शनिवार, 25 जून 2016

मनुष्य का कृत्रिम निवास स्थल - २

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने मनुष्य के कृत्रिम निवास स्थल पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



मनुष्य का कृत्रिम निवास स्थल - २

( the artificial habitat - 2 )

यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि कृत्रिम निवास स्थल का विकास और परिष्करण ( perfection ), सामाजिक संबंधों तथा समाज के संगठन के विकास तथा परिष्करण के साथ घनिष्ठता से जुड़ा है। जब समाज निजी स्वामित्व ( private property ) पर आधारित होता है और उसका कोई एकल लक्ष्य ( single aim ) नहीं होता, प्रतिरोधी अंतर्विरोधों ( antagonistic contradictions ) के कारण छिन्न-भिन्न हुआ रहता है और इसीलिए नियोजित ढंग ( planned way ) से विकसित नहीं हो सकता है, तब कृत्रिम निवास स्थल के निर्माण से प्राकृतिक पर्यावरण अनिवार्यतः अस्तव्यस्त हो जाता है क्योंकि इन हालतों में कृत्रिम निवास स्थल का निर्माण, मुनाफ़ों की होड़ के चलते परिवेशीय प्रकृति के निर्मम विनाश और शोषण के ज़रिये होता है।

परंतु यदि हम सामाजिक प्रणाली ( social system ) को प्रत्येक व्यक्ति तथा सारे समाज के हितों के अनुरूप और चहुंमुखी विकास के लिए अनुकूल दशाओं की व्यवस्था करने के अंतिम उद्देश्य के अनुसार संगठित करने की कोशिश करेंगे तभी यह संभव हो सकता है कि कृत्रिम निवास स्थल को भी इसी लक्ष्य के अनुसार निर्मित, विकसित, व्यवस्थित और रूपांतरित ( transform ) किया जा सकेगा। ऐसा विकास, प्राकृतिक निवास स्थल के रख-रखाव, संरक्षण और सुधार की अपेक्षा रखता है, क्योंकि उसके बिना मानव का चौतरफ़ा और सांमजस्यपूर्ण ( harmonious ) विकास असंभव है।

अतएव मनुष्य के प्राकृतिक व कृत्रिम निवास स्थल के बीच अंतर्विरोधों में व्यक्त, समाज और प्रकृति के बीच के अंतर्विरोधों पर क़ाबू पाना तथा उनका समाधान किया जाना, स्वयं समाज के आमूल, क्रांतिकारी रूपांतरण के साथ जुड़ा हुआ है। कृत्रिम निवास स्थल का चहुंमुखी विकास और व्यक्ति तथा मानवजाति के विकासार्थ उसका सर्वाधिक अनुकूल दशाओं की प्रणाली में परिवर्तन, प्रबल वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति की मांग तथा आह्वान करता है।

आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक तथा अन्य समस्याओं के समाधान के तरीक़े विशेष प्राकृतिक, तकनीकी तथा सामाजिक विज्ञानों का काम हैं। इसका दार्शनिक पहलू इस समझ में निहित है कि प्रकृति और समाज के बीच और कृत्रिम व प्राकृतिक निवास स्थलों के बीच अंतर्विरोधों पर क़ाबू पाना और उनके मध्य सामंजस्य की स्थापना करना केवल तभी संभव है, जबकि निम्नांकित तीन वस्तुगत शर्तों को पूरा किया जाये : (१) समाज के विकास की प्रक्रिया का सचेत ( conscious ), नियोजित, सबके हित में नेतृत्व और प्रबंध करना; (२) सामाजिक प्रणाली में ऐसा आमूल ( radical ) परिवर्तन करना कि व्यक्तियों, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय इजारेदारियों ( monopolies ) के निजी हित, मनुष्य की विशाल जनसंख्या के हितों का दमन ना कर सकें; और (३) वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति के विस्तार तथा गहनीकरण ( deepening ) को हर तरह का संभव प्रोत्साहन देना क्योंकि इतिहास के स्वतःस्फूर्त ( spontaneous ) क्रम की पूर्ववर्ती अवस्थाओं में उत्पन्न कठिनाइयों को इसी आधार पर दूर किया जा सकता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 18 जून 2016

