शुक्रवार, 25 जून 2010

मनोविज्ञान संबंधी धारणाएं - इतिहास के झरोखे से - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में दिये जाने की योजना है। पिछली बार यहां मन के संदर्भ में पैदा हुई धारणाओं के विकास का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण का पहला हिस्सा प्रस्तुत किया गया था। इस बार उसी कड़ी को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
०००००००००००००००००००००००००००

( यह देखना दिलचस्प ही नहीं वरन आवश्यक भी होगा कि मानसिक परिघटनाओं के सार तथा स्वरूप से संबंधित धारणाएं समय के साथ कैसे बदलती गईं है, परिष्कृत होती गई हैं। इनको ऐतिहासिकता और क्रम-विकास के रूप में देखना हमें विश्लेषण और चुनाव में परिपक्व बनाता है, और प्रदत्त परिप्रेक्ष्यों में हम ख़ुद अपना एक दॄष्टिकोण निश्चित करने में सक्षम बनते हैं। इतिहास के अवलोकन से हम अपनी धारणाओं को तदअनुसार जांच सकते हैं, उन्हें समय के सापेक्ष देख सकते हैं, और उन्हें आगे के विकास के बरअक्स रखकर बदलने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। चलिए इन्हीं निहितार्थ हम मनोविज्ञान संबंधी धारणाओं पर एक संक्षिप्त ऐतिहासिक अवलोकन करते हैं। )


मनोविज्ञान संबंधी धारणाएं - इतिहास के झरोखे से
( दूसरा हिस्सा, पहला यहां देखें )

पिछली बार हमने बात यहां छोड़ी थी कि आनुभविक ज्ञान से संबंध न रह जाने के कारण मनोविज्ञान का विकास अवरुद्ध हो गया था और उसके पुनः शुरू होने के लिए नई सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियां जरूरी थी। आगे बढ़ते हैं कि फिर काफ़ी लंबे अंतराल के बाद उत्पादक शक्तियों और सामाजिक संबंधों के विकास ने ये परिस्थितियां मुहैया की। पहले नीदरलैंड और फिर ग्रेट ब्रिटेन में शुरू हुए भारी उलटफेरों ने, समाज की आवश्यकताओं ने, सोचने के तरीके को बुनियादी तौर पर बदल डाला, जिसके लिए अब प्रकृति और मनुष्य का आनुवभिक अध्ययन एवं यंत्रवादी व्याख्या निदेशनकारी सिद्धांत बन गये।

१७वीं शताब्दी में जीववैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक ज्ञान के विकास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। शरीर और आत्मा, दोनों से संबंधित अवधारणाओं में बुनियादी परिवर्तन आया। शरीर की एक मशीन के रूप में कल्पना की गई जिसके की संचालन के लिए किसी आत्मा की आवश्यकता नहीं होती। देकार्त ( १५९६-१६५० ) द्वारा की गई व्यवहार के परावर्ती स्वरूप की खोज से इस विचार को बड़ा बल मिला। इस महान फ़्रांसीसी विचारक का कहना था कि, जैसे ह्र्द्‍पेशी का नियंत्रण रक्त-संचार के आंतरिक तंत्र द्वारा होता है, वैसे ही व्यवहार के सभी स्तरों पर अन्य सभी पेशियों का परिचालन उनके अपने क्रियांतंत्र द्वारा होता है और वे घड़ी की सूइयों की भांति गतिशील रहती हैं। इस प्रकार प्रतिवर्त ( अवयवी की बाह्य उद्दीपन से संबंधित नियमित प्रतिक्रिया ) की संकल्पना उत्पन्न हुई। देकार्त का कहना था कि तंत्रिका प्रणाली के विशिष्ट संगठन के कारण पेशियां बाह्य क्षोभकों के मामलों में स्वतः, आत्मा के हस्तक्षेप के बिना, प्रतिक्रिया करने में समर्थ हैं। किंतु अपनी परावर्तनमूलक पद्धति को वह सारी ही मानसिक सक्रियता पर लागू न कर सके, अतः उनके सिद्धांत में प्रतिवर्त के साथ-साथ शरीर से स्वतंत्र एक पृथक सत्व के रूप में आत्मा को भी स्वीकार कर लिया गया था।




१७वीं शती के अन्य महान विचारकों ने देकार्त के द्वैतवाद को अमान्य ठहराया, कुछ ने भौतिकवादी ( materialistic ) दृष्टिकोण से और कुछ ने प्रत्ययवादी ( idealistic ) दृष्टिकोण से। हॉब्स ( १५८८-१६७९ ) ने आत्मा के अस्तित्व को पूरी तरह ठुकराते हुए यांत्रिक गति को एकमात्र वास्तविकता घोषित किया, जिसके नियम मनोविज्ञान के भी नियम बन गये। इतिहास में पहली बार मनोविज्ञान को आत्मा के विज्ञान की बजाए केवल उन मानसिक परिघटनाओं का विज्ञान माना गया, जो शारीरिक प्रक्रियाओं की छायाओं के रूप में पैदा होती हैं। किंतु यहां मन की वास्तविकता को बिल्कुल नकारकर तथा उसे आभासी मात्र बताकर छुटकारा पाया गया था। हाब्स की भांति ही स्पिनोज़ा ( १६३२-१६७७) भी ( और प्रतिवर्त सिद्धांत के देकार्त की भांति भी ) वैज्ञानिक मनोविज्ञान के एक बुनियादी सिद्धांत, नियतत्ववाद ( determinism ) के समर्थक के तौर पर सामने आते हैं, जिसके अनुसार सभी परिघटनाएं भौतिक कारणों एवं नियमों की क्रिया का फल होती हैं।


यांत्रिकी, प्रकाशिकी और ज्यामिति की उपलब्धियों ने मनोवैज्ञानिक चिंतन को प्रबल प्रेरणा दी। गणित का और विशेषतः समाकलन व अवकलन गणित का लाइबनिट्‍ज़ ( १६४६-१७१६ ) के विचारों पर ज़बर्दस्त प्रभाव पड़ा। उन्होंने इतिहास में पहली बार अचेतन मन की संकल्पना प्रस्तुत की। उनके मतानुसार मानसिक परिघटनाओं की बहुलता एक समाकल है, न कि एक गणितीय राशि। प्रत्ययवादी होने के कारण लाइबनिट्‍ज़ मानते थे कि विश्व असंख्य आत्माओं अथवा मोनेडों ( अविभाज्य अणुओं ) से बना है। किंतु उन्होंने मनोविज्ञान को बहुत से नये विचारों और संकल्पनाओं से समृद्ध किया, जिनमें सबसे मुख्य और सबसे महत्वपूर्ण मन की सक्रिय प्रकृति एवं अनवरत विकास का विचार और चेतन एवं अचेतन के बीच जटिल संबंध होने का विचार हैं
 

१७वीं शती के विज्ञान और जीवन में तर्कबुद्धिवाद का बोलबाला था, जो तर्कबुद्धि को वास्तविक ज्ञान का एकमात्र उपकरण घोषित करता है। १८वीं शती में विकसित देशों में आए गहन आर्थिक परिवर्तनों, औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक ज्ञान के व्यावहारिक अनुप्रयोग की बदौलत अनुभववाद और संवेदनवाद को प्रमुखता प्राप्त हुई, जो शुद्ध बुद्धि की तुलना में अनुभव और इंद्रियजन्य ज्ञान को अधिक महत्त्व देते हैं और किसी भी तरह के जन्मजात विचारों के अस्तित्व को नहीं मानते। इस सिद्धांत के सबसे अटल प्रतिपादक जॉन लॉक ( १६३२-१७०४ ) थे, जिन्हें आनुभविक मनोविज्ञान का जनक माना जाता है। समस्त ज्ञान का स्रोत अनुभव है, यह अवधारणा मनोविज्ञान के लिए बुनियादी महत्त्व की थी, क्योंकि वह ठोस मानसिक परिघटनाओं के अध्ययन पर, सामान्य परिघटनाओं से जटिल परिघटनाओं में संक्रमण के तरीकों के अध्ययन पर बल देती थी।

