शनिवार, 24 नवंबर 2012

इतिहास की धाराओं को परखना होगा

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



इतिहास की धाराओं को परखना होगा

अब बात धर्मपाल और उनके इतिहास की....राजीव दीक्षित ने इनका जिक्र अपने व्याख्यानों में किया है...25-30 साल तक इन्होंने इस काम पर मेहनत की है, दुनिया के कई देशों के पुस्तकालय आदि छाने...मैंन इन पर संदेह किया...जिस स्रोत को बताया गया है और किताब लिखी गई है, वहाँ मैंने सब देख लिया कि लेखक सही बता रहा है...

इतिहास पर लिखने वालों की गज़ब भरमार है। कई धाराएं यहां काम कर रही हैं। कुछ लोग गंभीर काम कर रहे हैं, वे निरपेक्षता, वस्तुगतता के साथ वैज्ञानिक पद्धतियों से अपने इतिहास की पुनर्रचना में लगे हुए हैं, कुछ लोग नस्लीय आर्य श्रेष्ठता के चश्में से भारत को समूची मानवजाति का मूल सिद्ध करने की रणनीति के तहत इतिहास की मनमानी व्याख्याएं करने में लगे हैं, कुछ श्रेष्ठताबोध तलाशते हुए अतीत से इस श्रेष्ठताबोध को तुष्ट करने लायक सामग्री निकाल रहे हैं, सीमित, अधूरी, एकतरफा विवेचना कर रहे हैं, कुछ पुराणों, महाकाव्यों और मिथकों को ही इतिहास समझने और समझाने में लगें हैं।

सभी काम कर रहे हैं, महनत कर रहे हैं, लाखों पृष्ठ काले कर रहे हैं। ऐसे में सभी स्वतंत्र है, जिसको जो अपनी मानसिकता, अपनी राजनीति, अपने हितों के अनूकूल लगता है उसे उठा रहा है और उसका उपयोग कर रहा है।

राजीव दीक्षित को अपने उद्देश्यों के लिए धर्मपाल उचित जान पड़ते हैं, तो वह उनका संदर्भ लेते हैं, उन्हें चुन लेते हैं। इस चुनाव को श्रेष्ठ और समुचित बताने का प्रक्रम तो करना ही होता है। वैसे मेहनत तो करनी ही होती है, कुछ भी रचना हो। कुछ लोग जानबूझकर बदमाशी करते हैं, कुछ अपनी मानसिकता और मान्यताओं के प्रति कोरी भावुकता में अपना जीवन भी होम कर ही देते हैं। बिना वैज्ञानिक दृष्टिकोण के, बिना उस वैज्ञानिक-विषय के प्रति ईमानदारी के, बिना सार्विक वैज्ञानिक पद्धतियां अपनाए, कुछ महत्त्वपूर्ण नहीं रचा सकता, चीज़ों को सही और वस्तुगत रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता।

तथ्यों का संदर्भ सही हो सकता है, परंतु बात उनकी व्याख्याओं की, इन व्याख्याओं में काम में लिये गए दृष्टिकोण और उनकी दबी-छिपी उद्देश्यपरकता की है, इनके पीछे की आत्मपरकताओं की है। कोई भी, पहले से ही कुछ मन में ठाने, पूर्वाग्रहों को चित्त में समाए, कोई हित या उद्देश्य सामने रख कर जब किसी अनुसंधान में उतरता है, तो उसके निष्कर्ष भी जाहिर है, इसी तरह के होंगे।

