गुरुवार, 2 जुलाई 2009

आखिर क्या है सपनों का मनोविज्ञान

हे मानव श्रेष्ठों,
कई दिन हुए, हुआ यह कि एक मानवश्रेष्ठ की जिज्ञासा पर समय सपनों की दुनिया की यात्रा पर निकल गया था। चलिए देखते हैं कि समय अपने पिटारे में वहां से क्या-क्या ले कर आया है।
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सपने शुरू से ही यानि जब मनुष्य नाम का प्राणी कार ले रहा था, मानवजाति के लिए रहस्यमयी अवस्था रही है। वह सपनों को अपनी जागृत ज़िंदगी से अलग नहीं कर पाता था, और जाहिर है इसीलिए इनमें एक वस्तुगत सत्य का आभास महसूस करता था। जागृत अवस्था की वास्तविकता का अनुभव धीरे-धीरे उसकी चेतना में सुषुप्त अवस्था में देखे गये सपनों की काल्पनिकता की समझ विकसित करता रहा।

शुरूआती चेतना में सपनों की यह रहस्यमयता अनेक रूपों में परावर्तित होती है। धर्म और दर्शन में भी सपनों के जरिए कई सार्विक समस्याओं के संभावित हलों के तर्क ढूढ़ें गये हैं। आदर्शवादी दर्शन में तो सपनों के मिथ्या अनुभवों के तर्कों के जरिए, संपूर्ण जगत की वस्तुगतता और संज्ञान को मिथ्या घोषित कर दिया गया।

जैसा कि समय पहले चर्चा कर चुका है, मनुष्य ज्ञान और समझ के स्तर पर मानवजाति के इतिहास को दोहराता है, अतएव इस मामले में भी उसकी समझ उसी तरह के अपरिपक्व रास्ते से गुजरती है, विकसित होती है और यदि आगे की संभावनाएं नहीं हो तो यहीं रूक भी जाती है। साधारणतया उपलब्ध आस-पास का परिवेश इस बारे में उसे इस समझ के आगे नहीं ले जा पाता कि सपने जैसे एक अलग ही जगत का अलौकिक अनुभव हैं, ये आपको अपने भूत और भविष्य का पूर्वाभास देते हैं, इनमें देखी गयी हर अटपटी चीज़ और परिस्थितियां आपको भावी जीवन के बारे में कुछ इशारे करती है जिन्हें समझना किसी विशेषज्ञ के ही बस की बात है। इसीलिए समान्यतया मनुष्य अपने सपनों के मतलब जानने को, ख़्वाबों की ताबीर पा जाने को बैचेन रहता है, सुखांत सपनों को भावी खुशियों से जोडता है और अटपटे एवं दुखांत एवं डरावने सपनों को अपशकुनों के रूप में देखता है।

जो मनुष्य थोडा बहुत तार्किकता को अपने जीवन में स्थान देते हैं वे तार्किक परिवेशगत उपलब्ध ज्ञान के अनुसार इन्हें अपनी स्मृति से जोडते है और इन्हें इस रूप में देखते हैं कि जो आपके मन में चल रहा होता है या सोते वक्त जो मनुष्य सोच रहा होता है वही सपने में आता है, परंतु जब सपने इनसे इतर भी आते हैं तो वे भी सपनों को एक रहस्यात्मक अबूझ पहेली के रूप में देखने को विवश हो जाते हैं।
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तो फिर सपने क्या होते है? ये क्यूं आते हैं? इन्हें कैसे विश्लेषित किया जा सकता है?
ये प्रश्न उठते हैं।

