हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में प्रत्यक्ष की स्थिरता और सार्थकता पर विचार किया था, इस बार हम प्रत्यक्ष की प्रत्यक्षकर्ता पर निर्भरता पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में प्रत्यक्ष की स्थिरता और सार्थकता पर विचार किया था, इस बार हम प्रत्यक्ष की प्रत्यक्षकर्ता पर निर्भरता पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
प्रत्यक्ष की निर्भरता
( dependence of perception )
( dependence of perception )
प्रत्यक्ष क्षोभकों पर ही नहीं, प्रत्यक्षकर्ता पर भी निर्भर होता है। प्रत्यक्ष अपने आप में आंख या कान द्वारा नहीं, बल्कि एक निश्चित जीवित मनुष्य द्वारा किया जाता है। प्रत्यक्ष सदा किसी न किसी हद तक प्रत्यक्षकर्ता के व्यक्तित्व, उसकी विशेषताओं, प्रत्यक्ष की वस्तु के प्रति उसके रवैये, आवश्यकताओं, रुचियों, इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा भावनाओं के प्रभाव को व्यक्त करता है। प्रत्यक्ष की, प्रत्यक्षकर्ता के मानसिक जीवन तथा उसके व्यक्तित्व की अंतर्वस्तु पर निर्भरता को सामान्यतः समवबोधन अथवा संप्रत्यक्ष कहते हैं।
बहुसंख्य अध्ययन दिखाते हैं कि मनुष्य द्वारा देखा हुआ चित्र क्षणिक संवेदनों का योगफल नहीं होता, उसमें प्रायः ऐसी चीज़ें भी होती हैं कि जो प्रत्यक्षण के क्षण में मनुष्य के दृष्टिपटल पर होती ही नहीं, किंतु जिन्हें वह जैसे कि अपने पहले से अनुभव की वजह से देखता है।
प्रत्यक्ष एक सक्रिय प्रक्रिया है, जो मनुष्य को प्राक्कल्पनाओं ( hypothesis ) के निर्माण व जांच के लिए सामग्री प्रदान करती है। किंतु इन प्राक्कल्पनाओं की अंतर्वस्तु मनुष्य के विगत अनुभव पर निर्भर करती है। जब किसी आदमी को सीधी रेखाओं और वक्रों के कई यादृच्छिक ( random ) संयोजन दिखाए जाते हैं और पूछा जाता है कि ‘वह क्या हो सकता है ?’, तो उसके प्रत्यक्ष में शुरु से ही उन शीर्षों की खोज शामिल रहती है, जिनके अंतर्गत दत्त आकृतियों को रखा जा सकता है। उसका मस्तिष्क अनेक प्राक्कल्पनाएं पेश करता तथा जांचता है और आकृति को इस या उस श्रेणी से जोड़ने का प्रयत्न करता है।
इस प्रकार किसी भी वस्तु का प्रत्यक्ष विगत प्रत्यक्षों के निशानों को सक्रिय बनाता है। अतः यह स्वाभाविक ही है कि एक ही वस्तु का अलग-अलग मनुष्यों द्वारा अलग-अलग ढंग से प्रत्यक्ष किया जाता है। प्रत्यक्ष मनुष्य के विगत अनुभव पर निर्भर होता है। मनुष्य का अनुभव तथा ज्ञान जितना ही समृद्ध होगा, उसका प्रत्यक्ष उतना ही बहुआयामी ( multidimensional ) होगा और वस्तु में वह उसकी उतनी ही ज़्यादा विशेषताएं देखेगा।
प्रत्यक्ष की अंतर्वस्तु ( content ) भी मनुष्य के कार्यभार ( assignment ) से, उसकी सक्रियता के अभिप्रेरकों ( motives ) से निर्धारित होती है। उदाहरण के लिए, जब हम आर्केस्ट्रा द्वारा बजाई जा रही कोई संगीत रचना सुनते हैं, तो हम सारी रचना को उसकी समग्रता में और अलग-अलग वाद्ययंत्रों की ध्वनियों में भेद किये बिना ग्रहण करते हैं। किसी निश्चित वाद्ययंत्र द्वारा निभाई जानेवाली भूमिका हमारी चेतना में प्रमुखता तभी पायेगी और पृथक प्रत्यक्षण की वस्तु तभी बनेगी, जब हम अपने सामने ठीक ऐसा ही कार्यभार निश्चित करेंगे। तब और बाकी सभी कुछ प्रत्यक्ष की पृष्ठभूमि ( background ) में होगा।