धर्मपाल जी की महनत अपनी जगह है, पर उनकी आंखों पर चढ़ा हुआ श्रेष्ठताबोध और राष्ट्रवादी आत्मपरकता का मुलम्मा अपनी जगह ही है। और इसीलिए वे कम महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। वे राजीव दीक्षित जी के लिए काम के हो सकते हैं, दक्षिणपंथियों, अंधराष्ट्रवादियों के काम के हो सकते हैं, विकीपीडिया पर डाले जा सकते हैं, परंतु इतिहास पर हो रहे गंभीर और वैज्ञानिक शोध और अध्ययन में इनका कोई स्थान हमें अभी तक तो नज़र नहीं आया है। इन्हें वहां संदर्भित होने का मौका भी नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि मंड़न और खंड़न की प्रक्रियाओं में वाद-विवादों, मत-मतांतरों में ये धाराएं एक दूसरे का संदर्भ नहीं देती हैं, हमारा कहने का मतलब यह है कि इनके काम की भागीदारी तो वहां इस वाद-विवाद के लिए भी नहीं दिखती है। वहां पर दूसरे कई इसी मानसिकता के लेखक हैं, जिनके काम को इस लायक तो समझा जाता है कि जिनका खंड़न के प्रयास किये जाते हैं।

यह हमने अपनी जानकारियां ऐसे ही पेश करदी हैं, आप ख़ुद अपने शोध जारी रखे हुए ही हैं। अपनी मान्यताएं बनाना, बिगाड़ना, गलत मानना, सही मानना, अपने दृष्टिकोण को तय करना आपका अधिकार है। आप ही अपने लिए, इसे भली-भांति कर सकते हैं।

एक किताब है 'भारतीय चित्त, मानस और काल' धर्मपाल की ही है...किताब में जिन विषयों के संस्कृत विद्यालयों में पढ़ाने की बात की है, उसमें आवश्यक और तकनीकी विषय हैं। जैसे....

ये विषय ठीक ही लग रहे हैं, तथ्यात्मकता के नज़रिए से। उस समय की भारतीय तकनीकी प्रगति के सापेक्ष ही हैं। पत्त्थर और लकड़िया काटने वाले, लौह और अन्य धातुकर्म करने वाले, धागा कातने और बुनने वाले, चूडियां मनके बनाने वाले, नमक बनाने वाले, बारूद पर काम करने वाले, साबुन बनाने वाले, नाव बनाने वाले, मछलियां पकड़ने वाले, धोबी, खाती, जूते बनाने वाले, दर्ज़ी आदि-आदि। ये तकनीकी काम हैं, और उस समय की तात्कालीन जीवनचर्या से जुडे हुए ही लगते हैं। इनमें पता नहीं आप क्या विशेष देख रहे हैं। इसमें गढ़ने लायक कुछ नहीं लग रहा, अब बात यह है कि इनको कोई भी कैसे व्याख्यायित करता है।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 17 नवंबर 2012

अतार्किक आधारों से तार्किक पुनर्रचना संभव नहीं

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।




अतार्किक आधारों से तार्किक पुनर्रचना संभव नहीं

विकासवाद के आधार पर सोचें तो हम अपनी भाषा के लिए क्यों लड़ते हैं कि विदेशी भाषा हम नहीं थोपेंगे।....तो क्या हम पश्चिमी प्रभाव में मैकाले को सही ठहरा दें? अगर इन चीजों के लिए राष्ट्रवाद शब्द इस्तेमाल करता है तो बुरा क्या है?

मैकाले की शिक्षापद्धति की एक प्रवृति अंग्रेजों के लिए क्लर्क पैदा करने के लिए लक्षित थी। यह एक वास्तविकता है, किसी भी प्रभाव से देखें। मैकाले से मुक्ति पाने, और शिक्षा-पद्धतियों को स्वतंत्रचेता वैज्ञानिक मस्तिष्क पैदा करने की ओर लक्षित होना चाहिए। पर जैसा कि पहले था, सत्ता अपने आपको बनाए रखने के लिए गुलाम मानसिकता और मस्तिष्क ही पैदा करते रहना चाहती है, अभी भी वही है, आज की सामंती मानसिकता वाली पूंजीवादी सत्ताएं भी यही चाहती हैं। स्वतंत्रचेता मस्तिष्क उनकी सत्ताओं को उखाड़ फैंकने के लिए लामबंद हो सकते हैं। इसलिए वे उन्हीं उपविवेशवादी, साम्राज्यवादी पद्धतियों को बनाए रखना चाहते हैं। समाज में आमूल-चूल परिवर्तन करना ही नहीं चाहते।