चलिए, समय की मानवजाति के अद्यतन ज्ञान के आधार पर जो समझ विकसित हुई है, उसके अनुसार इन पर थोडा-बहुत प्रकाश डालते हैं। हो सकता है यह आपके दिमाग़ में आगे की यात्रा की खलबली मचा पाए। पहले थोडा संज्ञान और चिंतन पर बात हो जाए।
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मनुष्य अपनी इन्द्रियों के द्वारा विश्व का संज्ञान करता है। अलग-अलग इन्द्रियां प्रेक्षित वस्तु का अलग-अलग तरीके से संवेदन करती है और मस्तिष्क तक उन सूचनाओं को पहुंचाती है, जो कि वस्तु के विभिन्न गुणधर्मों को परावर्तित करती हैं। ये समेकित रूप में उस वस्तु-विशेष का एक लाक्षणिक बिंब तैयार करती है जो हमारी स्मृति का हिस्सा बन जाता है। स्मृति के जरिए हम बाद में भी यानि कि वस्तु की अनुपस्थिति में भी, उस बिंब का स्मरण कर सकते हैं, उसे अपने चिंतन का हिस्सा बना सकते हैं। स्मरण की यानि की प्रदत्त क्षण में निश्चित बिंब को अपनी चेतना या चिंतन का मूल विषयी बनाने की यह प्रक्रिया क्षोभकों ( उत्तेजित करने वाले कारकों ) पर निर्भर करती है। ये क्षोभक चिंतन के आंतरिक परिणाम भी हो सकते हैं और बाह्य कारकों के भी। चिंतन के दौरान पैदा हुई नयी जरूरत आंतरिक कारण होती है, और ऐन्द्रिक संवेदनों के जरिए बाह्य विश्व से आए क्षोभक हमारे मस्तिष्क को उत्तेजित कर स्मृति से कुछ निश्चित बिंबों को हमारी चेतना के दायरे में ले आते हैं।

जैसे कि जब, मान लीजिए मनुष्य को भूख महसूस होती है तो उसका चिंतन खाने की वस्तुओं और उनकी उपलब्धता पर होने लगता है, उसकी चेतना स्मृति से खाने संबंधी पूर्वसंचित बिंबों और संवेदनों को टटोलने लगती है। ऐसे में हो सकता है कि चेतना पहले एक गंध के पूर्वसंचित संवेदन पर पहुंचे, और उसके स्मरण से पैदा हुए क्षोभ के कारण उस गंध से संबंधित अन्य संवेदन और बिंब भी अचानक चेतना में उभर आएं। जैसे की पके-मीठे आम की गंध के संवेदन के स्मरण से पैदा हुआ क्षोभ एक साथ मनुष्य की चेतना में आम का बिंब, आम का स्वाद, उसके आकार का स्पर्श संवेदन, फिर जो भी पहले मिल जाए या जो स्मृति में ज्यादा प्रखर हो, आम का ठेला, बेचने वाला, जगह, बातचीत या घर का वह दृश्य जब आम खाए गये हों एक साथ मनुष्य की चेतना में उभर आते हैं। यह आंतरिक क्षोभकों की बात है, और यही सब बाह्य रूप से भी हो सकता है। अचानक कमरे में बैठे आप तक सिर्फ़ एक आम जैसी गंध पहुंचती है और आपकी चेतना में उपरोक्त प्रक्रिया लगभग ऐसे ही शुरू हो सकती है।

इससे चिंतन और स्मृति के आंतरिक संबंधों और क्षोभकों पर कुछ बात साफ़ होती है।

अब थोडा नींद को देख लें।
नींद में मस्तिष्क अपना चेतन कार्य स्थगित कर देता है। इसका मतलब है कि ऐन्द्रिक सूचनाओं का संसाधन और उन पर प्रतिक्रियाएं शनै-शनै बंद हो जाती हैं। बाह्य विश्व से इन्द्रियां सूचना तो प्राप्त करती हैं, परंतु मस्तिष्क अनुक्रिया नहीं करता। नींद का गहरा और हल्का होना इसी बात पर आंका जाता है कि सूचनाओं की कितनी तीव्रता पर प्रतिक्रिया प्राप्त होती है।

