रविवार, 28 जनवरी 2018

मानव समाज की रचना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के सिद्धांत के अंतर्गत सामाजिक क्रांति की संरचना को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम मानव समाज की रचना पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



मानव समाज की रचना
(the forming of Human Society)

जिस प्रक्रिया के दौरान कोई घटना उत्पन्न होती, रूप ग्रहण करती तथा विरचित (formed) होती है, किंतु अभी परिपक्व (matured) तथा पूर्ण नहीं हुई है और उसने अपने ठोस लक्षण उपार्जित (acquired) नहीं किये हैं, उस प्रक्रिया को उसकी रचना या संभवन (becoming) कहते हैं। जो घटना संभवन या विकास के क्रम में, यानी विरचित होने की प्रक्रिया में है, उसके बारे में विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि उसका अस्तित्व नहीं है, फिर यह कहना भी ग़लत है कि वह पूर्ण विकसित रूप में विद्यमान है। संभवन या विरचित होने की संकल्पना (concept) एक दार्शनिक प्रवर्ग (category) है। इसे सारी विकासमान घटनाओं के अध्ययन पर, विशेषतः उनकी उत्पत्ति (origin) की प्रारंभिक अवस्था में लागू किया जाता है। आइये, अब हम मानव के विरचित होने के क्रम पर विचार करते हैं।

मानवजाति की उत्पत्ति की प्रारंभिक अवस्था के बारे में जो कुछ हम जानते हैं, वह पुरातत्वीय उत्खननों ( archaeological excavations) से प्राप्त होता है। मनुष्य के सर्वाधिक प्राचीन पुरखों की खोज पिछली सदी में ही हुई है। अपनी जैविक लाक्षणिकताओं में वे जानवरों के निकटतर हैं, किंतु साथ ही उन्होंने भोजन प्राप्त करने तथा विविध वस्तुएं बनाने के लिए पहली बार पत्थर के निहायत सरल औज़ारों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। वैज्ञानिकगण इन प्राणियों को ‘प्राक्-मानव’ (prehuman) कहते हैं। उनकी जीवन पद्धति जानवरों के झुंड की जीवन पद्धति से बहुत मिलती-जुलती थी। उनके मस्तिष्क का आकार उच्चतर मानवसम (anthropoid) वानरों के मस्तिष्क से शायद ही बड़ा था।

प्राक्-मानव की अवस्थाओं में उत्पादन के संबंध (पद के शुद्ध अर्थ में) अभी नहीं बने थे और, फलतः, ऐसे कोई सामाजिक संबंध तथा संस्थान (institutions) भी नहीं थे, जो मानव समाज की विशेषता होते हैं। प्राक्-मानव लगभग ५५ लाख वर्ष पूर्व रहते थे और इसके बाद की क़रीब-क़रीब ३५ लाख वर्ष की अवधि को मानव समाज के विरचित होने की अवधि माना जा सकता है। उस अवधि के दौरान औज़ारों का परिष्करण और उत्पादन क्रियाकलाप का विकास अत्यंत मंद गति, स्वतःस्फूर्त (spontaneously) ढंग तथा प्रयत्न-त्रुटि (trial and error) के द्वारा होता रहा।

किंतु इस अवधि के अंत तक, समाज की उत्पादक शक्तियां (production forces) उस हद तक विकसित हो गयीं कि उनकी आगे की वृद्धि, सारी श्रम व सामाजिक प्रक्रियाओं के किंचित संगठन की मांग करने लगी। इस तरह, मनुष्य के आर्थिक क्रियाकलाप तथा सामाजिक संबंधों के और मुख्यतः उत्पादन संबंधों के बनने के पूर्वाधार, उत्पादक शक्तियों के विकास के ज़रिये सर्जित हुए। मनुष्य का सत्व, सामाजिक सत्व (social being) बन गया और उसके आधार पर सामाजिक चेतना का बनना शुरू हो गया।

मानव समाज के विरचित होने की प्रक्रिया लगभग १०-१५ लाख साल पहले पूरी हुई, जब पुरातनतम आदिम मानव ( Pithecanthropus ) का आविर्भाव हुआ था। इन्हें पुरा मानव या Palaeanthropos भी कहते हैं। अपनी दैहिक बनावट में वे ‘प्राक्-मानवों’ और जानवरों से बहुत ज़्यादा भिन्न थे। मानवीय नस्ल के विरचित होने की प्रक्रिया तब पूर्ण हुई, जब पहली सामाजिक-आर्थिक विरचना (socio-economic formation) - आदिम सामुदायिक प्रणाली - बनी।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 21 जनवरी 2018

