शनिवार, 25 अगस्त 2012

व्यक्तिगत प्रयासों से क्रांति नहीं हुआ करती

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत करने की योजना है। इस बार उनसे सीधी बातचीत शुरू होने से पहले, एक अन्य मानवश्रेष्ठ से हुआ संवाद जिसमें कि उस युवा मानवश्रेष्ठ के बारे में संवाद स्थापित हुआ था, प्रस्तुत किया जा रहा है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



व्यक्तिगत प्रयासों से क्रांति नहीं हुआ करती


हमारे एक छोटे भाई हैं...जिनसे अभी हाल ही में संपर्क हुआ है...एकदम युवा है...भगतसिंह से एकाध साल कम...उर्जा, जज्बे और इस उम्र के रूमान से भरपूर...शायद यही उनकी समस्या भी है...उनके साथ हुई बातचीत के कुछ मुख्य बिंदु आपको संप्रेषित कर रहे हैं...आप कुछ कहें...मार्गदर्शन कर सकते हैं...कुछ सैद्धांतिक पाठ...जैसा कि हमेशा हमें मिलता रहता है...( इस टिप्पणी के साथ उस युवा मानवश्रेष्ठ के मेल-संवाद संलग्न थे )

दिलचस्प। इस तरह के नामुराद अब कम ही दिखाई देते हैं।

यह व्यक्तित्व, अपरिपक्व युवा ही लग रहा है। हालांकि परिपक्वता का सामान्यतयाः उम्र से कोई संबंध नहीं होता, और खासकर अभी के समय में तो कतई नहीं। परिस्थिगत exposure किसी को भी सापेक्षतः अधिक परिपक्व बना सकते हैं। कई लोग तो पूरी उम्र काट कर निबट लेते हैं, और सामान्य परिपक्वता तक भी नहीं पहुंच पाते। पारिवारिक पृष्ठभूमि में उपलब्ध उर्वरता के साथ जिन्हें अद्यतन ज्ञान की उपलब्ता मिल जाती है, वे अपनी उम्र के सापेक्ष ज्यादा मानसिक विकास कर पाते हैं। परिवेश की जटिलता तो अपनी जगह है ही। इस तरह से देखा जाए तो इस युवा मित्र की अपरिपक्वता सापेक्षतः कई प्रोढ़ परिपक्वताओं पर भारी है।

पर फिर भी यह आदर्शवादी रूझान, ठोस पारिस्थितिक वास्तविकताओं के विश्लेषण की सटीकता से अभी महरूम लग रहा है और बचकाना सैद्धांतिकता में उलझा हुआ लग रहा है। सैद्धांतिकता में शुरुआती आधार तो महसूस हो रहा है, क्योंकि उसने ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के जो पसंदगी के नाम लिए हैं, वे सब सामाजिक परिवर्तनों की आकांक्षा के मामले में तो एक हैं, परंतु उनकी वैचारिकी के अंतर्विरोधों को उसकी विश्लेषण क्षमता अलगा नहीं पा रही लगती हैं। उसकी चेतना आदमीयत के मूलभूत आधारों तक तो पहुंच गई है, अब उसे आगे सही दिशा में परवान चढ़ना है, वरना यह अतिरिक्त उत्साह उसकी संभावनाओं को नष्ट भी कर सकता है।

भगतसिंह की परंपरा से उसकी उर्जा जुड़ती दिखाई देती है, अतएव क्या यह ठीक नहीं होगा कि उसे दुनिया को समझने के लिए अभी और सैद्धांतिक, दार्शनिक अध्ययन करना चाहिए, तभी वह वैज्ञानिक नज़रिया विकसित होगा जो दुनिया को समझने की ठोस पूर्वापेक्षाएं विकसित करता है। दुनिया को बदलने की सिर्फ़ आकांक्षा ही पर्याप्त नहीं होती, इस तरह से इतिहास में कई संभावनाएं बिना किसी सार्थकता के बुलबुले की तरह उछलकर नष्ट होती ही रही हैं। इसलिए यह भी समझना पड़ेगा कि बदलाव की प्रक्रिया क्या होती हैं, कैसे परवान चढ़ती हैं और उनमें एक व्यक्ति के नाते किसी की भी भूमिका क्या हो सकती है।