इसका मतलब यह कि सत्ता-व्यवस्था में परिवर्तन लाए बिना, एक ऐसी जनपक्षधर सत्ता के अस्तित्व में आए बिना इन राजनैतिक और सामाजिक आमूल-चूल परिवर्तनों को वाकई में कर पाना संभव नहीं है। पूरी व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन अपेक्षित है।

पश्चिमी प्रभाव का मतलब, क्या साम्राज्यवादी मानसिकता में ही देखा जाना चाहिए। हमारे वर्तमान का अधिकतर पश्चिमी वैज्ञानिक और वस्तुगत दृष्टिकोण की ही देन है। जरूरत इसके उपनिवेशवादी तथा साम्राज्यवादी रवैये को बाहर निकालने की, गुलाम मानसिकता पैदा करने वाली पद्धतियों से मुक्ति पाने की है। समग्र को ही पश्चिमी प्रभाव कहकर नकारा नहीं जा सकता।

आप कल्पना कीजिए, लोकतांत्रिक समानता स्वतंत्रता के मूल्यों को, तकनीकी-वैज्ञानिक विकास को, रूढ़ियो और परंपराओं के विरोध को, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों आदि को निकाल फैंकिए, हम हज़ारों साल पहले वाली सामंतवादी सामाजिक संरचना में पहुंच जाएंगे, जहां धर्म-आधारित बर्बर राज्य अस्तित्व में थे, वर्ण-व्यवस्था अपने चरम पर थी, छुआछूत और अस्पृश्यता का बोलबाला था, जीवनीय और चिकित्सीय पद्धतियां अविकसित थीं, आदि-आदि।

गर्व नहीं करने पग-पग पर लोगों में हीनता की भावना आ सकती है और इस तरह की भावनाओं ने ही तो देश की आजादी में लाखों लोग झोंक कर शहीद हुए और महान कहलाये।

यह कोई बेहतर तर्क नहीं है, हीनता की भावना को कम करने या रोकने के लिए कोई भी समाज या व्यक्ति अपने लिए श्रेष्ठताबोध के अवास्तविक आधार स्थापित करले। ऐसे अतार्किक. असत्य,और असहज श्रेष्ठताबोध से हम किस तरह से समाज की एक तार्किक, सहज और वास्तविक पुनर्रचना कर सकते हैं।

इसीलिए हमने कहा था कि इतिहास और परंपरा के वस्तुगत और निरपेक्ष अध्ययन के पश्चात, वास्तविकताओं से दोचार होने के बावज़ूद हमारे पास ऐसी कई चीज़ें बचेंगी जो हमें एक वास्तविक गर्व का बोध देने वाली होंगी। नहीं भी हो, तो ना हो, क्या श्रेष्ठ को ही एक सम्माननीय जीवन जीने का अधिकार मिलेगा। हम श्रेष्ठता की उत्तरजीविता के प्राकृतिक सिद्धांतों को अपनाएंगे या मानवसमाज के मानवीय मूल्यों के आधार पर हर किसी को सम्मान से जीने के अवसर उपलब्ध कराना चाहते हैं।

हमारे श्रेष्ठ होने से य़ा नहीं होने से, हमारी अस्मिता, हमारे सम्मानपूर्ण जीवन, हमारी समानता और स्वतंत्रता के हमारे अधिकार कहीं कम या ज़्यादा नहीं हो सकते। हमारी ही क्या, पूरे विश्व में भी किसी भी देश, समाज या समूह के भी नहीं हो सकते। सभी मानवो को ये अधिकार हैं, और उन्हें पाना सभी का कर्तव्य। इसलिए इस संघर्ष को जातीय, भाषिक, धार्मिक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय श्रेष्ठताबोधों की सीमाओं से मुक्त होना ही होगा जो मानव-मानव में विरोध, अंतर्विरोध और अलगाव पैदा करते हैं। राष्ट्रीय सीमाओं में जातीय, भाषिक, धार्मिक, क्षेत्रीय आदि श्रेष्ठताबोधों से और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं में राष्ट्रीय श्रेष्ठताबोधों से निजात पानी होगी।

