य की समझ को आमूलतः बदल दिया। भूतद्रव्य की, निष्चित द्रव्यमान व ज्यामितिक आकार वाले ‘पदार्थ’ की समरूपी व्याख्या इस समझ के लिए रुकावट थी कि भौतिक क्षेत्र भी भूतद्रव्य का ही विशिष्ट रूप है। भौतिक क्षेत्रों की सारी आश्चर्यजनक विशेषताओं के बावजूद वे परमाणुओं और मूल कणों की भांति ही मनुष्य की चेतना से परे और स्वतंत्र रूप से विद्यमान हैं

यही वह एकमात्र तथा निर्णायक लक्षण है जो इस बात का उत्तर देना संभव बनाता है कि क्या भौतिक है और क्या अभौतिक, यानि प्रत्ययिक है। एक खंभे में द्रव्यमान होता है, वह प्रकाश के लिए अपारगम्य होता है, परंतु उसकी छाया के लिए ये दोनों बाते लागू नहीं होती। फिर भी खंभा और उसकी छाया भौतिक हैं, क्योंकि वे वस्तुगत रूप से मनुष्य की चेतना से परे विद्यमान हैं।

भूतद्रव्य की अधिभूतवादी (Metaphysical) तथा यांत्रिक (Mechanical) संकल्पनाएं इसलिए भी सीमित व असत्य थीं कि उन्हें यांत्रिकी तथा भौतिकी के बाहर लागू करना असंभंव था। मानवसमाज तथा सामाजिक संबंधों का चित्रण पदार्थ के अनुगुणों के अनुरूप नहीं किया जा सकता। इसलिए भूतद्रव्य की पहले की संकल्पनाओं और समझ को सामाजिक प्रक्रियाओं और इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना की रचना के लिए भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था।

किंतु मनुष्य की पहली दिलचस्पी की चीज़ समाज तथा उसका जीवन है, खास तौर पर महती सामाजिक रूपांतरणों के इस युग में, जब प्रश्न यह पैदा होता है कि आरंभ करने के लिए क्या आवश्यक है- भौतिक सामाजिक संबंध या आत्मिक जीवन की घटनाएं। यही कारण है कि भूतद्रव्य की इस ( पिछली पोस्ट में वर्णित ) समसामयिक परिभाषा ने वैज्ञानिक तथा दार्शनिक अर्थ भी ग्रहण कर लिया है।
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आज इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

समय के साये में - आपके दिमाग़ से रूबरू आपकी ज़िंदगी का आईना

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

दार्शनिक संकल्पना - भूतद्रव्य ( Matter ) के मंतव्य

हे मानवश्रेष्ठों,

श्रृंखला पर लौटते हैं।
जैसा कि पिछली चर्चाओं में हमने देखा था कि दर्शन का बुनियादी सवाल भूतद्रव्य (Matter) और चेतना (Consciousness) के सवाल, इनके अंतर्संबंधों और प्राथमिकता के सवाल से जुड़ा था।

अतएव यह समीचीन होगा कि इन संकल्पनाओं, भूतद्रव्य और चेतना पर, पहले चर्चा कर ली जाए, इन्हें पहले सुपरिभाषित कर लिया जाए।

आज की चर्चा का यही विषय है। समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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मनुष्य अत्यंत भिन्न वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं की अनगिनत विविधताओं से घिरा हुआ है: जानवर और पौधे, विभिन्न यंत्र और औजार, रासायनिक यौगिक, कला वस्तुएं, प्रकृति की घटनाएं, आदि। हम जानते हैं कि सारी वस्तुएं अणुओं तथा परमाणुओं से बनी हैं और दृश्य ब्रह्मांड़ में अरबों-खरबों तारे, तारकीय निहारिकाएं तथा आकाशगंगीय प्रणालियां हैं।

पहली नज़र में वे सब असंबंधित वस्तुओं तथा घटनाओं का विषम संग्रह जैसा जान पड़ती हैं। इसीलिए दुनिया अक्सर लोगों को एक रेलपेल जैसी, सांयोगिक वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं की उलझी हुई गुत्थी जैसी नज़र आती है, जिनके मध्य मनुष्य रेगिस्तान में खोया-खोया सा लगता है।

किंतु सारी वस्तुओं और घटनाओं के बीच उनकी सारी विभिन्नताओं के बावजूद एक सर्वनिष्ठ विभेदक लक्षण है, अर्थात वे सब मनुष्य की चेतना के बाहर तथा उससे स्वतंत्र रूप से विद्यमान हैं। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के गिर्द वस्तुओं और प्रक्रियाओं की दुनिया एक वस्तुगत यथार्थता (Objective Reality) है।

इसी वस्तुगत यथार्थता को अभिव्यक्त करने वाली संकल्पना ‘भूतद्रव्य’ को वैज्ञानिक रूप में इस तरह परिभाषित किया जाता है: भूतद्रव्य, मनुष्य की चेतना से स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान, और मनुष्य द्वारा उसके संवेदनों (Sensation) द्वारा अनुभूत, वस्तुगत यथार्थता को अभिव्यक्त करने वाला एक दार्शनिक प्रवर्ग है।

यहां, मनुष्य की चेतना से परे तथा स्वतंत्र रूप से विद्यमान वस्तुगत यथार्थता, और इसके लिए प्रयुक्त दार्शनिक संकल्पना (Concept) या प्रवर्ग (Categories) के बीच अंतर करना आवश्यक है। उन्हें परस्पर उलझाना नहीं चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे कि एक वास्तविक, वस्तुगत मोटरकार तथा उसकी संकल्पना ‘मोटरकार’ को। एक वास्तविक मोटरकार को चलाकर ले जाया सकता है, लेकिन उस ‘मोटरकार’ को नहीं चलाया जा सकता है, जो संकल्पना की शक्ल में मनुष्य के दिमाग़ में होती है।