उसे राजनीति और विभिन्न वादों को समझना होगा, उनके अंतर्विरोधों और उनकी ऐतिहासिक भूमिकाओं को समझना होगा, तब जाकर कहीं उनमें से चुनाव का सवाल खड़ा होगा। यह समझना होगा कि कोई भी वाद या राजनैतिक सोच ऐसे ही आसमान से नहीं टपक पड़ते, या व्यक्तिगत चेतनाओं में उतर नहीं आते। वे समाज के ऐतिहासिक क्रम-विकास की अवस्थाओं में तात्कालीन परिस्थितियों की निश्चित अभिव्यक्ति होते हैं। विकास की अवस्थाओं में गतिरोध उत्पन्न होने पर समाज की प्रगतिशील शक्तियों और प्रतिगामी या यथास्थितिवादी शक्तियों के आपसी अंतर्द्वंद और संघर्ष नई संभावनाएं, नये वाद, नई राजनैतिक सोच पैदा करता रहता है। जाहिर है किसी एक वाद और राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था के तहत मनुष्य तभी तक चल सकता है, जब तक कि वह सामाजिक विकास की अग्रगामी अवस्थाओं को तुष्ट करता रह सकता है। विकास की एक निश्चित सी अवस्था में पहुंचने के बाद उत्पादन और सामाजिक विकास के साथ यह प्रयुक्त प्रणाली परिस्थितियां बदलने के कारण लयबद्ध नहीं रह पाती, नई सामाजिक अवस्थाओं और प्रणालीगत आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम नहीं रह जाती और जाहिरा तौर पर ढ़ांचागत आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता पैदा होती है, इसीलिए अवश्यंभावी तौर पर प्रणालियां बदल दी जाती हैं। इसी तरह नये सामाजिक और राजनैतिक ढ़ांचे अस्तित्व में आते हैं। इतिहास यही हमें सिखाता है।

यह बात इसलिए कही गई है कि व्यवस्थागत बदलाव की भी अपनी नियमसंगतियां होती है, कुछ परिस्थितिगत पूर्वापेक्षाएं होती हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि कोई भी, कभी भी, कहीं भी अपनी सुविधानुसार या अपने संयोगों के अनुसार आंदोलन का झंड़ा उठाए और क्रांति करने निकल पड़े। इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि यह हतोत्साहित या निराश करने वाली बात है, या यह कि फिर क्या खाली बैठे रहा जाए और निष्क्रिय रूप से परिस्थितियों का इंतज़ार किया जाए। यह समझना ही होगा कि यह अगर पूरी ईमानदारी और समर्पण के साथ किया जा रहा है तो सिर्फ़ अतिउत्साह और क्रांतिकारी रूमान में अपने आपको बेवज़ह, निरर्थक बलिदान करने की राह है, जिससे कि अक्सर उनके हश्र के उदाहरणों से परिवर्तनकारी धाराओं में गतिरोध ही पैदा होते हैं।

ना वैचारिक, भौतिक तैयारी के युद्ध में उतरजाना बेमानी है, और यह अधिक हास्यास्पद और दुर्भाग्यपूर्ण हो सकता है, जबकि ऐसे हालात हो कि कहीं प्रत्यक्ष युद्ध ही नहीं चलता दिखाई दे रहा हो। भारत में, जहां कि गरीबों, दलितों, महनतकशों, किसानों की हालत चिंताजनक है, फिर भी प्रतिरोधी आंदोलनों और क्षमताओ की प्रभावी धारा अभी नहीं बन पा रही है। उनकी हालत खराब है, अशिक्षा है, भाग्य, भगवान और धर्म की बेड़िया हैं, क्षेत्र और जातिवादी अभिव्यक्तियां हैं, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है, आदि-आदि। नेतृत्वकारी मध्यमवर्गी शक्तियां, उदारवाद के फलों का हिस्सा हड़पने और हड़प सकने के सपनों में उलझी है। उसकी अभी की व्यावहारिक परेशानियों के मद्देनज़र वह सिर्फ़ कुछ सुधारवादी आंदोलनों में अपने आपको सिर्फ़ अभिव्यक्त करके खुश है। अभी यही हो रहा है कि सभी तरह के बदलाव के अभियान, परिस्थितिगत बदलावों की आवश्यकताओं के मद्देनज़र सही भूमिका तलाशने की जगह, खु़द परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलित हो जा रहे है, और परिवर्तनकारी धार को कुंद कर ले रहे है।

इस युवा में काफी दृढ़ता है। व्यक्तित्व में दृढ़ता अत्यन्त जरूरी अवयव है। इससे बगैर अपने आपको, अपने मंतव्यों के हितार्थ साधना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। लेकिन दूसरों की चेतना में सार्थक हलचल और मनोनुकूल सकारात्मकता पैदा करने के महती उद्देश्य से थोड़ी सी नम्यता की भी आवश्यकता होती है। अपने मनोनुकूल लोगों का समूह बन जाना अत्यंत ही आसान कार्य है। हम ज़्यादा कठिन कार्य चुन सकें, किसी अपरिपक्व चेतना में सार्थक हस्तक्षेप कर सकें, अपने आपको अनजानों में विस्तार दे सकें। ऐसा लगे कि हमारे, और हमारे स्वस्थ विचारों के होने का कोई असली मतलब सिद्ध हुआ, ज़िंदगी सिमट कर ना रह गई। यही वे कामनाएं हैं, जिन्हें अपने परिवेश में साकार होते देख पाने का स्वप्न हमारी चेतना में होने चाहिएं।