लॉक के अनुसार अनुभव के दो स्रोत हैं, इंद्रियों की क्रिया ( बाह्य अनुभव ) और अपने कार्य को प्रतिबिंबित करनेवाले मन की आंतरिक क्रिया ( आंतरिक अनुभव )। मनुष्य विचारों के साथ नहीं पैदा होता। जन्म के समय उसकी आत्मा कोरी तख्ती जैसी होती है, जिस पर अनुभव तरह-तरह के विचार लिखता है। अनुभव सामान्य और जटिल विचारों से बनता है, जिनका स्रोत संवेदन या अनुचिंतन ( आंतरिक प्रत्यक्ष ) होता है। अनुचिंतन के मामले में मन अपने में बंद रहता है और अपनी ही क्रियाओं के बारे में सोचता है। लॉक की अनुचिंतन की अवधारणा इस मान्यता पर आधारित थी कि मनुष्य का मनोवैज्ञानिक तथ्यों का संज्ञान बुनियादी तौर पर अंतर्निरीक्षणात्मक होता है, जो कि भौतिक तथ्यों के बारे में नहीं कहा जा सकता। इस तरह फिर द्वैतवाद का प्रतिपादन किया गया। इसमें चेतना और बाह्य जगत को इस आधार पर एक दूसरे के मुकाबले में रखा गया कि उनके संज्ञान के तरीके आपस में बिल्कुल भिन्न हैं।

अपने इसी द्वैतवादी स्वरूप के कारण लॉक के मत ने भौतिकवादी और प्रत्ययवादी, दोनों ही दृष्टिकोणों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। भौतिकवादियों ने, जिनमें प्रमुख हार्टले ( १७०५-१७५७ ), दिदेरो ( १७१३- १७८४ ) और रदीश्चेव ( १७४९-१८०२ ) थे, बाह्य अनुभव को आधार बना कर मनुष्य के आंतरिक सारतत्व को परिवेश से उसके संबंध का परिणाम बताया। इसके विपरीत प्रत्ययवादियों ने, जिनमें प्रमुख बर्कले थे, इस सारतत्व को प्राथमिक और किसी भी तरह के बाह्य प्रभाव से स्वतंत्र घोषित किया। लॉक के बाद इस मत ने गहरी जड़ें जमा लीं कि विचारों का साहचर्य ही मनोविज्ञान का मुख्य नियम है। यह साहचर्यवाद मनोवैज्ञानिक चिंतन में मुख्य प्रवृति बन गया और इस प्रवृत्ति के भीतर ही भौतिकवाद और प्रत्ययवाद के बीच संघर्ष, मन की संकल्पना को लेकर चला और दोनों ने ही मानसिक परिघटनाओं की प्रकृति की व्याख्या अपने-अपने ढ़ंग से की।
 

साहचर्यात्मक मनोविज्ञान को एक ऐसा सिद्धांत माना गया, जो तंत्रिका-तंत्र पर किसी निश्चित ढ़ंग से प्रभाव डालकर पूर्वनिर्धारित गुणों से युक्त मनुष्यों के निर्माण और उनके व्यवहार के नियंत्रण की संभावना दर्शाता था। इस सिद्धांत के समर्थकों का मत था कि स्वयं तंत्रिका-तंत्र में किसी प्रकार की प्रवृत्तियां और जन्मजात गुण नहीं होते। इस दृष्टिकोण के विरोध में १८वीं शती के मनोवैज्ञानिक चिंतन में योग्यताओं का मनोविज्ञान नामक धारा उत्पन्न हुई। इसके मुख्य प्रतिनिधि क्रिश्चियन वोल्फ़ और टॉमस रीड थे। इनका दावा था कि आत्मा में आरंभ से ही कुछ निश्चित आंतरिक शक्तियां होती हैं, जिनमें मुख्य संज्ञान और इच्छा का रूप लेनेवाली कल्पना करने की योग्यता है। उन्हें आद्य और स्वतः उद्‍भूत माना जाता था। इस तरह योग्यता एक ऐसी मिथ्या अवधारणा के रूप में उभरती थी, जो वस्तुतः वैज्ञानिक व्याख्या का स्थान लेती थी

१८वीं शती में ही तंत्रिका-तंत्र के अध्ययन के क्षेत्र में महती सफ़लताएं पायी गईं, उनसे यह धारणा बनी कि मन की कल्पना यांत्रिक गति कि नमूने पर नहीं, अपितु अवयवी की अन्य जीवनीय क्रियाओं के नमूने पर की जानी चाहिए। नतीजे के तौर पर मन के मस्तिष्क की क्रिया होने का सिद्धांत पैदा हुआ। उसके प्रतिपादकों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि चिंतन की प्रक्रिया का समारंभ बाहर से आने आनेवाले प्रभावों के साथ होता है, और अंत विचार को शब्द अथवा अंगक्रिया के रूप में व्यक्त करने के साथ होता है


१९वीं शती के पूर्वार्ध में यह सर्वमान्य धारणा बन गई कि शरीर दो प्रकार की गतियां करता है, ऐच्छिक ( सचेतन ) और अनैच्छिक ( अचेतन, परावर्ती )। शरीरक्रियाविज्ञान के विकास से इस मत को और बल मिला। चार्ल्स बेल और फ़्रांसुआ मजांदी  द्वारा की गई खोजों ने प्रतिवर्त को एक दार्शनिक प्राक्कल्पना से प्रयोगसिद्ध तथ्य में परिवर्तित कर दिया। किंतु प्रतिवर्त चाप के क्रियातंत्र से प्रेरक अनुक्रियाओं के केवल सरलतम रूपों की ही व्याख्या की जा सकती थी। बहुसंख्य तथ्य इसमें संदेह पैदा करते थे कि व्यवहार से संबंधित सब कुछ प्रतिवर्त की संकल्पना के जरिए समझाया जा सकता है। किंतु, दूसरी ओर, इस संकल्पना में यह मूल्यवान विचार निहित था कि अवयवी की क्रियाशीलता उसके भौतिक शरीर पर भौतिक प्रभावों से निर्धारित होती है। इस विचार को अनदेखा करने का अर्थ था कि उसी पुरानी धारणा पर लौटना कि आत्मा शरीर की गतिप्रेरक है। विज्ञान में एक पेचीदी स्थिति पैदा हो गई, एक ओर केवल प्रतिवर्त की संकल्पना से जीवधारियों की क्रियाशीलता का कारण समझाया जा सकता था और, दूसरी ओर, इस क्रियाशीलता का प्रेक्षण दिखाता था कि उसे तंत्रिकाओं के सामान्य यांत्रिक संबंध का उत्पाद नहीं माना जा सकता।

