शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

आवश्यकताओं की क़िस्में

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताओं पर चर्चा की थी, इस बार आवश्यकताओं की क़िस्मों पर एक मनोवैज्ञानिक नज़रिया देखते हैं।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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आवश्यकताओं की क़िस्में


मनुष्य की आवश्यकताओं का सामाजिक स्वरूप भी होता है और व्यक्तिगत स्वरूप भी। वास्तव में अपनी देखने में संकीर्ण व्यक्तिगत आवश्यकताओं ( उदाहरणार्थ, जैसे भोजन की आवश्यकता ) की तुष्टि के लिए भी मनुष्य सामाजिक श्रम-विभाजन के फलों को इस्तेमाल करता है ( उदाहरण के लिए, रोटी किसानों, कृषिविज्ञानियों, विभिन्न कृषि यंत्र चालकों, अनाज-गोदाम कर्मियों, बेचने वालों, चक्कीवालों, आदि के संयुक्त श्रम-प्रयासों का वास्तवीकृत परिणाम है )। इसके अतिरिक्त, मनुष्य दत्त सामाजिक परिवेश में ऐतिहासिकतः विकसित उपभोग के साधन तथा तरीक़े इस्तेमाल करता है और कुछ निश्चित शर्तों की पूर्ति चाहता है ( उदाहरण के लिए, खाना खाने से पहले खाने वाले के लिए उसे स्वीकार्य तरीक़े से पकाना जरूरी है। फिर खाना खाने के साधनों की भी जरूरत होगी और कुछ समय तथा स्वच्छता संबंधी शर्तें भी पूरी करनी होंगी )।

अतः बहुत सारी मानवीय आवश्यकताएं व्यक्ति की संकीर्ण आवश्यकताएं कम और उस समाज, उस समूह की आवश्यकताएं ज़्यादा होती हैं, जिसका वह व्यक्ति सदस्य है और जिसमें वह कार्य करता है। यहां समूह की आवश्यकताएं व्यक्ति की अपनी आवश्यकताओं का रूप ग्रहण कर लेती हैं। इसे स्पष्ट करने के लिए एक ऐसे विद्यार्थी की मिसाल लेते हैं जिसे अपने ग्रुप या कक्षा की सभा में किसी कार्य-विशेष के संदर्भ में एक रिपोर्ट पेश करने का काम सौंपा गया है। वह विद्यार्थी बड़े ध्यान और मनोयोग से रिपोर्ट तैयार करता है, किंतु इसलिए नहीं कि रिपोर्ट तैयार करने का काम उसके लिए किसी रोचक पुस्तक को पढ़ने या पसंद का खेल खेलने से ज़्यादा आकर्षक है, बल्कि सिर्फ़ इसलिए कि वह अपने समूह या कक्षा के अनुरोध को पूरा करने की, उस समूह का अंग होने के नाते अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह की आवश्यकता महसूस करता है।

आवश्यकताओं में उनके मूल और विषय के अनुसार भेद किया जा सकता है। अपने मूल की दृष्टि से आवश्यकताएं नैसर्गिक और सांस्कृतिक, इन दो प्रकार की होती है।

नैसर्गिक आवश्यकताएं मनुष्य की सक्रियता की उसके तथा उसकी संतान के जीवन की रक्षा तथा निर्वाह के लिए आवश्यक परिस्थितियों पर निर्भरता की परिचायक हैं। खाना, पीना, मैथुन, निद्रा, शीत तथा अतिशय गर्मी से रक्षा, आदि नैसर्गिक आवश्यकताएं हैं और ये सभी लोगों की होती हैं। यदि कोई नैसर्गिक आवश्यकता लंबे समय तक पूरी नहीं हो पाती है, तो मनुष्य या तो मर जाएगा, या वह अपने पीछे अपनी संतान नहीं छोड़ सकेगा।