नींद में चेतन क्रियाकलाप तो स्थगित हो जाते हैं परंतु अवचेतन मस्तिष्क के मानसिक व्यापार जारी रहते हैं। अधिक गहरी नींद में इन अचेतन मानसिक क्रियाकलापों का चेतना पर कोई बोध दर्ज नहीं होता, परंतु कम गहरी या कच्ची नींद में चेतन मस्तिष्क इनके कुछ हिस्सों को स्मृति पटल पर धुंधली सी याद के रूप में दर्ज़ कर लेता है। जागने पर स्मृति पर दर्ज़ इन बेतरतीब सी यादों का बोध मनुष्य को होता है, और इन्हीं को सपने कहा जाता है।
उक्त विवेचन से अब यह समझा जा सकता है गहरी और निश्चिंत नींद सोने वाले स्थिर प्रवृति वाले मनुष्यों को सपने ज़्यादा नहीं आते हैं, परंतु कच्ची और बेचैन नींद सोने वाले अस्थिर प्रवृति वाले मनुष्य सपनों से ज़्यादा दो-चार होते रहते हैं। जाहिर है यह बेचैनी किसी परिस्थितिजनित चिंता से उभरती है, और कई तरह के डरों और असुरक्षाओं के रूप में मस्तिष्क में खलबली मचाए रखती है, इसीलिए इनके सपने भी तदअनुरूप ही डरावने और बेचैनी बढा़ने वाले ही होते हैं।

इस तरह से अब थोडा साफ़ होता है कि सपने अवचेतन मस्तिष्क की अंतर्क्रियाओं से संबंधित होते हैं, ये तभी संभव हो पाते हैं जब किसी वज़ह से चेतन मस्तिष्क इन अवचेतन व्यापारों से उत्पन्न आंतरिक क्षोभकों के कारण इनमें हस्तक्षेप करने लगता है और इन पर अपनी प्रतिक्रिया देना शुरू कर देता है, जबरन इन पर चिंतन शुरू कर देता है और फिर इन सभी क्रियाकलापों को स्मृति पटल पर दर्ज़ कर लेता है।
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उपरोक्त को विस्तृत रूप में समझने की कोशिश की जा सकती है।

एक सपना लेते हैं। मानसिक प्रक्रिया से गुजरते हैं।
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थोडी कम गहरी नींद में अवचेतन मस्तिष्क की अंतर्क्रियाएं जारी हैं। स्मृति पर दर्ज़ विभिन्न सूचनाओं पर आकस्मिक रूप से इधर-उधर जाया जा रहा है, इन्हें जांचा जा रहा है, इनकी प्रोसेसिंग की जा रही है। आकस्मिक रूप से एक सूचना पर पहुंचा जाता है, यह एक रेलयात्रा का धुंधला सा दृश्य है और कुछ लोग साथ हैं। अवचेतन में जिज्ञासाएं नहीं होती, यह चेतन अनुक्रिया है। इस रेलयात्रा का यह दृश्य किन्हीं अनुकूलित वज़हों से ( रेलयात्रा से सम्बंधित उसके पूर्व के अनुभवों के जरिए) एक गहरी सांवेदनिक अनुक्रिया पैदा करता है जो कि चेतन मस्तिष्क के लिए एक आंतरिक क्षोभक की तरह कार्य करती है और चेतन मस्तिष्क अपनी सुषुप्तावस्था में भी इस क्षोभक के प्रति प्रतिक्रिया करने लगता है। वह जिज्ञासा करता है साथ में कौन है? दो चहरे तुरंत पहचान लिए जाते हैं, उनके बिंब अधिक साफ़ हैं। एक और धुंधली सी आकृति है, यह कौन है? उसे पहचानने की कोशिश शुरू होती है।

