शनिवार, 31 दिसंबर 2011

स्वभाव और शिक्षा


हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कड़ी के रूप में सक्रियता की व्यक्तिगत शैली को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम स्वभाव और शिक्षा पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



स्वभाव और शिक्षा
स्वभाव की विशेषताओं के तौर पर क्रियाशीलता, संवेगात्मकता और गतिशीलता

बच्चों के प्रति वैयक्तिक, मनोविज्ञानसम्मत उपागम अपनाने के लिए उनके स्वभाव की विशेषताएं जानना बहुत ज़रूरी है। बच्चे के साथ अल्पकालिक संपर्क से उसके मानस के गतिक पक्ष की आंशिक और थोड़ी-बहुत ही स्पष्ट जानकारी पाई जा सकती है, जो उसके स्वभाव के सही मूल्यांकन के लिए कतई पर्याप्त नहीं है। छात्र की सांयोगिक आदतों व तौर-तरीक़ों का उसके स्वभाव की बुनियादी विशेषताओं से भेद करने के लिए शिक्षक के वास्ते यह जानना जरूरी है कि उस छात्र का विकास किन परिस्थितियों में हुआ है। उसे विभिन्न परिस्थितियों में छात्र के व्यवहार तथा कार्यों की तुलना भी करनी चाहिए। एक जैसी परिस्थितियों में छात्रों के व्यवहार तथा सक्रियता का तुलनात्मक अध्ययन उनके मानस की गतिक अभिव्यक्तियों को जानने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।

छात्र के स्वभाव का भेद निर्धारित करने के लिए शिक्षक को पहले उसकी क्रियाशीलता, संवेगात्मकता, गतिशीलता को आंकना चाहिए।

१. क्रियाशीलता : इसे नई जानकारियों, कार्यों तथा वस्तुओं के लिए बच्चों की ललक की प्रबलता से, परिवेश को बदलने तथा बाधाओं को पार करने की उसकी इच्छा की तीव्रता ( intensity ) से आंका जाता है।
२. संवेगात्मकता : इसे संवेगात्मक प्रभावों के प्रति बच्चे की संवेदनशीलता और संवेगात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहाना खोजने की उसकी प्रवृत्ति ( tendency ) से आंका जाता है। संवेगों की अभिप्रेरण-क्षमता और एक संवेगात्मक अवस्था से दूसरी अवस्था में संक्रमण की रफ़्तार भी इस संबंध में बड़ा महत्त्व रखती हैं।
३. गतिशीलता : बच्चे की गतिशीलता की विशेषताएं अपने को पेशीय क्रियाओं की गति, आकस्मिकता, लय, विस्तार और कई अन्य बातों में व्यक्त करती हैं ( उनमें से कुछ वाचिक गतिशीलता के भी अभिलक्षण हैं )। स्वभाव की इन अभिव्यक्तियों को अन्य अभिव्यक्तियों की अपेक्षा आसानी से देखा और आंका जा सकता है।

यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि स्वभाव की आयुगत विशेषताएं भी हैं और हर अवस्था में क्रियाशीलता, संवेगात्मकता तथा गतिशीलता अपने को अलग ढंग से व्यक्त करती हैं। उदाहरण के लिए, निचली कक्षाओं के बच्चों की क्रियाशीलता की विशेषताएं हैं रुचि का सहज ही जागृत हो जाना, बाह्य क्षोभकों के प्रति उच्च संवेदनशीलता, किसी बात पर ध्यान देर तक केंद्रित ना रख पाना। इनका कारण बच्चे के तंत्रिका-तंत्र की आपेक्षिक दुर्बलता और अत्यधिक संवेदनशीलता है। निचली कक्षाओं के बच्चों की संवेगात्मकता तथा गतिशीलता भी किशोरों के इन गुणों से बहुत भिन्न हैं। बच्चे की स्वभावगत विशेषताओं को उसकी आयु से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि उनकी अभिव्यक्तियां हमेशा बच्चे के विकास से जुड़ी होती हैं।

स्वभाव की विशेषताएं और शिक्षा

हर प्रकार का स्वभाव अपने को सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों तरह के मानसिक अभिलक्षणों में प्रकट कर सकता है। पित्तप्रकृति व्यक्ति की उर्जा और कर्मशक्ति यदि उचित लक्ष्यों की ओर उन्मुख हों, तो वे मूल्यवान गुण हो सकती हैं, किंतु उसका संवेगात्मक तथा गतिशीलता संबंधी असंतुलन पालन की कमियों के साथ मिलकर अपने को उच्छॄंखलता, उद्दंड़ता तथा आपे से बाहर होने की स्थायी प्रवृत्ति में व्यक्त कर सकते हैं। रक्तप्रकृति ( प्रफुल्लस्वभाव ) मनुष्य की जीवंतता और सह्रदयता श्रेष्ठ गुण हैं, किंतु समुचित शिक्षा के अभाव में ये गुण एकाग्रता की कमी, लापरवाही और निरुद्देश्यता की ओर ले जा सकते हैं। श्लैष्मिक प्रकृति ( शीतस्वभाव ) मनुष्य की शांतचित्तता, आत्म-नियंत्रण और गंभीरता की सामान्यतः हर कोई प्रशंसा करेगा, किंतु प्रतिकूल परिस्थितियों में वे उसे निश्चेष्ट, जड़ और ऊबाऊ आदमी में परिवर्तित कर सकते हैं। इसी तरह वातप्रकृति ( विषादी ) मनुष्य के भावनाओं की गहनता तथा स्थिरता और संयोगात्मक संवेदनशीलता जैसे गुण उसके बहुत काम आ सकते हैं, किंतु उचित शैक्षिक प्रभाव के अभाव में ये ही अन्यथा मूल्यवान गुण अतिशय संकोच में बदल जाएंगे और आत्मपरक अनुभवों की दुनिया में सिमट जाने की प्रवृत्ति को जन्म देंगे।