यद्यपि आज के लोगों की भी वही नैसर्गिक आवश्यकताएं, जो हमारे पशु पूर्वजों और आदिम लोगों की थीं, फिर भी उनका मनोवैज्ञानिक सारतत्व बिल्कुल भिन्न है। उनकी तुष्टि के उपाय और तरीक़े ही नहीं बदल गये हैं, बल्कि इससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि स्वयं आवश्यकताओं में तात्विक परिवर्तन आ गया है और आज का आदमी उन्हें उस रूप में महसूस नहीं करता, जिस रूप में उसके प्रागैतिहासिक पुरखे किया करते थे। मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकताओं का सामाजिक-ऐतिहासिक स्वरूप होता है

सांस्कृतिक आवश्यकताएं मनुष्य की सक्रियता की मानव संस्कृति के उत्पादों पर निर्भरता की परिचायक है। उनकी जड़े पूर्णतः मानव इतिहास में होती हैं। सांस्कृतिक आवश्यकताओं का विषय वे वस्तुएं हैं, जो किसी स्थापित संस्कृति के दायरे में किसी नैसर्गिक आवश्यकता की पूर्ति करती हैं ( जैसे पश्चिमी छुरी-कांटा, चीनी खाने की डंडियां, आदि )। सांस्कृतिक आवश्यकताओं का विषय वे वस्तुएं भी हैं, जिनकी श्रम, अन्य लोगों से सांस्कृतिक संपर्क और जटिल तथा विविध सामाजिक जीवन में जरूरत पड़ती है। विभिन्न आर्थिक और राजनीतिक पद्धतियों में व्यक्ति अपनी शिक्षा और समाज में स्वीकृत प्रथाओं तथा व्यवहार-संरूपों के आत्मसातीकरण की मात्रा के अनुसार अपनी विभिन्न सांस्कृतिक आवश्यकताएं बनाता है। सांस्कृतिक आवश्यकताओं की तुष्टि ना होने से मनुष्य की मृत्यु तो नहीं होती ( जैसा कि नैसर्गिक आवश्यकताओं के सिलसिले में होता है ), पर उसका मानवत्व अवश्य बुरी तरह प्रभावित होगा।

सांस्कृतिक आवश्यकताएं एक दूसरी से सारतः अपने स्तर के अनुसार, अर्थात वे व्यक्ति से समाज की जिन अपेक्षाओं को प्रतिबिंबित करती हैं, उनके अनुसार भिन्न होती हैं। आख़िर एक युवा आदमी का मार्गदर्शन करने वाली रोचक और शिक्षाप्रद पुस्तकों की आवश्यकता और दूसरे युवक की फ़ैशनेबुल रंगों की टाई की आवश्यकता को एक ही स्तर पर तो नहीं रखा जा सकता। इन दोनों आवश्यकताओं और वे जिन सक्रियताओं का आधार बनती हैं, उनका अलग-अलग मूल्यांकन किया ही जाना चाहिए। नैतिक दृष्टि से उचित आवश्यकता वह है, जो व्यक्ति जिस समाज में रहता है, उस समाज की अपेक्षाएं पूरी करती हैं और जो इस समाज में सामान्यतः मानव रुचियों, मूल्यांकनों तथा सार्विक दृष्टिकोण से मेल खाती हों।

अपने विषयों की प्रकृति के अनुसार आवश्यकताओं को भौतिक और आत्मिक में बांटा जा सकता है।

भौतिक आवश्यकताएं भौतिक संस्कृति की वस्तुओं पर मनुष्य की निर्भरता को दर्शाती हैं ( भोजन, वस्त्र, आवास, घर-गृहस्थी की चीज़ों की आवश्यकताएं ), जबकि आत्मिक आवश्यकताएं सामाजिक चेतना के उत्पादों पर उसकी निर्भरता को प्रकट करती हैं। आत्मिक आवश्यकताएं अपने को आत्मिक संस्कृति के सृजन तथा आत्मसातीकरण में व्यक्त करती हैं। मनुष्य अपने विचारों और भावनाओं में दूसरे लोगों को भागीदार बनाने, पत्र-पत्रिकाएं तथा पुस्तकें पढ़ने, सिनेमा तथा नाटक देखने, संगीत सुनने, आदि की आवश्यकता महसूस करता है।