इस अंधगली से निकास १९वीं शती के उत्तरार्ध में सेचेनोव ( १८२९ -१९०५ ) द्वारा सुझाया गया। उन्होंने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि सचेतन और अचेतन जीवन की सभी क्रियाएं अपने मूल की दृष्टि से प्रतिवर्त हैं, परंतु मानसिक क्रियाएं एक अविभाज्य परावर्ती क्रिया के रूप में आगे बढ़ती हैं, और किसी कार्यमूलक परिणाम का कारक बनती हैं। उन्होंने मन के परावर्ती स्वरूप और मनुष्य के क्रियाकलाप के मन द्वारा नियमन का विचार प्रतिपादित किया, बाद में पाव्लोव ( १८४९-१९३६ ) ने इस महती सैद्धांतिक प्रस्थापना की प्रयोगों द्वारा पुष्टि की।

( चित्र क्रम से: १-देकार्त, २-हॉब्स, ३-लाईबनिट्ज़, ४-लॉक, ५-दिदेरो, ६-वोल्फ़, ७-चार्ल्स बेल, ८-सेचेनोव, ९- पाव्लोव )
००००००००००००००००००००००००००००००००

हम अगली बार मन के परावर्ती स्वरूप पर थोड़ा विचार करेंगे।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

इस बार इतना ही।

समय

शुक्रवार, 18 जून 2010

मनोविज्ञान संबंधी धारणाएं - इतिहास के झरोखे से - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में दिये जाने की योजना है। पिछली बार यहां मनोविज्ञान और उसके कार्यक्षेत्रों के संबंध में चर्चा की गई थी। इस बार हम यहां मन के संदर्भ में पैदा हुई धारणाओं के विकास का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करेंगे और देखेंगे मानवजाति इस विषय में कैसे समृद्ध होती गई है।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
०००००००००००००००००००००००००००

( यह देखना दिलचस्प ही नहीं वरन आवश्यक भी होगा कि मानसिक परिघटनाओं के सार तथा स्वरूप से संबंधित धारणाएं समय के साथ कैसे बदलती गईं है, परिष्कृत होती गई हैं। इनको ऐतिहासिकता और क्रम-विकास के रूप में देखना हमें विश्लेषण और चुनाव में परिपक्व बनाता है, और प्रदत्त परिप्रेक्ष्यों में हम ख़ुद अपना एक दॄष्टिकोण निश्चित करने में सक्षम बनते हैं। इतिहास के अवलोकन से हम अपनी धारणाओं को तदअनुसार जांच सकते हैं, उन्हें समय के सापेक्ष देख सकते हैं, और उन्हें आगे के विकास के बरअक्स रखकर बदलने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। चलिए इन्हीं निहितार्थ हम मनोविज्ञान संबंधी धारणाओं पर एक संक्षिप्त ऐतिहासिक अवलोकन करते हैं  )

मनोविज्ञान संबंधी धारणाएं - इतिहास के झरोखे से
प्राचीन काल से ही सामाजिक जीवन की वास्तविकताएं मनुष्य के लिए अपने आसपास के लोगों की मानसिक विशेषताओं के बीच भेद करना और अपने कार्यों में उन्हें ध्यान में रखना आवश्यक बनाती आई हैं। आरंभ में इन विशेषताओं को आत्मा से जोड़ कर देखा जाता था। ‘आत्मा’ की अवधारणा आदिम लोगों के जीववादी विश्वासों की उपज थी। आदिम मनुष्य आत्मा और शरीर में स्पष्ट भेद नहीं कर पाता था। आगे चलकर समाज के विकास के साथ मनु्ष्य में अमूर्त चिंतन का विकास हुआ, और आत्मा की अभौतिक प्रकृति का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने पहले से विद्यमान धारणाओं को अपना प्रस्थानबिंदु बनाया और नई वैचारिक अपेक्षाओं के अनुरूप उनकी पुनर्व्याख्याएं की।

भारत में इस नई प्रवृत्ति की एक ज्वलंत मिसाल दूसरी सहस्त्राब्दी ईसापूर्व में रची गयी वैदिक संहिताएं और उनके कुछ समय बाद ( १००० ईसापूर्व के आसपास ) रची गयी दार्शनिक कृतियां उपनिषदें हैं। आत्मा के प्रश्न का विवेचन मुख्यतः नैतिक दृष्टिकोण से सम्यक् व्यवहार, आत्मोन्नति और परमानंद-प्राप्ति के संदर्भ में किया गया। योग दर्शन के अनुसार स्वतंत्र आत्मा भौतिक शरीर और तथाकथित सूक्ष्म शरीर ( इंद्रियां, मन, आनुभविक ‘अहं’ और बुद्धि ) से जुडी़ हुई है। इसके साथ ही पूर्ववर्ति जीववादी, पौराणिक धारणाओं के स्थान पर आत्मा को प्रकॄति-दर्शन के दृष्टिकोण से परिभाषित करने लगे।
 आयोनिया के दार्शनिकों थेलीज़ ( सातवीं-छठी शताब्दी ईसा पूर्व ), अनेक्सिमेनीज़ और हीरेक्लाइटस ( पांचवी-छठी शताब्दी ईसा पूर्व) ने मनुष्यों और प्राणियों की आत्मा को उस आदितत्व ( जल, वायु, अग्नि ) का जीवनदायी रूप कहा, जिससे विश्व की सभी चीज़ें बनी हैं। इस विचार को सुसंगत ढ़ंग से लागू करते हुए वे पदार्थ ( भूत ) की सार्विक प्राणवत्ता के सिद्धांत भूतजीववाद पर पहुंचे, जो भौतिकवाद का एक विशिष्ट रूप था। इसी परंपरा को आगे जारी रखते हुए प्राचीन अणुवादी डेमोक्राइटस ( पांचवीं-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व ), एपीक्यूरस ( चौथी-तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ) और ल्यूक्रेटियस ( पहली शताब्दी ईसा पूर्व ) ने आत्मा की व्याख्या शरीर में प्राण का संचार करने वाले एक भौतिक अंग के रूप में की, जिसका नियंत्रण चित् अथवा बुद्धि करती है। चूंकि चित् और आत्मा, दोनों ही शरीर के अंग हैं, तो वे स्वयं भी देहयुक्त हैं और गोल, सूक्ष्म गतिशील अणुओं से बने हुए हैं। काफ़ी बचकाना होने पर भी यह सिद्धांत अपने इस दावे के कारण एक प्रगतिशील सिद्धांत था कि जीवधारियों के सभी गुण, निम्नतम शारीरिक प्रकार्यों से लेकर मन तक, बुद्धि तक, स्वयं पदार्थ के ही गुण हैं

इस प्रकार मानसिक क्रियाकलाप के वैज्ञानिक संज्ञान के क्षेत्र में उठाये गये पहले बड़े कदम इनके भौतिक विश्व के नियमों के अधीन होने की मान्यता और जीवधारी की शरीररचना तथा शरीरक्रिया पर निर्भर होने की खोज से अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे। किंतु उस युग तक की उपलब्ध जानकारी इस गुत्थी को नहीं सुलझा सकती थी कि मनुष्य की अंतर्जात अमूर्त तार्किक चिंतन क्षमता, उसके नैतिक गुणों, उसकी चुनाव करने की क्षमता, शरीर को अपनी इच्छा के अधीन बनाने की क्षमता के स्रोत क्या हैं?