मनुष्य का कृत्रिम निवास स्थल - १

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने समाज के विकास में आबादी की भूमिका पर चर्चा की थी, इस बार हम मनुष्य के कृत्रिम निवास स्थल को और गहराई से समझने की कोशिश शुरू करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



मनुष्य का कृत्रिम निवास स्थल - १
( the artificial habitat - 1 )

हम पिछली प्रविष्टियों में यह भली-भांति देख चुके हैं कि प्राकृतिक निवास स्थल, प्रकृति के नियम ( जैविक नियमों सहित ) समाज पर सीधा प्रभाव नहीं डालते, बल्कि उत्पादन पद्धति ( mode of production) तथा उसके आधार पर उत्पन्न सामाजिक संबंधों के ज़रिये अप्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं। भौतिक उत्पादन के विकास के साथ-साथ मनुष्य अपने आसपास की प्रकृति में फेर-बदल करता जाता है और एक कृत्रिम निवास स्थल की रचना करता है, जो उसके अपने जीवन के क्रियाकलाप का ही उत्पाद ( product ) होता है।

कृत्रिम निवास स्थल में केवल मनुष्य द्वारा निर्मित अजैव तथा प्रकृति में नहीं पायी जानेवाली वस्तुएं ही नहीं, बल्कि जीवित अंगी ( living organism ) - कृत्रिम वरण ( selection ) या जीन इंजीनियरी से मनुष्य द्वारा प्रजनित या रचित पौधे तथा जानवर - भी शामिल होते हैं। किंतु कृत्रिम निवास स्थल को केवल इस भौतिक आधार तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है। मनुष्य केवल कुछ निश्चित सामाजिक संबंधों की प्रणाली ( system ) में ही रह और काम कर सकता है। ये सामाजिक संबंध, निश्चित भौतिक दशाओं में, मनुष्य द्वारा कृत्रिम रूप से निर्मित परिस्थितियों सहित प्रकट होते हैं और दोनों मिलकर मनुष्य के कृत्रिम निवास स्थल बनाते हैं।

समाज के विकास के साथ ही कृत्रिम निवास स्थल की भूमिका लगातार बढ़ती जाती है और मनुष्य के जीवन में उसका महत्व निरंतर बढ़ता है। इस बात पर विश्वास दिलाने के लिए हम निम्नांकित तथ्य पर विचार कर सकते हैं। मानव निर्मित सारी अजैव चीज़ों तथा सजीव अंगियों के द्रव्यमान को तकनीकी द्रव्यमान ( technomass ) कहा जाता है जबकि प्राकृतिक दशाओं के अंतर्गत विद्यमान सारे जीवित अंगियों को जैव द्रव्यमान ( biomass ) कहते हैं। कुछ दशकों पहले अनुमान लगाया गया था कि मनुष्य द्वारा एक वर्ष में निर्मित तकनीकी द्रव्यमान क़रीब १०१३- १०१४ टन के और थल पर उत्पन्न जैव द्रव्यमान क़रीब १०१२ टन के बराबर होता है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि मनुष्यजाति एक ऐसा कृत्रिम निवास स्थल बना चुकी है, जो प्राकृतिक निवास स्थल की तुलना में दसियों या सैकड़ों गुना अधिक उत्पादक है

बेशक इसका यह अर्थ नहीं है कि अब लोग प्रकृति और प्राकृतिक निवास स्थल के बिना ही काम चला सकते हैं। प्रकृति हमेशा मनुष्य समाज के अस्तित्व की पूर्वशर्त ( precondition ) व आधार ( foundation ) बनी रहेगी। स्वयं कृत्रिम निवास स्थल केवल तभी अस्तित्वमान और विकसित हो सकता है, जब प्राकृतिक पर्यावरण मौजूद हो। किंतु आज मानवजाति की भौतिक और आत्मिक जरूरतों के एक काफ़ी बड़े अंश की पूर्ति कृत्रिम निवास स्थल से होती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 11 जून 2016

समाज के विकास में आबादी की भूमिका - २

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने समाज के विकास में आबादी की भूमिका पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