आत्मिक आवश्यकताएं भौतिक आवश्यकताओं से अभिन्नतः जुड़ी हुई हैं। आत्मिक आवश्यकताओं की तुष्टि भौतिक वस्तुओं ( पुस्तकों. पत्र-पत्रिकाओं, कागज़, रंग, आदि ) के बिना नहीं हो सकती और अपनी बारी में ये सब भौतिक आवश्यकताओं का विषय हैं।

इस तरह अपने मूल की दृष्टि से नैसर्गिक की श्रेणी में आनेवाली आवश्यकता विषय की दृष्टि से भौतिक हो सकती है और मूल की दृष्टि से सांस्कृतिक आवश्यकता विषय की दृष्टि से भौतिक या आत्मिक, कोई भी हो सकती है। इस तरह हम देखते हैं कि यह वर्गीकरण अपने दायरे में अति विविध प्रकार की आवश्यकताओं को शामिल कर लेता है तथा एक ओर, मन के विकास के इतिहास के साथ उनके संबंध को, वहीं दूसरी ओर, वे जिस विषय की ओर लक्षित हैं, उसके साथ संबंध को दर्शाता है।

मनुष्य की क्रियाशीलता को जन्म देने और उसकी दिशा का निर्धारण करने वाली आवश्यकताओं की तुष्टि से संबंधित सक्रियता के प्रणोदकों को अभिप्रेरक या अभिप्रेरणा कहा जाता है। आवश्यकताओं में मनुष्य की परिवेशी परिस्थितियों पर निर्भरता अपने को उसके व्यवहार और सक्रियता की अभिप्रेरणा के रूप में प्रकट करती है। यदि आवश्यकताएं सभी प्रकार की मानव सक्रियता का सारतत्व और प्रेरक शक्ति हैं, तो अभिप्रेरक इस सारतत्व की ठोस, विविध अभिव्यक्तियां हैं। मनोविज्ञान में अभिप्रेरक या अभिप्रेरणा को व्यवहार और सक्रियता की दिशा का निर्धारण करनेवाला कारण माना जाता है।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताएं

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता पर चर्चा की थी, इस बार जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताओं पर एक नज़र ड़ालेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताएं


पिछली बार, मानस की परिवेश और अंग संरचना पर निर्भरता पर संक्षिप्त विवेचना में हमने जाना था कि मानस का उदविकास ग्राहियों और संकेतन-सक्रियता के रूपों तथा कार्यों के उत्तरोत्तर जटिलीकरण में प्रकट होता है। इस तरह मानस के उदविकास की प्रक्रिया से गुजरते हुए हम देखते हैं कि सर्वोच्च प्राणियों के मानस और मनुष्य के मानस में बहुत बड़ा अंतर है। मनुष्य और पशुओं के मानस में भेदों पर हम यहां पहले एक बार चर्चा कर चुके हैं। जिज्ञासु व्यक्तियों को मनोविज्ञान के संदर्भ में इस पायदान पर एक बार उस प्रविष्टि मनुष्य और पशुओं के मानस में भेद’ से जरूर गुजर लेना चाहिए।

इसके साथ ही, सामाजिक संबंधों के विकास की पूर्वापेक्षा और परिणाम के रूप में श्रम-सक्रियता को समझने के लिए, उपरोक्त के बाद की प्रविष्टि ‘चेतना के आधार के रूप में श्रम’ से भी इसी पायदान पर गुजरना भी श्रेष्ठ रहेगा। यह दोनों प्रविष्टियां मनोविज्ञान के व्यापक परिप्रेक्ष्य में अभी चल रहे हमारे विषय मन और चेतना की उत्पत्ति तथा उदविकास को समझने में हमारी मदद करेंगी। मन को वस्तुगत रूप से समझ लेना, मानसिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण आधार का काम करेगा।