सामाजिक क्रांति की संरचना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के सिद्धांत के अंतर्गत सामाजिक क्रांति पर चर्चा की थी, इस बार हम सामाजिक क्रांति की संरचना को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



सामाजिक क्रांति की संरचना
(structure of a social revolution)

जिस सामाजिक क्रांति से एक नयी सामाजिक-आर्थिक विरचना (socio-economic formation) बनती है, वह सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करती है और उसकी संरचना जटिल होती है।

पुरानी उत्पादन पद्धति का विनाश और नयी के उद्‍भव को आर्थिक क्रांति (economic revolution) कहते हैं। इसका मुख्य काम पुराने उत्पादन संबंधों (relations of production) को ऐसे नये संबंधों से प्रतिस्थापित करना है, जो उत्पादक शक्तियों (productive forces) के स्वभाव तथा विकास के स्तर के अनुरूप हों।

पुरानी विरचना के अंगों की रचना करनेवाले पुराने क़ानूनी तथा राजनीतिक संगठनों से बनी न्यायिक तथा राजनीतिक अधिरचना (superstructure) का, नयी विरचना के आधार के अनुरूप नयी न्यायिक तथा राजनीतिक अधिरचना के द्वारा प्रतिस्थापन को राजनीतिक क्रांति (political revolution) कहते हैं। 

चूंकि राज्य सत्ता, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपकरण होती है, इसलिए उसके लिए संघर्ष, राज्य सत्ता को हथियाना, पुराने राज्यतंत्र को तोड़ना और एक नये राज्य का निर्माण प्रत्येक सामाजिक क्रांति का सार है। मामले का यही एक पहलू है, जिसे क्रांतिकारी परिवर्तनों के विरोधी नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करते रहे हैं। वे इसे इस तरह से पेश करने का प्रयत्न करते हैं, मानो सामाजिक क्रांति की, विशेषतः समाजवादी क्रांति की सबसे महत्वपूर्ण समस्या को पुराने राज्य को ख़त्म किये बिना, उसे केवल सुधार कर तथा दोषहीन बनाकर हल किया जा सकता है। वे राज्य की वर्गीय प्रकृति (class nature) को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

पूंजीवादी राज्य, जो मेहनतकश वर्ग का राजनीतिक दमन करने का उपकरण है, अपनी प्रकृति से ही प्रतिरोधी अंतर्विरोधों (antagonist contradictions) का उन्मूलन नहीं कर सकता, उत्पादन के साधनों ( means of production) पर निजी स्वामित्व (private ownership) को ख़त्म नहीं कर सकता और वर्गहीन समाज (classless society) के निर्माण को बढ़ावा नहीं दे सकता। इसलिए पूंजीवादी राज्यतंत्र का, मेहनतकशों के राज्य ( जिसमें मज़दूर वर्ग की प्रमुख भूमिका हो ) से प्रतिस्थापन समाजवादी क्रांति (socialist revolution) का, उस क्रांति का अनिवार्य ऐतिहासिक पूर्वाधार है, जो सारी सामाजिक क्रांतियों की शृंखला में गहनतम क्रांति है।

एक विरचना से दूसरी में संक्रमण के दौरान सामाजिक चेतना और समाज की संपूर्ण आत्मिक संस्कृति में भी गहरे गुणात्मक परिवर्तन (qualitative changes) होते हैं, जिनमें वैचारिकी में परिवर्तन भी शामिल है। न्याय, नैतिकता, कला, दर्शन, आदि में एक नयी सामाजिक और वैचारिक अंतर्वस्तु (content) भर जाती है, जो नये सामाजिक सत्व (social being) को परावर्तित करती है और उसके विकास को सक्रियता से आगे बढ़ाती है। समाज की सांस्कृतिक छवि बदल जाती है। इस प्रक्रिया को सांस्कृतिक क्रांति (cultural revolution) कहते हैं

पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण (transition) की अवधि में समाज की बौद्धिक, सांस्कृतिक छवि में विशेष गहन परिवर्तन होते हैं। परंतु यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि सांस्कृतिक क्रांति का मतलब पूर्ववर्ती सांस्कृतिक परंपराओं से पूरी तरह से नाता तोड़ना तथा उन्हें ठुकरा देना है। एक वास्तविक सांस्कृतिक क्रांति को पूर्ववर्ती संस्कृतियों द्वारा रचित हर मूल्यवान चीज़ को संचित करना तथा विश्व व राष्ट्रीय संस्कृति की सर्वोच्च उपलब्धियों को सारे सामाजिक समूहों और सर्व-साधारण के विस्तृत अंचलों के लिए सुलभ बनाना चाहिए।

आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्रांतियां, सामाजिक क्रांति के सबसे महत्वपूर्ण पहलू (aspects) तथा तत्व (element) हैं और अपने कार्यान्वयन (realisation) में घनिष्ठता से अंतर्संबंधित (interconnected) हैं। कभी-कभी उनके समय एक दूसरे को प्रतिच्छेदित (intersect) करते हैं, कभी-कभी वे एक साथ होती हैं और कभी-कभी विशिष्ट ऐतिहासिक स्थिति के अनुसार आगे-पीछे हो सकती हैं और, कमोबेश, दीर्घकालिक हो सकती हैं। किंतु सभी परिस्थितियों में सामाजिक क्रांति केवल तभी पूर्ण होती है, जब अर्थव्यवस्था, सामाजिक व राजनीतिक जीवन और संस्कृति में सामाजिक विकास द्वारा प्रस्तुत कार्यों को निष्पादित कर दिया गया हो। इन कार्यों का निष्पादन करने का अर्थ, नयी सामाजिक-आर्थिक विरचना का निर्माण करना भी है।

सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के आनुक्रमिक परिवर्तन (consecutive change) तथा दूरगामी सामाजिक क्रांतियों के ज़रिये समाज का विकास, इतिहास का एक वस्तुगत नियम है। सामाजिक क्रांतियां, कुछ निश्चित परिस्थितियों में ही इतिहासानुसार अनिवार्य होती हैं। जब ये परिस्थितियां लुप्त हो जाती हैं, तो एक विरचना से दूसरी में संक्रमण की शक्ल में क्रांति की वस्तुगत अनिवार्यता (objective necessity) भी लुप्त हो जाती है। विरचनाओं की कार्यात्मकता (functioning) तथा अनुक्रमण (succession) के वस्तुगत नियमों की संक्रिया को समझने के वास्ते हमारे लिए ज़रूरी है कि हम मानव समाज के जन्म से लेकर मौजूदा समय तक के मानव इतिहास के विकास की बुनियादी अवस्थाओं की जांच-परख करें।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 14 जनवरी 2018

सामाजिक क्रांति

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के सिद्धांत के अंतर्गत देखा था कि सामाजिक-आर्थिक विरचना क्या होती है, इस बार हम सामाजिक क्रांति पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



सामाजिक क्रांति
(social revolution)

सामाजिक-आर्थिक विरचनाएं (formations) सामाजिक विकास के दौरान कार्यशील ही नहीं रहतीं, बल्कि एक के स्थान पर दूसरी क्रमिक रूप से आती रहती हैं और, यही नहीं, उनका यह क्रम निश्चित, वस्तुगत और नियम-संचालित होता है। एक विरचना से दूसरी में संक्रमण (transition) को सामाजिक क्रांति कहते हैं। इसका निर्धारण करनेवाली नियमितता (pattern) क्या है और वह किस पर निर्भर होती हैं ?

एक सामाजिक-आर्थिक विरचना से दूसरी में परिवर्तन का निर्धारण एक प्रभावी उत्पादन पद्धति (mode of production) का, दूसरी उत्पादन पद्धति के द्वारा प्रतिस्थापन (replacement) से होता है। पांच प्रमुख उत्पादन पद्धतियों के अनुरूप पांच प्रमुख सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं को विभेदित किया जाता है : आदिम-सामुदायिक, दासप्रथात्मक, सामंती, पूंजीवादी और कम्युनिस्ट।


विभिन्न देशों में और विभिन्न ऐतिहासिक अवधियों में एक विरचना से दूसरी में संक्रमण भिन्न-भिन्न ढंग से हो सकता है। कभी-कभी यह दशकों, यहां तक कि शताब्दियों तक जारी रहता है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि सामाजिक क्रांति इस बात से निर्धारित नहीं होती कि यह शांतिपूर्ण तरीक़े से होती है या शस्त्रास्त्रों के ज़रिये, दीर्घकालिक होती है या अल्पकालिक, बल्कि इस तथ्य से होती है कि उसके दौरान उत्पादन पद्धति में और सर्वोपरि आर्थिक आधार में परिवर्तन होता है या नहीं। जैसा कि मार्क्स ने दर्शाया, आधारों के इस परिवर्तन को वैज्ञानिक सटीकता से साबित किया जा सकता है। सामाजिक क्रांति के दौरान सामाजिक अधिरचना की सारी अवस्थाओं में जटिल तथा अत्यंत कठिन परिवर्तन होता है और समाज की वर्ग संरचना (class structure) आमूलतः बदल जाती है। इसलिए वर्ग विरचनाओं में यह परिवर्तन कटु वर्ग संघर्ष (class struggle) के साथ होता है।