समाज के विकास में आबादी की भूमिका - २
( the role of population in the development of society - 2 )

उत्पादन पद्धति तथा उसके संनियमन ( governing ) के प्रतिमान ( pattern ) ही आबादी की वृद्धि के प्रतिमानों तथा उसकी संरचना पर निर्धारक प्रभाव क्यों डालते हैं? ऐतिहासिक भौतिकवाद इस प्रश्न का उत्तर भी देता है। मुद्दा यह है कि मनुष्य मुख्य उत्पादक शक्ति है और सारे ऐतिहासिक युगों में आबादी की बहुसंख्या उत्पादक कार्य करती रही है। इसलिए सामाजिक क्रियाकलाप के सारे रूप, उत्पादक क्रियाकलाप के तदनुरूप बने, जिसके दौरान ख़ुद मानवजाति के अस्तित्व की भौतिक दशाओं का निर्माण व विकास हुआ। इसीकी वज़ह से उत्पादन क्रियाकलाप के प्रतिमान अंततः मानव क्रियाकलाप के अन्य सारे रूपों के संदर्भ में निर्धारक ( determinant ) होते हैं। आधुनिक समाज में इस बात का भी स्पष्टतः पता लगाया जा सकता है कि जनसंख्या के विकास तथा उसकी वृद्धि में उत्पादन पद्धति और इसके द्वारा निर्धारित उत्पादन संबंधों की भूमिका निर्णायक है।

प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, यह विश्वास किया जाता है कि खेती के उपकरणों तथा कृषि विज्ञान की वर्तमान स्थिति में खेती की मौजूदा ज़मीनों पर दस अरब से भी अधिक लोगों को भरपेट खिलाने के लिए पर्याप्त खाद्य पैदा किया जा सकता है। यह तथ्य कि विश्व की आबादी इसकी आधी के बराबर है और कई पूंजीवादी तथा विकासमान देशों में सैकड़ों लाखों भुखमरी से पीड़ित हैं या भुखमरी के कगार पर हैं, इस बात का परिणाम है कि पूंजीवादी समाज में अत्यंत विकसित उत्पादक शक्तियों को पूरी तरह से काम में नहीं लगाया जा रहा है। इसकी वजह निजी स्वामित्व ( private property ) की प्रमुखता तथा उसके तदनुरूप ही विकसित सामाजिक प्रणाली में निहित है।

यही नहीं, ‘अतिरिक्त’ ( surplus ) आबादी, जनसंख्या की अत्यंत द्रुत वृद्धि ( rapid growth ) का परिणाम नहीं, बल्कि समाज के एक विशेष रूप का फल है। मालूम है कि सभी प्रमुख पूंजीवादी देशों में बेरोजगारों की एक भारी फ़ौज हमेशा विद्यमान रहती है। यह साबित किया जा चुका है कि बेरोजगारी मनुष्य की संतानोपत्ति के जैविक ( biological ) नियमों के कारण नहीं, बल्कि मुनाफ़ा ( profit ) आधारित पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के विशेष लक्षणों के कारण है। समाज के समाजवादी पुनर्निर्माण के जरिए आबादी वृद्धि को सामाजिक न्याय तथा मानववाद के जनवादी उसूलों के आधार पर संपूर्ण समाज की खुशहाली के लिए संनियमित किया जा सकता है, उसे प्रोत्साहित तथा नियंत्रित भी किया जा सकता है।

साथ ही साथ हमें इस द्वंद्व ( dialectics ) को भी समझ लेना चाहिए कि अत्यधिक आबादी की वृद्धि उत्पादन को धीमा कर सकती है और बड़ी सामाजिक कठिनाइयां पैदा कर सकती है। और दूसरी तरफ़, आबादी में बहुत कम बढ़ती और काम करने वाले हाथों की तंगी, उत्पादक शक्तियों के विकास पर नकारात्मक असर डाल सकती है। इसलिए आज की दशाओं में इस प्रक्रिया के वैज्ञानिक प्रबंध की वस्तुगत ( objective ) आवश्यकता पैदा हो रही है। अभी तक जनसंख्या वृद्धि, सामाजिक उत्पादन और सामाजिक विकास के आम नियमों के आधार पर ही सही पर अचेतन रूप से होती रही है। अब आबादी की वृद्धि के सचेत नियंत्रण की दशाएं और वस्तुगत आवश्यकता पैदा होने लगी है।