अब हम आगे बढ़ते हैं और जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की ओर कदम बढ़ाते हैं।

जीवधारियों की एक सार्विक विशेषता उनकी क्रियाशीलता है, जिसके जरिए वे परिवेशी विश्व से अपने जीवनीय संबंध बनाए रखते हैं। क्रियाशीलता जीवधारियों में अंतर्निहित स्वतंत्र प्रतिक्रिया की क्षमता है। क्रियाशीलता का स्रोत जीवधारियों की आवश्यकताएं हैं, जो उसे किसी निश्चित ढ़ंग से कार्य करने को प्रेरित करती हैं। आवश्यकता अवयवी की वह अवस्था है, जो उसकी उसके अस्तित्व की ठोस परिस्थितियों पर निर्भरता को व्यक्त करती है और उसे इन परिस्थितियों के संबंध में क्रियाशील बनाती है

मनुष्य की क्रियाशीलता अपने को आवश्यकताओं की तुष्टि की प्रक्रिया में प्रकट करती है और यह प्रक्रिया स्पष्टतः दिखाती है कि मनुष्य की क्रियाशीलता तथा पशुओं के व्यवहार में क्या अंतर है। पशु अपने व्यवहार में क्रियाशीलता इसलिए दिखाता है कि उसकी प्राकृतिक संरचना ( शरीर तथा अंगों की रचना तथा सहजवृत्तियां ) जैसे कि पहले ही निर्धारित कर देती हैं कि कौन-कौन सी वस्तुएं उसकी आवश्यकताओं का विषय बन सकती हैं, और इस तरह उसमें उन वस्तुओं को पाने की सक्रिय इच्छा पैदा करती है। जीव-जंतुओं का अपने को परिवेश के अनुकूल बनाना वास्तव में इसपर निर्भर होता है कि वे अपनी आवश्यकताओं को किस हद तक तुष्ट कर सकते हैं। किसी भी पशु की क्रियाशीलता को वह प्राकृतिक वस्तु उत्प्रेरित करती है, जो उसकी आवश्यकताओं का प्रत्यक्ष अंग है


किंतु मनुष्य की क्रियाशीलता का तथा जो आवश्यकताएं उसका स्रोत हैं, उनका स्वरूप इससे भिन्न है। मनुष्य की आवश्यकताएं उसके पालन की प्रक्रिया में बनती हैं, अर्थात वे उसके द्वारा मानव संस्कृति के आत्मसातीकरण का परिणाम होती हैं। इस तरह प्राकृतिक वस्तु मात्र शिकार, आदि द्वारा हासिल की हुई वस्तु, यानि आहार का जैविक अर्थ रखने वाली वस्तु ही नहीं रह जाती है। श्रम के औजारों के माध्यम से मनुष्य इस वस्तु को बदल और ऐतिहासिक विकास की लंबी प्रक्रिया के फलस्वरूप बनी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ढ़ाल सकता है। अतः मनुष्य द्वारा अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि वास्तव में एक सक्रिय सोद्देश्य प्रक्रिया है, जिसके जरिए मनुष्य सामाजिक विकास द्वारा निर्धारित सक्रियता के किसी निश्चित रूप को सीखता है

मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करने के साथ-साथ उसका विकास और रूपांतरण भी करता है। आज के मनुष्य की आवश्यकताएं उसके पूर्वजों की आवश्यकताओं से भिन्न हैं। इसी तरह उसके वंशजों की आवश्यकताएं भी उसकी आवश्यकताओं से भिन्न होंगी।