ये युवा मित्र अभी जैसा कि आपने कहा रूमान में हैं। इसके मनोविज्ञान को हमें समझना चाहिए। मनुष्य, वास्तविकताओं से इसलिए भागता है, क्योंकि ये निश्चित ही सुखद नहीं है। जिनके लिए ये सुखद हैं, वे इन्हें कायम रखना चाहते हैं। वे वस्तुस्थिति को सापेक्षतः ज्यादा बेहतर समझते हैं, इसीलिए भ्रमजालों में फंस सकने और फंसे रहने की परिस्थितियां बनाए रखने में काफ़ी उर्जा का व्यय करते हैं। जिन थोड़े से विद्रोही व्यक्तित्वों को ये उचित नहीं जान पड़ती वे इन्हें तुरंत बदलने के रूमान की तरफ़ सहज आकर्षित होते हैं।

मनुष्य के लिए व्यक्तिगत रूप से सोचें, तो इन वास्तविकताओं में ही रहना और भोगना, उसकी पारिस्थितिक मजबूरी है, पूरा सेट-अप है, इससे वह नहीं भाग सकता। यानि भौतिक स्तर पर जिजीविषा हेतु जूझने और खपने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, यह वस्तुगत सत्य, जीवन ख़ुद सिखा देता है। अब जीवन की वास्तविकताओं से पलायन संभव नहीं है, ये सुखद भी नहीं है, जूझना और खपना जहां नियति है, व्यक्तिगत स्तर पर अपने अस्तित्व के अनुभव और उसके आनंद के अवसर नहीं हैं, अपना होना और उसको बेहतर बनाने और उसके जरिए अपनी बौद्धिक और सामाजिक उपयोगिता साबित कर सकने और सुकून पाने की संभावनाए बड़ी लचर हैं। वह कहां से व्यक्तिगत सुकून लाए? कहां अपनी सामाजिक उपयोगिता तलाशे?

जाहिर है इसीलिए हम कई व्यक्तियों को अपने जीवन से इतर, कुछ ऐसे ही क्रियाकलापों में, सामाजिक गतिविधियों में, सुधार की संभावनाओं में और कुछैकों को आमूलचूल परिवर्तनकारी आकांक्षाओं में अपना अस्तित्व तलाशते पाते हैं। पर हमें समझना होगा कि जो इन क्रियाकलापों और मनोव्यवहार को समझते हैं, अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता महसूस करते हैं उनके लिए निराशा का माहौल तो है ही, इसमें तो कोई शक ही नहीं है, पर यदि निराशा ज्यादा हावी हो रही है, तो इसमें भी शक नहीं कि उनकी वैचारिक स्थिति और समझ पूरी तरह वस्तुगत नहीं हो पाई है, वे अतिआशावादी हैं, वे अपने को इस भाववादी विचार से नहीं उबार पाये हैं कि विचार मात्र से चीज़ों को बदला जा सकता है। परिस्थितियां नियामक और प्राथमिक होती हैं, और इनसे उत्पन्न विचार इनके नियमन की कोशिश करते हैं। यह द्वंद चलता रहता है। जाहिर है कि जीवन परिस्थितियों में बदलाव लाए बिना, वैचारिक उन्नयन की आशा अपने आप में एक बहुत बड़ा भ्रम है।

प्रकृति के अपने विकास के नियम हैं, इसी तरह समाज के विकास के भी अपने नियम हैं। क्रांतियां पहले भी यह होती रही हैं, और आगे भी अवश्यंभावी है। समाज का ढ़ांचा जब उसके विकास को अवरुद्ध करने लगता है, तो समाज स्वयं पुराने ढ़ांचे को तोडकर नये ढ़ांचे का निर्माण करता है जो कि विकास की परिस्थितियों के लिए ज़्यादा मुफ़ीद होता है। इसी को क्रांति कहते हैं। आदिम सामुदायिक समाज से सामंती समाज में, और फिर सामंती समाज से लोकतांत्रिक पूंजीवादी समाज में संक्रमण इसी तरह हुआ है। यह किसी व्यक्ति या विचार पर निर्भर नहीं होती, यह समाज के विकास की परिस्थितियों पर निर्भर होती है, बल्कि व्यक्ति या विचार भी समाज की इन्हीं ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज होते हैं