इस परिभाषा से निष्कर्ष निकलता है कि:

० ‘भूतद्रव्य’ का आशय है मनुष्य के गिर्द विद्यमान संपूर्ण विश्व, वह हर चीज़ जो चेतना नहीं है, वह हर चीज़ जो चेतना से परे है, उससे बाहर अस्तित्वमान है।

० इस संकल्पना का गुणार्थ यह है कि किसी भी भौतिक वस्तु, अनुगुण, संबंध या प्रक्रिया का एकमात्र और सबसे महत्वपूर्ण लक्षण उसकी वस्तुगतता तथा चेतना से उसकी स्वाधीनता है।

० प्रवर्ग ‘भूतद्रव्य’ प्रकृति तथा समाज दोनों की घटनाओं पर, मनुष्य चेतना के बाहर अस्तित्वमान और होने वाली, तथा चेतना से स्वतंत्र सामाजिक प्रक्रियाओ पर लागू होता है।

० मनुष्य द्वारा सारी भौतिक प्रक्रियाओ तथा घटनाओं का संज्ञान अथवा उसकी चेतना द्वारा उनका परावर्तन, संवेदनों तथा संवेदन-प्रत्यक्षणों के जरिए होता है।
इनमें केवल वे ही वस्तुएं तथा घटनाएं शामिल नहीं है, जिनका प्रत्यक्षण मनुष्य अपने श्रवण, दृश्य, स्पर्श या गंध संवेदनों से कर सकता है, बल्कि वे भी शामिल हैं, जिनके लिए उन अत्यंत जटिल आधुनिक उपकरणों ( दूरदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, राड़ार आदि ) की जरूरत होती है जो मनुष्य के संवेदन अंगों की क्षमताओं को कई गुना बढ़ा देते हैं।

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आज इतना ही।
अगली बार देखेंगे कि भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

समय के साये में - आपके दिमाग़ से रूबरू आपकी ज़िंदगी का आईना

शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

भाषा और इसकी सरलता के असली मंतव्य

हे मानवश्रेष्ठों,

आज फिर श्रृंखला को तोड़ते हैं।
पिछली चर्चा पर मानवश्रेष्ठ सिद्धार्थ जोशी की कृपापूर्ण टिप्पणी में भाषा और सरलता संबंधी कई महत्वपूर्ण बातें कही गई थीं। उनकी बातों से लगभग सहमत होते हुए भी समय को लगा कि इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अपने मंतव्य भी स्पष्ट करने चाहिए। जोशी जी को धन्यवाद कि उनके इस संवाद की वज़ह से समय को यह अवसर प्राप्त हुआ।

उनकी टिप्पणी पिछली पोस्ट पर देखी जा सकती है, समय उन्हीं से संवाद रूपी चर्चा को यहां आगे बढा रहा है। आप भी इससे गुजर कर कई महत्वपूर्ण इशारे पा सकते हैं, और चर्चा को आगे बढ़ा सकते हैं।
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सिद्धार्थ जी,
आप समय के नियमित पाठक हैं, साथी हैं। यह समय के लिए निश्चित ही सुकून की बात है।

आपने यहां भाषा के संदर्भ में एकदम सही बात उठाई है। भाषा सही कहा गया है कि सीखी जाती है। बच्चों को सिखाते समय उनके स्तर का ध्यान रखा जाता है। इसीलिए भाषा का संधान एक निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया है। आपने सही प्रश्न उठाया कि हम बुद्धि वाले लोग भी थोड़ी सी क्लिष्ट भाषा को क्यों नहीं समझ पाते?

उत्तर भी आपने उचित ही दिया है कि दोष भाषा का नहीं बल्कि उसको सुन-पढ़ और समझने की कोशिश कर रहे व्यक्ति की उस भाषा विशेष संबंधी वोकैब्यलैरी यानि शब्दभंडा़र की कमी का है। उसे उस भाषा संबंधी अध्ययन के लिए अपने शब्दभंड़ार का निश्चित ही विकास करना चाहिए। इससे उसकी उस भाषा पर पकड़ और संप्रेषणीयता में निश्चित ही वृद्धि होगी।

यदि यह बात आपने अपने लिए और थोड़ा सा परिपक्व पढ़े-लिखे पाठकों के संदर्भ में उठाई है, तो यह बिल्कुल किया ही जाना चाहिए। आपको और हम बुद्धि वाले लोगों को अपने शब्दभंड़ार में बढ़ोतरी करनी ही चाहिए, ताकि संप्रेषण सटीक रहे। आखिर ज़िंदगी भर तो एक बच्चे को पानी या जल की जगह मम-मम नहीं बोलने दिया जा सकता ना? आपने लगभग ऐसी ही बात कही है।

आमजन से संवाद निश्चित ही इस भाषा में नहीं किया जा सकता। जाहिर ही है कि वहां अपनी बात कहने के लिए हमें आमजन के शब्दभंड़ार और समझ, उनकी अभिव्यंजनाओं और भाषाई मुहावरों को पकड़ना पड़ेगा। तभी संवाद स्थापित हो सकता है, और एक बार संवाद स्थापित हो जाने के बाद फिर उनकी चेतना के स्तर के परिष्कार की, भाषाई समृद्धि की और इसके जरिए उनके समझ के स्तर के परिष्कार की कोशिशें शुरू हो सकती हैं। आखिर किसी भी व्यक्ति की समझ और ज्ञान का स्तर उसके द्वारा प्रयोग में ली जा रही भाषा और शब्दभंड़ार के स्तर से ही तय होता है।