जैसा कि कहा जाता है एक आदर्श व्यवस्था वह होगी जहां हर मनुष्य अपनी योग्यतानुसार काम करेगा और अपनी आवश्यकतानुसार प्रतिदान पाएगा, तो क्या इससे हम यह निष्कर्ष निकालें कि जो अपनी सभी आवश्यकताओं की सहज पूर्ति का अवसर पाता है, वह स्वतः अपने में व्यक्ति के उच्च गुण विकसित कर लेगा और उसकी क्रियाशीलता स्वतः उच्च आदर्शों की ओर लक्षित होगी? ऐसा निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा। आवश्यकताओं की तुष्टि मनुष्य के सर्वतोमुखी विकास की शर्त तो है, पर यही एकमात्र शर्त नहीं है। इसके अलावा व्यक्तित्व-निर्माण की अन्य शर्तों, विशेषतः श्रम, के अभाव में आवश्यकताओं की सहज तुष्टि की संभावना बहुधा व्यक्ति को पतन की ओर ही ले जाती हैं।

पराश्रयी आवश्यकताएं, जिनपर श्रम का अंकुश नहीं होता, समाजविरोधी और आपराधिक व्यवहार का स्रोत बन सकती हैं और बनती भी हैं। अतएव एक बेहतर समाज की पूर्वापेक्षा यह है कि श्रम की आवश्यकता को प्रोत्साहित करना मनुष्य की शिक्षा का अनिवार्य अंग हो।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां पशुओं के बीच संप्रेषण और उनकी ‘भाषा पर चर्चा की थी, इस बार विकसित होते मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता पर एक नज़र डालेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता


        यदि जीवधारियों का वासस्थान सर्वत्र एक ही जैसा होता, तो सारी पृथ्वी पर शायद एक ही जाति के जीव रह रहे होते। किंतु वास्तव में जलवायु और वासीय परिस्थितियों के लिहाज़ से परिवेश बहुत ही विविध है और इसी कारण जीवजातियों में इतनी अधिक विविधता पाई जाती है। पृथ्वी पर १० लाख से अधिक क़िस्मों की जीवजातियां रहती हैं। फिर अपनी सारी विविधताओं की बावज़ूद पर्यावरणीय परिघटनाओं में वार्षिक चक्र, दिन और रात्रि का एकांतरण, तापमान में उतार-चढ़ाव, आदि चक्रीय परिवर्तन आते रहते हैं। सभी जीव अवयवियों को अपने को विद्यमान स्थितियों के अनुरूप ढ़ालना पड़ता है।

        सामान्य उत्तेजनशीलता से आरंभ होनेवाला आत्म-नियमन मनुष्य की सृजनात्मक तर्कबुद्धि में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचता है।

        परावर्तन की प्रणालियां जितनी ही उन्नत होंगी, जीवजाति परिवेश के प्रत्यक्ष प्रभाव से उतना ही अधिक स्वतंत्र होगी। एककोशीय अवयवी पूरी तरह और प्रत्यक्ष रूप से परिवेशीय परिस्थितियों पर निर्भर होता है। उच्चतर जीवों का व्यवहार निम्नतर जीवों से अत्यधिक भिन्न होता जाता है। बहुत से जीव देशांतरण करते हैं। स्तेपियाई कछुए औए चूहे अपने को ज़मीन में गहरे गाड़ लेते हैं, जहां तापमान उनके अस्तित्व के ज़्यादा अनुकूल होता है। ऐसा वे सहजवृत्तिवश करते हैं। अधिक गर्मी में हाथी अपने पर ठंड़ा पानी डालता है तथा घनी छांह में शरण लेता है। इसी तरह बंदर भी ऐसी जगह चुनता है, जहां गर्मी को ज़्यादा आसानी से झेला जा सकता है। वे सहजवृत्तियों के अलावा, अनुकूलित संबंधों यानि जीवनकाल में संचित अनुभवों से भी निदेशित होते हैं।