यह जन्मदर का जबरिया, अनिवार्य माल्थसवादी परिसीमन ( limitation ) का मामला नहीं, बल्कि कई सुविचारित उपायों ( measures ) का मामला है, जिनके ज़रिये देश के कुछ इलाकों में आबादी बढ़ेगी तथा कुछ अन्य अन्य में रफ़्तार घट जायेगी। इस प्रकार का नियंत्रण मुख्यतः मानवजाति की बहुत बड़ी संख्या की संस्कृति तथा चेतना ( consciousness ) के ऊंचे स्तर पर आधारित होगा। ऐसा केवल उन्हीं सामाजिक-राजनैतिक दशाओं में ही संभव है, जहां सारे श्रम संसाधनों ( labour resources ) का निजी हितों के लिए नहीं, वरन् सारे समाज के हित में नियोजित ( planned ) उपयोग करने की संभावनाएं मूर्त रूप लेंगी।

फलतः इस प्रश्न, कि मौजूदा जनसंख्या विस्फोट प्रकृति और समाज को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है और इसके ख़तरनाक परिणामों से कैसे बचा जा सकता है, का उत्तर जैविक नहीं, बल्कि समाज के विकास तथा उसकी कार्यात्मकता ( functioning ) के सामाजिक नियमों में खोजा जाना चाहिए।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 4 जून 2016

समाज के विकास में आबादी की भूमिका - १

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने समाज के विकास में नस्लीय तथा जातीय विशेषताओं पर चर्चा की थी, इस बार हम समाज के विकास में आबादी की भूमिका को समझने की शुरुआत करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



समाज के विकास में आबादी की भूमिका - १
( the role of population in the development of society - 1 )

पश्चिमी अध्येता सामाजिक विकास में सामाजिक नियमों की नहीं, जैविक ( biological ) नियमों की निर्णायकता को सिद्ध करने की कोशिश में आबादी की वृद्धि ( growth ) द्वारा अदा की जानेवाली विशेष भूमिका का नियमतः हवाला देते हैं। वे दावा करते हैं कि समाज की अवस्था, आबादी की वृद्धि पर निर्भर होती है और अपनी बारी में वृद्धि, पुनरुत्पादन ( reproduction ) के जैविक नियमों से निर्धारित होती है, अतः समाज की जीवन क्रिया तथा विकास, जैविक नियमों से संचालित होते हैं। क्या यह सच है? यह मुद्दा ठोस ऐतिहासिक विश्लेषण ( analysis ) की अपेक्षा करता है।

समाज के मामलों में आबादी तथा आबादी की वृद्धि की भूमिका को समझने के लिए हम कुछ तथ्यों पर विचार करेंगे। अब विश्व की आबादी छः अरब से अधिक हो गयी है और उसका तेजी से बढ़ना जारी है। यह वृद्धि कितनी तेज है, इसका अंदाज़ा लगाने के लिए याद करें कि दस हजार साल पहले मानवजाति की संख्या लगभग ५० लाख थी, दो हजार वर्ष पूर्व करीब २० करोड़ थी, १६५० में कम से कम ५० करोड़, १९५० में लगभग ढाई अरब और १९८७ में पांच अरब। आबादी के हाल के वर्षों में देखी इस तीव्र वृद्धि दर को अक्सर ‘जनसंख्या विस्फोट’ कहा जाता है। पश्चिमी अध्येताओं की राय में, और आजकल उनकी यह राय सामान्य रूप से प्रचलन में आती जा रही है, इतने लोगों को आवश्यक वस्तुएं, आवास, वस्त्र, पीने का पानी और वायु मुहैया करने के लिए सारे के सारे प्राकृतिक संसाधन भी काफ़ी नहीं होंगे। अंततः मनुष्यजाति प्रकृति को नष्ट कर देगी और उसके फलस्वरूप स्वयं भी मर जायेगी। ये दलीले ( arguments ) नयी नहीं हैं।

