रविवार, 30 मार्च 2014

विरोधियों की एकता तथा संघर्ष का नियम - दूसरा भाग

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत विरोधियों की एकता तथा संघर्ष के नियम पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



विरोधियों की एकता तथा संघर्ष का नियम - दूसरा भाग
( पिछली बार से जारी...)

यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि किस तरह के अंतर्विरोध ( contradiction ) विकास का स्रोत ( source ) हो सकते हैं। अंतर्विरोध स्वयं स्थिर नही रहते। घनीभूत, परिवर्तनहीन अंतर्विरोध, यानि जिनमें ‘घनीभूत’ परिवर्तनरहित विरोधी पक्ष ( opposite sides ) समाहित ( contained ) होते हैं, विकास के स्रोत का काम नहीं कर सकते। एक चुंबक के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों के बीच संबंध अपरिवर्तनशील है, जिससे चुंबक के ध्रुव स्वयं किसी नये अनुगुणों ( properties ), काल में अविपर्येय ( irreversible ) और दिशागत विकास को जन्म नहीं देते। परिवर्तनशील, गत्यात्मक ( mobile ) अंतर्विरोधों की बात बिल्कुल अलग है। जैसे कि पहले जीवित अंगियों के उपचयन और अपचयन का उदाहरण दिया गया था। जीवित अंगियों में स्वांगीकरण ( assimilation ) तथा विस्वांगीकरण ( dissimilation ) के बीच अंतर्विरोध लगातार उत्पन्न होते हैं, वर्द्धित होते हैं तथा उनका समाधान होता रहता है। इन विरोधी प्रक्रियाओं के बीच संतुलन गड़बड़ाता रहता है, और अंतर्विरोधों के समाधान के रूप में अविपर्येय परिवर्तन ( irreversible changes ) होते हैं, अंगी का विकास होता है।

चिंतन ( thought ) के विकास में भी ऐसी ही प्रक्रिया देखी जाती है। प्रत्येक वस्तु या परिघटना में असीम अनुगुण, पहलू ( aspects ) आदि होते हैं। उन सबको पूरी तरह से और बिल्कुल सही-सही जानना असंभव है। जब हम किसी वस्तु या परिघटना ( phenomenon ) पर सोच-विचार करते हैं, तो हम पहले एक पहलू का अध्ययन करते हैं, उसका संज्ञान प्राप्त करते हैं और फिर दूसरे का। जो संकल्पनाएं ( concepts ) और विचार इन पहलुओं को परावर्तित ( reflect ), अभिव्यक्त करते हैं, वे हमेशा एक दूसरे के अनुरूप ( correspond ) नहीं होते। इससे वस्तु या परिघटना के बारे में हमारे ज्ञान में कुछ निश्चित अंतर्विरोध उत्पन्न हो जाते हैं। जितना ही ये अंतर्विरोध संचित ( accumulate ) होते जाते हैं, उनका समाधान करने की, उन्हें एकीकृत करने की, एक ही एकल में समेकित करने की जरूरत पैदा होती और बढ़ती जाती है, और अध्ययनशील वस्तु या परिघटना का हमारा ज्ञान उतना ही गहन होता जाता है। इस तरह संज्ञान की प्रक्रिया के अंतर्विरोधों के समाधान के जरिए हम समग्र वस्तु या परिघटना के तथा उसके अलग-अलग पहलुओं व अनुगुणों के बीच नियम-संचालित कडियों के बारे में मूलतः नया ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसी में चिंतन का विकास व्यक्त होता है। इस तरह, विभिन्न संकल्पनाओं और विचारों का टकराव ( clashes ) और उनके बीच विसंगतियों ( discrepancies ) तथा अंतर्विरोधों का समाधान हमारे ज्ञान के विकास का सत्य स्रोत प्रमाणित होता है।