        इस तरह जीव-जंतु अपने को परिवेश पर प्रत्यक्ष निर्भरता से शनैः शनैः मुक्त करते जाते हैं। किंतु जीवधारी पर्यावरण से पूर्णतः स्वतंत्र कभी नहीं होंगे, चाहे उनके विकास का स्तर कितना ही ऊंचा ही क्यों न हो। पर्यावरण जीव अवयवियों के लिए अस्तित्व की एक आवश्यक शर्त और जीवन का एक मुख्य निर्धारक कारक है। दूसरे शब्दों में कहें, तो सभी जीवधारियों का अस्तित्व परिवेशी परिस्थितियों द्वारा निर्धारित होता है

        परावर्तन की पर्याप्तता मुख्य रूप से ज्ञानेन्द्रियों और तंत्रिका-तंत्र की संरचना पर निर्भर होती हैं। किसी क्षोभक या उत्तेजक के बारे में ग्राही की प्रतिक्रिया जितनी ही सही होगी, उतनी ही पर्याप्त वह प्रतिक्रिया होगी। कुछ सीमाओं के भीतर इन दोनों के बीच प्रत्यक्ष संबंध है। उदाहरण के लिए, चाक्षुष ग्राही का विकास अवयवी द्वारा अपने को सूर्य के विसरित प्रकाश के परावर्तन के अनुकूल बनाने पर निर्भर था।

        एककोशीय और सरलतम बहुकोशीय सीलेंटरेटा में प्रकाश की केवल सामान्य प्रतिक्रिया, प्रकाशानुवर्तन देखी जा सकती है। केंचुए की बाह्यत्वचा में प्रकाशसंवेदी कोशिकाएं होती हैं, ये कोशिकाएं प्रकाश और अंधकार के बीच भेद कर सकती हैं। चपटे मोलस्क में प्रकाशसंवेदी कोशिकाओं के कई समूह पाये जाते हैं, जो शरीर में धंसी हुई एक छोटी थैली पर बनी होती हैं। दर्शनेंद्रिय की ऐसी रचना की बदौलत मोलस्क प्रकाश की विद्यमानता और अभाव को दर्ज़ कर लेने के साथ-साथ यह भी जान लेता है कि प्रकाश किधर से आ रहा है। कीटों की आंखों की फलकित रचना उन्हें छोटी वस्तुओं की आकृति का पता लगाने में मदद देती है। अधिकांश कशेरुकियों की आंखों में विशेष अपवर्तन लेंस बने होते हैं, जिनकी बदौलत वस्तु की रूपरेखा स्पष्टतः देखी जा सकती है।

        ग्राहियों का विकास कुछ सीमाओं के भीतर तंत्रिका-तंत्र के एक विशेष प्ररूप के विकास से जुड़ा हुआ है। ज्ञानेंद्रियों और तंत्रिका-तंत्र के विकास का स्तर अनिवार्यतः मानसिक परावर्तन के स्तर तथा रूपों का निर्धारण करता है

        विकास की निम्नतर अवस्था के जालनुमा तंत्रिका-तंत्रवाले जीव उद्दीपनों का उत्तर मुख्यतः अनुवर्तनों से देते हैं। उनके अस्थायी संबंध कठिनता से बनते हैं और जल्दी ही लुप्त हो जाते हैं। गुच्छिकीय तंत्रिका-तंत्र वाले अवयवियों के परावर्तन में गुणात्मक परिवर्तन आते हैं। अधिक उन्नत गुच्छिकीय तंत्रिका-तंत्र से युक्त जीव जन्मजात और अर्जित, दोनों तरह के प्रतिवर्तों की मदद से बाह्य प्रभावों का परावर्तन करते हैं। किंतु इस चरण में बहुसंख्य आनुवांशिक प्रतिक्रियाएं स्पष्टतः प्रमुख भूमिका अदा करती हैं।