इस तरह स्वभाव के बुनियादी गुणधर्म व्यक्तित्व की विशेषताओं का पूर्वनिर्धारण ( predetermination ) नहीं करते और ख़ुद ही मनुष्य के अच्छे या बुरे गुणों में नहीं बदल जाते। अतः शिक्षक और अभिभावकों का कार्य एक तरह के स्वभाव को बदलकर दूसरी तरह का स्वभाव विकसित करना नहीं ( ऐसे प्रयास हमेशा विफल सिद्ध होते हैं ), बल्कि छात्र के स्वभाव के अच्छे पहलुओं को प्रोत्साहित करना साथ ही उसे बुरे, नकारात्मक पहलुओं से छुटकारा पाने में मदद देना है

जो चीज़ ख़राब शिक्षा या पालन का परिणाम है, उसे आंख मूंदकर स्वभाव से नहीं जोड़ना चाहिए। उदाहरण के लिए, व्यवहार में संयम व आत्म-नियंत्रण के अभाव का पित्तप्रकृति ( कोपशील ) स्वभाव से संबंध होना अनिवार्य नहीं है। वह ग़लत पालन का परिणाम भी हो सकता है। इसी तरह मनुष्य का बिलावजह अपनी रुचियां व शौक बदलना, उसमें संयम का अभाव, अन्य लोगों के प्रति उदासीनता, अनावश्यक संकोच, आदि स्वभाव के नहीं, अपितु अवांछनीय प्रभावों के परिणाम हो सकते हैं। बच्चा स्कूल के भीतर दब्बू, लगभग असहाय प्रतीत हो सकता है और वातप्रकृति, यानि विषादी प्ररूप का ठेठ प्रतिनिधी होने की सर्वथा मिथ्या छाप पैदा कर सकता है, किंतु वास्तव में वैसा व्यवहार उसके पढ़ाई में और सबसे पिछड़ा होने या औरों के बीच घुल-मिल न पाने का परिणाम हो सकता है।

विभिन्न स्वभावोंवाले लोगों के प्रति वैयक्तिक उपागम

ऊपर जो भी कुछ कहा गया है, उसका यह मतलब नहीं कि स्वभावगत अंतरों को अनदेखा करना चाहिए। बच्चों के स्वभावों का ज्ञान शिक्षक और अभिभावकों को उनके व्यवहार की विशिष्टताओं को बेहतर समझने और लालन-पालन तथा शैक्षिक प्रभाव की प्रणालियों को आवश्यकतानुसार बदलने की संभावना देता है।

छात्रों की प्रगति पर ख़राब अंकों का प्रभाव मालूम करने के लिए किये गए विशेष प्रयोगों ने दिखाया है कि पढ़ाई में समान रुचि रखनेवाले, किंतु स्वभाव के मामले में भिन्न बच्चे उनपर अलग-अलग ढंग से प्रतिक्रिया करते हैं : प्रबल तंत्रिका-तंत्रवाले अपने को संभाल लेते हैं और दुर्बल तंत्रिका-तंत्रवाले हतोत्साहित हो जाते हैं, आत्मविश्वास खो बैठते हैं और नहीं जानते कि क्या करें। स्पष्टतः ऐसी विभिन्न प्रतिक्रियाएं शिक्षक द्वारा छात्रों के प्रति अलग-अलग कार्यनीतियां ( strategies ) अपनाए जाने की आवश्कयता पैदा करती है।

शिक्षक भली-भांति जानते हैं कि स्कूल की समय-तालिका या पाठों के क्रम में परिवर्तन कक्षा के सामान्य काम में विघ्न पैदा कर देता है। कुछ छात्र ऐसे परिवर्तनों के जल्दी ही और आसानी से आदी हो जाते हैं, जबकि दूसरे अपने को नई स्थिति के अनुसार ढ़ाल पाने में कठिनाई अनुभव करते हैं। सामान्यतः शिक्षक को पित्तप्रकृति ( कोपशील ) तथा वातप्रकृति ( विषादी ) स्वभावोंवाले बच्चों पर विशेष ध्यान देना पड़ता है : पहलों को हमेशा उग्र प्रतिक्रियाओं से रोकने, अपने और अपनी क्रियाओं पर नियंत्रण करना सिखाने और शांति के साथ तथा निरंतर कार्य का प्रशिक्षण देने की जरूरत होती है, जबकि दूसरों को उनका खोया आत्म-विश्वास लौटाना, प्रोत्साहित करना तथा कठिनाइयों से विचलित न होना सिखाना होता है। कमज़ोर तंत्रिका-तंत्रवाले बच्चों के लिए कठोर दिनचर्या तथा काम की नपी-तुली गति निर्धारित की जानी चाहिए।

अच्छी शिक्षा-पद्धति दुर्बल तंत्रिका-तंत्रवाले बच्चे में भी दृढ़ इच्छाशक्ति का विकास कर सकती है। इसके विपरीत कृत्रिम परिस्थितियों में दी जानेवाली शिक्षा प्रबल तंत्रिका-तंत्रवाले बच्चे को भी पहलहीन तथा आत्म-विश्वासरहित बना सकती है। हर पित्तप्रकृति ( कोपशील ) मनुष्य अपने निश्चय पर अड़िग नहीं रहता और न हर रक्तप्रकृति ( प्रफुल्लस्वभाव ) मनुष्य सह्रदय होता है। आत्म-नियंत्रण और स्वशिक्षा के द्वारा ये गुण विकसित करने होते हैं

