शनिवार, 18 सितंबर 2010

पशुओं का बौद्धिक व्यवहार - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां पशुओं के बौद्धिक व्यवहार पर चर्चा शुरू की थी, इस बार उसे ही थोड़ा और आगे बढाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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पशुओं का बौद्धिक व्यवहार - २


वानर अपने परिवेश की विभिन्न वस्तुओं के बीच मौजूद संबंधों को समझ सकते और उन्हें प्रभावित कर सकते हैं। उनकी ठीक यही क्षमता कभी-कभी उनके व्यवहार पर उल्टा असर डालती है। "तटस्थ जिज्ञासा" कभी-कभी वानर का ध्यान प्रयोग से इस हद तक हटा देती है कि वह "समस्या पेटी" में रखी लुभाने की चीज़ के बजाए किसी अखाद्य चीज़ में ज़्यादा दिलचस्पी दिखाने लगता है। फिर भी जब वानरों के अनुकूलित प्रतिवर्त बन जाते हैं, तो उनमें भी इन प्रतिवर्तों की अभिव्यक्तियां उतनी ही रूढ़ होती हैं, जितनी कि अन्य उच्चतर प्राणियों में।


रफ़ाएल नामक एक चिंपाज़ी पर कुछ प्रयोग किये गए। उनमें से एक प्रयोग यह था। प्रयोगकर्ता ने एक पेटी में काफ़ी नीचे रखे गये फलों के सामने स्पिरिट का बर्नर जलाया। फलों को पाने की कई असफ़ल कोशिशों के बाद अचानक रफ़ाएल के हाथ से बर्नर के ऊपर रखी गई पानी की टंकी की टोंटी खुल गई। पानी गिरने लगा और बर्नर बुझ गया। कई बार दोहराए जाने पर यह क्रिया आदत बन गयी। अब पानी की टंकी को बर्नर से कुछ दूर रखा गया। कुछेक कोशिशों के बाद रफ़ाएल ने इस बार भी अपना लक्ष्य पा लिया, उसने पानी मुंह में भरा और जाकर बर्नर पर छिड़क दिया। अगले प्रयोग में फल को एक तख़्ते पर तालाब के बीच रखा गया। पानी की टंकी दूसरे तख़्ते पर थी। इस बार रफ़ाएल आग बुझाने के लिए एक डगमगाती पुलिया पर चलकर टंकी वाले तख़्ते के पास पहुंचा।

इस तरह हम देखते हैं कि चिंपाज़ी ने पुराने ( सीखे हुए ) व्यवहार-संरूप ( आदत ) को नयी स्थिति में अंतरित किया। बेशक यह क्रिया अनावश्यक थी, क्योंकि तख़्ते के इर्द-गिर्द तालाब में पानी पहले से ही मौजूद था, मगर जैव दृष्टि से वह सर्वथा नियमसंगत थी। डगमगाती पुलिया पर दौड़ना चिंपाज़ी के लिए शारीरिकतः कठिन नहीं था, इसलिए प्रयोग में उसके सामने रखा गया लक्ष्य उसके लिए ऐसी समस्यात्मक स्थिति नहीं बना कि जिसमें किसी बौद्धिक प्रयास की आवश्यकता होती।

प्रतिक्रिया के अधिक रूढ़ तरीक़े के नाते सहजवृत्तियां और आदतें प्राणियों को अपने दिमाग़ पर ज़्यादा जोर डालने से बचाती हैं। कई बार असफ़ल रहने पर ही प्राणी चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी उच्चतर शक्तियों - बौद्धिक योग्यताओं - से काम लेता है। किंतु सामान्य स्थितियां उनके लिए समस्याएं विरले ही पैदा करती हैं और इसलिए वे अधिक ऊंचे, बौद्धिक स्तर पर प्रतिक्रिया दिखाए जाने का तकाज़ा नहीं करती। जीव-जंतुओं के लिए बौद्धिक व्यवहार अधिकांशतः एक प्रच्छन्न संभावना बना रहता है



एक और वैज्ञानिक ने परीस नाम के एक चिंपाज़ी पर कुछ प्रयोग किये थे। परीस को जब अंदर कोई खाने की चीज़ रखी हुई नली दी जाती थी, तो वह नली के भीतर से उस चीज़ को बाहर निकालने के लिए कोई उपयुक्त औजार चुन लेता था। वह वस्तुओं में आकृति, लंबाई, घनत्व,  और मोटाई की अनुसार भेद करना जानता था। यदि कोई उपयुक्त वस्तु नहीं मिलती थी, तो वह पास पड़ी टहनी से डंड़ी तोड़कर, या किसी चौड़ी तख़्ती से छिल्ली निकालकर या मुड़े हुए तार को सीध करके उससे काम चला लेता था। दूसरे शब्दों में, वह "औजार" बनाता था।