इसलिए हमारे युवा मित्र को समझना होगा कि वे सिर्फ़ सोच-विचार कर, भावनाओं के आधार पर, किसी सही और सार्थक आंदोलन को जन्म नहीं दिया जा सकता, बिना परिस्थितियों तथा इनके बदलाव की वास्तविक आवश्यकताओं और इसके लिए परिवर्तनकारी शक्तियों के संगठित संघर्षों की श्रृंखलाओं के, अपने व्यक्तिगत प्रयासों से क्रांति नहीं कर सकते, भारत को बदल नहीं सकते। इस रूमान से बाहर आना ही होगा, और बदलाव की प्रक्रिया का समुचित अंग बनना होगा। 

इसलिए यह भी समझना होगा कि फिर हस्तक्षेपों की भूमिका क्या हो सकती है। इन हालातों में जाहिर है कि एक लंबी लड़ाई, लंबे संघर्षों की राह अवश्यंभावी है। इसलिए अपने आपको उसी के अनुरूप तैयार करना होगा। अपने आपको, अपने विचारों को, अपनी उर्जा और पक्षधरता को, बचाए रखना और बनाए रखना महती आवश्यकता है, वरना येन-केन प्रकारेण व्यवस्था सभी को अनुकूलित कर ही लेती है, बहाने हज़ार मिल ही जाते हैं।

तो पहले इस युवा मित्र को खुद को ज़िंदा रखने के आधार तलाशने चाहिए, ऐसे आधार जिनसे अपनी वैचारिकी को बनाए रखा जा सके, अपने आपको और अधिक परिपक्व बनाया जाना चाहिए, अपनी दार्शनिक और राजनैतिक समझ और सोच को पुख़्ता और निष्कर्षात्मक करना चाहिए, एक दिशा और पक्षधरता तय करनी चाहिए, अपने परिवेश के संघर्षों की आग को पहचानना और उनमें भागीदारी करना शुरू करना चाहिए, परिस्थितिगत भूमिकाएं चुननी चाहिए और उनका निर्वाह करना चाहिए, पूरी जिम्मेदारी और समझदारी के साथ।

अपने आपको समाज से विलगाना, जैसा कि युवा मित्र ने अपने परिवार और समाज संबंधी जिक्र किये हैं, व्यक्तिवादिता की तरफ़ ले जाते हैं। समाज से अलग और पृथक किसी व्यक्ति का अस्तित्व नहीं हो सकता। वे जिस भी राह पर चलेंगे, वहां-वहां एक नया परिवार, एक नया समाज अपने चारों तरफ़ बुनते चलेंगे। और उनकी अपेक्षाएं, आवश्यकताएं, अंतर्निर्भरताएं ऐसे कई अनेकों बंधन बनाती चलेंगी। कहां-कहां से भागते रहेंगे, बंधनों से बचकर। ये बंधन नहीं, मनुष्य की जैविक उपस्थिति के अंतर्संबंधित आयाम हैं। इनको, इन्हीं के साथ, अपने उद्देश्यों के लिए चैनलाइज़ करना सीखना होगा।

अब आप जानें, आप ये विचार उन तक किस तरह पहुंचाते हैं। यह रूढ़ और रूखें है, आप ठीक तरह से उनसे संवाद कीजिए। आप उन्हें हमारा मेल दे सकते हैं, जहां यदि वे चाहे तो संवाद स्थापित कर सकते हैं। ताकि यदि कुछ विस्तार से, या बिंदु विशेष पर बात करनी हो तो की जा सके।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 4 अगस्त 2012

मन, व्यवहार और रसायन

हे मानवश्रेष्ठों,

कुछ समय पहले हमारे प्रिय एक विशिष्ट मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, मन, व्यवहार तथा रसायन और समलैंगिकता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। इस बार वही संवाद यहां भी प्रस्तुत किया जा रहा है।

वह कथन फिर से रख देते हैं कि आप भी इससे कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



मन, व्यवहार और रसायन

बहुत दिनों पहले मैं अपने एक चिकित्सक मित्र से बात कर रहा था. हमारी बात मनोविज्ञान पर चली और हमने फ्रायड, एडलर, युंग, मास्लो आदि पर बात की. मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसने इन विचारकों के कार्यों को गंभीरता से नहीं लिया और कहीं-कहीं उनसे अनभिज्ञता भी दिखाई.

