शनिवार, 28 मार्च 2015

प्रत्ययवाद/भाववाद की ज्ञानमीमांसीय जड़ें

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम प्रत्ययवाद की ज्ञानमीमांसीय जड़ों को समझने की कोशिश करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्रत्ययवाद की ज्ञानमीमांसीय जड़ें
( the epistemological roots of idealism )

जब संकल्पना ( concept ) के निर्माण करने में समर्थ रचनात्मक क्रियाकलाप, वस्तुओं के वस्तुगत अनुगुणों ( objective properties ) तथा संबंधों के विरुद्ध आ टकराता है, तो अपकर्षण/अमूर्तकरण ( abstraction ) की प्रक्रिया के दौरान ऐसी असत्य संकल्पनाएं बन सकती हैं, जो वस्तुगत यथार्थता ( reality ) को विरूपित ( distorted ), त्रुटिपूर्ण ढंग से परावर्तित करती हैं। ऐसी संकल्पनाओं के पैदा होने की संभावना हमेशा मौजूद रहती है और कुछ दशाओं में यह प्रत्ययवाद/भाववाद ( idealism ) की ओर पहुंचा सकती हैं।

बेशक, प्रत्येक असत्य संकल्पना या अपकर्षण में होनेवाली हर ग़लती प्रत्ययवाद की ओर नहीं ले जाती। संकल्पनाएं ‘हरी बिल्ली’ या ‘दयालु त्रिभुज’ महज निर्रथक ( senseless ) हैं। वास्तविकता में उनके अनुरूप कुछ नहीं होता है। जो लक्षण या अनुगुण वास्तविकता से असंबद्ध है, उन्हें ग़लत ढंग से परस्पर चस्पां कर दिया गया है। जो संकल्पनाएं, वस्तुगत यथार्थता में विद्यमान पृथक अनुगुणों के स्वयं यथार्थता से,  अधिभूतवादी विलगाव ( metaphysical separation ) के फलस्वरूप उत्पन्न होती हैं, वे प्रत्ययवाद की ओर पहुंचाती हैं। यानी जब वस्तुओं से संबद्ध अनुगुणों को, वस्तुओं से अलग कर दिया जाता है फिर उसे पृथक रूप से विस्तारित या अतिरंजित ( exaggerated ) बना कर, ऐसी संकल्पना में आबद्ध कर दिया जा सकता है जो कि यथार्थ को ग़लत तरीक़े से पेश करती हैं, या एक अयथार्थ कल्पनालोक ( mythological fantasy ) को अभिव्यक्त करती हैं।

किसी व्यक्ति में जीवन की प्रत्याशा ( expectation ) कम या ज़्यादा हो सकती है, वह विभिन्न बातों के बारे में कम या ज़्यादा जानकार हो सकता है, उसमें निश्चित शारीरिक बल होता है, आदि। किंतु एक सर्वज्ञ ( omniscient ), सर्वशक्तिमान, अमर सत्व ( immortal being ) - ईश्वर - की अतिकाल्पनिक संकल्पना की उत्पत्ति के लिए, जानकारी या बलशालिता के अनुगुण को, या जीवन की प्रत्याशा को वास्तविक लोगों से पृथक करना, पराकाष्ठा ( extreme ) तक अतिरंजित तथा विस्तारित ( inflate ) करना काफ़ी है। इसी प्रकार, भूतद्रव्य ( matter ) से स्वतंत्र ( independent ) तथा उसके मुक़ाबले में खड़ी, गति और ऊर्जा की संकल्पनाओं के उत्पन्न होने के लिए, गतिमान भूतद्रव्य का अध्ययन करते समय गति को भौतिक पिंड़ों से पृथक करना, पदार्थ को ऊर्जा के मुक़ाबले खड़ा करना और काल ( time ) को देश ( space ) से पृथक करना पर्याप्त है ; और यह ‘भौतिक’ प्रत्ययवाद की ओर, इस मत की ओर सीधा क़दम है कि भौतिक जगत ग़ायब हो सकता है और उस का अस्तित्व नहीं रह जायेगा, जबकि ऊर्जा उसके बिना भी भी अस्तित्वमान और शाश्वत रहेगी ; जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऊर्जा अभौतिक ( immaterial ) है, यानी प्रत्ययिक ( ideal ) है।