यानि भाषा की सरलता शुरूआत के लिए, संवाद के लिए, जुड़ाव के लिए होनी चाहिए। समय जब आमजन के साथ होता है तो हल्की-फुल्की और गंभीर चर्चाएं भी होती हैं, और वहां यह ध्यान रखने की आवश्यकता भी नहीं होती क्योंकि वही भाषा इस्तेमाल होती है।

हम यहां जाहिरा तौर पर आमजन से संवाद स्थापित नहीं कर रहे हैं। अगर आपको यह गलतफ़हमी है तो उसे समझना और दूर कर लेना चाहिए। आमजन तक तो रोटी, कपड़ा,पानी और बिजली ही नहीं पहुंच पा रही, उसकी नेट और फिर आपके-हमारे ब्लॉगों तक पहुंच हो पाना अभी किसी सपने की ही तरह है। हम उच्च मध्यमवर्गीयों के लिए अपने सुविधासंपन्न कोठरों की निश्चिंतता में कई शब्दों और भाषाई प्रयोगों के मतलब भी बदल गए हैं।

अगर आप कंप्यूटर और नेट तक पहुंच रखने वाले, तथाकथित पढ़े-लिखे और दुनिया को समझने वाले गंभीर विषयों से अभी तक बहुत दूर रहने वाले, ब्लॉग के आम मध्यमवर्गीय पाठकों और ब्लॉगरों के संदर्भ में यह बात कहना चाह रहे हैं, तो मुआफ़ कीजिएगा वह विश्लेषण ज़्यादा सटीक नहीं है।

आमजन में सिर्फ़ पैठ बनाकर अपनी दुकान चलाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों, आम भाषाई मुहावरों में आमजन के बाज़ार में घुसपैठ कर मुनाफ़ा कमाने की आकांक्षाएं रखने वाली बाज़ारू शक्तियों से, सही सरोकार रखने वाले हम बुद्धि वाले लोगो के क्रियाकलापों और क्रियाविधियों में कहीं तो अंतर रखना ही होगा ना। क्या हमारा उद्देश्य केवल अपना और अपने विषय के प्रचार के जरिए लोकप्रियता पाना और फिर उसके जरिए श्रेष्ठता बोध की तुष्टी पाना और इस लोकप्रियता को इस हेतु और सिक्कों की खनक के रूप में भुनाना भर है?

जिन्हें आमजन से फ़ायदा उठाना और अपना मतलब साधना होता है वे इन लोकप्रिय रूपों का प्रयोग करते हैं, उनके स्तर तक पहुंचते हैं, उनके मनमाफ़िक रहने वाली बाते करते हैं फिर अपना मुनाफ़ा समेटकर अपने वातानुकूलित महलों में अंग्रेजी चर्चाओं में मशगूल हो जाते हैं। उनका उद्देश्य यही होता है, और आमजन की चेतना के परिष्कार-फरिष्कार, या उनकी समस्याओं के निबटारे या किसी भी तरह के व्यवस्थागत और सामाजिक बदलाव की कोई भी मंशा उनके ज़ेहन में नहीं होती। इसे आप गांधीगिरी, फ़िल्मों, हिंग्लिश के प्रयोग, और हिंदी के दिखावटी प्रयोग के संदर्भों में रखकर देख सकते हैं।

जिन्हें आमजन की चेतना के परिष्कार के जरिए सामाजिक और व्यवस्थागत बदलावों के हेतु आमजन को लामबंद करने का महती कार्य जरूरी लगता है, वे आमजन तक उसके स्तर तक पहुंचते हैं, उसकी तकलीफ़ों में शामिल होते हैं और उनकी समझ का स्तर ऊपर उठाकर, अपने रास्ते ख़ुद तलाशने की योग्यता पैदा करने का उद्देश्य सामने रखते हैं।

इसीलिए यह आवश्यक है कि हम भी अपनी भाषा को थोड़ा सहज करें जहां हो सकता है, और थोड़ा अवसर भी रखें ताकि ब्लॉग जगत का आम पाठक भी अपने शब्दभंड़ार को समृद्ध कर, अपनी समझ का परिष्कार कर सके। जिसे इसकी भौतिक और मानसिक जरूरत महसूस होती है, वह ज्ञान को समझने के अपने रास्ते खु़द तलाशता है। जिनका उद्देश्य सिर्फ़ मनोरंजन, समय गुजारना, अपनी जैसी-तैसी अभिव्यक्ति के जरिए या सिर्फ़ हंगामाखेज़ व्यवहार से वाह-वाही पाकर अपने श्रेष्ठता बोध को तुष्ट करना होता है, वे गंभीर संवादों और चर्चाओं में पड़ते भी नहीं है, कभी-कभार गलतफ़हमियों के चलते फंस भी जाए तो जल्द ही किनारा कर लेते हैं।

यह सही है कि कभी-कभी समय को भी ऐसा लगता है कि कई क्लिष्ट शब्द अनावश्यक रूप से, क्लिष्ट भाषाई अध्ययनों के अभ्यासवश घुस गये हैं। उनसे मुक्ति पाना समय का अभीष्ट है, आप इस ओर लगाता चेताते रहते हैं, समय आपका बहुत-बहुत आभारी है।