इसी तरह प्रत्यक्ष की अंतर्वस्तु को प्रभावित करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण कारक प्रत्यक्षकर्ता का रवैया ( attitude ) है, साथ ही यह भी कि प्रत्यक्ष की क्रिया में भाग लेने वालों संवेगों द्वारा भी प्रत्यक्ष की अंतर्वस्तु को बदला जा सकता है। मनुष्य के विगत अनुभव, अभिप्रेरकों तथा कार्यभारों और उसकी संवेगात्मक अवस्था ( और यहां विश्वास, विश्व-दृष्टिकोण, रुचियों, आदि को भी शामिल किया जा सकता है ) का प्रभाव स्पष्टतः दिखाता है कि प्रत्यक्ष एक सक्रिय प्रक्रिया है और उसे नियंत्रित किया जा सकता है।
बहुसंख्य अध्ययन दिखाते हैं कि मनुष्य द्वारा देखा हुआ चित्र क्षणिक संवेदनों का योगफल नहीं होता, उसमें प्रायः ऐसी चीज़ें भी होती हैं कि जो प्रत्यक्षण के क्षण में मनुष्य के दृष्टिपटल पर होती ही नहीं, किंतु जिन्हें वह जैसे कि अपने पहले से अनुभव की वजह से देखता है।
प्रत्यक्ष एक सक्रिय प्रक्रिया है, जो मनुष्य को प्राक्कल्पनाओं ( hypothesis ) के निर्माण व जांच के लिए सामग्री प्रदान करती है। किंतु इन प्राक्कल्पनाओं की अंतर्वस्तु मनुष्य के विगत अनुभव पर निर्भर करती है। जब किसी आदमी को सीधी रेखाओं और वक्रों के कई यादृच्छिक ( random ) संयोजन दिखाए जाते हैं और पूछा जाता है कि ‘वह क्या हो सकता है ?’, तो उसके प्रत्यक्ष में शुरु से ही उन शीर्षों की खोज शामिल रहती है, जिनके अंतर्गत दत्त आकृतियों को रखा जा सकता है। उसका मस्तिष्क अनेक प्राक्कल्पनाएं पेश करता तथा जांचता है और आकृति को इस या उस श्रेणी से जोड़ने का प्रयत्न करता है।
इस प्रकार किसी भी वस्तु का प्रत्यक्ष विगत प्रत्यक्षों के निशानों को सक्रिय बनाता है। अतः यह स्वाभाविक ही है कि एक ही वस्तु का अलग-अलग मनुष्यों द्वारा अलग-अलग ढंग से प्रत्यक्ष किया जाता है। प्रत्यक्ष मनुष्य के विगत अनुभव पर निर्भर होता है। मनुष्य का अनुभव तथा ज्ञान जितना ही समृद्ध होगा, उसका प्रत्यक्ष उतना ही बहुआयामी ( multidimensional ) होगा और वस्तु में वह उसकी उतनी ही ज़्यादा विशेषताएं देखेगा।
प्रत्यक्ष की अंतर्वस्तु ( content ) भी मनुष्य के कार्यभार ( assignment ) से, उसकी सक्रियता के अभिप्रेरकों ( motives ) से निर्धारित होती है। उदाहरण के लिए, जब हम आर्केस्ट्रा द्वारा बजाई जा रही कोई संगीत रचना सुनते हैं, तो हम सारी रचना को उसकी समग्रता में और अलग-अलग वाद्ययंत्रों की ध्वनियों में भेद किये बिना ग्रहण करते हैं। किसी निश्चित वाद्ययंत्र द्वारा निभाई जानेवाली भूमिका हमारी चेतना में प्रमुखता तभी पायेगी और पृथक प्रत्यक्षण की वस्तु तभी बनेगी, जब हम अपने सामने ठीक ऐसा ही कार्यभार निश्चित करेंगे। तब और बाकी सभी कुछ प्रत्यक्ष की पृष्ठभूमि ( background ) में होगा।
इसी तरह प्रत्यक्ष की अंतर्वस्तु को प्रभावित करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण कारक प्रत्यक्षकर्ता का रवैया ( attitude ) है, साथ ही यह भी कि प्रत्यक्ष की क्रिया में भाग लेने वालों संवेगों द्वारा भी प्रत्यक्ष की अंतर्वस्तु को बदला जा सकता है। मनुष्य के विगत अनुभव, अभिप्रेरकों तथा कार्यभारों और उसकी संवेगात्मक अवस्था ( और यहां विश्वास, विश्व-दृष्टिकोण, रुचियों, आदि को भी शामिल किया जा सकता है ) का प्रभाव स्पष्टतः दिखाता है कि प्रत्यक्ष एक सक्रिय प्रक्रिया है और उसे नियंत्रित किया जा सकता है।