प्रत्ययवाद की ज्ञानमीमांसीय, यानी संज्ञानात्मक जड़ें इस बात में निहित हैं कि संज्ञान ( cognition ) की जटिल ( complex ), द्वंद्वात्मक प्रक्रिया ( dialectical process ) में ऐसी सरलीकृत असत्य प्रविधियां ( techniques ) पैदा हो सकती हैं, जिनसे ऐसी संकल्पनाएं बन सकती हैं, जो यथार्थता को विरूपित ढंग से परावर्तित ( reflect ) करती हैं और यह सोचना संभव बना देती हैं कि विचार ( ideas ) और संकल्पनाएं ख़ुद भूतद्रव्य से स्वतंत्र रूप में विद्यमान ( exist ) होती हैं या उससे भी पहले विद्यमान थीं।

परंतु ज्ञानमीमांसीय जड़ें किसी भी हालत में स्वयं अपने आप प्रत्ययवाद की ओर अवश्यमेवतः नहीं ले जाती। यह प्रत्ययवाद की केवल एक संभावना ( possibility ) है। प्रत्ययवाद के वस्तुतः ( actually ) उत्पन्न तथा घनीभूत ( consolidated ) होने के लिए निश्चित सामाजिक दशाओं और निश्चित वर्गों ( classes ) और समूहों ( groups ) का होना जरूरी है जिन्हें अपने वर्ग के प्रभुत्व ( dominance ) के आधार के रूप में प्रत्ययवादी विश्वदृष्टिकोण ( idealistic world outlook ) में दिलचस्पी होती है। इन दशाओं को प्रत्ययवाद की सामाजिक जड़े ( social roots of idealism ) कहते हैं।

अलंकारिक भाषा ( figurative language ) में ऐसा कहा जा सकता है कि प्रत्ययवाद, ज्ञान के जीवंत वृक्ष ( living tree ) पर होनेवाला एक बंध्या फूल ( sterile flower ) है ( जिसे सामाजिक व ज्ञानमीमांसीय दोनों जड़ों की जरूरत होती है )। प्रत्ययवाद की सामाजिक जड़ों का नाश, सामाजिक जीवन के रूपांतरण ( transformation ) के ज़रिये ही किया जा सकता है जिसमें कि इसकी ज्ञानमीमांसीय जड़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष ( struggle ) अग्रभूमि पर रहे। इनके समूल नाश के लिए, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और संज्ञान के द्वंद्ववादी सिद्धांत में सक्रियता ( actively ) और सचेतनता ( consciously ) से पारंगति हासिल करना आवश्यक है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 21 मार्च 2015

संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका पर चर्चा शु्रू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका - २
( the role of abstraction in knowing - 2 )

अपकर्षण/अमूर्तकरण ( abstraction ) या अपकर्षित संकल्पनाएं ( abstract concepts ) हमारे गिर्द की घटनाओं तथा प्रक्रियाओं के आंतरिक, गहरे संपर्कों को समझने में हमारी किस तरह से सहायता करती हैं ?

यथार्थ ( real ) भौतिक जगत की वस्तुओं में, अनुगुणों ( properties ), पहलुओं ( aspects ) तथा संयोजनों ( connections ) का एक असीम समुच्चय (set ) होता है। प्रत्येक अपकर्षण स्वयं में किसी संपर्क-सूत्र या संयोजन अथवा अनुगुण को परावर्तित करता है, मसलन, रंग, आकृति, एक घटना की दूसरे पर कारणात्मक निर्भरता ( causal dependence ), आदि। परंतु अलग-अलग लेने पर ये अनुगुण या संयोजन अधिकतम पूर्णता तथा सटीकता ( exactness ) से परावर्तित होते हैं। असीमित संयोजनों तथा अनुगुणों वाली यथार्थ भौतिक वस्तुओं को अधिक गहराई से जानने के लिए, यानी उन्हें अपनी चेतना में परावर्तित करने के लिए हमें पृथक-पृथक अपकर्षणों को एकजुट ( unite ) करना होता है और उन्हें एक ख़ास ढंग से एक नयी, मूर्त ( concrete ) संकल्पना में संयुक्त करना होता है, जो अपने काल तथा युग ( age ) के लिए एक मूर्त वस्तु के बारे में पूर्णतम ज्ञान प्रदान करती है। फलतः मूर्त संकल्पना, विविध अपकर्षणों का एक प्रकार का योग ( sum ) या समग्रता ( aggregate ) होती है, जो एक वस्तु के कुछ अनुगुणों, पहलुओं और संबंधों को परावर्तित करती है

