हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में प्रत्यक्ष की प्रत्यक्षकर्ता पर निर्भरता पर विचार किया था, इस बार हम एक क्रिया के रूप में प्रत्यक्ष तथा प्रेक्षण पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में प्रत्यक्ष की प्रत्यक्षकर्ता पर निर्भरता पर विचार किया था, इस बार हम एक क्रिया के रूप में प्रत्यक्ष तथा प्रेक्षण पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
एक क्रिया के रूप में प्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष में प्रेरक-घटकों की भूमिका
( role of motivational components in perception )प्रत्यक्ष एक विशेष प्रकार की क्रिया है, जिसका लक्ष्य वस्तु का अन्वेषण ( exploration ) तथा उसका समेकित परावर्तन है। प्रत्यक्ष का एक अनिवार्य घटक ( component ) गतिशीलता है। वस्तु को हाथ से अनुभव करना, उसकी दृश्य रूपरेखा पर नज़र दौड़ाना, कंठ से ध्वनि निकालना गतिपरक क्रियाओं की मिसालें है।
स्पर्श की क्रिया में प्रेरक-घटकों की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। ज्ञात है कि मनुष्य के शरीर के सारी त्वचा में निष्क्रिय ( passive ) स्पर्श की क्षमता होती है। किंतु अधिकतम प्रभावी सक्रिय ( active ) स्पर्श होता है और वह हाथ की त्वचा की एक विशेषता है। इसीलिए किसी भी वस्तु की सतह पर हाथ की गति उसका पूर्ण परावर्तन सुनिश्चित करती है। आंख और हाथ के कार्यों में काफ़ी समानता है। हाथ की भांति आंख भी चित्र अथवा वस्तु की रूपरेखा को जांचती और ‘टटोलती’ है। देखते समय आंख की और टटोलते समय हाथ की गतिपरक प्रतिक्रियाएं प्रयोजन की दृष्टि से बिल्कुल समान है। हाथ आंख को अन्वेषण की प्रणाली, कार्यनीति और व्यूहनीति सिखाता है।
स्पर्श की प्रक्रिया में हाथ की गतियों और देखने की प्रक्रिया में आंख की गतियों के विश्लेषण ने दिखाया है कि उन्हें मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में खोजने, रखने तथा सही करने से संबंधित गतियां आती हैं, जिनके ज़रिए हाथ प्रत्यक्ष की दत्त वस्तु को खोजता, अपने को ‘मूल स्थिति’ में रखता और इस स्थिति को सही करता है ( ऐसा ही आंख के साथ भी होता है )। दूसरी श्रेणी में बिंब के निर्माण, वस्तु की अवस्थिति ( location ) के निर्धारण, परिचित वस्तुओं की पहचान, आदि में भाग लेने वाली गतियां आती हैं। इन्हें संज्ञानात्मक गतियां या प्रात्यक्षिक क्रियाएं कहा जाता है।
मनुष्य के प्रत्यक्षमूलक बिंब की पूर्णता के मापदंड उसके परिवेश तथा शिक्षा पर निर्भर होते हैं और स्थिर नहीं रहते। इसकी पुष्टि, मिसाल के लिए, उन लोगों के ऑपरेशन के बाद के अनुभव से भी होती है, जो जन्म से अंधे थे और जिन्होंने बहुत वर्षों बाद अपनी आंखों का इलाज करवाया था।
स्पर्श की क्रिया में प्रेरक-घटकों की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। ज्ञात है कि मनुष्य के शरीर के सारी त्वचा में निष्क्रिय ( passive ) स्पर्श की क्षमता होती है। किंतु अधिकतम प्रभावी सक्रिय ( active ) स्पर्श होता है और वह हाथ की त्वचा की एक विशेषता है। इसीलिए किसी भी वस्तु की सतह पर हाथ की गति उसका पूर्ण परावर्तन सुनिश्चित करती है। आंख और हाथ के कार्यों में काफ़ी समानता है। हाथ की भांति आंख भी चित्र अथवा वस्तु की रूपरेखा को जांचती और ‘टटोलती’ है। देखते समय आंख की और टटोलते समय हाथ की गतिपरक प्रतिक्रियाएं प्रयोजन की दृष्टि से बिल्कुल समान है। हाथ आंख को अन्वेषण की प्रणाली, कार्यनीति और व्यूहनीति सिखाता है।