पता नहीं कि चिकित्सक मनोवैज्ञानिक क्षेत्र से संबंधित थे या नहीं। अगर वे सामान्य चिकित्सक थे तो यह अधिक आश्चर्य की बात नहीं है। शिक्षा इतनी औपचारिक तथा विशिष्ट बना दी गई है कि अगर कोई ख़ुद ना चाहे तो बने-बनाए पाठयक्रम में सिमट कर रह जाता है। हमारे ही घरों के बच्चे गलाकाट प्रतियोगिताओं की संकरी गलियों से, आम कैरियरिस्टिक मानसिकताओं से उच्च शिक्षाओं में कदम रखते हैं और अपने आपको उसी हेतु केंद्रित रखते हैं। बाकी सब फालतू समझा जाता है। अतएव सामान्य चिकित्सकों के पास अपने क्षेत्र की, एक निश्चित प्रतिरूप की विशिष्ट जानकारी भले ही हो, अन्य सामान्यीकृत ज्ञान से वे अक्सर अपने परिवेश की तरह ही अछूते रहते हैं।

अगर वे मनोचिकित्सा से संबंधित हैं फिर थोड़ा बहुत आशचर्य की बात जरूर है। थोड़ा बहुत इसलिए कि वे भी उपरोक्त प्रक्रिया से ही गुजरकर इस मुकाम पर पहुंचे हैं, और आश्चर्य इसलिए कि अगर उन्होंने मनोविज्ञान पढ़ी है, तो अभी की पढ़ाई जा रही अकादमिक मनोविज्ञान, आपके द्वारा जिक्र किए महानुभावों के विशलेषणों पर ही अधिक आधारित है। हां यह जरूर है कि वहां इनका समग्र कार्य ना होकर उनके संदर्भ और आधार हुआ करते हैं। सभी को जल्दी है, तुरंत पैसा कमाने की मशीनों में तब्दील हो जाने की, अतएव अपने विषय से भी संबंधित सामग्री की गहराई और संदर्भित महानुभावों के समग्र काम से गुजरना सामन्यतः प्रचलन में नहीं है।


उसमें मुझे केवल यही बताया कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान रासायनिक थ्योरी पर आधारित है. इसका अर्थ यह है कि मानसिक अवस्थाओं और विकारों को रासायनिक क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के आधार पर समझा जाता है, यथा, सेरोटोनिन और डोपामाइन जैसे न्यूरो ट्रांसमीटरों के अल्प या अधिक स्त्राव से यह समझा/समझाया जाता है कि किसी व्यक्ति विशेष के व्यवहार और मानसिक दशाओं में कैसे परिवर्तन आते हैं या आ सकते हैं.यह सब समझने में मुझे कुछ दिक्कतें हैं. क्या मैं यह मानूं कि किसी कारणवश उद्भूत निराशा के कारण किसी व्यक्ति के मष्तिष्क में कोई रसायन कम या अधिक बनने लगा और वह अवसादग्रस्त हो गया? यदि यह मान लें तो क्या यह भी मानना पड़ेगा कि किसी फीजियोलौजिकल प्रभाव में मष्तिष्क में किसी रसायन के अल्प/अधिक स्त्राव से मनुष्य अकारण ही अवसादग्रस्त भी हो सकता है या प्रमादग्रस्त भी? यहाँ कार्य-कारण का सिद्धांत कैसे काम करेगा? क्या निराशा से रासायनिक गतिविधि प्रभावित होती है या रासायनिक गतिविधि की गड़बड़ी होने से निराशा छाती है?

यह प्रवृति आधुनिक समय में अधिक हावी हो गई है। विज्ञान के उन्नत होने के साथ विभिन्न मानसिक अवस्थाओं से संबंधित, मस्तिष्क की जैवरसायनिक प्रक्रियाओं के अध्ययन और विश्लेषण की प्रक्रियाएं भी अधिक विस्तृत हुईं। और जाहिरा तौर पर उनके परिणामों तथा निष्कर्षॊं के मनोवैज्ञानिक व्याख्याओं में सम्मिलित करने का भी दौर शुरू हुआ।

वैज्ञानिक तथ्य अपनी जगह होते हैं और उनकी व्याख्याओं में, व्याख्या करने वाले महानुभावों तथा समूहों की अपनी हितबद्धताएं, पक्षधरताएं भी अपनी भूमिका अदा करती हैं। आज की हावी शक्तियों और विचारधाराओं ने, जैसा कि आप समझ ही रहे हैं, अपनी हितबद्ध व्याख्याओं में मूल कार्यकारण संबंधों को ही उलट दिया है।

मानसिक अवस्थाएं, प्रतिक्रियाएं मनुष्य की सक्रियता के लंबे अनुकूलन पर निर्भर किया करती हैं और यही मूल में हैं। उसका यह अनुकूलन, किसी वस्तु के प्रति किस तरह की प्रतिक्रिया करता है यह उसके पुराने अनुभवों की लंबी श्रृंखला के फलस्वरूप पैदा होता है। उसे आगे विश्लेषित करने में, इसके कारण होने वाले शरीरक्रियात्मक, जैव-रसायनिक प्रक्रियाओं की गहराई में जाया जा सकता है, यह अलग बात है। सक्रियता से जैव-रसायनिक प्रक्रियाएं शुरू होती हैं, परंतु जैव-रसायनिक परिवर्तनों को पैदा करके मनुष्य की सक्रियता को बड़े स्तर पर सुनिश्चित नहीं किया जा सकता।