आपने यह भी देखा होगा कि जब यहां सामान्य विषयों पर चर्चा की जाती है तो शव्दावली सापेक्षतः सरल और सहज रहती है। दर्शन या और ऐसे ही किसी गूढ़ और गंभीर विषय पर चर्चा करते समय चूंकि मतलब का सटीक होना और वही होना जो उसका मतलब होना चाहिए तथा यह भी कि कोई ऐसा भाषागत लूपहोल्स ना रह जाएं जिससे कि उसका खंड़न या उस पर विवाद पैदा किया जा सके, भाषा थोड़ी सधी हुई तथा क्लिष्ट हो जाती है क्योंकि यह संदर्भ किया जा सकने वाला विवेचन होता है।

ऐसे दार्शनिक ज्ञान के अध्ययन और मनन के बाद प्राप्त समझ के अनुसार फिर साधारण भाषा में बात की जा सकती है, समय करता भी है, तथा आगे यहां और कोशिशें भी होती ही रहेंगी।

शुक्रिया।
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समय अगली बार अपनी श्रृंखला को आगे बढ़ाएगा ही।
संवाद और जिज्ञासाओं का हमेशा स्वागत रहता है ही।

समय

शनिवार, 26 सितंबर 2009

दर्शन : संकल्पनाएं और प्रवर्ग

हे मानवश्रेष्ठों,
दार्शनिक शब्दावलियों, संकल्पनाओं से परिचय की इस श्रृंखला में आज कुछ और संकल्पनाओं से परिचय करते हैं। उनकी निश्चित परिभाषाओं से गुजरते हैं।

जब मनुष्य अपनी संवेदनाओं और ज्ञान को समृद्ध करता है तो उसकी भाषा में जटिल परिस्थितियों और क्रियाकलापों के लिए थोडे़ क्लिष्ट शब्द जुड़ते चले जाते हैं, क्योंकि पारंपरिक सरल शब्दावली इनका सही और सुनिश्चित परावर्तन करने में सक्षम नहीं रह जाती। कई बार मनुष्य, बिना इनका सही अर्थ समझे, क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग प्रचलन के अंतर्गत करने लगते हैं और अपने विचारों का सटीक निरूपण नहीं कर पाते।

चलिए संकल्पना शब्द से ही शुरू करते हैं
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जब मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन की कुछ घटनाओं या सार्वजनिक मामलों के बारे में बहस करते हैं या किसी समस्या पर सोच-विचार करते हैं, तो वे संकल्पनाओं के जरिए अपने इरादों, इच्छाओं और विचारों को व्यक्त करते हैं। सामान्य जीवन में मनुष्य ‘शिशु’, ‘मकान’, ‘जूते’, ‘टेलीविजन’, आदि संकल्पनाओं का उपयोग करते हैं, उद्योग में ‘मशीन’, ‘श्रमिक’, ‘उत्पाद’ आदि संकल्पनाओं का प्रयोग होता है, इनके अलावा विशिष्ट वैज्ञानिक संकल्पनाएं भी हैं जैसे ‘इलैक्ट्रोन’, ‘रासायनिक क्रिया’, आदि।

प्रत्येक संकल्पना एक अलग शब्द या शब्दों के योग से व्यक्त की जाती है जो बाह्य जगत की वस्तुओं या प्रक्रियाओं को सामान्यीकृत करते हैं। ये वस्तुएं और प्रक्रियाएं संकल्पना के आशय हैं और जो लक्षण उनके महत्वपूर्ण अनुगुणों का वर्णन करते हैं तथा जिनसे हम उन्हें अन्य वस्तुओं या प्रक्रियाओं से विभेदित करते हैं, वे संकल्पनाओं के गुणार्थ हैं।

जैसे "मनुष्य" संकल्पना का आशय जीवित मनुष्यों का संपूर्ण समुदाय है तथा इसका गुणार्थ इस पद से व्यक्त किया जा सकता है: एक बुद्धिसंपन्न सामाजिक प्राणी, जो श्रम औजारों की मदद से अन्य श्रम औजारों तथा विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करने और प्रकृति में बदलाव करने में समर्थ है।
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दर्शन की भी ऐसी ही विशेष संकल्पनाएं हैं, जिन्हें दार्शनिक प्रवर्ग या केवल प्रवर्ग कहते हैं। प्रवर्गों तथा अन्य वैज्ञानिक व दैनिक जीवन की संकल्पनाओं के बीच मुख्य अंतर यह है कि प्रवर्गों का आशय अत्यंत व्यापक होता है। दार्शनिक प्रवर्ग मनुष्य के गिर्द विश्व की सारी घटनाओं से संबंधित होते हैं।

चूंकि प्रवर्ग अत्यंत व्यापक, सर्वसमावेशी, सार्विक संकल्पनाएं हैं जो प्रकृति, समाज और चिंतन में अस्तित्व, गति तथा घटनाओं के विकास की सामान्य, सार्विक दशाओं को व्यक्त करती हैं, अतएव इनका सुपरिभाषित होना अत्यंत आवश्यक है।

यदि कोई संकल्पना सही-सही परिभाषित नहीं है, या तो बहुत व्यापक है या बहुत संकीर्ण, और उसका अर्थ या तो विसरित है या अस्पष्ट, तो उसका आशय निश्चित नहीं किया जा सकता है। ऐसी संकल्पनाओं को वैज्ञानिक, व्यावहारिक और सामाजिक क्रिया-कलाप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वे गलतियों तथा उलझन की तरफ़ ले जाती हैं।