        नलिकादार तंत्रिका-तंत्र इससे उच्चतर क़िस्म का तंत्रिका-तंत्र है। उदविकास के दौरान कशेरुकी मेरु-रज्जु और मस्तिष्क, यानि केंन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र का विकास कर लेते हैं। तंत्रिका-तंत्र के विकास के साथ-साथ जीवों की ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति तथा सुधार भी होता रहता है। तंत्रिका-तंत्र और ग्राही जैसे-जैसे परिष्कृत बनते जाते हैं, वैसे-वैसे मानसिक परावर्तन के रूप भी जटिलतर होते जाते हैं। उदविकास नये मानसिक प्रकार्यों को जन्म देता है और जो पहले से विद्यमान थे, उनमें सुधार करता है। ( संवेदन, प्रत्यक्ष, स्मृति और अंततः चिंतन ) तंत्रिका-तंत्र जितना ही जटिल होगा, मानस उतना ही परिष्कृत बनेगा। कशेरुकियों के उदविकास में मस्तिष्क और इसके स्थानीय प्रकार्यात्मक केंद्रों का विभेदन का विशेष महत्व है। जितने उच्च स्तर का प्राणी होगा, ये क्षेत्र उतने ही परिष्कृत होंगे।

        इस प्रकार मानस का उदविकास ग्राहियों और संकेतन-सक्रियता के रूपों तथा कार्यों के उत्तरोत्तर जटिलीकरण में प्रकट होता है

        प्राणियों के शरीर, तंत्रिका-तंत्र और ज्ञानेंद्रियों के विकास के फलस्वरूप परावर्तन के रूपों में परिमाणात्मक और गुणात्मक परिवर्तन आते हैं और परिवेश के साथ जीवधारियों के उत्तरोत्तर जटिल एवं बहुविध संबंध जन्म लेते हैं। मानसिक क्रियाएं जीव के वासस्थान और जीव की बनावट की विशिष्टताओं के अनुरूप विकास करती हैं। किंतु यह सोचना गलत होगा कि यदि परिस्थितियां एक जैसी हैं, तो सभी जीवों में एक ही जैसे मुख्य ग्राही विकसित होंगे। उनमें संवेदिता का जातिगत विकास मुख्यतः इसपर निर्भर होता है कि किस प्रकार के उत्तेजन जैविक महत्त्व प्राप्त करते हैं। एक ही जैसे परिवेश में मकड़ी कंपन से निदेशित होती है, मेंढ़क मनुष्य के लिए लगभग अश्रव्य सरसराहट से, चमगादड़ पराश्रव्य ध्वनियों से और कुत्ता मुख्यतः गंधों से ( सभी तरह की गंधों से नहीं, अपितु जैव अम्लों की गंधों से, क्योंकि कुत्ते की घ्राणशक्ति फूलों, जड़ी बूटियों, आदि की गंध के मामले में इतनी अधिक तीव्र नहीं होती )।

        मानस का विकास ऋजुरैखिक ढ़ंग से नहीं होता। वह एक साथ बहुत-सी दिशाओं में होता है। एक ही तरह के परिवेश में बहुत ही भिन्न परावर्तन-स्तरोंवाले जीव पाये जाते हैं। यही बात उल्टे क्रम में भी होती ह, यानि बहुत ही भिन्न परिवेशों में एक जैसे परावर्तन-स्तरवाले जीव मिल सकते हैं। उदाहरण के लिए, सामान्यतः माना जाता है कि इस दृष्टि से डोल्फ़िनों, हाथियों और भालूओं का समान रूप से ऊंचा परावर्तन स्तर है।

        परिवेश अपरिवर्तनशील नहीं है। सब कुछ की भांति परिवेश भी बदलता रहता है और उसमें रहने वाली जीवजातियां अपने को उसके अनुकूल ढ़ालती रहती हैं। मगर हो सकता है कि कुछ जातियों के लिए परिवेश इतना अधिक बदल जाए कि उसका उनकी मानसिक क्रियाओं पर गंभीर प्रभाव पड़े, जबकि अन्य जातियों की मानसिक क्रियाओं का विकास उससे नाममात्र को ही प्रभावित हो। उदाहरणार्थ, वासीय परिस्थितियों में आमूल परिवर्तन से प्राचीन मानवाभ वानरों के व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन आया था और अंततः यह पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति का कारण बना

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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