मानव व्यवहार की इन विशेषताओं को अणुओं की गति, ‘रसों ’ के सम्मिश्रण अथवा मस्तिष्क की दृश्य संरचना से व्युत्पन्न नहीं बताया जा सकता था। अतः समुचित जानकारी के अभाव ने मानस के बारे में दासप्रथात्मक समाज के विचारपोषक दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित प्रत्ययवादी ( idealistic ) विचारों के विकास के लिए आधार तैयार किया। इनमें सर्वप्रमुख प्लेटो ( ४२८-३४७ ईसापूर्व ) मनोविज्ञान के क्षेत्र में द्वैतवाद के प्रवर्तक थे। उन्होंने प्रतिपादित किया कि भौतिक और आत्मिक, शरीर और मन दो स्वतंत्र और परस्पर-विरोधी मूलतत्व हैं। किंतु उनके शिष्य अरस्तु ( ३८४-३२२ ईसापूर्व ) ने इस द्वैतवाद को काफ़ी हद तक त्याग दिया और मनोवैज्ञानिक चिंतन को पुनः प्रकृतिवैज्ञानिक आधार, जीवविज्ञान तथा आयुर्विज्ञान का आधार प्रदान किया। अरस्तु की रचना ‘आत्मा के बारे में’ दिखाती है कि मनोविज्ञान तब तक एक स्वतंत्र विज्ञान-शाखा का दर्जा हासिल कर चुका था, और उसकी उपल्ब्धियां मनुष्यों और पशुओं में जीवन की ठोस अभिव्यक्तियों के प्रेक्षण, वर्णन तथा विश्लेषण पर आधारित थीं। अरस्तु मानसिक क्रियाकलाप के अध्ययन की प्रयोगात्मक, वस्तुमूलक प्रणाली के पक्षधर थे।
जहां पहले यह माना जाता था कि शरीर और आत्मा का एक दूसरे से स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है, वहीं इतिहास में अरस्तु पहले विचारक थे, जिन्होंने आत्मा और जीवित शरीर की अविभाज्यता का विचार प्रतिपादित किया। उन्होंने यह विचार भी दिया कि संज्ञान-क्षमता की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति संवेदन हैं, उन्होंने इसे वस्तुओं के रूप को उनके पदार्थ के बिना ग्रहण करने की क्षमता बताया। संवेदन धारणाओं के रूप में अपनी छाप छोड़ जाते हैं। अरस्तु ने दिखाया कि धारणाएं, ज्ञानेन्द्रियों के कार्य का विषय बनी वस्तुओं की याद के बिंब के रूप में विद्यमान रह सकती हैं। उन्होंने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि स्वभाव अथवा चरित्र का निर्माण व्यावहारिक कार्यकलाप के दौरान ही होता है। मनुष्य सदाचारी और संयमी तभी बन सकता है, जब वह व्यवहार में सदाचार और संयम का नियमित पालन करे।

हीरेक्लाइटस, डेमोक्राइटस, प्लेटो और अरस्तु की शिक्षाओं ने मनोवैज्ञानिक चिंतन के आगामी विकास की नींव रखी। शनैः शनैः आत्मा की संकल्पना को, जिसे हम आज मानस अथवा मन कहते हैं, तक ही सीमित कर दिया गया। फिर जब मन की संकल्पना की भी और अधिक गहराई में पैठा गया, तो उससे चेतना की संकल्पना पैदा हुई। मनुष्य ने महसूस किया कि उसकी धारणाएं, प्रत्यक्ष और विचार ही नहीं हो सकते, बल्कि वह उनका जन्मदाता भी हो सकता है, कि स्वैच्छिक क्रियाएं करना ही नहीं, उनके लिए आधार पैदा करना भी उसकी सामर्थ्य के भीतर है।
तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में हेरोफ़ाइलस और एरासिस्ट्रेटस ने तंत्रिकाओं की खोज की और स्नायुओं तथा कंडराओं से उनका भेद दर्शाया। उन्होंने मानसिक क्रियाओं की प्रमस्तिष्क के क्षोभ पर निर्भरता का अध्ययन किया और पाया कि मन से सारा शरीर नहीं, अपितु उसके कुछ निश्चित अंग ( तंत्रिकाएं और प्रमस्तिष्क ) ही अभिन्नतः जुड़े हुए हैं। इस तरह सिद्ध हुआ कि जो आत्मा जीवन की किसी भी अभिव्यक्ति का मूलाधार मानी जाती है, और जो आत्मा तंत्रिकाओं से संबद्ध संवेदनों एवं गतियों का मूलाधार है, वे एक दूसरी से सर्वथा भिन्न चीज़ें हैं। दूसरी शताब्दी ईसापूर्व में रोमन चिकित्सक गालेन ने मानसिक परिघटना के शरीरक्रियात्मक आधार से संबंधित ज्ञान का विस्तार किया और चेतना की धारणा के निकट पहुंचे। परंतु फिर पहले प्लोटिनस ( तीसरी शताब्दी ईस्वी ) और फिर आगस्टिन ( चौथी-पांचवी शताब्दी ईस्वी ) ने चेतना की अवधारणा को फिर से शुद्धतः प्रत्ययवादी रूप दे दिया। उन्होंने कहा कि सारा ज्ञान आत्मा में अवस्थित होता है, जो अपने भीतर झांकने और अत्यंत स्पष्टता तथा प्रामाणिकता के साथ अपने क्रियाकलाप एवं उसके अदृश्य फलों का संज्ञान करने की क्षमता रखती है। आत्मा का यह आत्मज्ञान ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभव से सर्वथा भिन्न आंतरिक अनुभव है।

समाज पर छायी हुई धार्मिक विचारधारा ने यथार्थ विश्व के ज्ञान के प्रति द्वेषपूर्ण रवैये को जन्म  दिया और आत्मध्यान तथा ईश्वर से पुनर्मिलन की आवश्यकता पर जोर दिया। आनुभविक ज्ञान से संबंध न रह जाने के कारण मनोविज्ञान का विकास अवरुद्ध हो गया। उसके पुनः शुरू होने के लिए नई सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियां जरूरी थी।
००००००००००००००००००००००००००००००००

इसके बाद के नये अवतरण को अगली बार प्रस्तुत करेंगे।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

इस बार इतना ही।

समय

शनिवार, 12 जून 2010

मनोविज्ञान और इसकी विषय-वस्तु

हे मानवश्रेष्ठों,

अब फिर से कुछ गंभीर हुआ जाए, हालांकि आप निश्चित ही गंभीर अध्येता हैं इसमें कोई दोराय नहीं है। इस बार से यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में दिये जाने की योजना है। चेतना की उत्पत्ति वाली श्रृंखला में मन, मस्तिष्क तथा मनुष्य और पशु  पर कुछ संक्षिप्त चर्चाएं यहां हो चुकी हैं। कभी संक्षिप्तिकरण करते हुए, कभी विस्तार देते हुए हम यहां, मनुष्य की गहन दिलचस्पी के इस विषय पर मानवजाति के अद्युनातन ज्ञान को, उसकी ऐतिहासिकता के साथ जानने और समझने का प्रयत्न करेंगे।

इस बार यहां खु़द मनोविज्ञान और उसके कार्यक्षेत्रों के संबंध में चर्चा की जा रही है। अगली बार यहां इसके विकास का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया जाएगा, और श्रृंखला चल निकलेगी।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
०००००००००००००००००००००००००००

मनोविज्ञान जिन परिघटनाओं का अध्ययन करता है, उनके विशिष्ट लक्षणों को परिभाषित करना थोड़ा कठिन होता है क्योंकि इन परिघटनाओं की व्याख्या काफ़ी हद तक अनुसंधान में लगे व्यक्तियों के विश्व-दृष्टिकोण पर, नज़रिए पर निर्भर करती है।