विकासोन्मुख मनुष्य को शनैः शनैः अपने व्यवहार तथा सक्रियता का सचेतन नियंत्रण करना सीखना चाहिए। विभिन्न स्वभावोंवाले व्यक्ति इस काम को विभिन्न तरीक़ो से करते हैं। स्वभावगत भेदों का तकाज़ा है कि छात्रों में आवश्यक मानसिक गुण संवर्धित ( enhanced ) करने के लिए शिक्षक अलग-अलग बच्चों के साथ अलग-अलग प्रणालियां इस्तेमाल करे। मनुष्य के स्वभाव की विशेषताएं अपने को विभिन्न क्षेत्रों में ( उदाहरणार्थ, स्कूल में और घर में ) विभिन्न रूपों में प्रकट करती हैं। स्वभाव की कुछ अभिव्यक्तियां मनुष्य के विन्यासों तथा आदतों के प्रभाव से एक निश्चित दिशा में सीमित तथा निदेशित की जा सकती हैं। दूसरे शब्दों में, स्वभाव व्यवहार के संरूपों को प्रभावित करता है, न कि उन्हें पहले से तयशुदा बनाता है। यहां शैक्षिक प्रभाव और परिवेश के प्रति विकासोन्मुख मनुष्य ( बच्चा, किशोर, आदि ) के रवैयों ( attitudes ) की सारी पद्धति सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

स्वभाव की विशेषताएं, अर्थात मन की गत्यात्मक पद्धति के अभिलक्षण उन अत्यंत महत्त्वपूर्ण गुणों के विकास की एक पूर्वापेक्षा ही है, जिनसे मनुष्य का चरित्र ( character ) बनता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

रविवार, 25 दिसंबर 2011

सक्रियता की व्यक्तिगत शैली


हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कड़ी के रूप में बौद्धिक योग्यताएं, सक्रियता-प्रणाली और स्वभाव को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम सक्रियता की व्यक्तिगत शैली पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



व्यावसायिक अपेक्षाएं और स्वभाव

कुछ ख़ास क्षेत्रों में स्वभाव ( nature ) की विशेषताएं न केवल सक्रियता को, अपितु उसके अंतिम परिणामों को भी प्रभावित करती हैं। ऐसे क्षेत्रों के संबंध में मन के कुछ गतिक गुण ज़्यादा अनुकूल होते हैं और कुछ कम अनुकूल। जिन क्षेत्रों में क्रियाओं की तीव्रता की दर अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, वहां बौद्धिक गतिक गुण, काम के लिए मनुष्य की उपयुक्तता का निर्धारण करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण कारक बन सकते हैं। वास्तव में कतिपय व्यवसायों ( professions ) के लिए उच्च गतिक अभिलक्षणों ( high dynamic characteristics ) की अपेक्षा होती है, जो प्रत्याशियों का प्राथमिक चुनाव आवश्यक बना देती है। उदाहरण के लिए, पायलट, ड्राइवर या सर्कस के कलाबाज़ के लिए गतिशील तथा मजबूत तंत्रिका-तंत्र की आवश्यकता होती है। इसी तरह संवेगात्मक उत्तेज्यता ( impulsive excitement ) जैसे गुण के बिना अभिनेता या संगीतज्ञ नहीं बना जा सकता।

किंतु अधिकांश व्यवसायों में सक्रियता की गतिकी से संबंधित स्वभावगत विशेषताएं उसकी अंतिम कारगरता ( effectiveness ) को प्रभावित नहीं करती। स्वभाव के किसी भी भेद की जो कमियां हैं, उनकी प्रतिपूर्ति ( compensation ) अपनी सक्रियता में मनुष्य की गहन रुचि, तैयारी के उच्च स्तर और संकल्पात्मक प्रयासों ( volitive efforts ) से की जा सकती है।

सर्वविदित है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी और कला जैसे सभी सृजनात्मक ( creative ) क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताएं पानेवाले सभी लोगों के स्वभाव एक जैसे नहीं होते। सृजनशील व्यक्ति की एक मुख्य विशेषता अपने कार्यों की प्रणालियों का विशिष्टिकरण है, यानि वह सचेतन अथवा अचेतन रूप से अपने कार्य में ऐसी शैलियों ( styles ) तथा तकनीकों ( techniques ) का प्रयोग करता है कि जो उसके अपने स्वभाव से अधिकतम मेल खाती है

सक्रियता की व्यक्तिगत शैली

स्वभाव अपने को सर्वप्रथम कार्य-प्रणालियों की विशिष्टता ( specialty, uniqueness ) में व्यक्त करता है, ना कि कार्य की कारगरता ( effectiveness ) में। कार्य-निष्पादन में उच्च-परिणाम गतिशील और जड़, दोनों तरह के तंत्रिका-तंत्रवाले व्यक्तियों द्वारा पाये जा सकते हैं। यह पाया गया है कि विपरीत गतिशीलता-अभिलक्षणवाले व्यक्ति, श्रम-परिस्थितियों के समान होने पर भी अलग-अलग कार्यनीतियां ( strategies ) अपनाते हैं। शानदार उत्पादन-परिणाम उन व्यक्तियों द्वारा पाए जाते हैं, जिनके काम की शैली तथा प्रणालियां उनकी अपनी विशेषताओं से मेल खाती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि स्वभाव, सक्रियता की व्यक्तिगत शैली ( personal style ) का निर्धारण करता है।

व्यक्तिगत शैलियों की समस्या का अध्ययन करनेवाले मनोविज्ञानियों की खोजें दिखाती हैं कि ये शैलियां तुरंत और संयोगवश नहीं पैदा होतीं। व्यक्तिगत शैली का निर्माण तथा सुधार तभी होता है, जब मनुष्य बेहतर परिणाम पाने के लिए अपने स्वभाव के अनुरूप उपाय तथा तरीक़े सक्रिय रूप से खोज रहा हो। सभी दक्ष मज़दूरों, उत्कृष्ट खिलाड़ियों और तेज़ छात्रों की कार्य करने की अपनी व्यक्तिगत शैली होती है।