अतएव दर्शन की, दुनिया की सही समझ को विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि सर्वप्रथम उसकी संकल्पनाओं और प्रवर्गों को ठीक-ठीक परिभाषित किया जाए और उन्हें सटीक बनाया जाए। इनमें सबसे महत्वपूर्ण और व्यापकतम प्रवर्ग हैं "भूतद्रव्य" और "चेतना", जिन्हें लेकर दर्शन के बुनियादी सवाल को पिछली पोस्टों में निरूपित किया गया था।
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उपरोक्त बात सामान्य ज़िंदगी में भी लागू होती है, मनु्ष्य की भाषा में प्रयुक्त संकल्पनाएं जितना ही सुपरिभाषित और स्पष्ट होंगी, उसकी समझ और दृष्टिकोण भी उतना ही स्पष्ट और सटीक होगा।

सामन्यतयः प्रचलित चलताऊ प्रवृत्तियों में संकल्पनाओं को जब सुपरिभाषित नहीं किया जाता तो कैसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती है, इसका अंदाज़ा वर्तमान भारतीय परिवेश में आसानी से लगाया जा सकता है।

जैसे कि यहां, ‘धर्म’, ‘आत्मा’, ‘हिंदुत्व’, साम्प्रदायिकता’, ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘भौतिकवादी’, ‘ आदर्शवादी’, ‘ज्ञान’, ‘अध्यात्म’, ‘राष्ट्र’ आदि-आदि कई संकल्पनाओं के संदर्भ में होता है। सामान्य जीवन में इनका सुपरिभाषित रूप पहुंच में नहीं है, यूं भी कहा जा सकता है कि इनका सुपरिभाषित रूप उपलब्ध ही नहीं है, अतएव अधिकतर लोग अपने मंतव्यों के हितार्थ इनका मनचाहा आशय निकालते हैं, विभिन्न-विभिन्न रूप से व्याख्यायित करते हैं और अपनी तद्‍अनुकूल दुकानदारी चलाते हैं। इनके मामलों में सबकी अपनी-अपनी अनुकूलित समझ है, और अक्सर इनको सार्विक रूप से परिभाषित नहीं किया जाता। ऐसी परिस्थितियों में प्रभुत्व प्राप्त या प्रभुत्व आकांक्षी व्यक्तियों या समूहों द्वारा आम जन को बरगलाया जाना आसान हो जाता है। यहां समय सिर्फ़ इशारा कर रहा है, बाकि स्वयं ही समझा जा सकता है।
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आज इतना ही।
अगली बार हम उपरोक्त प्रवर्गों पर ही अपनी चर्चा आगे बढ़ाएंगे।

संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

शनिवार, 19 सितंबर 2009

दर्शन की अध्ययन विधियां - द्वंदवाद और अधिभूतवाद

हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार दर्शन के बुनियादी सवाल और उसके जवाबों के अनुसार पैदा हुई दर्शन की भौतिकवादी और प्रत्ययवादी प्रवृत्तियों पर चर्चा की गई थी।
इस बार इन दोनों मुख्य प्रवृत्तियों द्वारा काम में ली जाने वाली तर्कणा और प्रमाणन की भिन्न-भिन्न अध्ययन विधियों को समझने की जुगत भिड़ाते हैं।
समय यहां मानवजाति के अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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मनुष्य के गिर्द विद्यमान विश्व अविराम बदल रहा है, गतिमान और विकसित हो रहा है। इनमें से कुछ परिवर्तनों की तरफ़ ध्यान नहीं जाता, जबकि कुछ अन्य मनुष्यजाति तथा समग्र प्रकृति के लिए बहुत महत्त्व के होते हैं। असीम ब्रह्मांड अनवरत गतिमान है। यह भूमंडल, यह पृथ्वी निरंतर परिवर्तित हो रही है। जीव-जंतु व वनस्पतियां भी रूपातंरित हो रही हैं। अपने क्रमविकास की लंबी राह में मनुष्य और समाज में निरंतर परिवर्तन होते रहे हैं।
इस दुनियां में जीवित बचे रहने, उसके अनुकूल बन सकने और अपने लक्ष्यों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप इसे बदलने के लिए मनुष्य को इसकी विविधता का अर्थ जानना और समझना होता है। प्राचीनकाल से ही लोग इन प्रश्नों में दिलचस्पी रखते हैं, जैसे विश्व क्या है और इसमें किस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं? क्या विभिन्न वस्तुओं के बीच कोई संयोजन सूत्र है? विश्व गतिमान क्यों है और इस गति का मूल क्या है?
फलतः ये प्रश्न कि "क्या गति का अस्तित्व है?" और "इस गति का क्या कारण है?" दर्शन के सामने एक और अधिक तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न के रूप में पेश आते हैं। गति के सार, उसके कारणों तथा उद्‍गमों की व्याख्या के साथ जुड़े दार्शनिक चिंतन में विश्व के क्रमविकास के स्पष्टीकरण की दो अध्ययन विधियां साकार हुईं, और विश्व को समझने के उपागम की दो विरोधी विधियां बन गईं - द्वंदवाद ( Dialectics ) और अधिभूतवाद ( Metaphysics )
आइए, इन दोनों विधियों के सार की जांच करते हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि इनमें से कौन उपरोक्त प्रश्नों के विज्ञानसम्मत समाधान मुहैया कराती है।
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द्वंदात्मक विधि:
भौतिकवादियों द्वारा प्रयुक्त विधि को द्वंदात्मक विधि कहा जाता है।
संज्ञान की द्वंदात्मक विधि यह मांग करती है कि हमारे गिर्द विश्व की सारी घटनाओं की छानबीन उनके अंतर्संबंधों, अंतर्क्रियाओं तथा उनके सतत विकास की प्रक्रियाओं में की जाए। यह विधि यह मानकर चलती है कि मनुष्य बाह्य जगत तथा स्वयं अपने को केवल तभी जान सकता है, जब वह सारी घटनाओं की जांच तथा अध्ययन उनकी गति में, अंतर्द्वंदों में, सतत परिवर्तन में करे और साथ ही सभी घटनाओं के पारस्परिक संक्रमणों तथा एक दूसरे में उनके पारस्परिक रूपांतरणों पर मुख्य रूप से ध्यान दे।
भौतिकवादी द्वंदवाद के दृष्टिकोण से संपूर्ण विश्व गतिमान और बदलती हुई वस्तुओं का एक समग्र संबंध है। इस सार्विक विश्व संबंध के बाहर न तो किसी अलग-थलग घटना को समझा जा सकता है, न प्रक्रिया को और न ही गति को। इसीलिए द्वंदवाद प्रत्येक विषय, प्रत्येक वस्तु की वैज्ञानिक, वस्तुगत जांच को उसके अधिकाधिक नये पक्षों, रिश्तों और संपर्क सूत्रों को प्रकाश में लाने की एक असीम प्रक्रिया के रूप में देखता है।
यह विधि प्रत्येक तथ्य में विकास के आंतरिक स्रोत का पता लगाने का प्रयत्न करती है। इन स्रोतों को वह अंतर्द्वंदों, अंतर्विरोधों के विश्लेषण में खोजती है, जो प्रत्येक घटना तथा प्रक्रिया के मूल में होते हैं, तथा जिनके आपसी संघर्ष और एकता की वज़ह से ही उस घटना तथा प्रक्रिया का अस्तित्व संभव हो पाता है।
इसके अनुसार विकास का तात्पर्य आवर्तता या एक वृत्तीय गति नहीं है, बल्कि एक वर्तुलाकार ( spiral ) गति है जिसमें नूतन का सतत आविर्भाव होता रहता है, और जो अभिलक्षण पुनरावर्तित होते प्रतीत होते हैं वे पूर्ववर्ती अवस्थाओं से गुणात्मक रूप से भिन्न होते हैं, उनसे उच्चतर अवस्थाओं में होते हैं। विकास के दौरान पुरातन का सतत विखंड़न तथा विलोपन होता है और इस प्रक्रिया में सभी मूल्यवान तथा जीवंत गुणों को संरक्षित रखते हुए नूतन का आविर्भाव होता है।
अधिभूतवादी विधि:
द्वंदवाद की प्रतिपक्षी विधि को अधिभूतवादी विधि कहते हैं।
इसमें प्रत्येक घटना का अलग-थलग ढ़ंग से, घटनाओं के पारस्परिक संबंधों, अंतर्द्वंदों व अंतर्क्रियाओं से अलग करके स्वतंत्र रूप से अध्ययन किया जाता है। यदि उसे इन संबंधों तथा अंतर्क्रियाओं को ध्यान में रखना भी पड़े तो वह सतही तौर पर ही ऐसा करती है। परिवर्तन तथा गति का अध्ययन करते समय अधिभूतवादी विधि वास्तविक विकास को नहीं देखती और इसीलिए प्रकृति, समाज तथा मनुष्य के चिंतन में मूलतः नयी धटनाओं तथा प्रक्रियाओं के उद्‍भव की संभावनाओं को स्वीकार नहीं करती।
इस विधि के अंतर्गत वस्तुओं और परिघटनाओं को अपरिवर्तनीय और एक दूसरे से स्वंतंत्र माना जाता है और इस बात से इन्कार किया जाता है कि आंतरिक अंतर्द्वंद प्रकृति और समाज के विकास के स्रोत हैं।
अधिभूतवादी दृष्टिकोण से विश्व में सब कुछ देर-सवेर पुनरावर्तित होता है, हर चीज़ ऐसे गतिमान होती है, मानो एक वृत में घूम रही हों। इसके अनुसार गति तथा परिवर्तन के स्रोत वस्तुओं और घटनाओं के अंदर नहीं, बल्कि किसी बाहरी प्रेरकों में, उन शक्तियों में निहित होते हैं जो विचाराधीन घटना के संबंध में बाहरी होती हैं।
अधिभूतवादी विधि बाह्य जगत में आमूल गुणात्मक रूपांतरणों और क्रांतिकारी परिवर्तनों को मान्यता नहीं देती, फलतः यह एक विकासविरोधी, यथास्थितिवादी प्रवृत्ति के रूप में समाज के प्रभुत्वशाली लोगों के साथ नाभिनालबद्ध हो जाती है।
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आज इतना ही।
संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय

बुधवार, 16 सितंबर 2009

दर्शन का बुनियादी सवाल और इसकी प्रवृत्तियां

हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार हमने दर्शन और विश्व को देखने के मनुष्य के नज़रिए यानि उसके विश्वदृष्टिकोण के बीच क्या संबंध होता है, इसे समझने की कोशिश की थी।
चर्चा आगे बढ़ाते हैं।
आज हम दर्शन के बुनियादी सवाल से गुजरेंगे।
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प्रत्येक विज्ञान का अपना प्रमुख बुनियादी सवाल होता है, यानि उन घटनाओं और प्रक्रियाओं का परास (range) जिनका वह अध्ययन करता है और अंत में अनुसंधान की उसकी अपनी विशेष विधि होती है। फलतः दर्शन की गहन समझ के लिए जरूरी है कि उसके बुनियादी सवाल, विषयवस्तु तथा अध्ययन-विधि को परिभाषित किया जाए।