सर्वप्रथम कठिनाई यह है कि मनोविज्ञान जिन परिघटनाओं की जांच करता है, वे मानव-मस्तिष्क द्वारा बहुत पहले ही विशेष परिघटनाओं के रूप में पहचानी और जीवन की अन्य अभिव्यक्तियों से अलग की जा चुकी हैं। वास्तव में बिल्कुल स्पष्ट है कि कंप्यूटर का हमारा बोध अथवा प्रत्यक्ष एक ऐसी चीज़ है, जो बहुत ही विशिष्ट है और हमारे सामने मेज़ पर रखी वास्तविक वस्तु से भिन्न है। हम बाहर खाने के लिए जाना चाहते हैं, किंतु हमारी यह इच्छा खाने के लिए वस्तुतः बाहर जाने से भिन्न चीज़ है। नये साल की पार्टी की हमारी याद और नये साल की वास्तविक पार्टी, दोनों एक ही चीज़ नहीं हैं।

इस तरह लोगों ने धीरे-धीरे उनके बीच भेद करना सीखा, जिन्हें हम मानसिक परिघटनाएं ( मानसिक कार्य, गुण, प्रक्रियाएं, अवस्थाएं, आदि ) कहते हैं। लोगों की नज़रों में उनकी विशिष्टता यह थी कि वे मनुष्य के बाह्य परिवेश की बजाए अंतर्जगत से संबंध रखती हैं। उन्हें वास्तविक घटनाओं और तथ्यों से भिन्न मानसिक जीवन का अंग माना गया और ‘प्रत्यक्षों’, ‘स्मृति’, ‘चिंतन’, ‘इच्छा’, ‘संवेगों’, आदि के रूप में वर्गीकृत किया गया। ये सभी मिलकर ही मन, मानस, मनुष्य का अंतर्जगत, आदि कहे जाते हैं।

दूसरों से रोज़मर्रा के संपर्क में लोगों का प्रत्यक्ष वास्ता उनके विभिन्न व्यवहार रूपों ( कार्यों, चेष्टाओं, श्रम-संक्रियाओं, आदि ) से ही पड़ता है। किंतु व्यवहारिक अन्योन्यक्रियाओं की आवश्यकताएं यह तक़ाज़ा करती हैं कि लोग, बाह्य आचरण के पीछे छिपी मानसिक प्रक्रियाओं को भी पहचानें। परिणामस्वरूप मनुष्य के हर कार्य के पीछे उसके इरादों अथवा जिन कारणों से प्रेरित होकर उसने दत्त कार्य किया था, उनके संदर्भों में देखा जाने लगा और विभिन्न घटनाओं के संबंध में उसकी प्रतिक्रिया को उसके स्वभाव तथा चरित्र की विशेषताओं का परिचायक माना गया। इस प्रकार लोगों ने मानसिक प्रक्रियाओं, गुणों तथा अवस्थाओं के वैज्ञानिक विश्लेषण का विषय बनने से बहुत पहले ही, एक दूसरे के बारे में व्यावहारिक मनोवैज्ञानिक ज्ञान संचित कर लिया।

उसे कई कहावतों और लोकोक्तियों में अभिव्यक्ति दी गई और लोगों के बीच अक्सर यह सुना जा सकता है कि ‘एक बार देखना सौ बार सुनने से बेहतर है’ या ‘ आदतें आदमी का दूसरा स्वभाव होती हैं’, वगैरह। मनुष्य का ज़िंदगी द्वारा सिखाया गया ज्ञान भी मानस के बारे में जानने में उसकी काफ़ी हद तक मदद करता है। उदाहरण के लिए, अनुभव से उसे मालूम होता है कि कोई पाठ यदि बार-बार पढ़ा जाए, दोहराया जाए, तो वह बेहतर याद हो जाता है।

व्यक्तिगत और सामाजिक अनुभव से प्राप्त मनोवैज्ञानिक सूचना को प्राक्-वैज्ञानिक मनोवैज्ञनिक ज्ञान कहा जाता है। उसका दायरा काफ़ी अधिक व्यापक हो सकता है और वह कुछ हद तक आसपास के लोगों के व्यवहार को समझने और निश्चित सीमाओं के भीतर यथार्थ का सही प्रतिबिंब पाने में सहायक हो सकता है। किंतु कुल मिलाकर यह ज्ञान क्रमबद्ध, गहन तथा निश्चयात्मक नहीं होता और इसीलिए वह लोगों के साथ ऐसे किसी शैक्षिक, चिकित्सीय, संगठनात्मक तथा अन्य मानवीय कार्यकलाप के लिए ठोस आधार नहीं बन सकता है, जिसके लिए मानव मस्तिष्क के वैज्ञानिक, अर्थात वस्तुपरक एवं प्रामाणिक ज्ञान की आवश्यकता होती है, यानि ऐसा ज्ञान कि जो किन्हीं प्रत्याशित परिस्थितियों में व्यक्ति के व्यवहार का पूर्वानुमान करने की संभावना देता है

तो मनोविज्ञान में वैज्ञानिक अध्ययन की विषय-वस्तु क्या है? सर्वप्रथम, मनुष्य के मानसिक जीवन के ठोस तथ्य, जिनके गुणात्मक और परिमाणात्मक, दोनों ही पहलुओं का वर्णन किया जा सकता है। किंतु वैज्ञानिक मनोविज्ञान अपने को किसी मनोवैज्ञानिक तथ्य का, चाहे वह कितना भी दिलचस्प क्यों ना हो, वर्णन करने तक ही सीमित नहीं रख सकता। वैज्ञानिक संज्ञान के लिए परिघटना के वर्णन से आगे जाकर उसकी व्याख्या करने, अर्थात उस परिघटना के मूल में जो नियम कार्य कर रहे हैं, उन्हें उद्‍घाटित करने की भी जरूरत होती है। इसलिए मनोविज्ञान में अध्ययन का विषय मनोवैज्ञानिक तथ्य ही नहीं, मनोवैज्ञानिक नियम भी होते हैं।

नियम अपने को जिन विशिष्ट क्रियातंत्रों के माध्यम से व्यक्त करते हैं, उन क्रियातंत्रों के बारे में जानने के लिए नियमों का ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। इसलिए मनोविज्ञान का कार्य मनोवैज्ञानिक तथ्यों एवं नियमों की खोजबीन के अलावा मानसिक कार्यकलाप के क्रियातंत्रों का अध्ययन करना भी है। मानसिक क्रिया के तंत्र अनिवार्यतः किन्हीं निश्चित मानसिक प्रकार्यों को पैदा करने वाले शारीरिक-शरीरक्रियात्मक प्रणालियों से जुड़े होते हैं। इसलिए मनोविज्ञान इन क्रियातंत्रों की प्रकृति और कार्य का अध्ययन शरीरक्रियाविज्ञान, जीवभौतिकी, जीवरासायनिकी, साइबरनेटिकी, आदि अन्य विज्ञानों के साथ मिलकर करता है।

इस प्रकार एक विज्ञान के नाते मनोविज्ञान मानस ( मन, मस्तिष्क ) के तथ्यों, नियमों और क्रियातंत्रों का अध्ययन करता है।

०००००००००००००००००००००००००००

तो मानवश्रेष्ठों, मनोविज्ञान के जरिए हमारे मानस और इसके क्रियाकलापों का विश्लेषण और अध्ययन, हमारे जीवन में इनके संबंध में एक व्यापक और सार्विक वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करता है। यह हमें हमारे और दूसरों के मन को समझने, मानसिक संक्रियाओं को व्याख्यायित करने और इस प्रकार उन्हें व्यवस्थित और नियंत्रित करने में हमारी मदद करता है