किसी व्यक्ति के हमको अच्छा लगने पर ( और यह व्यक्ति को अच्छा मानने के हमारे मापदंड़ों, हमारे अनुभवों के अनुकूलनों पर निर्भर करता है ) न्यूरोट्रांसमीटर्स का एक्टिव होना, उसके प्रति हमारे आकर्षण में व्यक्त हो सकता है। परंतु इसका उल्टा होना, यानि न्यूरोट्रांसमीटर्स को एक्टिव करके किसी के लिए भी वैसा ही आकर्षण पैदा कर पाना, हमें भी आपकी ही तरह संभव नहीं लगता। इसके लिए वस्तुगत मनोविज्ञान में एक ‘समष्टि से अंशों की ओर’ का कार्य सिद्धांत प्रयोग में लिया जाता है। इसके अनुसार बाह्य प्रभावों की छापों का साकारीकरण ‘ऊपर से’, यानि मनुष्य की सक्रियता द्वारा होता है, शरीर-अंग-कोशिका दिशा में होता है, न कि इसके विपरीत दिशा में। किसी भी तरह के औषधीय उत्प्रेरक इस बुनियादी तथ्य को नहीं बदल सकते। शरीर के रासायनिक क्रियातंत्र आनुषंगिक तथा व्युत्पाद होते हैं, जिनके लिए किसी विशिष्ट सक्रियता की पूर्वापेक्षा आवश्यक होती है। अभी तक हमारी जानकारी में यही है, और उचित लगता है।

विशिष्ट भावनाओं को किन्हीं विशिष्ट जैव-रसायनों के साथ संबंधित किया जा सकता है, और यह होता भी है। इन्हीं जैव-रसायनों के प्रभाव से हमारी प्रतिक्रियात्मकता भी संबंधित की जा सकती है। कोई विशिष्ट मानसिक स्थिति, किसी जैव-रसायन के स्राव का कारण हो सकती है और उस जैव-रसायन के प्रभाव से हमारी प्रतिक्रिया निश्चित भी। इससे यह भी हो सकता है किसी जैव-रसायन के प्रभाव से मनुष्य किसी विशेष मानसिक स्थिति में अपने को महसूस करे। अतएव यह कहा जा सकता है कि किसी मनोदशा से शरीर की रासायनिक गतिविधि प्रभावित होती है, और रसायनिक गतिविधि की गड़बड़ी से मस्तिष्क किसी विशेष मनोदशाओं में आ सकता है। पर ये मानसिक स्थिति विशेष में लाने या निकालने का तात्कालिक मामला ही हो सकता है। किसी मनोदशा विशेष से स्रावित हुए रसायनों, जो कि शरीर की अन्य क्रियाविधियों को भी ( मसलन रक्तचाप, धड़कनें, आवेश, श्वास आदि ) प्रभावित कर सकते हैं, के प्रभावों को नियंत्रित करने का मामला हो सकता है। असामान्य मनोविकारों, स्थिर मानसिक विचलनों के प्रभावों से निपटने का मामला हो सकता है, परंतु सामान्य मानसिक अपरिपक्वताओं से, जो कि मनुष्य की सक्रियता और अनुकूलन की वज़हों से है, तो सक्रियता और अनुकूलन को प्रभावित करके ही निपटा जा सकता है, रसायनों का प्रयोग तात्कालिक राहत देकर इन लंबी और श्रमसाध्य प्रक्रियाओं से बचने का ही रास्ता उपल्ब्ध करवाता है।

आप जिस बात को मूल में रखकर इस पर संशय कर रहे हैं वह एकदम जायज है। हम भी इसी तरह के संशयों में रहा करते हैं।

मनोविज्ञान पर एक पोस्ट से लिया गया यह अंश भी देखिए:

"यहां डील-डौल और कतिपय मानसिक विशेषताओं के बीच संबंध इसलिए है कि उनका एक ही आधार है : रक्त की रासायनिक संरचना और अंतःस्रावी तंत्र की ग्रंथियों द्वारा निस्सारित हार्मोन। १९४० के दशक में अमरीकी वैज्ञानिक वाल्टर शेल्डन ने भी यही मत प्रकट किया कि मनुष्य की वैयक्तिक मानसिक विशेषताएं हार्मोनी तंत्र द्वारा नियंत्रित शारीरिक ढांचे से, यानी शरीर के विभिन्न ऊतकों के परस्परसंबंध से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होती है।