एक विरचना से दूसरी में संक्रमण के दौरान सामाजिक चेतना के विविध रूपों की अंतर्वस्तु (content) भी बदल जाती है। कला, धर्म, नीति-आचार तथा दर्शन स्वयं नये सामाजिक सत्व (social being) को, लोगों के बीच नये संबंधों और राज्य सत्ता तथा पार्टियों की नयी प्रणाली को परावर्तित (reflect) करने लगते हैं। पूर्ववर्ती सामाजिक-आर्थिक विरचना के अंदर शांतिपूर्ण विकास की अवधि की तुलना में क्रांतियों के दौरान उत्पादन पद्धति और सामाजिक संबंधों में परिवर्तन दसियों-सैकड़ों गुना तेजी से होते हैं और समाज के जीवन में कहीं अधिक गहराई तक पैठते हैं। 

पारंपरिक संबंध, क्रियाकलाप की पद्धतियां और चिंतन के तरीक़े छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और समाज की मानसिकता और वैचारिकी बदल जाती है; संक्षेप में, सामाजिक शक्तियों के कटु और प्रबल संघर्ष में सारे का सारा भूतपूर्व जीवन मूल रूप से नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है और उसके फलस्वरूप नयी विरचना का रास्ता साफ़ हो जाता है। पुराने जीवन का यह उच्छेदन नयी विरचना के विकास का एक महत्वपूर्ण पूर्वाधार है। इसलिए सामाजिक क्रांतियां वस्तुगत ऐतिहासिक आवश्यकता (objective historical necessity) हैं। अगली, उच्चतर, इतिहासानुसार अधिक विकसित विरचना में संक्रमण एक सामाजिक क्रांति के बिना असंभव है



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 7 जनवरी 2018

सामाजिक-आर्थिक विरचना क्या है ?

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के सिद्धांत के अंतर्गत व्यष्टिक, विशेष तथा सार्विक पर चर्चा की थी, इस बार हम समझने का प्रयास करेंगे कि सामाजिक-आर्थिक विरचना क्या है?

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



सामाजिक-आर्थिक विरचना क्या है ?
( what is a socio-economic formation? )

जब हम अतीत, वर्तमान तथा भविष्य में मनुष्य की नियति, समाज में उसकी अवस्थिति (position) और परिवेशीय जगत के प्रति उसके रुख़ (attitude) पर विचार करते हैं, तो हमें ऐतिहासिक घटनाओं तथा मानवीय कारनामों, लोगों की पूरी जातियों तथा राज्यों के उत्थान, विकास तथा पतन की असीम विविधता से सामना पड़ता है। क्या इन सबके पीछे प्रकृति के जैसे कुछ सामान्य नियमों (general laws) को खोजा जा सकता है? ऐतिहासिक भौतिकवाद के सामाजिक दर्शन के उद्‍भव (rise) से पहले ऐसे नियमों को खोजने के सारे प्रयास विफल रहे।

ऐतिहासिक संवृत्तियों (events) तथा लोगों के कारनामों (deeds) की बाहरी विविधता तथा द्रुत (rapid) परिवर्तन के अंतर्गत किसी सार्विक (common) को, किसी ऐसी चीज़ को खोजने के लिए समाज की समझ में एक सच्चे क्रांतिकारी परिवर्तन की ज़रूरत थी, जो इन्हीं संवृत्तियों तथा क्रियाकलाप के रूपों को, परस्पर संबंधित तथा स्वयं उनकी संभावना को ही स्पष्ट कर सके। ऐसे सार्विक, सामान्य (general) को ही ‘सामाजिक-आर्थिक विरचना’ कहा गया।

सामाजिक-आर्थिक विरचना वस्तुगत (objective), स्थायी सामाजिक संबंधों, प्रक्रियाओं, संस्थानों तथा सामाजिक समूहों और सामाजिक चेतना के उन सारे रूपों व प्रकारों का समुच्चय (aggregate) है, जो एक निश्चित ऐतिहासिक युग में प्रचलित उत्पादन पद्धति (mode of production) के आधार पर उत्पन्न तथा विकसित होते हैं।