स्पर्श की प्रक्रिया में हाथ की गतियों और देखने की प्रक्रिया में आंख की गतियों के विश्लेषण ने दिखाया है कि उन्हें मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में खोजने, रखने तथा सही करने से संबंधित गतियां आती हैं, जिनके ज़रिए हाथ प्रत्यक्ष की दत्त वस्तु को खोजता, अपने को ‘मूल स्थिति’ में रखता और इस स्थिति को सही करता है ( ऐसा ही आंख के साथ भी होता है )। दूसरी श्रेणी में बिंब के निर्माण, वस्तु की अवस्थिति ( location ) के निर्धारण, परिचित वस्तुओं की पहचान, आदि में भाग लेने वाली गतियां आती हैं। इन्हें संज्ञानात्मक गतियां या प्रात्यक्षिक क्रियाएं कहा जाता है।
मनुष्य के प्रत्यक्षमूलक बिंब की पूर्णता के मापदंड उसके परिवेश तथा शिक्षा पर निर्भर होते हैं और स्थिर नहीं रहते। इसकी पुष्टि, मिसाल के लिए, उन लोगों के ऑपरेशन के बाद के अनुभव से भी होती है, जो जन्म से अंधे थे और जिन्होंने बहुत वर्षों बाद अपनी आंखों का इलाज करवाया था।
१० महिने की अवस्था में अंधे हुए और ५१ वर्ष की अवस्था में जाकर पुनः दृष्टिलाभ करनेवाले एक रोगी के मामले में पाया गया कि ऑपरेशन के बाद जब उसकी आंखों से पट्टियां खोली गईं, तो उसे धुंधली रूपरेखाओं के अलावा कुछ न दिखाई दिया। उसे वस्तुओं की दुनियां वैसी नहीं दिखाई दी, जैसी हमें आंखें खोलने पर दिखाई देती है। शनैः शनैः उसकी दृष्टि लौट आई, किंतु विश्व उसे फिर भी धुंधला तथा अस्पष्ट दिखता रहा। बहुत समय तक उसका चाक्षुष प्रत्यक्ष उसके पहले के स्पर्शमूलक प्रत्यक्ष के अनुभवों तक सीमित रहा। वह आंखों से देखकर पढ़ना न सीख पाया, उसके बनाए चित्र दिखाते थे कि वह ऐसी वस्तुओं के चित्र नहीं बना सकता, जिन्हें उसने स्पर्श के ज़रिए नहीं जाना था। दृष्टिलाभ के एक वर्ष बाद भी वह किसी पेचीदी वस्तु का चित्र तब तक नहीं बना सकता था, जब तक पहले उसे हाथ से पूरी तरह टटोल न ले।
इस तरह के अनुभव बताते है कि प्रत्यक्ष की क्षमता केवल सीखने से आती है। प्रत्यक्ष प्रात्यक्षिक क्रियाओं की पद्धति है और ऐसी क्रियाएं सीखने के लिए विशेष प्रशिक्षण तथा अभ्यास की आवश्यकता होती है।
प्रेक्षण
( observation )प्रेक्षण ( observation ) ऐच्छिक प्रत्यक्ष का एक महत्त्वपूर्ण रूप और बाह्य विश्व की वस्तुओं तथा परिघटनाओं का सोद्देश्य तथा सुनियोजित अवबोधन है। प्रेक्षण में प्रत्यक्ष एक स्वतंत्र क्रिया का रूप ले लेता है। प्रेक्षण के लिए मनुष्य को अपनी स्पर्श, दृष्टि, श्रवण, आदि इंद्रियों का बखूबी इस्तेमाल करना आना चाहिए। हम प्रायः विदेशी भाषा की अलग-अलग ध्वनियों के बीच भेद नहीं करते, संगीत रचना में ग़लत सुर को नहीं देखते। प्रेक्षण सीखा जा सकता है और ज़रूर सीखा जाना चाहिए। परिष्कृत वाक् ( refined speech ) जैसे परिष्कृत प्रत्यक्ष तथा प्रेक्षण भी हो सकते हैं। इस संबंध में एक मानवश्रेष्ठ ने जो कि प्रसिद्ध खगोलविज्ञानी थे, कहा है: ‘देख पाना आपके अपने हाथ में है। इसके लिए आपको अपनी आंखों पर बस वह जादू की छड़ी घुमानी होगी, जिसपर लिखा है: मैं जानता हूं कि मैं क्या देख रहा हूं।’
सचमुच प्रेक्षण में सफलता काफ़ी हद तक अपने कार्यभार ( assignment ) के स्पष्ट निर्धारण पर निर्भर होती है। प्रेक्षक को एक क़ुतुबनुमा ( compass ) की आवश्यकता होती है, जो उसे प्रेक्षण की दिशा दिखा सके। कार्यभार अथवा प्रेक्षण की योजना ऐसी ही क़ुतुबनुमा है।