हमारी इसी राष्ट्रीय चेतना का विकास, अंग्रेजों के उपनिवेश के विरोध और उससे मुक्ति पाने की प्रक्रियाओं में हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे राष्ट्र को इन विरोधों से उठाकर एक राष्ट्रीय चेतना के अंतर्गत लाना जरूरी था। इस राष्ट्रीय चेतना का भी क्रमिक विकास हुआ था। वहां भी कई अलग-अलग धाराएं अस्तित्व में आई थीं, अलग-अलग भी बची रही और उनका समन्वय भी हुआ। शुरुआत धार्मिक मुद्दों के आसपास हुई तो अंततः धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय चेतना का भी निर्माण भी हुआ।

इसके लिए कई तरह की अवास्तविक श्रेष्ठताबोधों की रचना भी की गई। इन-सबके सह-अस्तित्व के साथ तात्कालीन परिस्थितियों में इनके अंतर्विरोध भी चलते रहे। धार्मिक राष्ट्रीय चेतना के द्विध्रुवीय उभार के कारण ही देश का विभाजन भी ऐतिहासिक सत्य बना। भाषाई राष्ट्रीय चेतना के अंतर्विरोध दक्षिण में हिंदी-विरोधी आंदोलनों में देखने को मिले।

लाखों लोग शहीद हुए, आज़ादी मिली। अवास्तविक आधारों पर मिली आज़ादी कितनी अवास्तविक थी, यह अब काफ़ी लोगों को समझ में आ रहा है। तो हमें वास्तविक श्रेष्ठताबोधों और मानवीय मूल्यों के आधारों वाली राष्ट्रीय चेतना की परंपरा को समझना चाहिए, ( क्रांतिकारी समूहों में विकसित हुई समझदारी को देखना चाहिए, जिनकी परिणति भगतसिंह के यहां देखी जा सकती है ), उनकी परंपरा से जुडना चाहिए, उसका और विकास करना चाहिए, और अधूरे लक्ष्यों यथा मानव द्वारा मानव के शोषण और राष्ट्र द्वारा राष्ट्र के शोषण से मुक्ति के लक्ष्यों से अपने आपको जोड़ना चाहिए।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 10 नवंबर 2012

ज्ञान का मामला पूर्वी-पश्चिमी नहीं होता

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ज्ञान का मामला पूर्वी-पश्चिमी नहीं होता

लेकिन क्या कणाद, आर्यभट्ट, भास्कर, सुश्रुत, चरक आदि के ग्रन्थ को बेकार मान लें। डार्विन पश्चिम के हैं तो क्या हम पश्चिम को ही ज्ञान-विज्ञान का मूल मान लें। मेरे पास एक किताब है विज्ञान का इतिहास....उसमें लिखा है कि आज के सर्जरी के उपकरण सुश्रुत से बहुत मिलते हैं। ....तो जो लोग एलोपैथी और आयुर्वेद में आयुर्वेद या स्वदेशी चिकित्सा का पक्ष ले रहे हैं, वे सब अवैज्ञानिक हैं?