बाह्य जगत को परावर्तित करनेवाले हमारे ज्ञान के विकास के साथ, संकल्पनाएं अधिकाधिक मूर्त बनती जाती है। मसलन, प्राचीन खगोलविद्या ( astronomy ) के जमाने में चंद्रमा की संकल्पना बहुत अपकर्षित/अमूर्त थी। उसमें कई लक्षण शामिल थे : चंद्रमा पृथ्वी के गिर्द घूमता है, उसकी चकत्ती हथेली से कुछ ही बड़ी है, वह रात को चमकता है। १९वीं सदी में खगोलविद्या के विकास की तथा दूरबीनों के अविष्कार की बदौलत चंद्रमा की सतह पर विद्यमान गड्ढ़ों तथा पर्वतों की जानकारी हो चुकी थी, उसके वास्तविक आकार की गणना कर ली गयी थी तथा पृथ्वी से उसकी दूरी का पता लगा लिया गया था और ज्वार-भाटों पर उसके प्रभाव, आदि का स्पष्टीकरण दिया जा चुका है। हमारे अपने युग में स्वचालित चंद्र-गाड़ियों तथा मनुष्य के चंद्रतल पर उतरने के बाद चंद्र मिट्टी के, उसकी रासायनिक बनावट तथा कई अन्य विशेषताओं के बारे में हमारी जानकारी में बहुत वृद्धि हो गयी। संकल्पना ‘चंद्रमा’ १००-१५० वर्ष पहले, बल्कि ५० ही वर्ष पहले कि संकल्पना से अधिक समृद्ध, अंतर्वस्तु ( content ) से परिपूर्ण तथा अधिक मूर्त हो गयी। विज्ञान के विकास के साथ ही साथ विज्ञान की संकल्पनाओं की मूर्तता में हमेशा वृद्धि होती है।

मूर्त वस्तुओं तथा मूर्त संकल्पनाओं के बीच अंतर करना तथा उन्हें गड्डमड्ड न करना जरूरी है। मूर्त वस्तुएं, वस्तुगत यथार्थता ( objective reality ) में चेतना ( consciousness ) के बाहर तथा उससे स्वतंत्र रूप से विद्यमान होती हैं, किंतु मूर्त संकल्पनाएं लोगों के संज्ञानात्मक क्रियाकलाप ( cognitive activity ) का परिणाम होती हैं। मूर्त सकल्पनाएं, मूर्त वस्तुओं के विविध पहलुओं तथा संयोजनों को परावर्तित करनेवाले पृथक अपकर्षणों के संगत ( consistent ), आनुक्रमिक संपूरण ( consecutive supplementing ) तथा परिष्करण ( refining ), विस्तारण ( extension ) और संश्लेषण ( synthesis ) के द्वारा उत्पन्न होती हैं।

पृथक ( separate ) अपकर्षणों से मूर्त संकल्पनाओं में संक्रमण ( transition ) को अपकर्षित से मूर्त को आरोहण ( ascent ) की विधि कहते हैं। यह आरोहण बेतरतीब नहीं, बल्कि कुछ निश्चित क़ायदों और नियमों के अनुसार होता है। इनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह अपेक्षा है कि अलग-अलग अपकर्षणों के ( जो अधिक पूर्ण, सटीक और अधिक मूर्त संकल्पना में शामिल है ) बीच संबंध, परावर्तित घटनाओं और प्रक्रियाओं के अनुगुणों तथा लक्षणों के बीच वस्तुगत, वास्तविक संयोजन को परावर्तित करे। यदि मूर्त संकल्पना के अंतर्गत, अपकर्षणों का संबंध, अध्ययनाधीन घटना या प्रक्रिया के अनुगुणों तथा लक्ष्यों के वास्तविक संयोजन के अनुरूप होता है, तो हमें स्वयं वस्तुगत यथार्थता के तदनुरूप ( corresponding ) अत्यंत सत्य, गहन ज्ञान की प्राप्ति होती है।