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

इस बार इतना ही।

समय

शुक्रवार, 4 जून 2010

टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ ख़ुराक - ४

हे मानवश्रेष्ठों,
इस बार, पिछली कुछ बार की तरह ही समय  की कुछ टिप्पणियां पेश की जा रही हैं।
समय का उद्देश्य इन्हें यहां दस्तावेज़ीकृत करना है, और साथ ही उन मानवश्रेष्ठों तक इन्हें पंहुचाना है जो इनसे महरूम रहे हैं। आपके दिमाग़ को इनसे कुछ खुराक मिलने की संभावनाएं तो हैं ही।
००००००००००००००००००००००

पुराण, इतिहास और विज्ञान: क्या है सत्य?...प्रविष्टि पर ‘कल्किआन हिंदी’ पर एक टिप्पणी:
एक बहुत ही अच्छा आलेख जो कि कई मुद्दों को एक साथ छूता है और समझ को आंदोलित करता है।

गुप्त जी की इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि कल्पना हमेशा सत्य और सही होती है, तथा विज्ञान मिथक या गल्प कथाएं हमेशा वास्तविकता का यथार्थ परावर्तन करती हैं।

कल्पनाएं वास्तविकता की ज़मीन से ही पैदा होती हैं, उनका आधार वर्तमान ज्ञान और अनुभवों की श्रृंखलाओं से ही व्युत्पन्न होता है, परंतु वे जाहिरा तौर पर यथार्थ नहीं होती। वास्तविकताओ का आरोपण, अव्यवहारिक परिस्थितियों पर किया जाकर ऊल-जलूल कल्पनाएं की जा सकती हैं, की जाती रही हैं। जाहिर है, इन्हें यथार्थाधारित संभावित परिणामों की कल्पनाओं से अलग किया जाना आवश्यक होता है।

ऐसे ही विज्ञान गल्प कथाओं में भी देखा जा सकता है। वहां ऐसी कई कल्पनाओं का चित्रण मौजूद है, जिनमें कई का यथार्थ में उतर आना अभी शेष है, और कई कतई संभव ही नहीं हो सकती।

ऐसा ही हमारे अमूल्य प्राचीन धरोहरों के साथ भी है। वैदिक और पौराणिक साहित्य, जैसा कि गुप्त जी ने कहा कि अपने समय की ही उपज हैं और उनसे तात्कालिक समाज की दशा-दिशा के ऐतिहासिक संदर्भ उदघाटित हो सकते हैं, होते हैं। इन पर काल संबंधी समस्या इसलिए पैदा होती हैं कि यह श्रुति परंपरा से गुजर कर आगे बढ़े हैं, और लगातार रचे जाने की प्रक्रिया से गुजरे हैं तथा बहुत बाद में जाकर कहीं लिपिबद्ध हो पाए हैं।

इनसे वास्तविकता का निरूपण बेहद सावधानी भरा कार्य होना चाहिए, क्योंकि इनके जरिए हम इतिहास रच रहे होते हैं, जिसके आधार पर कि वर्तमान का समुचित यथार्थ विश्लेषण संभव हो सकता है ताकि बेहतर भविष्य की नींव रखी जा सके।

कई ऐतिहासिक अध्ययन की धाराएं यह महती कार्य कर रही हैं।
०००००००००००००००००००००००००००००००

श्रीमद्‍भगवतगीता के साथ मेरे अनुभव...प्रविष्टि पर ‘अनवरत’ पर एक टिप्पणी:

‘गीता ने ऐसे बहुतेरे लोगों को आकृष्ट किया है जिनकी मनोवृत्ति एक-दूसरे से तथा अर्जुन से बिल्कुल भिन्न थी। गीता को भगवदवचन समझा जाता है और इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न अभिरुचि वालों ने ऐसे निराले ढ़ंग से की है कि लगता है, मूल वस्तु ही कुछ ऐसी है जो आंतरिक भेदों को मिटाने के बजाए, ज़्यादा शंकाएं औए खंड़ित व्यक्तित्व पैदा करती है।
वह नीति-दर्शन निश्चय ही अत्यंत संदिग्ध होता है जिसकी व्याख्या विभिन्न समाजों में विकसित हुए दिमागों ने इतने विभिन्न रूपों में की हो। उसकी मौलिक मान्यता क्या रह जाती है, अगर उसका अर्थ इतना लचीला है? फिर भी, यह पुस्तक ( गीता )कई मायनों में उपयोगी तो है ही।’

ये एक भारतीय मानवश्रेष्ठ के शुभवचन हैं। जो गीता की वस्तुगतता पर कई महत्वपूर्ण इशारे करते हैं। गीता एक ऐसा धर्मग्रंथ है जिससे मान्य ब्राह्मण कर्मकांडों का तिरस्कार किये बिना, किसी भी तरह की सामाजिक कार्रवाई के लिए प्रेरणा और औचित्य प्राप्त किया जा सकता है, यही कारण है जो इसकी प्रतिष्ठा को सर्वव्यापक बनाता है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समय, सभी तरह की विरोधी विचारधाराओं वाले कई महापुरूष इस एक ही किताब से यही प्रेरणा और औचित्य प्राप्त कर रहे थे।

इसमें तत्कालीन उपस्थित सभी तरह की दर्शन विचारधाराओं का संश्लेषण है, इसलिए यह विरोधाभासों से भरी हुई है। गीता की अपनी जो विलक्षण त्रुटी है, अर्थात असंगति में संगति की प्रतीति कराने का कौशल, वही उसकी उपयोगिता का हेतु भी है।

इसलिए अपनी आस्था का विषयी बनाकर, गीता से अपने किसी भी तरह के कर्म का औचित्य प्राप्त करने की अवसरवादिता सिद्ध करने का जरिया बनाने की बजाए, इसके समुचित विश्लेषण की गहराइयों मे उतरकर चीज़ों को जैसी वह हैं, समझने का जरिया बनाने की राह प्रशस्त करनी चाहिए। इसके नये भाष्य और व्याख्याओं की जरूरत है, ना कि इसके प्रचलित धार्मिक अवसरवादी आख्यानों की प्रस्तुति भर।

आपने इस आलेख में इस पर कुछ इशारे किए हैं। यदि आप वाकई में यदि गीता पर कुछ प्रस्तुत करने का मन बनाते हैं जैसी की यहां अपेक्षाएं की जा रही हैं, तो यह अपेक्षा भी की जा सकती है कि आप उपरोक्त जरूरतों की पूर्ति का भरसक प्रयत्न करेंगे।
००००००००००००००००००००००००००००००००००

नास्तिकता मेरी नज़र से...प्रविष्टि पर ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ पर एक टिप्पणी:

एक संतुलित और सारगर्भित आलेख।

नास्तिकता पर बहस को यह एक गंभीर दिशा दे ही रहा है, पर यह वह राह भी दिखा रहा है कि किस तरह का परिवेश बचपन को दिया जाना चाहिए।

संगीता जी से यह पूछने की हिमाकत कर रहा हूं, कि वे अंधविश्वासों में यकीन क्यों नहीं करती? इस प्रश्न से ईमानदार माथापच्ची शायद उन्हें अपनी चेतना के परिष्कार का कुछ अवसर उपलब्ध करवा सके।