यह ध्यान देने योग्य बात हैं कि हर व्यक्ति द्वारा अलग से कार्य किए जाने की तुलना में संयुक्त सक्रियता में, विशेषतः जब कार्य दो व्यक्तियों द्वारा मिल-जुलकर किया जा रहा हो, उनके स्वभाव के गतिक लक्षण, सक्रियता के अंतिम परिणाम पर कहीं अधिक प्रभाव डालते है। इतना ही नहीं, संयुक्त सक्रियता से किन्हीं निश्चित स्थितियों के लिए विभिन्न प्रकार के स्वभावों के अधिक अनुकूल और कम अनुकूल संयोजन ( combination  ) भी पता चल जाते हैं। उदाहरण के लिए, उन मामलों में पित्तप्रकृति ( कोपशील ) मनुष्य की सक्रियता तब अधिक कारगर सिद्ध होती है, जब वह किसी श्लैष्मिक प्रकृति ( शीतस्वभाव ) या वातप्रकृति ( विषादी ) व्यक्ति के साथ मिलकर काम करता है। उसका किसी रक्तप्रकृति ( प्रफुल्लस्वभाव ) अथवा अपने ही जैसे स्वभाववाले व्यक्ति के साथ मिलकर काम करना उतना कारगर नहीं साबित होता। ऐसे तथ्य दिखाते हैं कि स्वभाव की किन्हीं निश्चित विशेषताओं का महत्त्व ठीक-ठीक तभी आंका जा सकता है कि जब संयुक्त-सक्रियता मे उनकी भूमिका को पूरी तरह ध्यान में रखा जाए।

मनुष्य अपने स्वभाव को जानना बचपन में ही शुरू कर देता है। शिक्षण तथा शिक्षा की प्रक्रिया में वह स्वभाव के नकारात्मक पहलुओं से होनेवाली हानि की प्रतिपूर्ति ( compensation ) के तरीक़े सीखता है और सक्रियता की अपनी व्यक्तिगत शैली विकसित करता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

बौद्धिक योग्यताएं, सक्रियता-प्रणाली और स्वभाव


हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कड़ी के रूप में पढ़ाई तथा श्रम-सक्रियता में स्वभाव की भूमिका को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम बौद्धिक योग्यताएं, सक्रियता-प्रणाली और स्वभाव पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



बौद्धिक योग्यताएं, सक्रियता-प्रणाली और स्वभाव

बौद्धिक योग्यताओं के स्तर और स्वभाव के बीच संबंध की संभावना विषयक विशेष अध्ययन ने दिखाया है कि उच्च बौद्धिक योग्यताओंवाले व्यक्तियों के स्वभावों में बड़ा अंतर हो सकता है। इसी तरह समान स्वभाव वाले बड़ी ही भिन्न बौद्धिक योग्यताएं प्रदर्शित कर सकते हैं। बेशक बौद्धिक सक्रियता को स्वभाव से पृथक नहीं किया जा सकता, जो मानसिक सक्रियताओं की गति तथा धाराप्रवाहिता, ध्यान की स्थिरता तथा परिवर्तनशीलता, काम में ‘प्रवृत्त’ होने की गतिकी, काम के दौरान संवेगात्मक आत्म-नियंत्रण और तंत्रिका-तनाव तथा क्लांति ( stress and fatigue ) की मात्रा जैसे अभिलक्षणों को प्रभावित करता है। किंतु सक्रियता के ढंग तथा शैली ( style ) को प्रभावित करनेवाली स्वभाव की विशेषताएं, स्वयं बौद्धिक योग्यताओं का निर्धारण नहीं करतीं। स्वभाव की विशेषताएं मनुष्य के काम के ढंग तथा तरीक़ों का तो निर्धारण करती है, किंतु उसकी उपलब्धियों के स्तर का नहीं। अपनी बारी में मनुष्य की बौद्धिक योग्यताएं ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करती हैं कि जिनमें वह अपने स्वभाव की कमियों की प्रतिपूर्ति ( compensation ) कर सकता है

इसकी मिसाल के तौर पर हम नीचे उत्तम अंकों के साथ स्कूली शिक्षा समाप्त करनेवाले दो नवयुवकों का तुलनात्मक मनोवैज्ञानिक चित्र पेश करेंगे।

अमित सक्रिय तथा उर्जावान नवयुवक है। वह सामान्यतः अपने काम में दिलचस्पी लेता है और अन्य लोगों पर कोई ध्यान नहीं देता। वह एक साथ कई काम कर सकता है, पेचीदा काम और बदलते हालात उसकी उर्जा को कम नहीं करते। किंतु हिमांशु अपना काम दूसरे ढंग से करता है। उसे अपना होमवर्क करने में बड़ा समय लगता है, तैयारीवाले चरण के बिना उसका काम नहीं चल पाता। छोटी-छोटी बाधाएं और अप्रत्याशित परिस्थितियां भी उसे देर तक सोचने को विवश कर देती हैं। अमित को, जो सदा बड़ी फुर्ती से काम करता है, आराम के लिए भी बहुत कम समय चाहिए। स्कूल से पैदल घर लौटना, दो-चार इशर-उधर की बातें, और जो सबसे बड़ी चीज़ है, काम का बदलाव उसकी शक्ति की बहाली के लिए पर्याप्त है। जहां तक हिमांशु का संबंध है, तो वह पाठों के बाद अपने को थका हुआ अनुभव करता है और अन्य कोई बौद्धिक कार्य शुरू करने से पहले उसे दो घंटे आराम की जरूरत होती है।

नई सामग्री और उसे दोहराने के बारे में दोनों नवयुवकों के रवैयों ( attitudes ) का अंतर भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है, जिन पर विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि वे उनकी मनोरचना की विशेषताओं का अच्छा परिचय देते हैं। शिक्षक जब नई सामग्री पढ़ाता है, तो अमित उसे बहुत चाव से सुनता है। उसे कोई भी पाठ्यपुस्तक पहली बार पढ़कर अत्यंत संतोष मिलता है। नये विषय की कठिनता उसके मस्तिष्क के लिए एक चुनौती होती है और उसे वह सहर्ष स्वीकार करता है। नयापन उसे उत्साहित और उत्तेजित करता है, इसके विपरीत दोहराने का काम उसे ज़्यादा आकर्षित नहीं करता और वह पाठों को दोहराने के बजाए अन्य काम करना पसंद करता है। हिमांशु के साथ बिल्कुल दूसरी बात है, उसे दोहराने का काम सबसे ज़्यादा पसंद है। नई सामग्री भी उसे रुचिकर लगती है। वह सोचने वाला और जिज्ञासू छात्र है, किंतु शिक्षक के विषय को देर तक समझाते रहना उसे थका डालता है। उसे नई सामग्री को दिमाग़ में बैठाने में समय लगता है। किंतु यदि दोहराने का पाठ हो, तो तब दूसरी ही बात होती है। सामग्री का वह आदि हो चुका होता है, मुख्य मुद्दों और संकल्पनाओं ( concepts ) वह परिचित हो चुका होता है और इसीलिए वह अपने आत्म-विश्वास तथा कथनों की परिशुद्धता और प्रोढ़ता से श्रोताओं को चकित कर सकता है।