फलतः एक सामाजिक-आर्थिक विरचना अत्यंत जटिल प्रणाली है। प्रत्येक ऐतिहासिक युग में एक नहीं, अनेक उत्पादन पद्धतियां हो सकती हैं; मसलन, पूंजीवाद समाज में, प्रभुत्व प्राप्त पूंजीवादी उत्पादन के साथ ही टटपुंजियां (petty) पण्य उत्पादन (commodity production), पितृसत्तात्मक (patriarchal), यानी भरण-पोषण की उत्पादन व्यवस्था और सामंती (feudal) उत्पादन के अवशेष भी विद्यमान हो सकते हैं। इन गौण (subsidiary) या अप्रभावी (non-dominant) उत्पादन पद्धतियों को आम तौर पर क्षेत्रक (sectors) कहा जाता है। एक विरचना से दूसरी में संक्रमण (transition) की अवधि में ये विशेष विविधतापूर्ण होते हैं। किंतु क्षेत्रक स्वयं उत्पादन की प्रभावी पद्धति के अधीनस्थ (subordinate) होते हैं तथा उस पर निर्भर करते हैं। इसलिए प्रदत्त (given) विरचना के आधार (base) तथा उसकी अधिरचना (superstructure) को रूप प्रदान करनेवाले सारे सामाजिक संबंधों, प्रक्रियाओं, संस्थानों तथा चेतना के रूपों को यही प्रभावी पद्धति निर्धारित करती है।

समाज एक अविभक्त सामाजिक प्रणाली (system) या अंगी (organism) है, जो कई अंतर्संबंधित उपप्रणालियों (subsystems) से बना है। ये उपप्रणालियां एक दूसरे के साथ जुड़ी हैं ; मिसाल के लिए, उनमें वर्ग (class), राजनीतिक पार्टियां, राज्य, धार्मिक संगठन, परिवार, आदि शामिल हैं, किंतु वे सब अंततः उत्पादन पद्धति पर निर्भर हैं। एक विरचना की रचना करनेवाली विभिन्न उपप्रणालियों का उत्पादन पद्धति के साथ संयोजन (link) किंचित जटिल होता है और विविध संबंधों तथा निर्भरताओं के ज़रिये मूर्त होता है।

‘सामाजिक-आर्थिक विरचना’ एक प्रवर्ग (category) है, जो सर्वाधिक समान व सामान्य, वस्तुगत और आवश्यक विशेषताओं और अनुगुणों (properties) को परावर्तित (reflect) करता है, जो प्रभावी उत्पादन पद्धति से निर्धारित होते हैं, किंतु विभिन्न देशों में ख़ास तौर से व्यक्त होते हैं। ये विशेषताएं राष्ट्रीय और ऐतिहासिक अवस्थाओं पर, और इस पर निर्भर करती हैं कि प्रदत्त विरचना कब और किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुई

सामाजिक-अर्थिक विरचनाओं के सिद्धांत ने ऐतिहासिक प्रत्ययवाद (idealism) की सारी क़िस्मों पर क़रारी चोट की। इसलिए पूंजीवादी विचारकों, खासकर जर्मन सामाजशास्त्री माक्स बेबेर (१८६४-१९२०) के अनुयायियों ने इसका खंड़न करने के प्रयत्न में उसे ‘आदर्श प्रकार’ का यानी समाज का ऐसा काल्पनिक मॉडल बताया जिसका वस्तुगत ऐतिहासिक यथार्थता (reality) में कोई अस्तित्व नहीं है। प्रत्ययवादियों को जवाब देते हुए लेनिन ने लिखा था कि ‘सामाजिक-आर्थिक विरचना’ की संकल्पना (concept) ने "सामाजिक घटनाओं के वर्णन ( और आदर्श दृष्टि से उनके मूल्यांकन ) से उनके विशुद्ध वैज्ञानिक विश्लेषण की ओर अग्रसर होना संभव बनाया, उदाहरण के तौर पर कहा जाए तो ऐसा विश्लेषण जो एक पूंजीवादी देश को दूसरे से विभेदित (distinguish) करता है और उसकी जांच करता है जो उन सबमें समान (common) है।"

एक ही विरचना, मसलन, पूंजीवादी या समाजवादी विरचना, अपने को भिन्न-भिन्न मुल्कों में भिन्न-भिन्न ढंग से प्रकट कर सकती है, किंतु समान लक्षणों (common features) और स्थायी (stable), आवश्यक संयोजनों (necessary connections) के अस्तित्व से, सारे देशों तथा राष्ट्रों के लिए एक या दूसरी विरचना की कार्यशीलता (functioning) के नियमों और एक विरचना से दूसरी में संक्रमण के नियमों को निरूपित करना संभव हो जाता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम
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