यह नहीं कहा जा सकता कि ये मत सर्वथा निराधार हैं। किंतु वे समस्या के एक ही पहलू की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं और वह भी मुख्य पहलू नहीं है। सभी मानसिक परिघटनाएं सीधे मानस के आधारभूत अंग, मस्तिष्क के गुणधर्मों की उपज होती हैं और यही मुख्य बात है। यद्यपि शरीर के तरलों अथवा रसों के महत्त्व का प्राचीन विचार हार्मोनी कारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका से संबद्ध बाद के विचारों से मेल खाता है, फिर भी स्वभाव के प्राकृतिक आधार के बारे में आजकल किए जा रहे अनुसंधान इस बुनियादी तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि व्यवहार की गतिकी ( dynamics ) को प्रभावित करनेवाले सभी आंतरिक ( और बाह्य ) कारक अपना कार्य अनिवार्यतः मस्तिष्क के माध्यम से करते हैं। आधुनिक विज्ञान स्वभाव के व्यक्तिपरक भेदों का कारण मस्तिष्क ( प्रमस्तिष्कीय प्रांतस्था और अवप्रांतस्था केंद्रों ) की प्रकार्यात्मक ( functional ) विशेषताओं में, उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के गुणधर्मों में देखता है।"

इसी तरह अन्यत्र की गई टिप्पणी का यह अंश भी, कुछ और मदद मिल सकती है:

"मानवव्यवहार को मात्र कुछ रसायनों तक सीमित कर देने से, इन्हें वैज्ञानिक रूप से, प्रगतिशील मूल्यों के रूप में स्थापित कर देने से, जाहिरा तौर पर इन रसायनों से संबंधित एक गैरजरूरी बाज़ार खड़ा किया जा सकता है और मुनाफ़ो का ढ़ेर लगाया जा सकता है।

दूसरा ऐसा स्थापित करने से मानवीय व्यवहार की सामाजिक अंतर्निर्भरता के बज़ाए व्यक्तिवादी आत्मकेन्द्रिता को आधार मिलता है, क्योंकि यह भ्रम स्थापित किया जाता है कि इन्हें कुछ रसायनों के जरिए पैदा और नियंत्रित किया जा सकता है। जाहिरा तौर पर ऐसे आत्मकेन्द्रित व्यक्तिवादी सोच के मनुष्य आज की व्यवस्था के इच्छित हैं जो मनुष्य की सोच और दृष्टिकोणों तक को गुलाम मानसिकता में बदल डालने की कोशिशों में हैं। ....वैज्ञानिक सूचनाओं को, ऐतिहासिक और क्रम-विकास के संदर्भों में परखे बिना सही समझ विकसित नहीं की जा सकती, या कि इन्हें सही समाजिक सोद्देश्यता प्रदान नहीं की जा सकती।

इन हारमोनों के खेल को हम लगभग पूरी जैवीय प्रकृति में (फिलहाल मानव को छोड दें) अस्तित्वमान देखते हैं और इन्हीं की वज़ह से उत्प्रेरित सहजवृत्तियों से सक्रिय कई जीवों को समयआधारित प्रजनन संबंधों की प्रक्रिया में संलग्न देखते हैं। जाहिर है इसी वज़ह से यह विचार और शोध की आवश्यकताएं पैदा हुईं कि इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में मनुष्यों के व्यवहार को भी समझा जाना चाहिए।

मनुष्य भी इसी जैव प्रकृति का अंग है तो नियमसंगति यहां भी मिलनी चाहिए, और इसी के अवशेषों को जाहिर है उक्त खोजों के अंतर्गत संपन्न कर लिया गया लगता है।मानव प्रकृति की सहजवृत्तियों के खिलाफ़ अपने सोद्देश्य क्रियाकलापों के जरिए हुए क्रमविकास के कारण ही अस्तित्व में आ पाया है। मनुष्य अपनी इस चेतना के जरिए ही यानि सचेतन क्रियाकलापों के जरिए ही, अन्य जैवीय प्रकृति की सहजवृत्तियों से अपने आपको अलग करता है।

जाहिर है अब मनुष्य कई सहजवृत्तियों के हारमोनों संबंधी उत्प्रेरकता की आदतों से आगे निकल आया है और कई नई तरह की सचेत क्रियाकलापों के लिए अनुकूलित हो गया है।"

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इसके अतिरिक्त मुझे समलैंगिकता को समझने में भी समस्या है. मैं इसे अवांछित चारित्रिक विचलन (perversion) मानता हूँ जबकि मनोविज्ञान इसे स्वाभाविक व्यावहार मानने पर तुला हुआ है.