अमित और हिमांशु संवेगों के मामले में एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं, पहला जल्दी क्रुद्ध हो जाता है, जबकि दूसरा जल्दी द्रवित तथा मुग्ध होता है।

इन दो नवयुवकों की पृष्ठभूमि और प्रेक्षण ( observation ) से प्राप्त सामग्री से उनके स्वभाव के बारे में निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। सभी तथ्य यह बताते हैं कि अमित का तंत्रिका-तंत्र प्रबल असंतुलित की श्रेणी में आता है और उसके स्वभाव में पित्तप्रकृति ( कोपशीलता ) का प्राधान्य है। इसके विपरीत हिमांशु संभवतः दुर्बल श्रेणी में आता है और विषादी स्वभाव के कतिपय लक्षणों का प्रदर्शन करता है। किंतु उल्लेखनीय है कि दुर्बल तंत्रिका-तंत्र से उसके कक्षा का एक सर्वोत्तम छात्र बनने और अपने में उच्च बौद्धिक योग्यताएं विकसित करने में बाधा नहीं पड़ी। अंतिम विश्लेषण में हम पाते हैं कि हिमांशु की तुलना में अमित की श्रेष्ठता सापेक्ष ( relative ) है। निस्संदेह, तत्काल प्रतिक्रियाएं और अपने को आसानी से नये कार्यभार के अनुरूप बदलने की योग्यता अत्यंत मूल्यवान गुण है। किंतु अमित अपनी सारी बौद्धिक शक्ति जैसे कि एक साथ झौंक देता है, जबकि हिमांशु अपना रास्ता टटोलते और धीरे-धीरे तथा अनिश्चय के साथ आगे बढ़ते हुए विषय में, उसकी पेचीदगियों तथा बारीकियों में बहुत गहराई तक पैठने की क्षमता रखता है। हिमांशु के बौद्धिक कार्य का दक्षता-स्तर ( efficiency level ) मात्रात्मक ( quantitative ) रूप से नीचा है, किंतु गुणात्मक ( qualitative ) दृष्टि से वह अमित के कार्य से किसी भी प्रकार हीनतर नहीं है। वास्तव में हिमांशु की सोचने की प्रक्रिया का धीमापन, जिसका कारण उसका दुर्बल तंत्रिका-तंत्र है, गहराई में पैठने की एक पूर्वापेक्षा बन जाता है।

क्रियाशीलता के स्तर और गतिशीलता के स्तर जैसे स्वभाव के अभिलक्षणों का पढ़ाई की कारगरता ( effectiveness ) पर बहुत ही विभिन्न क़िस्मों का प्रभाव पड़ सकता है। सब कुछ इसपर निर्भर है कि मनुष्य इन या उन गतिक गुणों का कैसे इस्तेमाल करता है। उदाहरण के लिए, निम्न बौद्धिक क्रियाशीलता जैसी कमी की प्रायः उच्च परिशुद्धता तथा सतर्कता द्वारा प्रतिपूर्ति कर ली जाती है। सामान्यतः मनुष्य की स्वभावगत विशेषताएं ही उसे कार्य की सर्वोत्तम प्रणाली या ढंग सुझा देती है। इसमें संदेह नहीं कि हर प्रकार के स्वभाव के अपने ही लाभ हैं।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

पढ़ाई तथा श्रम-सक्रियता में स्वभाव की भूमिका

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कड़ी के रूप में उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के गुणधर्मों और भेदों को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम पढ़ाई तथा श्रम-सक्रियता में स्वभाव की भूमिका पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



पढ़ाई तथा श्रम-सक्रियता में स्वभाव की भूमिका

मन की प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति अपने को मनुष्य के व्यवहार के ढंग में ही नहीं, उसकी क्रियाओं में ही नहीं, अपितु उसके बौद्धिक क्षोभ ( excitement ), उसके अभिप्रेरकों और उसकी सामान्य कार्य-क्षमता में भी व्यक्त करती है। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि मनुष्य के स्वभाव की विशेषताएं उसकी पढ़ाई या श्रम-सक्रियता को प्रभावित करती है।

यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि स्वभावगत अंतरों का संबंध मनुष्य की मानसिक क्षमताओं ( mental abilities ) से नहीं, उसके मानस की अभिव्यक्तियों ( expressions ) से है। हर स्वभाव में कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक बातें होती हैं, जिन्हें तंत्रिका-तंत्र के भेद का स्वभाव के संबंधित गुणधर्मों के साथ, मनुष्य की सक्रियता के लिए उनके महत्त्व की दृष्टि से, संबंध स्थापित करके ही आंका जा सकता है।

प्रबल और दुर्बल प्रकार की सक्रियताएं

विशेष अनुसंधानों ने दिखाया है कि तंत्रिका-तंत्र का दौर्बल्य ( infirmity ), उत्तेजन ( stimulation ) और प्रावरोध ( inhibit ) की प्रक्रियाओं की अल्प प्रबलता का ही नहीं, अपितु मनुष्य की अति संवेदनशीलता ( high sensitivity ) अथवा प्रतिक्रियात्मकता का भी सूचक है। इसका मतलब है कि दुर्बल तंत्रिका-तंत्र के अपने लाभ हैं। उसकी अभिलाक्षणिक विशेषताएं और अंतर्निहित संभावनाएं अनेक प्रयोगों और दैनंदिन प्रेक्षणों द्वारा प्रकाश में लाई जा चुकी हैं।