समय के किसी भी कालखंड में, ज्ञान का विकास, प्राचीन ज्ञान और अनुभव के आधारों पर ही क्रमिक रूप में हुआ करता है। अचानक कहीं भी, कुछ भी नहीं टपक जाया करता। गलत सिद्ध हुई चीज़ें पीछे छूट जाया करती हैं, और वस्तुगत प्राचीन अनुभवों पर ही, उन्हें समेटते हुए ही आगे का ज्ञान विकसित होता रहता है।

ज्ञान की राह में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कि कौन कहां का है। ज्ञान का, सत्य की राह का, सोच का मामला पूर्वी-पश्चिमी नहीं होता, यह पूरी मानवजाति की थाति होता है। गलत हर जगह गलत ही होना चाहिए, सही सही, यह हम कहें या कोई और कहे। काम की चीज़ें, तकनीक, विज्ञान क्षेत्र और अन्य सीमाओं को लांघता हुआ प्राचीन समय से ही संपर्कशील सभ्यताओं में फैलता रहा था, और आज भी फैलता ही है। ज्ञान की राह मानवीय मूल्यों को और ऊंचा उठाने की दिशा के लिए ही अभिप्रेरित होती है, होनी चाहिए।

प्राचीन ज्ञान और तकनीक की अपनी कालगत सीमाएं होती हैं, परंतु उसी कालगत उपलब्धियों के आधार पर उन्हें यथोचित सम्मान दिया भी जाता है, परंतु विकास आगे बढ़ता ही है। पूरे विज्ञान का विकास इन्हीं प्राचीन आधरों पर हुआ है। जैसे कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और तकनीक का विकास, पूरे विश्व की प्राचीन चिकित्सा परंपराओं जिनमें की आयुर्वेदिक, यूनानी, चीनी आदि सभी शामिल हैं, में से ही हुआ है।

अब यह तो नहीं हो सकता ना कि हम इस पूरी मानवजाति के अद्यतन ज्ञान और तकनीक के विकास को छोड़कर, जिनमें कि अधिकतर पश्चिमी-वश्चिमी है, बाहर का है, अपनी हज़ारों साल पहले की अवस्थाओं में पहुंच जाएं।


भारत में संस्कृत भाषा और नागरी लिपि का विकास ऐसे और क्यों हुआ। क्यो अभी तक की श्रेष्ठ और अत्यंत सक्षम लिपि वही है। आखिर मानव विकास में सब देश साथ रहे तब भारत में इस लिपि का, दशमलव का, शून्य का आविष्कार होना क्या बतलाता है। यहाँ उद्देश्य यह कहना नहीं है भारत श्रेष्ठ है लेकिन इन चीजों का आविष्कार भारत में ही किस वजह से हुआ। अगर भारत के लोग इन चीजों पर गर्व करते हैं तो क्या गलत है? गणित में मध्यकाल तक भारत आगे किस वजह से रहा? अगर कोई आदमी अलौकिक चीजों की बात करे तो गप्प मानेंगे लेकिन अगर भौतिक उपलब्धियों को तलाशे तो बुरा क्या है?

भाषा पर आपको अध्ययन करना चाहिए, इसके भाषावैज्ञानिक इतिहास का अध्ययन करना चाहिए। तभी वस्तुगत स्थिति पता चल सकती है, वरना कोई हर्ज नहीं है कि हम अपने श्रेष्ठताबोध के लिए कुछ भी श्रेष्ठ मानले और मस्त रहें। कई विकास पारिस्थितिक वज़हों से सांयोगिक और अनुपम होते हैं। भाषाविज्ञान बताता है कि मध्य एशिया में एक प्राचीन भारोपीय भाषा से ही, प्राचीन भारानी ( भारतीय-ईरानी ) अलग हुई, और फिर इससे भार्य ( भारतीय आर्य ) अलग हुई जिससे ही वैदिक संस्कृत विकसित हुई। तत्पश्चात इसी वैदिक संस्कृत से, लौकिक संस्कृत की उत्पत्ति। और यह भी कि इसने बाद में स्थानीय रूप से विकसित हुई देवनागरी लिपी को अपनाया, जिसमें ही कि उस वक़्त की यहां कि कई भाषाओं को लिपीबद्ध किया गया और उसका विकास किया गया।

मानव विकास में सभी क्षेत्र साथ रहे, यह कहना ठीक नहीं है। कई धाराएं बिल्कुल ही कट गई, कई धाराएं पारिस्थितिक सांयोगिक विकास करती रहीं, कई धाराओं में आपसी समन्वय से यह गति तेज़ हुई, और कहीं पारिस्थितिक संयोगों की ही वज़ह से ही यह अवरुद्ध भी हुई।