समलैंगिकता पर काफ़ी पहले ब्लॉग पर लिखा था कुछ, वह भी देख लिया जाए। थोड़ा बहुत वहां से समझने में मदद मिल सकती है। लिंक यह है:

जैसा कि आप जानते ही हैं, कई सारे पहलू हुआ करते हैं चीज़ों के। परिघटनाओं के पीछे कई घटक काम कर रहे होते हैं, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष।  इसलिए कई असामान्य सी चीज़ों की तह में जाना थोड़ा मुश्किल होता जाता है।

आप इसकी असामान्यता की वज़ह से इसे अवांछित चारित्रिक विचलन कह रहे हैं, वहीं मनोविज्ञान की एक धारा ( क्योंकि यह वास्तविकता में अपनी उपस्थिति रखता है और कई लोगों के स्वभाव का सा ही अंग बन जाता है ) इसे स्वाभाविक व्यवहार मनवाने पर तुला हुआ है। हालांकि इसके पीछे कई दूसरे कारण, मसलन साधनसंपन्नों की कई व्यक्तिवादी, भोगवादी, पाशविक प्रवृत्तियों को जस्टीफाई करना भी होता है।

कई बार बचपन के कई अनुभवों के कारण जिसमें कि साथ के किशोरों या वयस्कों के द्वारा किए गये यौन-व्यवहारों की स्मृतियां शामिल होती हैं, यौनिकता के जोर मारने पर, और जबकि सामान्य अवसर उपलब्ध नहीं हुआ करते हैं, किशोर अवस्था में यह एक सामान्य सी प्रक्रिया हो जाती है जो कुछ किशोर इधर-उधर के मौके पर प्रयोग में ले लिया करते हैं। इसके साथ सामान्य सी यौन-जिज्ञासाओं की तुष्टि की आवश्यकता जुड़ी होती है। कई बार यह गाफ़िल बच्चों के साथ संपन्न होती है, कई बार हमउम्रों के साथ करने की हिमाकत भी कर ली जाती है। हमउम्रों के साथ, क्योंकि वे अधिक गाफ़िल नहीं हुआ करते, कुछ मामलों में ये सचेतन रूप से भी संपन्न होने लगती हैं, और उस जोड़े विशेष के लिए असहज नहीं रह जाया करती। सामान्यतः अधिकतर किशोर इससे मुक्त हो लिया करते हैं, कुछैकों में यह बाकी रह जाती है, लंबी खिंचती है और उनके लिए ये समलैंगिक संबंध अधिक सहज लगने लगते हैं। बाद में, यह हो सकता है कि वे इसके पक्ष में खुलकर खड़े होने की हिम्मत जुटा लें, इसके पक्ष में तर्क-कुतर्कों का झमेला बुन लें, विपक्ष खड़ा हो तो खुलकर पक्ष बना लें, एक संप्रदाय बन जाए। यह भी एक पहलू है।

हार्मोनिक विकारों की संभावनाओं का जिक्र उक्त लिंकित पोस्ट में किया ही जा चुका है। एक और पहलू देखिए। पुरुषसत्तात्मक समाज में, पुरुषत्व का, मर्दानगी का आभामंड़ल बचाए रखना पुरुष के लिए इतना आवश्यक हो जाता है कि वह यौनिक क्रिया में परफोरमेन्स के डर से, नामर्द साबित हो जाने के डर से इतना आक्रांत रहता है कि सभी तरह के एकांतिक यौन आनंद के मामले, जहां परफोरमेन्स की अनिवार्यता नहीं जुडी हो, अपनाने को इच्छुक रहता है। हस्तमैथुन, समलैंगिकता, पशुगमन, बच्चों-किशोरों के साथ छुटपुट क्रियाएं, कई अन्य तरह की यौन तृप्तिकारक क्रियाएं, जहां सिर्फ़ आनंद के साथ सिर्फ़ एकांतिक स्खलन से मुक्त हो लिया जाए, मर्दानगी भी कायम रह जाए, लिप्त रहने को उत्सुक रहता है। यह मनोविज्ञान कई सारे असामान्य यौन-व्यवहारों को समझा सकता है।

अब इससे आप जूझिए कि इसे कहां रखना चाहेंगे। :-)

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हो सकता है ये कुछ इशारे आपके लिए काम के साबित हों, और कुछ नया जोड़ने का सामर्थ्य रखते हों। नहीं तो भी कोई बात नहीं, संवाद ही अपने आप में कई गुत्थियां सुलझाने में मदद किया करता है। बनाए रखें।

आपने संवाद हेतु प्रस्तुत हो मान बढ़ाया, हम शुक्रगुजार हैं।
शुक्रिया।

समय
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