पहचानने की प्रक्रिया का मतलब है प्रदत्त छवि को, पूर्व में दर्ज़ चवियों से तुलना करके उन्हें एकाकार करके, एक निश्चित पहचान देना। तुरंत मस्तिष्क स्मृति के छवि भंडार तक भागता है। आकस्मिक रूप से पहली छवि उस मनुष्य के दादा जी की है, अब दादाजी की यह छवि आंतरिक क्षोभक बन जाती है। दादाजी से संबंधित छवियां टटोली जाती हैं, गांव के दृश्य उभरने लगते हैं, एक दृश्य स्थिर होता है, दादा जी खाट पर बैठे किसी से बात कर रहे हैं, उस किसी की पीठ है दृश्य में। दादा जी देखकर कुछ कहते हैं, क्या कहा-क्या कहा..मस्तिष्क भागता है स्मृति के ध्वनि भंडार में...पहला वाक्य मिलता है दृश्य से मिलता जुलता सा...बेटा अभी क्यूं आये हो, अगली बार आना....पर यह बैठा कौन है? दादा जी किससे बाते कर रहे हैं....फिर चहरे की तलाश...मस्तिष्क भाग रहा है....एक चहरा मिला...ये कौन है....कॉलेज का दोस्त अमित..पर ये यहां कैसे....कॉलेज तो....मस्तिष्क भाग रहा है...छवियां टटोल रहा है....कॉलेज के दृश्य उभर रहे हैं....एक दृश्य टिकता है....क्लास चल रही है, कोई पढा़ रहा है...कौन है ये?...मस्तिष्क फिर भागता है....अभी थोडी देर पहले ही दादा जी की छवि से गुजरे थे...स्मृति में नई सूचना है...मस्तिष्क तुरंत उसे ही पकड लेता है....दादा जी...पर दादा जी कॉलेज में कैसे? वो भी पढाते हुए?...दादा जी...मस्तिष्क फिर यात्रा करने लगता है...छवियां भाग रही हैं....दादा जी तो...एक दृश्य उभरता है...दादा जी को अंतिम यात्रा के लिए तैयार किया जा रहा है...गमगीन माहौल...भावनाएं के बोध उभरते हैं...लाश का चहरा नहीं दिख रहा...कौन है?...लाश है...डर है....मस्तिष्क भागमभाग में है...डर...ज्यादा तीखे डर..छवियां...एक छवि उभरती है....अरे यह तो उसका बच्चा है....यह कैसे....डर और भावनाएं घनीभूत हो उठती है...सांस फूल जाती है...बेचैनी बढने लगती है...नींद टूट जाती है....आंखें खुल जाती हैं....उफ़....

सब ठीक-ठाक है...मतलब कि सपना देख रहा था....सपने की ताज़ा दर्ज़ सूचनाओं का स्मरण करता है...सामान्य होता है, और फिर सो जाता है। बेचैनी तगडी है तो काफ़ी देर तक नींद दोबारा नहीं आती।
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सुबह जाग कर यह मनुष्य श्रेष्ठ, अपने सपने को शब्द देगा, उसे सुनाएगा। भूमिका बांधेगा कि रात एक अजीब सा और भयानक सपना देखा है उसने। वह शायद पत्नी को ऐसा कुछ सुनाए:

अपन सभी ट्रैन में जा रहे थे, तुम थी, बच्चा था। देखता हूं की वहां दादा जी भी बैठे हैं। बताओ आज तो मृत्यु के बाद पहली बार दिखे हैं दादा जी। फिर पता नहीं कैसे, मैं गांव पहुंच जाता हूं। दादा जी किसी से बाते कर रहे थे, मुझे देख कर कहा कि बेटा अभी क्यों आए हो बाद में आना। वो जो साथ में था, वह मेरे कॉलेज का दोस्त अमित था। अचानक फिर, मैं कॉलेज में पहुंच जाता हूं, वहां क्लास चल रही थी और पता है अपने दादाजी पढा़ रहे थे। मैं तो चौंक गया कि दादा जी यहां कैसे, पर फिर पता नहीं क्या होता है, मुझे दिखता है कि किसी की अर्थी सजाई जा रही है, सभी रो रहे हैं, मैं भी रो रहा हूं। फिर मैं अचानक लाश का चहरा देखता हूं तो पता है वो कौन था, अपना बच्चा और मैं तो, मैं तो सन्न रह जाता हूं। फिर घबराहट में मेरी नींद खुल जाती है, देखता हूं कि सब ठीक-ठाक है, तब थोडा चैन आता है। पर यार फिर भी उसके बाद रात भर नींद नहीं आई, बेचैनी में ही करवटें बदलता रहा। बार बार अपने बच्चे का चहरा सामने आता रहा। उफ़, कितना भयानक और अजीब सपना था, है ना। पता नहीं ऐसा सपना क्यों आया।