अंग्रेजी अर्थशास्त्री टामस माल्थस ( १७६६-१८३४ ) ने १८वीं सदी के अंत में यह सिद्धांत पेश किया था कि दुनिया की आबादी बहुत तेजी से, ज्यामितिक श्रेढ़ी ( geometric progression ) में बढ़ रही है, जबकि खाद्य तथा अन्य वस्तुओं का उत्पादन अधिक मंद गति से, अंकगणितीय ( arithmetic ) श्रेढ़ी में बढ़ रहा है। उनके अनुयायियों का ख़्याल था कि युद्ध, महामारियां तथा आबादी का विनाश करनेवाली अन्य विपत्तियां आबादी की वृद्धि के नियमन ( regulation ) के आवश्यक साधन हैं। आज के नवमाल्थसवादी भी आबादी के नियंत्रण के लिए कमोबेश वैसे ही, परंतु किंचित छद्मरूप में बाध्यकारी उपाय सुझाते हैं और इस बात पर जोर देना जारी रखते हैं कि विश्व में हमेशा जनाधिक्य रहा है, ऐसे ‘अनावश्यक’ लोगों की अतिरिक्त ( surplus ) संख्या रही है, जो कि उनके कथनानुसार, सामाजिक विकास में बाधा डालते हैं और इसके बिना ही पर्याप्त प्राकृतिक संसाधनों ( resources ) को हड़प जाते हैं। क्या यह बात सच है?

पुरातत्वीय ( archaeological ) आधार सामग्री से पता चलता है कि मनुष्य के पुरखों और समाज की शुरुआती अवधि में, मानवों की संख्या में वृद्धि बहुत मंद थी। कठोर प्राकृतिक दशाओं तथा उत्पादक शक्तियों के निम्न स्तर की वजह से वह बढ़ नहीं पाती थी। जब-जब अधिक विकसित उत्पादन की तरफ़ पहुंचा जाता था, तब-तब जनसंख्या वृद्धि त्वरित ( accelerate ) हो जाती थी। मसलन, पत्थर के औज़ारों से धातु के औज़ारों में संक्रमण ( transition ) और आखेट ( hunting ) तथा खाना बटोरने के युग से पशुपालन व खेती में संक्रमण के साथ ही पृथ्वी पर मनुष्यों की आबादी में छंलागनुमा वृद्धि हुई। 

हालांकि भिन्न-भिन्न सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं ( socio-economic formation ) में उत्पादन शक्तियों के विकास स्तर और जनसंख्या वृद्धि की दर के बीच संबंध की हमेशा के लिए सटीकतः ( exactly ) स्थापना नहीं हुई है, फिर भी इतिहास की आधार सामग्री की मदद से विश्वसनीय ढंग से यह दर्शाना संभव हो जाता है की आबादी की वृद्धि अंततः उत्पादन के विकास पर निर्भर होती है। सामंतवादी उत्पादन पद्धति के लिए, जिसमें कि विकास सापेक्षतः मंद था, आबादी की वृद्धि भी नियमतः धीरे-धीरे होती थी। इसके विपरीत, मशीनी उत्पादन पर आधारित पूंजीवादी उत्पादन पद्धति ( mode of production ) के द्रुत ( rapid ) विकास ने आबादी की वृद्धि को त्वरित कर दिया।

इस सिलसिले में यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आबादी की वृद्धि में निर्णायक कारक ( determinant factor ) होने के बावजूद उत्पादन पद्धति उसका एकमात्र कारण नहीं है। आबादी की वृद्धि और संरचना ( structure ) केवल उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन संबंधों से ही प्रभावित नहीं होती, बल्कि कई राष्ट्रीय परंपराओं, जनता की संस्कृति, विविध ऐतिहासिक घटनाओं, युद्धों आदि से भी होती है। इसके साथ-साथ जनसंख्या की वृद्धि दरें तथा इसकी संरचना, भौतिक उत्पादन की सारी प्रणाली पर एक उलट, प्रतिप्रभाव भी डालती है। कुछ मामलों में ये उत्पादन के विकास को बढ़ावा देती हैं, तो कुछ अन्य मामलों में उसके लिए बाधक भी हो जाती हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
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