फलतः संकल्पनाएं मनुष्य में अंतर्जात ( inborn ) या किसी ईश्वर की बनायी हुई नहीं होती हैं, जैसा कि कुछ प्रत्ययवादी ( idealistic ) दार्शनिकों का विचार था। वे इतिहास आश्रित होती हैं और अपकर्षण के द्वारा रूप ग्रहण करती हैं। वे संवेदनों पर आधारित होती हैं और उनकी अभिव्यक्ति का भौतिक साधन भाषा है। अपकर्षण की प्रक्रिया में अतिकाल्पनिकता ( fantasy ) तथा रचनात्मकता ( creativity ) के भी कुछ तत्व होते हैं। जब हम कुछ लक्षणों को अपकर्षित करते हैं और अन्य का पृथक्करण तथा समूहन करते हैं, तो हम यथार्थता के प्रति एक निश्चित सक्रिय रवैये ( active attitude ) का प्रदर्शन करते हैं। मनुष्य जीवन, अपने उत्पादन, दैनिक तथा सामाजिक क्रियाकलाप में उत्पन्न होनेवाली वस्तुगत जरूरतों द्वारा प्रस्तुत लक्ष्यों व कार्यों द्वारा निर्देशित ( guided ) होता है। इसलिए एक संकल्पना केवल वस्तुगत यथार्थता को ही परावर्तित नहीं करती, बल्कि मानवीय सक्रियता, रचनात्मक क्रियाकलाप की छाप ( traces ) से प्रभावित भी होती है

जब संकल्पना के निर्माण करने में समर्थ रचनात्मक क्रियाकलाप, वस्तुओं के वस्तुगत गुणों तथा संबंधों के विरुद्ध आ टकराता है, तो अपकर्षण की प्रक्रिया के दौरान ऐसी असत्य संकल्पनाएं बन सकती हैं, जो वस्तुगत यथार्थता को विरूपित, त्रुटिपूर्ण ढंग से परावर्तित करती हैं। ऐसी संकल्पनाओं के पैदा होने की संभावना हमेशा मौजूद रहती है और कुछ दशाओं में यह प्रत्ययवा/भाववाद ( idealism ) की ओर पहुंचा सकती हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 14 मार्च 2015

संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की प्रक्रिया में संवेदनों की भूमिका पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका पर विचार शु्रू करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका - १
( the role of abstraction in knowing - 1 )

मनुष्य अपने क्रियाकलाप में केवल संवेदनों ( sensations ) तथा संवेद जन्य बिंबों ( sensory images ) का ही उपयोग नहीं कर सकता है। वे विश्व को समझने और, उससे भी अधिक, उसी रूपांतरित ( transform ) करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। लेकिन क्यों? पहला तो इसलिए कि, क्योंकि हम अपने संवेदन दूसरे लोगों को हस्तांतरित नहीं कर सकते, हांलांकि हम उनके बारे में बात कर सकते हैं ; हम दूसरे लोगों के मस्तिष्कों में मौजूद संवेद बिंबों का अनुभव नहीं कर सकते हैं, हालांकि हम उनके बारे में बातचीत से या पुस्तकें पढ़कर जान सकते हैं। दूसरा इसलिए भी कि, दैनिक जीवन तथा विज्ञान दोनों में हमारा वास्ता ऐसे ज्ञान से पड़ता है, जो संवेद प्रत्यक्ष ( sense perception ) के, यानी संवेदनों के ज़रिये हासिल या विकसित नहीं किया जा सकता है।

मसलन, हम एक संख्या, ऐतिहासिक प्रक्रिया, भूतद्रव्य ( matter ), आदि को देख, सुन, सूंघ या स्पर्श नहीं कर सकते, हालांकि हम दो सेबों को देख सकते हैं, युद्ध जैसी ऐतिहासिक घटनाओं को या प्रथम भूउपग्रह के प्रक्षेपण को देख सकते हैं या किसी एक भौतिक वस्तु को छू और सूंघ सकते हैं, जैसे एक फूल को या कॉफ़ी के प्याले को। एक साकल्य ( whole ) के रूप में विश्व के तथा उसमें जारी प्रक्रियाओं के जटिल ज्ञान को विकसित करने और नये ज्ञान के अंतरण ( pass on or transfer ), भंडारण ( store ) तथा सर्जन ( creation ) के लिए हमें संकल्पनाओं ( concepts ) की तथा उनसे जुड़ी तार्किक प्रक्रियाओं ( logical processes ) की जरूरत होती है। ज्ञान के इन रूपों का संवेदनों के साथ क्या संबंध है? वे कैसे उत्पन्न होते हैं?