अब इसमें कई हास्यास्पद इशारे ढूंढ़े जा सकते हैं।
इस मनुष्य की मृत्यु की संभावनाएं थी, परंतु दादा जी की आत्मा ने इसका निपटारा कर दिया और उसे पुनः जीवन दे दिया। क्योंकि दादा जी ने कहा था, "बेटा अभी क्यूं आये हो, अगली बार आना"
इस मनुष्य के बच्चे की उम्र काफ़ी लंबी है, क्योंकि शास्त्रों? में लिखा हुआ है, सपने में जिसकी मृत्यु देख ली जाती है, उसकी आयु और लंबी हो जाती है।
इस मनुष्य के दोस्त अमित की मृत्यु की पूरी संभावनाएं है, क्योंकि वह स्वर्गीय दादा जी के साथ पहले से बैठा बातें कर रहा था।

ऐसी ही कई और व्याख्याएं की जा सकती हैं, और आसपास ऐसा होते हुए अक्सर देखा जा सकता है। संसार बहुत बडा है, इन बहुत छोटे अंतराल की छवियों की चिलकन यानि सपनों के सापेक्ष मनुष्य की ज़िंदगी काफ़ी बडी है, और ऐसे में इक्का-दुक्का संयोगो का मिलना, जिसमें कि वास्तविक रूप में सपनों की घटनाओं का दोहराव प्रत्यक्ष किए जाने के दावे किए जा सकते हैं, कोई ज्यादा अनोखी बात नहीं है। वैसे मनुष्य खुद अपने अंदर टटोले तो इसका जबाव मिल सकता है, कि ऐसी भ्रामक और डरावनी परिस्थितियों में छला हुआ उसका मन कितनी तरह की बातें खुद गढ़ता है, कहानिया बनाता है, और ऐसे दावे करने की कोशिश करता है।
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तो इस तरह से हम समझ सकते हैं कि सपनों में इस तरह ही उच्छृंगल रूप से छवियां चिलकती रहती हैं, कभी उनमें कोई तरतीब निकल आती है, कभी वे बिल्कुल बेतरतीब होते हैं। मस्तिष्क में पहले से दर्ज़ चीज़ों का ही मामला है यह, इनमें कोई ऐसी चीज़ नहीं देखी जा सकती जिससे किसी ना किसी रूप में मनुष्य पहले से बाबस्ता ना रहा हो। हां, उनकी बेतरतीबी से, या छवियों, ध्वनियों, भाव-बोधों की आपस में अदला-बदली से अनोखेपन या नवीनता का भ्रामक अहसास हो सकता है।
जाहिर है इनसे किसी भावी नियती के इशारे पाए जाने की संभावना टटोलना बचकानापन है, परिपक्वता की कमी है। हां, इनसे किसी मनुष्य के अंतस का, उसकी चिंताओं का आभास पाया जा सकता है, वह भी सावधानीपूर्वक किए गए विश्लेषण के जरिए ही, क्योंकि इनकी आकस्मिक बेतरतीबी से इनकी तरफ़ इशारे करती तरतीबी सूचनाएं ढूंढ़ निकालना एक बेहद गंभीर और जिम्मेदारी भरा कार्य है। यहां भ्रम में फसने की पूरी संभावनाएं हैं।
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तो यह है सपनों का मनोविज्ञान। ऊपर दी गयी सपने की प्रक्रिया पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि लगभग ऐसा ही हमारा सोचने और चिंतन करने का तरीका होता है। अगर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है, तो मनुष्य ऐसे ही बेतरतीब रूप से इधर-उधर छलांगे लगाते हुए ही सोचता रहता है। सपने इससे ज्यादा अलग नहीं है।