संवेदन की भांति प्रत्यक्ष भी एक परावर्तनात्मक प्रक्रिया ( reflectional process ) है। यह अनुकूलित प्रतिवर्तों ( conditioned reflexes ) पर आधारित होता है, जो बाह्य विश्व की वस्तुओं अथवा परिघटनाओं की विश्लेषक ग्राहियों पर क्रिया के उत्तर में प्रमस्तिष्कीय गोलार्ध की प्रांतस्था में बननेवाले कालिक तंत्रिका-संबंध हैं। विश्लेषण ( analysis ) करते हुए मस्तिष्क प्रत्यक्ष की वस्तु का अभिज्ञान ( recognition ) और पृष्ठभूमि से पृथक्करण ( separation ) करता है और इसके बाद उसकी सभी विशेषताओं का एक समेकित बिंब में संश्लेषण ( synthesis ) करता है।
संवेदनों की तुलना में प्रत्यक्ष मस्तिष्क की विश्लेषणमूलक तथा संश्लेषणमूलक सक्रियता का उच्चतर रूप है। विश्लेषण के बिना सार्थक प्रत्यक्ष असंभव है। यही कारण है कि अज्ञात विदेशी भाषा उसके श्रोता को ध्वनियों की एक अनवरत धारा के अलावा कुछ नहीं लगती। उन ध्वनियों को सार्थक बनाने यानी समझ पाने के लिए उन्हें अलग-अलग वाक्यों तथा शब्दों में तोड़ना आवश्यक है। फिर भी वाक्-प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में विश्लेषण और संश्लेषण, दोनों काम साथ-साथ चलते हैं, जिससे हम पृथक असंबद्ध ध्वनियों को नहीं, बल्कि शब्दों तथा वाक्यों को ग्रहण करते तथा समझते हैं।
संवेदनों की भांति ही प्रत्यक्षों का वर्गीकरण भी प्रत्यक्षण में भाग लेने वाले विश्लेषकों के भेद पर आधारित है। यह देखते हुए कि किस प्रत्यक्ष में कौन-सा विश्लेषक मुख्य भूमिका अदा करता है, हम प्रत्यक्षों को चाक्षुष, श्रवणमूलक, स्पर्शमूलक, गतिबोधक, घ्राणमूलक और आस्वादमूलक प्रत्यक्षों में विभाजित करते हैं। सामान्यतः प्रत्यक्ष परस्परक्रिया करने वाले कई विश्लेषकों के कार्य का परिणाम होता है। गतिबोधक ( पेशीय ) संवेदन न्यूनाधिक मात्रा में सभी प्रकार के प्रत्यक्षों में भाग लेते हैं। एक ही प्रकार का प्रत्यक्ष विरले ही मिलता है। आम तौर पर सभी प्रत्यक्ष, विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्षों का सम्मिश्रण ही होते हैं।
संवेदनों की तुलना में प्रत्यक्ष मस्तिष्क की विश्लेषणमूलक तथा संश्लेषणमूलक सक्रियता का उच्चतर रूप है। विश्लेषण के बिना सार्थक प्रत्यक्ष असंभव है। यही कारण है कि अज्ञात विदेशी भाषा उसके श्रोता को ध्वनियों की एक अनवरत धारा के अलावा कुछ नहीं लगती। उन ध्वनियों को सार्थक बनाने यानी समझ पाने के लिए उन्हें अलग-अलग वाक्यों तथा शब्दों में तोड़ना आवश्यक है। फिर भी वाक्-प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में विश्लेषण और संश्लेषण, दोनों काम साथ-साथ चलते हैं, जिससे हम पृथक असंबद्ध ध्वनियों को नहीं, बल्कि शब्दों तथा वाक्यों को ग्रहण करते तथा समझते हैं।
संवेदनों की भांति ही प्रत्यक्षों का वर्गीकरण भी प्रत्यक्षण में भाग लेने वाले विश्लेषकों के भेद पर आधारित है। यह देखते हुए कि किस प्रत्यक्ष में कौन-सा विश्लेषक मुख्य भूमिका अदा करता है, हम प्रत्यक्षों को चाक्षुष, श्रवणमूलक, स्पर्शमूलक, गतिबोधक, घ्राणमूलक और आस्वादमूलक प्रत्यक्षों में विभाजित करते हैं। सामान्यतः प्रत्यक्ष परस्परक्रिया करने वाले कई विश्लेषकों के कार्य का परिणाम होता है। गतिबोधक ( पेशीय ) संवेदन न्यूनाधिक मात्रा में सभी प्रकार के प्रत्यक्षों में भाग लेते हैं। एक ही प्रकार का प्रत्यक्ष विरले ही मिलता है। आम तौर पर सभी प्रत्यक्ष, विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्षों का सम्मिश्रण ही होते हैं।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
1 टिप्पणियां:
समय जी! ये क्लास भी हमारे लिए तो सीखने वाली रही।
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