दशमलव और शून्य का अविष्कार बतलाता है, कि उस समय यहां की गणित और खगोलीय लौकिक ज्ञान की तकनीक पद्धतियां विकास की अवस्थाओं में सापेक्षतः आगे थीं, और उनकी तात्कालिक जरूरतों ने इन और ऐसे ही कई अन्य अविष्कारों को संभव बनाया। बाद में यह प्रक्रिया बाधित हो गई, और इस लौकिक ज्ञान की परंपराओं और धाराओं पर, काल्पनिक, अलौकिक तथा आध्यात्मिक चिंतन और ज्ञान हावी हो गया। आपको इस पर वस्तुगत दृष्टिकोण से युक्त किताबों का अध्ययन करना चाहिए।

तो यह भी किया जा सकता है, कि अपने पिछड़े होने की वास्तविकता से उपजे हीनता बोध की तुष्टि के लिए, अतीत से, इतिहास से श्रेष्ठताबोध पैदा करने वाली चीज़ें तलाशी जा सकती हैं, उनका ढोल पीटते रहा जा सकता है, उनका फायदा उठाकर, भावनाओं का मुद्दा बना कर अपनी रोटियां सैंकी जा सकती हैं, कूपमड़ूक रहते हुए अपने आपको एक कट्टरपंथी रूढ़ समाज में तब्दील किया जा सकता है। दूसरी ओर यह भी किया जा सकता है कि अपनी परंपराओं और अतीत का निरपेक्ष मूल्यांकन करते हुए, लुप्त या बाधित हुई लौकिक ज्ञान की धाराओं से अपने आपको जोड़ते हुए, वैश्विक रूप से मानवजाति के अद्यतन ज्ञान और विज्ञान के सापेक्ष इसे तौलते हुए, उन्हें काम में लेते हुए, उनके साथ चलते हुए अपने-आपको वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपृक्त करते हुए विकास की दौड में अपने आपको भी शामिल किया जा सकता है। अपनी इसी, जैसी भी है, वास्तविक समरस राष्ट्रीय चेतना को उभारकर, अपने संसाधनों पर अपने आपको आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है, समानता और शोषणरहित समाज की स्थापना के लिए एकजुट हुआ जा सकता है।

आपको यदि देवीप्रसाद चट्टोपध्याय की पुस्तकें, ‘लोकायत’, ‘भारतीय दर्शन में क्या जीवंत है और क्या मृत’ और ‘प्राचीन भारत में विज्ञान और समाज’ कहीं से उपलब्ध हो जाएं तो जरूर पढ़नी चाहिएं। आपको एक सटीक दृष्टि मिलने में मदद होगी।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 3 नवंबर 2012

चीज़ों को उनकी वस्तुगतता में समझना चाहिए

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।



आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



चीज़ों को उनकी वस्तुगतता में समझना चाहिए

क्या यह सही है कि भारतीय इतिहास को अंग्रेजों ने विकृत किया है या करवाया है? यह संदेहास्पद नहीं लगता। मैंने जिस किताब का लिंक आपको भेजा था उसमें कहा गया है कि आर्य बाहर से नहीं आए। वैसे मेरी दिलचस्पी अधिक क्या कम भी इसमें नहीं है कि आर्य बाहर से आए या नहीं क्योंकि इसका असर अब नही पड़ता।