तो मानव श्रेष्ठों,
कल्पनाशक्ति की उडान की पूरी संभावनाएं मनुष्य के सामने हमेशा ही होती हैं। वह अपनी समझ और ज्ञान के हिसाब से सपनों का भी, कुछ भी मतलब निकालने को, मनचाही व्याख्याएं करने को, स्वतंत्र होता है। आप भी कर सकते हैं।
परंतु आप यदि उपरोक्त व्याख्या से गंभीरता से गुजरे हैं, और आपको यहां कुछ नया मिला है तो निश्चय ही इस बार आप अपने सपनों को एक अलग ही नज़रिए से देखेंगे और अपनी इस अवचेतन मानसिक अंतर्क्रियाओं के उत्सों को समझने की कोशिशें करेंगे।

कोई जिज्ञासाएं हैं तो यहां टिप्पणी कर सकते हैं, समय को मेल कर सकते हैं।

समय आपकी सेवा में हाज़िर है।

समय

15 टिप्पणियां:

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

ओ.हो..
दिमाग़ की बत्तियां जलाता आलेख...टुकडों में दिया जा सकता था..
पर यह भी ठीक है...गंभीरता को एक ही बार में हो जाना चाहिए..

समय समय लेता है, पर आकर हथौडे चलाता है...

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif ने कहा…

अच्छा आलेख लेकिन अगर टुकडों मे होता तो पढने और सम्झने मे आसानी होती...आगे से खयाल रखें

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

बड़े सधे ढंग से मस्तिष्क की गुहा में प्रवेश किए। छानबीन की, कचरा इकठ्ठा किया और सामने रख दिया - देखो, कितना कूड़ा भरा था तुम्हारे भीतर!

धन्यवाद्

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: ने कहा…

अच्छा एवं विचारपूर्ण सारगर्भित लेख है पसंद आया सहमत -असहमत होना अलग बात है | बौद्ध एवं जैन कथाओं में बुद्ध एव तीर्थंकरों के जन्म से पूर्व उनकी गर्भवती माताओं द्वारा देखे गए '' विशिष्ट-स्वप्न '' और विद्वानों द्वारा उनकी सटीक विवेचनाओं का बड़ा रोचक विवरण उपलब्ध है| उस समय में सिंगमन्ड फ्रायड जैसों का कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं था ; हाँ स्वप्नों का उनका अपना मनो -विज्ञानं उस कल में भी था , उनकी अपनी विवेचनाएँ थी,उनकी अपनी परिभाषाएं थी जो आज भी यदि उन्हें युगानुसार सही परिपेक्ष्य में सही ढंग से अधुनिक सन्दर्भों में परिभाषित किया जाये तो वे सटीक हैं | हाँ सामान्य स्तर पर मैं आप से सहमंत हूँ | पूरी - पूरी उम्र ही गुजर जाती है प्रकृति को समझने में |

आप कबीरा पर आये टिप्पणी की उसके लिए मैं हार्दिक रूप से आभारी हूँ धन्यवाद | रही राम क सन्दर्भ में आप की टिप्पणी तो राम को दिया गया मर्यादापुरुषोत्तम का सम्बोधन इस लिए है कि उन्हों ने अपने युग के अनुसार एक उत्तम - श्रेष्ठ पुरुष होने के लिए निर्धारित की गयी सारी मर्यादाएं निभायीं उनका सफलता पूर्वक परिपालन किया तभी उन्हें ''मर्यादापुरुषोत्तम ''कहा गया | ये उसी प्रकार जिस प्रकार हम आज के युग में ''भारत रत्न '' या '' महावीर चक्र'' या ''लोक नायक '' '' क्रांति दूत '' और लौह- पुरुष आदि संबोधन अपने आधुनिक नायकों को देते हैं और यह किसी राजतन्त्र द्वारा नहीं उस उग के श्रेष्ठतम विद्वत - जनों दवारा दिया गया और जिस सम्बोधन को जन-जन ने सहर्ष स्वीकार किया और युग - युगांतर के अंतराल बाद भी वह संबोधन जन - के हिरदय में बैठा है उनके रक्त में संचार कर रहा है |