एक प्रयोग में छात्रों के एक समूह को सारे पाठ के दौरान सरल सवाल हल करने को दिये गए। छात्रों के तंत्रिका-तंत्र की क़िस्मों का पहले ही पता लगा लिया गया था। पाया गया कि दुर्बल तंत्रिका-तंत्रवाले छात्रों ने परिवेश के प्रति अपनी अधिक संवेदनशीलता और प्रतिक्रियात्मकता के कारण आरंभ में प्रबल तंत्रिका-तंत्रवाले छात्रों से अधिक सवाल किए, किंतु वे ज़्यादा ही जल्दी थक जाते थे। इसके विपरीत जिन छात्रों के स्वभाव का निर्धारण प्रबल तंत्रिका-तंत्र द्वारा हुआ था, उन्हें ‘उत्प्रेरण-अवधि’ ( trigger - period ) की जरूरत पड़ी और फिर वे अपनी उत्पादिता घटाए बिना कहीं ज़्यादा लंबे समय तक काम करते रहे।

एक अन्य जांच में प्रयोगकर्ताओं ने ऊंची कक्षाओं के पढ़ाई में अच्छे छात्रों की अध्ययन-प्रक्रिया का प्रेक्षण किया। इनके तंत्रिका-तंत्र की प्रबलता पहले प्रयोगशाला-प्रयोगों द्वारा मालूम की गई थी। पता चला कि उनमें प्रबल और दुर्बल, दोनों तरह के तंत्रिका-तंत्रवाले छात्र हैं। किंतु उनके काम करने के ढंग अलग-अलग और उनके स्वभाव के अनुरूप थे। उनके स्वतंत्र कार्य को तीन कालों - तैयारी, निष्पादन तथा जांच के कालों - में बांटकर प्रयोगकर्ताओं ने देखा कि ज़्यादा तेज़ छात्र तैयारी और जांच पर कम समय खर्च करते थे ( उदाहरणार्थ, वे अपने निबंधों को उन्हें लिखने की प्रक्रिया में ही जांच या सुधार लेते थे ),  जबकि अपेक्षाकृत कमज़ोर छात्र तैयारी और जांच में ज़्यादा समय लगाते थे और आवश्यक सुधार करने के लिए उन्हें अतिरिक्त समय की जरूरत पड़ती थी। दूसरा अंतर यह था कि तेज़ छात्र कई सारे काम विशेष आयोजना ( planning ) तथा समय-वितरण के बिना कर लेते थे, जबकि कमज़ोर छात्र नया काम पहले काम को पूरा कर लेने के बाद ही शुरू करना पसंद करते थे और दीर्घकालिक कामों के लिए दैनिक, साप्ताहिक, आदि योजनाएं बना लेते थे। जहां तक कार्य की सामान्य दक्षता का प्रश्न है, तो किसी भी स्वभाव को अधिमान ( precedence ) नहीं दिया जा सकता था।

यह पाया गया है कि कुछ प्रकार के नीरस कामों में अपेक्षाकृत कमज़ोर तंत्रिका-तंत्रवाले मनुष्य फ़ायदे में रहते हैं : उनकी अधिक संवेदनशीलता आवश्यक प्रतिक्रिया-स्तर पर बनाए रखने में और इंद्रियों को सुस्त बनानेवाली निद्रालुता ( somnolence ) को रोकने में सहायक बनती है। दूसरी ओर, जिन सक्रियताओं में मनुष्य का विशेषतः प्रबल, अप्रत्याशित अथवा भयावह क्षोभकों से वास्ता पड़ता है, उनमें अपेक्षाकृत दुर्बल लोग मात्र अपनी शरीरक्रियात्मक विशिष्टताओं के कारण चालू कार्यभारों ( assignments ) को पूरा करने में असमर्थ सिद्ध होते है।

इसका प्रमाण खेलकूद संबंधी गतिविधियों के मनोवैज्ञानिक प्रेक्षण से प्राप्त जानकारी से मिलता है। एक अध्ययन में अनुसंधान का विषय प्रशिक्षण और प्रतियोगिताओं के दौरान स्कूली बच्चों के खेल के व्यक्तिपरक अंतर ( subjective difference ) थे। पाया गया कि प्रबलतर तंत्रिका-तंत्रवाले छात्रों ने प्रशिक्षणात्मक अभ्यासों के बजाए महत्त्वपूर्ण प्रतियोगिताओं में बेहतर परिणाम दिखाए, जबकि दुर्बलतर तंत्रिका-तंत्रवालों ने प्रशिक्षण के चरण में बेहतर और ज़्यादा स्थिर उपलब्धियां प्रदर्शित कीं। इसका कारण उनके स्वभावों के अंतर, अर्थात उत्तेज्यता, तंत्रिका-प्रबलता और बढ़े हुए उत्तरदायित्व तथा जोखिम के प्रभाव से संबंधित अंतर थे।

इस तरह प्रबल तंत्रिका-तंत्रवाले एक तरह की समस्याओं को हल करने में बेहतर परिणाम दिखाते हैं और कमज़ोर तंत्रिका-तंत्रवाले दूसरी तरह की समस्याओं को हल करने में। प्रायः तंत्रिका-तंत्र प्रबलता के मामले में असमान लोगों को एक ही तरह के कार्यभार की पूर्ति के लिए एक दूसरे से भिन्न मार्ग अपनाने पड़ते हैं।