संकल्पनाओं की रचना की प्रक्रिया को अक्सर अपकर्षण या अमूर्तकरण ( abstraction ) कहा जाता है, इसलिए संकल्पनाओं को भी बहुधा अमूर्त या अपकर्षित कहा जाता है। अपकर्षण/अमूर्तकरण कई अवस्थाओं ( stages ) में होता है। सबसे पहले हममें, एक से संवेदनों तथा संवेद बिंबों को उत्पन्न करनेवाली विविध वस्तुओं का एक प्रकार का समूहन ( grouping ) होता है। एक पके हुए सेब, गाजर तथा स्तनपायी के रुधिर में उनके सारे अंतरों के बावजूद एक समान अनुगुण ( property ) होता है, जिसकी वज़ह से वे सब हम में एक समान रंग-संवेद, यानी लाल रंग का रंग-संवेद पैदा करते हैं। हम एक वस्तु को दूसरे से विभेदित ( distinguish ) करनेवाले सारे अंतरों को अपकर्षित करते हैं, यानी सारे अंतरों को छोड़ देते हैं। दूसरी अवस्था में हम एक ही विशेषता के विविध सूक्ष्म भेदों ( nuances ) या प्रकारांतरों का मानो समानीकरण ( equate ) करते हैं या उन्हें तद्रूप ( identify ) बनाते हैं। मसलन, हम एक ही रंग की सारी आभाओं ( shades ) को समरूप मान लेते हैं।

अगली अवस्था में हम ‘शुद्ध’, आदर्श रूप में विभेदित अनुगुणों व संबंधों को घनीभूत बनाते, समेकित ( consolidated ) करते हैं, इस रूप में वे शायद स्वयं प्रकृति या समाज में भी नहीं पाये जाते हैं। इसलिए इस अवस्था को अक्सर आदर्शीकरण ( idealisation ) कहा जाता है। अंत में, चौथी अवस्था पर विभेदित तथा अलग किये हुए अनुगुणों को भाषा में घनीभूत बनाया जाता है। यह नामकरण ( denomination ) की अवस्था है। प्रदत्त अनुगुण को एक पृथक ( separate ) शब्द या शब्दों के समूह के ज़रिये नाम दिया जाता है। इस तरह, शब्दों में व्यक्त एक संकल्पना पैदा होती है। वस्तुओं के जिस समूह का यह हवाला देती है, वह इसका आशय ( meaning ) है, जबकि संकल्पना में घनीभूत तथा परावर्तित अनुगुण या संबंध, उसके अभिप्राय ( sense ) का द्योतक है। संकल्पना ‘लाल’ का अभिप्राय, एक निश्चित ऊर्जा की प्रकाश किरणों की हममें एक निश्चित रंग-संवेद उत्पन्न करने की क्षमता ( capacity ) से है। इस संकल्पना का आशय वे वस्तुएं हैं, जो उस ऊर्जा की किरणों को परावर्तित करती हैं। संकल्पना ‘शोषण’ ( exploitation ) का अभिप्राय है अन्य लोगों के श्रम से मुनाफ़ा खसोटना, इसका आशय है उत्पादन संबंधों की एक निश्चित क़िस्म।

संवेदनों की ही भांति, अपकर्षण/अमूर्तकरण भी वस्तुगत यथार्थता ( objective reality ) का परावर्तन ( reflection ) है।  वास्तविक जीवन में वे एक दीर्घावधि में विकसित और परिष्कृत ( refined ) होते हैं। वे संवेदनों तथा संवेद बिंबों पर आधारित होते हैं। लेकिन संवेदनों के विपरीत, अपकर्षण भौतिक वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं के संवेद द्वारा अनुबोधित ( perceived ) केवल बाह्य पक्ष को और केवल उसी को उतना परावर्तित नहीं करते, जितना उनके उन आंतरिक संयोजनों ( inner connections ) तथा संबंधों को करते हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से संवेद अनुबोधन/प्रत्यक्षण ( perception ) के लिए उपलब्ध नहीं होते हैं। इस तरह अपकर्षण, यथार्थता को अधिक गहराई से, अधिक सत्यता से और अधिक पूर्णता से परावर्तित करते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

शनिवार, 7 मार्च 2015

संज्ञान की प्रक्रिया में संवेदनों की भूमिका - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की प्रक्रिया में संवेदनों की भूमिका पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान की प्रक्रिया में संवेदनों की भूमिका - २
( the role of sensations in knowing - 2 )