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: ने कहा…

समय जी
एक अनुरोध है जब भी पोस्ट ज्यादा लम्बी होने लगे उसे कई में बाँट कर क्रमशः कर पोस्ट करें बहुत लम्बी होने पर उसे एक बैठक में पूरा पढ़ कर कर हृयंगम करना संभव नहीं हो पाता और जबतक हृदयंगम न हो जाये उसको समंझां और समुचित टिप्पणी करना संभव नहीं होगा |
मैं इसकोटिप्पणी के रूप में लेता ही नहीं हूँ मेरी सोचानुसार ' ये किसी मित्र द्वारा उठाये बिंदु या विषय या विचार पर हमारी आप के मध्य एक परिचर्चा है |
अगर पोस्ट छोटी या खंडो में होगी तो दूसरो की पोस्ट भी पढ़ने का समय मिल जायेगा | समय की उपलब्धता के आधार पर एक दो परिचर्चा और पर्याप्त होगी | इसे अवश्य देखें ''धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर''
तथा
" स्वाइन - फ्लू और समलैंगिकता [पुरूष] के बहाने से "

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

samayji,
saargarbhi lekh he.
mujhe to ye bhi achcha lag rahaa he ki me "samay" se baat baat kar rahaa hoo.
vishyo ka chunaav behatara tarike se kiya gayaa he, use jitne saar ki aavashyakta hoti he , vah bhi sundar tarike se vyakt kiya gayaa he. mujhe bahut achha laga.ab padhhta rahoonga.
'anyonasti' ki tippani se me bhi sahamat hoo,aap thoda us par bhi amal kare.

संदीप ने कहा…

यह ठीक बात है कि सपनों से किसी मनुष्य के अंतस का, उसकी चिंताओं का आभास पाया जा सकता है...और इनसे नियती के इशारे पाए जाने की संभावना टटोलना परिपक्वता की कमी है।

वैसे बाकी टिप्‍पणीकारों की इस सलाह पर ध्‍यान दीजिए कि किसी पोस्‍ट को टुकड़ों में बांट कर दिया जाए तो ठीक रहता है। उससे पढ़ने में सुविधा होती है।

aasha sharma ने कहा…

samay ji, 1 to aapka dhanyawaad ki, aapne mujhe bahut achi tippani di, 2 ye ki aapka lekh sapno ko bayaan karne kaa bahut he acha lekh hai, 3 ye ki main janana chahti hu ki, hume kuch aise sapne bhi aate hai jo kabhi kabhi, sach ho jaate hai, inkaa kya karan hai?

Unknown ने कहा…

आशा जी,
शुक्रिया, संवाद की जिज्ञासा के लिए।

आपने अभी जल्दी में यह आलेख सिर्फ़ पढा़ है।
ये आलेख तो सिर्फ़ एक जरिया है आपकी स्वतंत्र चिंतन प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का।
आप इस नज़रिए के साथ भी चिंतन-मनन करें तो, आपकी मेधा अपने सवालों के खुद जबाब ढूंढने की प्रक्रिया में जुट जाएगी।

इस सवाल से खुद बाबस्ता हों तो अधिक बेहतर रहेगा।

समय कुछ इशारों को दोहरा देता है।
उक्त आलेख से दोबारा गुजरें, और इन हिस्सों पर ध्यान दें:

‘ऐसी ही कई और व्याख्याएं की जा सकती हैं, और आसपास ऐसा होते हुए अक्सर देखा जा सकता है। संसार बहुत बडा है, इन बहुत छोटे अंतराल की छवियों की चिलकन यानि सपनों के सापेक्ष मनुष्य की ज़िंदगी काफ़ी बडी है, और ऐसे में इक्का-दुक्का संयोगो का मिलना, जिसमें कि वास्तविक रूप में सपनों की घटनाओं का दोहराव प्रत्यक्ष किए जाने के दावे किए जा सकते हैं, कोई ज्यादा अनोखी बात नहीं है। वैसे मनुष्य खुद अपने अंदर टटोले तो इसका जबाव मिल सकता है, कि ऐसी भ्रामक और डरावनी परिस्थितियों में छला हुआ उसका मन कितनी तरह की बातें खुद गढ़ता है, कहानिया बनाता है, और ऐसे दावे करने की कोशिश करता है।’