गतिशील और जड़ सक्रियताएं

तंत्रिका प्रक्रियाओं की जड़ता ( inertia ), यानि उनकी अल्प सचलता, जो अपने को एक प्रक्रिया से विरोधी कर्षणशक्ति ( anti traction power ) की दूसरी प्रक्रिया में मंद परिवर्तन में प्रकट करती है, और धीरे उत्तेजन तथा प्रावरोध में व्यक्त उनकी भिन्न अस्थिर संवेगिता के नकारात्मक और सकारात्मक, दोनों पहलू हो सकते हैं। जड़ता का नकारात्मक पहलू तंत्रिका-प्रक्रियाओं की धीमी गति है और सकारात्मक पहलू उनकी दीर्घता तथा स्थायित्व। संबंधित मानसिक अंतर मुख्यतः एक प्रक्रिया के रूप में सक्रियता की विशेषताओं ( characteristics ) की उपज होते हैं, न कि उसकी प्रभाविता ( effectiveness ) की उपज।

इस दृष्टि से विशेष प्रयोगों में अपेक्षाकृत गतिशील तथा जड़ स्वभावोंवाले छात्रों द्वारा श्रम-कौशल अर्जित करने की आरंभिक अवस्था में प्रदर्शित अंतर बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। अनुसंधानों ने दिखाया कि गतिशील छात्र, एक ओर, विभिन्न कार्यभारों की पूर्ति की उच्च दर प्रदर्शित करते हैं, तो, दूसरी ओर, अपर्याप्त विश्वसनीयता भी दिखाते हैं ( अनावश्यक जल्दबाजी के कारण कार्यभार के कुछ घटकों को छोड़ देना )। जिन कार्यभारों के लिए धीमी गतियों की जरूरत होती है, वे जड़ छात्रों द्वारा बेहतर तथा अधिक समरूप ढंग से संपन्न किए जाते हैं। बेशक, उनके काम में कभी-कभी अवांछित ( unwanted ) विलंब हो जाता है, किंतु कुलमिलाकर काम अधिक सावधानी के साथ पूरा किया जाता है। उनमें से अधिकांश अपने अपेक्षाकृत धीमेपन की कमी को शिक्षक की बातों तथा नक़्शों पर अधिक ध्यान देकर पूरी कर लेते हैं।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के भेद और स्वभाव

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कड़ी के रूप में स्वभावो के भेदों को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम उसी को आगे बढाते हुए उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के गुणधर्मों और भेदों पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के गुणधर्म
( properties of higher nervous system )

उच्चतर तंत्रिका-तंत्र, अथवा तंत्रिका-सक्रियता के भेदों का सिद्धांत, स्वभाव के वैज्ञानिक अध्ययन के इतिहास में एक वास्तविक मोड़बिंदु सिद्ध हुआ है। वैज्ञानिकों ने प्रमस्तिष्कीय गोलार्धों के कार्य की सामान्य नियमसंगतियों के अलावा तंत्रिका-तंत्र के उन भेदों की भी खोज और जांच की, जो पशुओं की वैयक्तिकता ( individuality ) से संबंध रखते थे ( प्रयोग कुत्तों पर किये गए थे )। पाया गया कि कुत्ते के व्यवहार की कुछ विशेषताएं ( उदाहरणार्थ, सजीवता अथवा सुस्ती, साहसिकता अथवा कायरता ) मुख्य तंत्रिका-प्रक्रियाओं - उत्तेजन ( stimulation ) और प्रावरोध ( inhibition ) - की कतिपय विशेषताओं से संबद्ध थीं। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वे जिन वैयक्तिक अंतरों का अध्ययन कर रहे थे, वे ऐसे शरीरक्रियात्मक अभिलक्षणों पर आधारित हैं, जैसे उत्तेजन और प्रावरोध की प्रबलता ( predominance ), उनकी सचलता ( mobility ), अर्थात तेज़ी से एक दूसरे का स्थान लेने की योग्यता, और उत्तेजन तथा प्रावरोध के बीच संतुलन ( balance )। उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के विभिन्न भेदों के मूल में इन गुणधर्मों के विभिन्न संयोजन ( combination ) ही होते हैं।

तंत्र की जीवन-क्षमता का परिचायक सबसे महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण तंत्रिका-प्रक्रियाओं की प्रबलता है। उत्तेजन और प्रावरोध की प्रबलता पर ही प्रांतस्था के न्यूरानों की कार्यक्षमता तथा मज़बूती निर्भर होती है। वास्तव में परिवेश बहुसंख्य विभिन्न उद्दीपनों के रूप में तंत्रिका-तंत्र पर प्रबल प्रभाव डालता है : मनुष्य को लंबे समय तक कोई बहुत ही कठिन कार्य करना, आपात स्थिति से जूझना, अतिशय मानसिक तनाव पैदा करनेवाले प्रबल क्षोभकों पर प्रतिक्रिया दिखाना और कुछ क्षोभकों के प्रभाव में अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया को इसलिए दबाना पड़ सकता है कि अन्य, अधिक महत्त्वपूर्ण क्षोभकों के संबंध में पूर्ण प्रतिक्रिया दिखाई जा सके। तंत्रिका-तंत्र कितना भार वहन कर सकता है, यह उत्तेजन और प्रावरोध की प्रक्रियाओं की प्रबलता पर निर्भर होता है।

अगला महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण प्रमस्तिष्कीय प्रांतस्था में तंत्रिका-सक्रियताओं की सचलता है। परिवेश बदलता रहता है और मनुष्य पर उसका प्रभाव आकस्मिक और अप्रत्याशित हो सकता है। ऐसे में तंत्रिका-प्रक्रियाओं को पिछड़ना नहीं चाहिए। प्रयोगों ने दिखाया है कि कतिपय प्राणियों में उत्तेजन और प्रावरोध की वैकल्पिक प्रक्रियाएं अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक तेज़ी से संपन्न होती हैं। तंत्रिका-तंत्र का तीसरा अभिलक्षण भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। यह है उत्तेजन और प्रावरोध की प्रबलता के बीच संतुलन। कभी-कभी इन कारकों के बीच संतुलन नहीं होता और प्रावरोध उत्तेजन से कमज़ोर सिद्ध हो जाता है। संतुलन का स्तर सभी पशुओं में समान नहीं होता।