मनुष्य का ज्ञान और समझ जितना विकसित होती जाती है, उसी स्तर के अनुरूप वह कम स्तर की चीज़ों का तार्किक विश्लेषण करने की हिमाकत करने लगता है, और परंपराओं से प्राप्त मान्यताओं को तौलने लगता है।

जाहिर है उनका अभी तक का ज्ञान और समझ जिस तरह से कई चीज़ों से उन्हें मुक्त कर पाया है। अगर उनका संधान यहीं नहीं रुकता तो वे और भी कई चीज़ों से मुक्त होने की असीम संभावनाएं रखती हैं। अपने अनुकूलन से संघर्ष वाकई एक मुश्किल कार्य है। इस हेतु उन्हें शुभकामनाएं।

संदेह से उत्पन्न नास्तिकता को सैद्धांतिकता का एक आधार चाहिए होता है, अगर वह नहीं मिलता तो पुराना अनुकूलन फिर से हावी हो सकता है। शायद वे समझना चाहें।
०००००००००००००००००००००००००००००००००
अगर धर्म एक अच्छे इंसान होने का...प्रविष्टि पर ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ पर एक टिप्पणी:

लिखे तो सटीक मित्र, पर इतना आक्रामक होने की जरूरत नहीं लगती। समझदारी को विनम्रता लानी ही चाहिए, या यूं कहें कि यह लाती ही है। भाषा-प्रयोग में सावधानी बरतना हमें सीखना ही चाहिए।

आखिर यह पारिस्थितिक संयोग ही है कि हम अपने चुनावहीन परिवेश की पैदाईश हैं और समझ तथा ज्ञान के तदअनुकूल स्तर से ही आगे की राह निकालने की जुंबिशों में रहते हैं। इसलिए सापेक्षतः पीछे लग रहे अपने मानव-बांधवों के प्रति हमारे मन में उनकी लाख उठापटकों के बावज़ूद सहानुभूति का भाव रखना ही श्रेष्ठ है, ना कि मखौल बनाने का।

आपने बहुत बढ़िया बात उठाई है। अगर इस पूरे प्रपंच को बारीकी से देखा-समझा जाए तो यह आसानी से पकड़ा जा सकता है कि मनुष्य के अच्छे और बेहतर होने की संभावनाएं सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्म से मुक्त होने से ही प्रशस्त हो सकती हैं। जहां उसके हर क्रियाकलाप की जिम्मेदारी ख़ुद लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता, कोई पापमुक्ति नहीं होती, कोई वैकल्पिक प्रायश्चित नहीं होता। जाहिरा तौर पर यह स्थिति नई जिम्मेदारियां लेकर आती है, और हमें इसके लिए स्वयं की समझ को निरंतर परिष्कृत करते रहना चाहिए।
००००००००००००००००००००००००००००००

कृत्रिम जीवन कोशिका की प्रयोगशाला में...प्रविष्टि पर ‘कल्किआन हिंदी’ पर तीन टिप्पणियां:

पहली:
आदरणीय श्याम गुप्त जी,
लगता है सबसे पहले हमें अपने भारतीय प्राच्य ज्ञान और वैदिक साहित्य का पेटेंट कराना चाहिए। हमारे यहां यह सब पहले से ही वर्णित है और पाश्चात्य शक्तियां जो आज सिर्फ़ संयोग या किसी दैवीय कृपा से विश्व की सिरमौर बनी हुई हैं, फालतू ही इनका श्रेय अपने नाम कर रही हैं।

क्या खूब बात कही है आपने, यह सिर्फ़ ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक भाग है। पता नहीं क्यों हमारा ईश्वर, उनके ईश्वर के आगे कमजोर पड़ जाता है। सही है, हमें अपने ईश्वर की सहायता के लिए आगे आना ही चाहिए।

हमें अपनी नैतिकता को सर्वोपरी रखना ही चाहिए और सदुपयोग-दुरूपयोगों पर ही अपनी उर्जा खपानी चाहिए। खोज-वोज जैसे बेकार के काम तो कुछ अवैदिक मूर्ख कर ही रहे हैं।

दूसरी:
आदरणीय,
मानवजाति की ऐतिहासिक-वैज्ञानिक समझ यह सिखाती है कि इतिहास के एक काल-विशेष के दौरान, तत्कालीन स्तर का ज्ञान, समझ और चिंतन ही ‘वर्णित’ हो सकता है, और वही ‘वर्णित’ ज्ञान ‘क्रियात्मक’ हो सकता है जो ज़िंदगी की ठोस वास्तविकता से निगमित होता है तथा इसी ठोस वास्तविकता को और बेहतर बनाने का वास्तविक माद्दा रखता है।

मनुष्यजाति इसी ठोस प्राच्य ज्ञान के क्रमिक विकास के फलस्वरूप ही आज की अवस्थाओं को प्राप्त हुई है। वास्तविक ज्ञान सिर्फ़ ज्ञान होता है और उसकी वास्तविकता ही उसे सार्वभौमिक बनाती है, एक वैश्विक सामान्य सहमति तक पहुंचाती है। इसे अपना-पराया, पूर्वी-पाश्चात्य के रूप में सीमित नहीं किया जा सकता। इन सीमाओं में सिर्फ़ काल्पनिकताओं, व्याख्याओं, आस्थाओं आदि को ही रखा जाना श्रेयष्कर हो सकता है।

वास्तविकता तो यह है कि हमारे इसी प्राच्य ज्ञान की भाववादी धारा ने हमारे यहां कल्पनाओं की उड़ान का वह एकतरफ़ा घटाघोप सुस्थापित किया कि तार्किकता, वास्तविकता, वैज्ञानिकता और स्वतंत्र सोच-समझ को समाज ने हमेशा के लिए स्थगित कर दिया। और कमोवेश यही स्थिति अभी तक जारी है। इसी कारण यहां वैज्ञानिक मेधाओं की पैदाईश और विकास के अवसर उपलब्ध ही नहीं है। हमारी और आपकी ऐसी लाखों सदइच्छाओं के बावज़ूद सच यही है। इन परिस्थितियों में आमूल-चूल परिवर्तन ही नई राहें खोल सकता है।

रुका हुआ पानी ही सड़ता है, बहती धाराएं अपना रास्ता खोज ही लेती है। समाज अपने क्रमविकास के दौरान बेहतर को संजोता, उसे और बेहतर करता तथा बेकार को त्याजता चलता है। यही ऐतिहासिक सच्चाई है, हम जैसे भी चाहे इसे देखने और व्याख्यायित करने के लिए स्वतंत्र होते ही हैं।

आपने संवाद के लायक समझ मान बढ़ाया। शुक्रगुजार हूं।
तीसरी:
आदरणीय,

आपने समय की इस पंक्ति, ‘मनुष्यजाति इसी ठोस प्राच्य ज्ञान के क्रमिक विकास के फलस्वरूप ही आज की अवस्थाओं को प्राप्त हुई है।’, का विस्तार किया, उसे समझाया। शुक्रगुजार हूं।

क्रमिक विकास के प्रति आपकी स्वीकरोक्ति से यह साफ़ होता है कि आप अच्छी तरह से समझते हैं, कि इस क्रम-विकास के बहुत ज़्यादा निचले पायदान वाला ज्ञान, ऊपर वाले पायदान से बेहतर और श्रेष्ठ नहीं हो सकता। आगे के ज्ञान का आधार तो खैर वह होता ही है।