‘तो इस तरह से हम समझ सकते हैं कि सपनों में इस तरह ही उच्छृंगल रूप से छवियां चिलकती रहती हैं, कभी उनमें कोई तरतीब निकल आती है, कभी वे बिल्कुल बेतरतीब होते हैं। मस्तिष्क में पहले से दर्ज़ चीज़ों का ही मामला है यह, इनमें कोई ऐसी चीज़ नहीं देखी जा सकती जिससे किसी ना किसी रूप में मनुष्य पहले से बाबस्ता ना रहा हो। हां, उनकी बेतरतीबी से, या छवियों, ध्वनियों, भाव-बोधों की आपस में अदला-बदली से अनोखेपन या नवीनता का भ्रामक अहसास हो सकता है।’

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दरअसल सपनों में ऐसा कुछ हम देख ही नहीं सकते, जो की वस्तुगत नहीं हो यानि वास्तविक रूप से अस्तिवान नहीं हो। यानि कि सच नहीं हो। अमूर्त कल्पनाओं को भी आप इसी में रख सकती हैं, एक बार हो जाने के बाद वह भी वस्तुगत ही हैं।
जो सच है वह सपने में है, अतः जो सपने में है वह सच ही है।
पर उस बेतरतीबी में नहीं जिस रूप में यह सपने में है। अलग-अलग टुकडों में हम देखेंगे तो इसे महसूस कर सकते हैं।

समय जानता है, यह आपका मतलब यह नहीं था, परंतु यहीं से होकर आपके मतलब तक पहुंचा जाना चाहिए।

आपका मतलब था कि इसी बेतरतीबी से आए सपनों को भावी ज़िंदगी में लगभग वैसा ही सच हो उठना।

यह अक्सर हमारी तात्कालिक चिंताओं के क्षोभको से उत्पन्न सपनों के साथ ही ज्यादा होता है। इन तात्कालिक समस्याओं या चिंताओ या गहन इच्छाओं पर मनुष्य का चेतन मस्तिष्क मननरत होता ही है, और संभावित या इच्छित हलों की कल्पनाओं में होता है।

जाहिरा तौर पर अवचेतन मानसिक क्रियाकलापों में भी यही क्षोभक काम कर रहे होते हैं, और सपनों में भी यही कार्य-व्यापार संपन्न होता है। यही संभावित या इच्छित हलों की कल्पनाएं वहां भी आकार लेती हैं।

मनुष्य किसी अनुकूल हल या आनंद देने वाली किसी वास्तविकता में हो सकने वाली परिस्थिति की कल्पना को चुन लेता है।

अब इसकी संभावनाएं तो है ही ये सपनों के हल या इच्छाएं सच में आकार लेलें, क्योंकि मनुष्य सच की परिस्थितियों के हिसाब से ही इनकों बुन रहा था।

मनु्ष्य ऐसी ही चीज़ों में, इस परिघटना का नोटिस लेता है।

वह सपनों में उडता है, उसके सिर पर सींग आजाते हैं, खून का रंग हरा हो जाता है, वह स्वर्गीय गांधी जी के साथ खाना खा रहा है, साक्षात भगवान या देवी सामने खडे होते है...ऐसे अवास्तविक बेतरतीबियों को सच होते वह देख ही नही सकता, इसीलिए इनका नोटिस भी नहीं लेता।

शायद इससे आपकी कुछ मदद हो सके?

समय

निर्मला कपिला ने कहा…

पहली बार आपका ब्लोग देखा शायद समय को यही मंजूर था आलेख बहुत सार्गर्भित और रोचक है बहुत बहुत धन्यवाद्

Unknown ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Unknown ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Unknown ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Rashmi Swaroop ने कहा…

बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख, सर, मुझे ये लम्बा नहीं लगा बल्कि मुझे तो लगा की अरे, ख़त्म कैसे हो गया इतनी जल्दी !
और मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद.
रश्मि.

B P Bajgain ने कहा…

आग के लिए सिर्फ एक चिंगारी चाहिए, खोज के लिए यह लेख काफी है...

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