उच्चतर तंत्रिका-सक्रियता के भेद

यह पाया गया है कि उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के सभी वैयक्तिक अंतर उपरोक्त किसी एक अभिलक्षण से नहीं, अपितु सदा उनके संयोजनों से पैदा होते हैं। प्रयोगशाला-प्रयोगों ने दिखाया है कि इनमें से कुछ संयोजन और संयोजनों की अपेक्षा अधिक प्रायिकता ( probability ) के साथ घटित होते हैं अथवा उनकी अभिव्यक्तियां अन्यों की अपेक्षा अधिक सुस्पष्ट होती हैं। उच्चतर तंत्रिका-सक्रियता के मुख्य प्रभेद निश्चित किये गए, और तंत्रिका-प्रक्रियाओं की प्रबलता के अनुसार सभी कुत्तों को दो श्रेणियों में बांटा गया : बलवान और दुर्बल

दुर्बल क़िस्म के पशुओं में दोनों ही तंत्रिका-प्रक्रियाएं ( विशेषतः प्रावरोध की प्रक्रिया ) दुर्बल होती है। ऐसे कुत्ते घबराहट और हड़बड़ी दिखाते हैं, लगातार पीछे झांकते रहते हैं या किसी एक मुद्रा में जड़, निश्चेष्ट बनकर खड़े रहते हैं। इसका कारण यह है कि बाह्य प्रभाव, जो कभी-कभी बिल्कुल मामूली होता है, उनके लिए बड़ा प्रबल सिद्ध होता है। दीर्घ अथवा प्रबल उद्दीपन उन्हें जल्दी थका डालता है। बेशक दुर्बल पशुओं में आपस में तंत्रिका-प्रक्रियाओं की प्रबलता के अनुसार ही भेद नहीं होता, फिर भी ये भेद उनके तंत्रिका-तंत्र की सामान्य दुर्बलता के सामने गौण बन जाते हैं।

प्रबल पशुओं को संतुलित और असंतुलित में बांटा जाता है। असंतुलित को सामान्यतः प्रबल उत्तेजन और क्षीण प्रावरोध से पहचाना जाता है। चूंकि ऐसे कुत्तों में उत्तेजन की प्रक्रिया, प्रावरोध की प्रक्रिया द्वारा संतुलित नहीं होती, इसलिए वे भारी मानसिक तनाव की स्थिति में तंत्रिकावसाद के शिकार बन जाते हैं। उनमें से अधिकांश आक्रामक, अति-उत्तेजनीय पशु होते हैं। प्रबल संतुलित कुत्तों को उनकी तंत्रिका-सक्रियता में परिवर्तन की गति के अनुसार फुरतीला और शांत, इन दो कोटियों में बांटा जाता है। उनके व्यवहार से उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है - फुरतीले कुत्ते हलचलपूर्ण तथा उत्तेजनीय होते हैं और शांत कुत्ते मंदगति तथा मुश्किल से उत्तेजित होनेवाले।

अतः वैज्ञानिकों ने उच्चतर तंत्रिका-सक्रियता के चार मुख्य भेद निर्धारित किये हैं : ( १ ) प्रबल संतुलित स्फूर्तिशील, ( २ ) प्रबल संतुलित शांत, ( ३ ) प्रबल असंतुलित ( निरंकुश ) और ( ४ ) दुर्बल

तंत्रिका-सक्रियता का हर भेद शरीर का एक प्राकृतिक अभिलक्षण ( characteristics ) है। सारतः वंशागत होने पर भी वह अपरिवर्तनीय नहीं है और कुछ सीमाओं के भीतर परिवेश के प्रभावों पर प्रतिक्रिया करते हुए विकास की प्रक्रिया से गुजरता है। उदाहरण के लिए, प्रयोगों ने सिद्ध किया है कि उत्तेजन की तुलना में पिछड़ी हुई प्रावरोध की प्रक्रिया को समुचित प्रशिक्षण द्वारा प्रबलित किया जा सकता है। यह भी ज्ञात है कि उम्र के साथ तंत्रिका-प्रक्रियाओं का स्वरूप बदलता जाता है।

स्वभावों का शरीरक्रियात्मक आधार तंत्रिका-प्रक्रियाओं की प्रबलता, संतुलन और सचलता के विभिन्न संयोजन होते हैं, जिनके अनुसार उच्चतर तंत्रिका-सक्रियता के विभिन्न भेदों का निर्धारण किया जाता है। प्रबल संतुलित सफूर्तिशील प्रकार की तंत्रिका-सक्रियता का संबंध रक्तप्रकृति ( उत्साही स्वभाव ) से है, प्रबल संतुलित मंद तंत्रिका-सक्रियता का श्लैष्मिक प्रकृति ( शीत स्वभाव ) से, प्रबल अंसतुलित प्रकार का पित्तप्रकृति ( कोपशील स्वभाव ) से और दुर्बल प्रकार का वातप्रकृति ( विषादी स्वभाव ) से है।

पशुओं पर प्रयोगों के परिणामस्वरूप किया गया तंत्रिका-तंत्रों का वर्गीकरण पूर्णतः मनुष्यों पर भी लागू होता है। मनुष्य के तंत्रिका-तंत्र का हर गुणधर्म उसके स्वभाव के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता है और क्रियाशीलता, संवेगात्मकता तथा गतिशीलता जैसा हर परिवर्तनशील अभिलक्षण उसके तंत्रिका-तंत्र के किसी एक गुणधर्म पर ही नहीं, बल्कि तंत्रिका-तंत्र के भेद पर भी निर्भर होता है।

मनुष्य के स्वभाव की अभिव्यक्तियां अपने पर उसके सामाजिक परिवेश, मानकों तथा अपेक्षाओं की छाप लिए रहती हैं। इसके अतिरिक्त हर मनुष्य का अपना स्वभाव होता है, जो उसके तंत्रिका-तंत्र के स्थिर गुणधर्मों से निर्धारित होता है। मनुष्य की प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति के इस आधार की किसी भी प्रकार उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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