जर्मनी के दार्शनिक इमानुएल कांट का विश्वास था कि दार्शनिक को तीन प्रश्नों का उत्तर देना ही चाहिए: "मैं क्या जान सकता हूं?", "मुझे क्या करना चाहिए?" और "मैं किसकी उम्मीद कर सकता हूं?" आइए, यह देखें कि इन तीन प्रश्नों में कोई अधिक सामान्य प्रश्न तो छुपा नहीं है।

वास्तव में मनुष्य सीखता है, उम्मीदें करता है और केवल इसी कारण से कि वह एक मन, चेतना और संकल्प से संपन्न है और अपने इर्द-गिर्द होने वाले सब कुछ का अवबोध व व्याख्या करने में समर्थ है। मनुष्य पेशियों और तंत्रिकाओं का ढे़र मात्र नहीं है, केवल एक शरीर नहीं है, वह जैसा कि प्राचीन काल में कहा जाता था, एक "आत्मा" से भी संपन्न है। सारे विशेष प्रश्नों का उत्तर इस बात पर पूर्णतः निर्भर है कि इस मुख्य प्रश्न का उत्तर किस तरह से दिया जाता है कि आत्मा, चित्त या चेतना क्या है? यह कहां से आती है और अजैव प्रकृति से किस प्रकार जुड़ी है? परिवेशीय जगत के साथ मनुष्य का संबंध क्या है और क्या वह उसे जान तथा परिवर्तित कर सकता है?

यही दर्शन के बुनियादी सवाल का सार है। चूंकि अन्य प्राणियों से भिन्न चिंतनशील, तर्कबुद्धिसंपन्न, सचेत सत्व होने की अपनी विशेषता को लोग बहुत पहले ही जान गए थे, इसलिए विश्व के साथ मनुष्य के संबंध की समस्या को आम तौर पर इस प्रकार निरुपित किया जाता था: सत्व के साथ आसपास की वास्तविकता के या भूतद्रव्य के साथ चेतना और चिंतन का संबंध।

अतः दर्शन का मूल प्रश्न मन और प्रकृति, चेतना और पदार्थ के अंतर्संबंध का प्रश्न है। दर्शन के उपरोक्त बुनियादी सवाल के दो पक्ष हैं जिनके आधार पर दर्शन के क्षेत्र की दिशाओं का निर्धारण होता है। आइए उन्हें समझने की कोशिश करते हैं।
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दर्शन के बुनियादी सवाल का पहला पक्ष:

भूतद्रव्य तथा चिंतन के संबंध पर विचार व्यक्त करते समय यह समुचित प्रश्न पैदा होता है कि इनमें से प्राथमिक कौन है? निर्धारक तत्व कौनसा है? भौतिक जगत या चिंतन और चेतना? दर्शन के बुनियादी सवाल का पहला पक्ष यही है।

हमारा जीवन अनुभव यह दर्शाता है कि प्रत्येक ठोस मामले में इस प्रश्न का उत्तर देना बिल्कुल सहज है। मसलन, चंद्रमा की संकल्पना ( विचार ) तथा उसके कविता बिंबों के प्रकट होने से बहुत पहले ही चंद्रमा विद्यमान था। फलतः यह कहा जा सकता है भौतिक वस्तु ( चंद्रमा ) अपने वैज्ञानिक या कवित्वमय रूप की, यानि चंद्रमा के प्रत्यय ( संकल्पना ) की पूर्ववर्ती थी।

इसके विपरीत चंद्रमा पर साक्षात पदार्पण करने से पहले वहां पहुंचने की कल्पना, साधनों के अभिकल्पन ( design ) का विचार निश्चय ही पहले पैदा हुआ और इसके बाद ही इन्हें मूर्त रूप दिया जा सका। फलतः इस मामले में यह कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक प्रत्यय ( विचार ), रॉकेटों तथा स्वचालित प्रयोगशालाओं के रूप में भौतिक वस्तुओं की रचना का पूर्ववर्ती था।

यदि यह ऐसी ही स्थितियों का मामला होता, तो दर्शन के बुनियादी सवाल का पहला पक्ष निहायत ही सरल होता। लेकिन दर्शन में ऐसे सरल मामलों की पड़ताल नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के प्रति मनुष्य के रुख़ पर विचार किया जाता है। यह स्पष्ट है कि सवाल के इस पहले भाग को समझना और सार्विक रूप में व्याख्यायित करना इतना आसान नहीं है। वास्तव में यह स्पष्ट करना आवश्यक है के ब्रह्मांड़ के संपूर्ण ऐतिहासिक क्रमविकास के पैमाने पर प्राथमिक और निर्धारक है: चिंतन या भौतिक जगत, और मनुष्य के क्रियाकलाप के किसी भी रूप में निर्धारक कौन है? केवल इसी संदर्भ में यह प्रश्न सार्थक है।

इस प्रश्न के उत्तर के अनुसार सारे दार्शनिकगण दो बड़े शिविरों या प्रवृत्तियों - भौतिकवाद ( Materialism ) और प्रत्ययवाद ( Idealism ) - में बंटे हुए हैं। भौतिकवादी इस बात पर जोर देते हैं कि भूतद्रव्य, पदार्थ प्राथमिक व निर्धारिक है और चेतना द्वितीयक तथा निर्धारित है। प्रत्ययवादी ( भाववादी, आदर्शवादी पर्याय शब्द भी काम में लिए जाते हैं ) विचार, चेतना को प्राथमिक और भूतद्रव्य, पदार्थ को द्वितीयक मानते हैं।