किंतु उच्चतर वानरों की "औजार-निर्माण" सक्रियता का महत्त्व बढ़ा-चढ़ाकर नहीं आंका जाना चाहिए। अनेक प्रयोगों के दौरान चिंपाज़ी अपना लक्ष्य पाने के लिए दो डंडियों को आपस में जोड़ने में असमर्थ पाये गये हैं। ऐसा स्वाभाविक भी है, क्योंकि दांतों से छिल्लियां निकालना या ड़ंडियों को तोड़ना प्राकृतिक परिस्थितियों में एक सर्वथा सामान्य बात है। जबकि ड़ंडियों को जोड़ना एक ऐसा काम है, जिसमें कई प्रयत्नों और पूर्वाधारों की जरूरत होती है। कभी-कभार वानर दो छोटी ड़ंडियों को जोड़कर एक बड़ी डंडी, यानि "औजार" बनाने में समर्थ सिद्ध हुए हैं, मगर वे न तो इन निर्मित औजारों को सुरक्षित रखते हैं और न उन्हें पहले से बनाते हैं। "औजार" वानर के प्रत्यक्ष कार्य के दौरान प्रकट होता है और फिर तुरंत विलुप्त हो जाता है। अतः मनुष्य की श्रम-सक्रियता और वानरों के संबंधित क्रिया-कलाप के बीच समानता की बात केवल आलंकारिक अर्थ में ही की जा सकती है।

इस संबंध में खाने की चीज़वाली पेटी की साथ किये गये हुए प्रयोग दिलचस्प हैं। वानर पेटी पर बने तिकोने छेद से उस चीज़ को देख सकता था। एक तिकोनी अनुप्रस्थ काटवाली डंडी इस छेद में डाल कर और अंदर बने लीवर को दबाकर पेटी को खोला जा सकता था। प्रयोगकर्ता ने बंदर को यह कार्य कई बार करके दिखाया। वानर के सामने गोल, चौकोर, तिकोनी, आदि कई तरह की डंडियां पड़ी थीं। उसने पहले जो भी डंडी हाथ में आई, उसे छेद में डालने का प्रयत्न किया। फिर उसने दूसरी डंडियों को हाथ से टटोला, सूंघा, जांचा और एक-एक करके छेद में डाला। आख़िरकार उपयुक्त डंडी मिल ही गई।



इस तरह हम देखते हैं कि अभिविन्यासात्मक हस्तक्रिया के दौरान वानरों के बौद्धिक कार्य ठोस व्यवहारिक चिंतन का रूप धारण कर लेते हैं। उच्चतर वानरों के व्यवहार की एक चारित्रिक विशेषता अनुकरण है।


उदाहरण के लिए, वानर झाड़ू लगा सकता है, कपड़ा गीला कर सकता, निचोड़ सकता और पोंछा लगा सकता है। ऐसे अनुकरणात्मक कार्य बड़े आदिम ढंग के होते हैं। वानर सामान्यतः क्रिया की नक़ल करते हैं, न कि उसके परिणाम की। इसलिए जब वह फ़र्श "बुहारता" है, तो वह आम तौर पर फ़र्श को साफ़ किये बिना धूल को मात्र एक जगह से दूसरी जगह फैंकता है ( वैसे विशेष प्रशिक्षण के बाद फ़र्श साफ़ करने का लक्ष्य भी पाया जा सकता है )। वानरों में बौद्धिक अनुकरण की क्षमता के कोई अकाट्य प्रमाण नहीं पाये गये हैं।

इस तरह परावर्तन के रूपों ( अनुवर्तन, सहजवृत्तियां, आदतें और बौद्धिक क्रियाएं ) के बीच स्पष्ट विभाजन नहीं है। पशुजगत में विकास की एक अटूट, अविच्छिन्न रेखा है, उदाहरणार्थ, सहजवृत्तियां बदलकर आदतें बन जाती हैं और आदतें सहजवृत्तियों में परिणत हो जाती हैं।

फिर भी हम पाते हैं कि अपनी ठोस अभिव्यक्तियों में विकास की प्रक्रिया का स्वरूप छलांगनुमा है और नैरंतर्य में भी विराम है। कतिपय जीवजातियों में सहजवृत्तियों का प्राधान्य मिलता है और कतिपय जीवजातियों में उनके अपने अनुभव के आधार पर बने साहचर्यों का बोलबाला पाया जाता है।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

1 टिप्पणियां:

श्याम जुनेजा ने कहा…

हिंदी के तकनीकी शब्दों के अंग्रेजी विकल्प भी यदि साथ साथ रख सकें तो बड़ी मेहरबानी होगी..दूसरों की नहीं जानता मेरी तो इस विषय में गहरी रूचि है .. आपका बहुत बहुत धन्यवाद !

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