शुरुआती तौर पर इतिहास को इतिहास की तरह लिखने का काम अंग्रेजों के प्रयत्नों से ही संभव हुआ, यह एक वास्तविक तथ्य है। वे शासक थे, और हर सत्ताधारी, प्रभुत्व संपन्न वर्ग की तरह अपनी सत्ता और प्रभुत्व बनाए रखने के लिए उन्होंने ने भी अपने आधिकारिक पुनर्लेखन में अपने हितों के चश्में से चीज़ों को व्याख्यायित करने की कोशिश की, कई जगहों पर वे सफ़ल भी हुए। परंतु ज्ञान अपनी एक अलग राह भी चला करता है, उनके कई मनोनयन किए गये वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले विद्वान, विशेषज्ञ यहां की प्राचीन चीज़ों का अध्ययन करते हुए, वैज्ञानिकता से दगा नहीं कर पाए और उन्होंने भारत में इतिहास को वस्तुपरकता के साथ देखे जाने की परंपरा की भी नींव डाली। उन्होंने कई संस्कृत के कई विशेषज्ञ विद्वान पैदा कर दिये, जो कि वैश्विक स्तर पर प्राचीन महत्त्व की सामग्री के आधारों पर मानवजाति के विकास का अध्ययन कर रही परंपरा से अपने को जोड़ते थे, जो कि विज्ञान की तरह ही वस्तुगत दृष्टिकोण के अनुसार थे।

अब आपकी दिलचस्पी है ही नहीं तो फिर आर्यों वाली बात पर लगता है कुछ कहने की जरूरत नहीं है। आपका यह कहना सही है कि अब इसका असर नहीं ही पड़ना चाहिए।

ईसाई धर्म आज दुनिया के लगभग सभी देशों में है। क्या वह स्वत: फैल गया? या उसे फैलाया गया। एक किताब है धर्मपाल जी की जिसमें ब्रिटिश संसद में 1813 में चल रहे बहस को बताया गया है कि भारत को ईसाई कैसे बनाया जाय? क्या अंग्रेजों के शोषणवादी और साम्राज्यवादी वृत्ति को देखते हुए इसे सच नहीं माना जा सकता है? मेरा इतिहास ज्ञान न के बराबर है लेकिन ये सवाल हैं। और इन्हें निष्पक्ष होकर हल करना है।

आपकी ऊपर वाली बात को यहां भी आप रख सकते हैं कि अब इससे क्या असर पड़ता है। कुछ भी हुआ हो। अभी क्या चल रहा है, उसे ही देखना चाहिए। यह खूब है कि जो चीज़ वक़्ती तौर पर हमारे श्रेष्ठताबोध के घटाघोपों के लिए मुफ़ीद लग रही हो उसे हमें निष्पक्ष होकर हल करना चाहिए और जो बात हमारी पूरी कहानी को ही उलट सकती हो उसके लिए हम कह दें उसे छोडिए उसका असर अब नहीं पड़ता। यह ठीक पद्धति नहीं होती। हमें वह दृष्टिकोण और पद्धति विकसित करनी चाहिए जिससे कि हम सभी चीज़ों को उनकी वस्तुगतता और निरपेक्षता में देख और समझ सकें।

चलिए इसे भी छोडते हैं, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि विजेता के साथ उसके विश्वास, उसकी संस्कृति, उसकी भाषा, उसका धर्म भी आता है, सहज रूप से भी, और योजनागत रूप से भी। आर्थिक और राजनैतिक प्रक्रियाएं सहज रूप से भी संस्कृतियों का संक्रमण और समन्वय करती हैं और जबरन रूप से भी। सत्ता की सभी तरह की घटक शक्तियां अपना-अपना काम कर रही होती हैं। सभी साम्राज्यवादी वृत्तियां ऐसी ही होती हैं। मुख्यतया इतिहास की चालक शक्ति आर्थिक कारक हुआ करते हैं, इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए।

पंचायत व्यवस्था पर धर्मपाल जी की एक किताब है जिसमें मद्रास में 1830 के आस-पास की पंचायत व्यवस्था का जिक्र किया गया है। उनकी एक किताब है विज्ञान और तकनीक पर। उसमें एस्ट्रोफ़िज़िक्स पढ़ाने की बात लिखी है 1820-30 के आस-पास। क्या ये सब गलत मान लिए जाएँ। एक किताब है ब्यूटीफ़ुल ट्री जिसमें भारत में 1820 के आस-पास की शिक्षा पर पूरी रिपोर्ट तक दी गयी है। तो क्या ये सब धार्मिक कारणों से है?