दर्शन के इतिहास में ऐसे भी चिंतक हुए हैं, जिन्होनें एक मध्यवर्ती स्थिति अपनाने की कोशिश की। उन्होंने दोनो विश्व तत्वों , अर्थात भूतद्रव्य तथा चेतना के बीच एक प्रकार की समांतरता, स्वाधीनता तथा समानता को मान्यता दी। इन्हें द्वेतवादी कहा जाता है। द्वेतवाद का कोई स्वाधीन महत्व नहीं है क्योंकि इसके महान प्रवक्ता देर-सवेर या तो प्रत्ययवाद की स्थिति पर जा पहुंचे या भौतिकवाद की।

दर्शन के बुनियादी सवाल का दूसरा पक्ष:

जब हम भूतद्रव्य और चिंतन तथा चेतना के बीच संबंध की जांच करते हैं, तो यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या हमारा चिंतन बाह्य जगत का सही-सही संज्ञान प्राप्त कर सकता है, क्या हम अपने आसपास की घटनाओं और प्रक्रियाओं के बारे में सही अंदाज़ा लगा सकते है और कि क्या हम उनके संबंध में सच्ची राह जाहिर कर सकते हैं और अपने निर्णयों तथा कथनों के आधार पर सफलतापूर्वक कर्म कर सकते हैं?

यह प्रश्न कि क्या विश्व संज्ञेय है और अगर ऐसा है, तो किस सीमा तक तथा क्या मनुष्य बिल्कुल सही या लगभग सही ढ़ंग से अपने आसपास की यथार्थता का संज्ञान प्राप्त कर सकता है, उसे समझ तथा उसकी छानबीन कर सकता है। यही दर्शन के बुनियादी सवाल का दूसरा पक्ष है।

विश्व की संज्ञेयता के प्रश्न के उत्तर के अनुसार सारे दार्शनिक दो प्रवृत्तियों में विभाजित हो जाते हैं। एक प्रवृत्ति में विश्व की संज्ञेयता के समर्थक शामिल हैं ( भौतिकवादियों तथा प्रत्ययवादियों की एक विशेष धारा, वस्तुगत प्रत्ययवादियों की एक बड़ी संख्या ) ; दूसरी प्रवृत्ति में इस संज्ञेयता के विरोधी शामिल हैं, जो यह मानते हैं कि विश्व पूर्णतः या अंशतः अज्ञेय है ( वे प्रत्ययवादियों की एक विशेष धारा, आत्मगत प्रत्ययवादी होते हैं )। विश्व की ज्ञेयता के विरोधियों को सामान्यतः अज्ञेयवादी कहते हैं।
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अधिकांश लोग साधारण जीवन के व्यवहार में स्वाभाविक तथा अचेतन रूप से भौतिकवादी होते हैं। वे ज़िंदगी के भौतिक पक्ष से भली-भांति परिचित होते हैं और अपने दैनन्दिनी कार्यकलापों में भौतिक सिंद्धांतों से परिचालित होते हैं। यह बात दीगर है कि जब जीवन से जुड़ी जिन चीज़ों में अनिश्चितता या असुरक्षा शामिल हो जाती है, तब वे पारंपरिक रूप से प्राप्त अपनी समझ के हिसाब से प्रत्ययवादी चिंतन का सहारा लेते हैं।

इसलिए समस्त भौतिकवादी गतिविधियों के बाबजूद, प्रत्ययवादी चिंतन के अस्तित्व में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। प्रत्ययवाद के उद्‍भव का कारण सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियां हैं। प्राचीन काल में जिन प्रांरभिक दार्शनिक मतों का जन्म हुआ, वे उन दशाओं में विकसित हुए, जब धर्म का प्रभाव बहुत ही प्रबल था। अधिकांश धार्मिक मतों के अनुसार, विश्व की रचना एक ईश्वर या देवताओं के द्वारा, अभौतिक, आध्यात्मिक, सर्वशक्तिमान सत्वों के द्वारा हुई। विश्व के धार्मिक-प्रत्ययवादी स्पष्टीकरण को स्वीकारने वाले अनेक दार्शनिक मतों पर इन विचारों का निश्चित प्रभाव पड़ा था।

फिर क्या कारण है कि वर्तमान युग में जब विज्ञान तथा इंजीनियरी के विकास ने भौतिकवाद की सत्यता की अनगिनत अकाट्य पुष्टियां कर दी हैं, तब भी प्रत्ययवाद ज्यों का त्यों बना हुआ है? मुद्दा यह है कि स्वयं मानव जीवन में और सामाजिक जीवन की दशाओं में प्रत्ययवाद की निश्चित जड़ें विद्यमान हैं। प्रत्ययवाद, प्रभावी वर्गों के विश्वदृष्टिकोण तथा वैचारिकी के साथ जुड़ा है और कुछ सामाजिक शक्तियों के लिए उपयोगी है, क्योंकि यह मौजूदा विश्व व्यवस्था की शाश्वतता तथा निरंतरता के पक्ष में दलीले मुहैया कराता है। यथास्थिति को बनाए रखने और सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तनों को गैरजरूरी सिद्ध कर उनकी धार को कुंद करने के लिए कटिबद्ध होता है। यह सत्ता से नाभिनालबद्ध है इसीलिए उसे भरपूर प्रश्रय, संजीवनी और प्रचार मिलता है।
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आज के लिए काफ़ी हो गया।
अब काफ़ी आधारभूत सामग्री हो गई है जो दर्शन के अवबोध के लिए एक सुसंगत स्थिति पैदा करने में सक्षम लगती है।

अगली बार दर्शन की अध्ययन विधियों पर चर्चा करते हुए आगे बढ़ेंगे।
जिज्ञासाओं और संवाद का स्वागत है।

समय
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