दूसरा महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि संवेदनों ( sensations ) का स्वरूप केवल चाक्षुष उपकरण ( visual apparatus ) के, यानी आंख के संगठन पर और केवल वस्तु की विशेषताओं पर ही निर्भर नहीं होता, बल्कि उनकी अंतर्क्रिया ( interaction ) पर भी होता है, जो स्वयं भौतिक क्रियाकलाप द्वारा संपन्न होती है। इस अंतर्क्रिया के बिना वस्तु का समुचित या सटीक बिंब क़तई नहीं बनता। दृष्टि पटल ( retina ) पर एक ऊंची इमारत का बिंब चंद मिलीमीटर का होता है, जबकि हमारा मस्तिष्क इस ऊंची इमारत के दृष्टि बिंब की रचना करते समय उसे अपने आप तथा अचेतन रूप से अन्य वस्तुओं के साथ सहसंबंधित कर लेता है, और हम उसके आयामों ( dimensions ) का सही-सही अनुमान लगा लेते हैं।

मस्तिष्क की यह क्षमता अंतर्जात ( inborn ) नहीं होती। नवजात शिशु में यह क्षमता नहीं होती, यह व्यक्तिगत प्रयोगों तथा सामाजिक व्यवहार के द्वारा दीर्घकालिक अमली प्रशिक्षण ( practical training ) के दौरान विकसित होती है।

एक और उदाहरण प्रस्तुत है। अंधेरे कमरे में बैठे किसी व्यक्ति को किसी भी प्रकार की चेतावनी दिये बिना एक उलटी-पुल्टी फ़िल्म की सहायता से जलती हुई बत्ती दिखलाई जाती है। बत्ती की लपट तथा उससे निकलनेवाला धुआं नीचे की तरफ़ जा रहे हैं, लेकिन उस व्यक्ति का मस्तिष्क, जिसमें आवश्यक सूचना पहले के अनुभवों से ही भंडारित ( stored ) होती है, फ़िल्म दिखानेवाले की ‘ग़लती’ को अपने आप ‘सही कर लेता’ है और ऊपर को उठती हुई एक आम लपटवाली सामान्य बत्ती की तस्वीर देखता है।

ऊंची मीनारों, आदि पर काम करनेवालों तथा पहली बार ऊंची जगह पर पहुंचाये गये लोगों की ज़मीनी सतह पर पड़ी वस्तुओं के आयामों का निर्धारण करने की क्षमता भिन्न-भिन्न होती है। जंगलों के निवासी तथा खुले मैदानों के रहनेवाले लोग देशिक दूरियों ( spatial distances ) का अनुबोध ( perceive ) भिन्न-भिन्न ढंग से करते हैं। यह क्षमता दृष्टि अंग की बनावट पर निर्भर नहीं होती, बल्कि व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार पर तथा प्रत्यक्षण ( perception ) की उस क्षमता तथा संस्कृति पर निर्भर होती है, जिसे उन्होंने शिक्षा तथा अपने जीवन के दौरान आत्मसात ( assimilated ) किया है

संज्ञान में संवेदनों की भूमिका के बारे में अब क्या कहा जा सकता है? संवेदन एक आत्मगत बिंब ( subjective image ) है, जो वस्तुगत जगत ( objective world ) को परावर्तित ( reflect ) करता है। यह एक सरल दर्पण सा बिंब नहीं है, जैसा कि अनुभववादी ( empiricist ) समझते हैं, बल्कि परावर्तन की एक ऐसी अतिजटिल प्रक्रिया है, जिसमें अनेक गुणात्मक रूपांतरण ( qualitative transformations ) तथा द्वंद्वात्मक निषेध ( dialectical negations ) शामिल होते हैं। संवेदनों से हमें परावर्तित वस्तुओं के बारे में प्रारंभिक सूचना प्राप्त होती है। किंतु यह सूचना केवल वस्तुओं की विशेषताओं तथा हमारे तंत्रिकातंत्र पर ही निर्भर नहीं होती। संवेदनों को ढालने में हमारे अनुभव, सामाजिक व्यवहार और ऐतिहासिक विकास का सामान्यीकरण करनेवाली इतिहासतः रचित हमारी सारी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

संज्ञान की प्रक्रिया में संवेदनों की भूमिका को समझने के लिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ( dialectical materialism ) की इस स्थापना ( thesis ) का बुनियादी महत्त्व है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
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