मतलब आप यही कहना चाहते हैं, और जो आपकी बुद्धिमता का परिचायक है, कि प्राच्यज्ञान की ए बी सी ड़ी से अपने आपको गुजारते हुए, ज्ञान के क्रमिक विकास का अध्ययन करते हुए, मनुष्य को अद्युनातन ज्ञान की उंचाईयों को छूना चाहिए। यहां कोई मतभेद नहीं है, आप वाज़िब फरमा रहे हैं।

समस्या तो अतीत को, पुरातन को, प्राच्य को श्रेष्ठतम मानते और बताते हुए, उसी की ओर लौटने की प्रवृत्तियों की वज़ह से है। अगर अतीत में सबकुछ सर्वश्रेष्ठ संपन्न हो चुका, तो फिर कल्पनाओं में उड़ने की, नया रचने की आवश्यकता ही कहां रह जाती हैं। बात यही समझने की है।

हम कितना भी कह लें, कितना भी रोकना चाह लें, प्रगति हमेशा आगे की ओर ही होती है। फिर वही बात की हमारी लाख कोशिशों और सदइच्छाओं के बावज़ूद मनुष्य समाज उनको अपनाता रहेगा जो उसके विकास के मुफ़ीद रहेगा, उन्हें छोड़ता जाएगा जो उसकी प्रगति में बाधक बनेगा।

इतिहास का विकास क्रम अपने को दोहराता है, सही कहा आपने। परंतु यह फिर उसी अवस्था को जैसे का तैसा नहीं दोहराता है, उससे श्रेष्ठता के साथ यह दोहराव होता है। इसलिए यह चक्रीय गति में नहीं वरन, ऊपर की ओर जाती सर्पिलाकार वर्तुल गति में होता है, जैसे कि आप एक स्प्रिंग को खड़ा रख दें। जहां क्षैतिज धरातल पर विकास क्रम अपने को दोहराता प्रतीत होता है, दरअसल उर्ध्व धरातल पर वह उससे ऊपर की स्थिति में होता है।

वास्तविकता का यथार्थ और वस्तुगत ज्ञान बहते हुए पानी की तरह होता है, जिसे सभ्यताएं अपने साथ लिये चलती हैं। वहीं वास्तविकता का काल्पनिक और भ्रामक निरूपण, रुके हुए पानी की तरह होता है जो चेतनाओं में कहीं परंपराओं की वज़ह से अवस्थित रह जाए परंतु व्यवहारिक ज़िंदगी उसे छोड़ नई राह पकड़ लेती है। उस उक्ति का शायद यह मतलब होना चाहिए था।

आपने ज्ञान बढ़ाया, शुक्रगुजार हूं।
००००००००००००००००००००००००००००००००००००
मनुष्य के श्रम से विलगाव के....प्रविष्टि पर ‘अनवरत’ पर एक टिप्पणी:

मनुष्य द्वारा जीवन के पुनरुत्पादन और सुविधाओं हेतु आवश्यक उत्पादन करना उसकी नियति है। जाहिर है, उत्पादन होगा तो वह किसी ना किसी रूप में श्रम-प्रक्रियाओं से जुड़ा ही रहेगा। समस्या अभी के परिप्रेक्ष्य में है, और इसे इसी संदर्भ में बेहतर समझा भी जा सकता है। श्रम से विलगाव के जैविक परिणाम सामने ही हैं, और इसके सामाजिक परिणाम भी।

अभी सामाजिक आवश्यकताओं से निरपेक्ष व्यक्तिगतताएं, श्रमविहिन हो जाना ही अपना चरम लक्ष्य मानती है। इसीलिए यह श्रम से विलगाव की अवधारणा उत्पन्न होती है, परंतु यह वस्तुगत नहीं है। अधिकतर मनुष्य किसी ना किसी रूप में उत्पादन प्रक्रिया से जुड़े हो्ते हैं और किसी ना किसी प्रकार का श्रम कर रहे होते हैं। समाज के ऊपरी पायदान पर बौद्धिक श्रम की बढोतरी और शारीरिक श्रम की कमी होती जाती है। परंतु श्रम से विलगाव मनुष्य के हित में हो ही नहीं सकता।

इसी वज़ह से यह आसानी से देखा जा सकता है, शारीरिक श्रम से विलगित व्यक्ति विभिन्न रोगों का शिकार होते जाते हैं, मनुष्य जीवन के आनंद से भी विलग होते जाते हैं। जैसा कि आपने इशारा किया है। यही वास्तविक परिस्थितियां, वहां अपनी बारी में उन्हें सचेत करती हैं, और यह भी हम देख ही सकते है कि फिर वहां शारीरिक श्रम की वैकल्पिक विधियां खोजी जाती है, किसी ना किसी तरह से शरीर से श्रम करवाने की परिस्थितियां पैदा की जाती हैं। चूंकि यह श्रम व्यक्तिगत रूप से शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए, लगभग निरुद्देशीय सा होता है अतः इसमें नीरसता खत्म करने के लिए इसके साथ कई तरह की अवधारणाएं जोड़ी जाती हैं, ताकि इसे आंनंद से भारा जा सके तथा इसे एक सोद्देश्यता प्रदान की जा सके। यानि एक कृत्रिम जीवन शैली का समानान्तर विकास हो रहा है।

मनुष्यजाति का तकनीकि विकास उसके जीवन से भारी, नीरस, कठोर और सापेक्षतः गंदी श्रम-प्रक्रियाओं को खत्म करता है, इसमें उत्तरोत्तर प्रगति शनैः शनैः उत्पादन श्रम-प्रक्रियाओं को और हल्का और कम करेगी ही। जाहिरा तौर पर अभी की खास वर्गों की ही जागीर समझी जानी वाली तथाकथित श्रम-विहीनता और व्यापक होगी और जनसामान्य की ज़िंदगी मे प्रवेश करेंगी। सभी मनुष्यों के पास पर्याप्त समय और सुविधा होंगी कि वे अपनी श्रम की आवश्यकताओं को उनकी ही तरह सृजनात्मक कर सकें, खेलों के जरिए, विभिन्न कलाओं के जरिए, व्यक्तित्वविकास की प्रक्रिया से इन्हें जोड़ सकें,  श्रम करने के लिए ही आनंद के साथ श्रम कर सकें। यानि यह कृत्रिम ना रहकर, सहज और स्वतस्फूर्त ढ़ंग से जीवन को और आनंददायक बनाएगी।

श्रम ने मनुष्य को पैदा किया है, जाहिर है मनुष्य श्रम से विलगित नहीं हो सकता। वह लाख कोशिशें कर ले, श्रम से विलगाव की परिस्थितियां उसे पुनः किसी ना किसी रूप में श्रम की ओर लौटा ही लाएंगी, और यह उसकी इच्छाओं से स्वतंत्र ही होगा।

इस पर अलग से शोध उपलब्ध हो, यह तो नहीं कहा जा सकता। परंतु मानवजाति के अनुभवों और ज्ञान के महान भंड़ार में निश्चित तौर पर इसके निष्कर्ष निकाले जाने लायक इशारे मौजूद हैं। आप अक्सर चेतनाओं में उथल-पुथल करने के अवसर निकालते रहते हैं, अच्छा लगता है।
०००००००००००००००००००००००००००००००००००००
इस बार इतना ही।
आशा है कि कई विषयों पर चिंतन हेतु आपके दिमाग़ को निश्चित ही कुछ ख़ुराक तो मिली ही होगी।
आप चाहे तो किसी पर भी संवाद को आगे बढ़ाया जा सकता है। अलग से मेल पर भी जिज्ञासाएं की ही जा सकती हैं।

शुक्रिया।

समय
Related Posts with Thumbnails