प्रेक्षण में प्रारंभिक तैयारी और प्रेक्षक का विगत अनुभव तथा ज्ञान बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। मनुष्य जितना ही अनुभवी तथा जानकार होगा, उसका प्रत्यक्ष उतना ही पूर्ण होगा। अपने छात्रों की सक्रियता का संगठन व निदेशन करते हुए शिक्षक को प्रेक्षण के इन नियमों को ध्यान में रखना चाहिए। छात्र नई सामग्री को समझ सकें, यह सुनिश्चित करने के लिए शिक्षक को उन्हें इसके लिए तैयार करना, उनके विगत अनुभव को सक्रिय बनाना, इसे नई सामग्री से जोड़ने में उनकी मदद करना और उनके सामने नये कार्यभार रखकर उनके ध्यान को उस दिशा में प्रवृत्त करना चाहिए। प्रेक्षण को किसी निश्चित दिशा में मोड़ने और नई सामग्री में पैठ बनाने का एक अन्य ज़रिया शिक्षण में दॄश्यता (visualization) के सिद्धांत को अधिकतम लागू करना है।
शिक्षण में दॄश्यता शिक्षक के शब्दों के साथ विशेष साधनों ( दृश्य सामग्री, विशेष उपकरण, निदर्शन ( simile ), यात्राएं व भ्रमण, आदि ) का संयोजन करके हासिल की जाती हैं। आजकल नई जानकारी के आत्मसात्करण में दृश्यता सिद्धांत के इस तरह के क्रियान्वयन से बेहतर परिणाम हासिल करने के कई नये पहलू सामने आ रहे हैं। शिक्षण को यों संगठित किया जाना चाहिए वह छात्र की ओर से चिंतन की एक सक्रिय प्रक्रिया हो। इस सक्रियता का परिणाम छात्रों द्वारा नई सामग्री का आत्मसात्करण होता है और यही शिक्षण का लक्ष्य भी है।
सचमुच प्रेक्षण में सफलता काफ़ी हद तक अपने कार्यभार ( assignment ) के स्पष्ट निर्धारण पर निर्भर होती है। प्रेक्षक को एक क़ुतुबनुमा ( compass ) की आवश्यकता होती है, जो उसे प्रेक्षण की दिशा दिखा सके। कार्यभार अथवा प्रेक्षण की योजना ऐसी ही क़ुतुबनुमा है।
प्रेक्षण में प्रारंभिक तैयारी और प्रेक्षक का विगत अनुभव तथा ज्ञान बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। मनुष्य जितना ही अनुभवी तथा जानकार होगा, उसका प्रत्यक्ष उतना ही पूर्ण होगा। अपने छात्रों की सक्रियता का संगठन व निदेशन करते हुए शिक्षक को प्रेक्षण के इन नियमों को ध्यान में रखना चाहिए। छात्र नई सामग्री को समझ सकें, यह सुनिश्चित करने के लिए शिक्षक को उन्हें इसके लिए तैयार करना, उनके विगत अनुभव को सक्रिय बनाना, इसे नई सामग्री से जोड़ने में उनकी मदद करना और उनके सामने नये कार्यभार रखकर उनके ध्यान को उस दिशा में प्रवृत्त करना चाहिए। प्रेक्षण को किसी निश्चित दिशा में मोड़ने और नई सामग्री में पैठ बनाने का एक अन्य ज़रिया शिक्षण में दॄश्यता (visualization) के सिद्धांत को अधिकतम लागू करना है।
शिक्षण में दॄश्यता शिक्षक के शब्दों के साथ विशेष साधनों ( दृश्य सामग्री, विशेष उपकरण, निदर्शन ( simile ), यात्राएं व भ्रमण, आदि ) का संयोजन करके हासिल की जाती हैं। आजकल नई जानकारी के आत्मसात्करण में दृश्यता सिद्धांत के इस तरह के क्रियान्वयन से बेहतर परिणाम हासिल करने के कई नये पहलू सामने आ रहे हैं। शिक्षण को यों संगठित किया जाना चाहिए वह छात्र की ओर से चिंतन की एक सक्रिय प्रक्रिया हो। इस सक्रियता का परिणाम छात्रों द्वारा नई सामग्री का आत्मसात्करण होता है और यही शिक्षण का लक्ष्य भी है।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
2 टिप्पणियां:
अनुभव का अर्थ स्पष्ट हुआ।
Aabhar.
---------
पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?
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