एस्ट्रोफिजिक्स क्या होती है, हमें नहीं मालूम। १८२०-३० के आसपास के समय को पता नहीं आप किस नज़रिए से देख रहे हैं। उस वक़्त भारत में राजाराममोहन राय जैसे कई अन्य महानुभाव सक्रिय थे, जिन्हें सामाजिक सुधारों और शिक्षा पर किये अपने रूढ़ीविरोधी कामों के लिए ही जाना जाता है। विज्ञान और तकनीक का काफ़ी विकास हो चुका था, भौतिकी पर काफ़ी कुछ कार्य न्यूटन १६९० तक कर चुके थे, १७८९ में ही फ्रांस में बुर्जुआ क्रांति हो चुकी थी यानि राजतंत्र का उन्मूलन और गणतंत्र की स्थापना हो चुकी थी, लोकतांत्रिक मूल्यों, स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों की घोषणा हो चुकी थी। ये विचार पूरे विश्व में फैल रहे थे। डार्विन और मोर्गन अपने अध्ययनों और शोध में व्यस्त थे, जिन्होंने हुछ ही वर्षों बाद, डार्विन ने जैविक क्रम विकास की अवधारणा को और मॉर्गन ने सामाजिक क्रम-विकास की अपनी अवधारणा को सामने रखा।

आपका मंतव्य स्पष्ट नहीं हुआ। उपरोक्त तथ्य, जिनके सच ही होने की संभावनाएं ही अधिक है, और धार्मिक कारणों के बीच आप क्या अंतर्संबध देखना चाहते हैं।

आपने राममोहन राय का नाम लिया है। उनके सुधार निश्चित ही महत्व के और प्रशंसनीय रहे है।.............अब यह कैसे शुरु हुई और क्यों शुरु हुई, यह शोध और अध्ययन का विषय है।

राजाराममोहन राय का नाम सिर्फ़ उस समय की समकालिकता दर्शाने की वज़ह से लिया गया था। उन पर बहस करना मंतव्य नहीं था। यह सिर्फ़ यह दर्शाने के लिए था कि वह काफ़ी आधुनिक समय था, और काफ़ी कुछ प्रगतिशील घट रहा था, भारत में भी और पूरी दुनिया में भी। वैसे यह जरूर कहना चाहेंगे, कि किसी भी व्यक्ति या विचार को उसके समय के सापेक्ष ही बेहतरी से समझा जा सकता है। सती प्रथा पर जो आपने कहा है, उससे लगता है कि आपको अभी भारतीय समाज संरचना के बारे में काफ़ी कुछ जानना है। काफ़ी शोध और अध्ययन किये जा चुके हैं, आपकी पहुंच धीरे-धीरे हो जाएगी उन तक। यह आपके लिए खोजने और जानने का विषय जरूर है।

भरद्वाज का लिखा विमानशास्त्र वैमानिकी का ग्रंथ है।....इसे सच या उपयोगी मानना अलग बात है। ....जब यह विषय संस्कृत में लिखा जा सकता है तब आज हम हिन्दी में क्यों नही पढ़ा सकते।

हिंदी में कोई भी विषय पढ़ाया जा सकता है, हिंदी में ही क्या किसी भी भाषा में पढ़ाया जा सकता है। अगर किसी भी भाषा की वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली सीमाएं सामने आती हैं, तो नये व्युत्पन्न शब्द गढ़े जा सकते हैं, कई शब्दों को जैसे का तैसा लिया जा सकता है। ज्ञान को तो मनुष्य के पास उसकी मातृभाषा में ही समन्वित करके पहुंचना चाहिए। विशिष्ट और गहरे शोधों के लिए मूल भाषाओं का प्रयोग और उनमें दक्षता हासिल की जा सकती है।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय
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