सामाजिक जीवन में भी हम देखते हैं कि उत्पादन व उपभोग जैसे विरोधी पक्षों की पारस्परिक क्रिया के परिणामस्वरूप इन दोनों में और फिर सारे समाज में परिवर्तन होते हैं। समाज की उपभोग की जरूरतें उत्पादन को प्रभावित करती हैं और उसमें परिवर्तन लाती हैं। इन जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उत्पादन तदनुरूप दिशा में विकसित होता है। मिसाल के लिए, उपनिवेशी पराधीनता की अवधि में उत्पादन को मुख्यतः साम्राज्यवादी देशों की आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में लगाया जाता था, परंतु राष्ट्रीय स्वाधीनता की प्राप्ति सारे उत्पादन को राष्ट्रीय विकास की आवश्यकता-पूर्ति की ओर लगाना जरूरी बना देती हैं। आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रयत्न में उत्पादन को बेहतर बनाया जाता है तथा और भी अधिक विकसित किया जाता है और आवश्यकताएं भी तदनुसार परिवर्तित व विकसित होती हैं। बदली हुई आवश्यकताएं उत्पादन के लिए नये कार्य प्रस्तुत कर देती हैं और उसकी अनुक्रिया में उत्पादन में फिर परिवर्तन होते हैं और यह सिलसिला जारी रहता है।

समाज के सारे इतिहास पर विचार करने तथा उसके प्रेरक बलों की बात सोचने पर हम देखते हैं कि युद्धों व क्रांतियों, सांस्कृतिक व आर्थिक संबंधों, औद्योगिक मंदियों व उत्कर्षों के विविधतापूर्ण अंतर्गुथन में विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक समूहों, वर्गों तथा राज्यों का टकराव तथा अनवरत संघर्ष लगातार व्यक्त होता रहता है, जो कभी उभार पर होता है और कभी उतार पर। इस संघर्ष के फलस्वरूप नये सामाजिक और राजनीतिक संबंध बनते हैं, पुराने राज्य विखंडित तथा नये गठित होते हैं और नयी सामाजिक-आर्थिक विरचनाएं ( formations ) जन्म लेती हैं, विकसित होती तथा फलती-फूलती हैं। इसीलिए यह जोर दिया जाता है कि विभिन्न सामाजिक शक्तियों, विशेषतः वर्गों का संघर्ष ( struggle of classes ) इतिहास का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रेरक बल और उसके विकास का वास्तविक स्रोत है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि, विरोधियों के बीच अंतर्क्रिया परिवर्तन और नयी गुणात्मक अवस्था में संक्रमण ( transition ) की ओर ले जाती हैं। इससे यह प्रकट होता है कि अंतर्विरोध ही वस्तुओं और घटनाओं की गति और विकास का स्रोत हैं। दूसरे शब्दों में, विरोधियों का संघर्ष और उनके बीच विद्यमान अंतर्विरोधों की उत्पत्ति, वृद्धि और खास तौर पर उनका समाधान ही किसी भी विकास का, चाहे वह कहीं भी और किसी भी रूप में क्यों न हो, वास्तविक स्रोत है। यहां भी यह ध्यान में रखा जाना महत्त्वपूर्ण है कि विरोधियों का संघर्ष एक दूसरे से भिन्न तथा एक दूसरे की विरोधी किन्हीं भी घटनाओं की नहीं, बल्कि सिर्फ़ ऐसी घटनाओं की अंतर्क्रिया, टकराव, उनके समाधान तथा अंतर्वेधन ( interpenetration ) को अभिव्यक्त करता है जो आवश्यक, आंतरिक, नियम-संचालित संबंधों से परस्पर जुड़ी होती हैं।

इस प्रकार, वस्तुओं और घटनाओं की विशेषता ऐसे विरोधी पहलू हैं, जो परस्पर एकत्व की अवस्था में होते हैं। इसके साथ ही वे महज़ सह-अस्तित्व में ही नहीं होते, बल्कि अनवरत अंतर्विरोध और पारस्परिक संघर्ष की स्थिति में होते हैं। विरोधियों का यही संघर्ष वास्तविकता की आंतरिक विषय-वस्तु, उसके विकास का स्रोत है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 22 मार्च 2014

विरोधियों की एकता तथा संघर्ष का नियम - पहला भाग

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के बुनियादी उसूलो के अंतर्गत विकास के उसूल को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम द्वंद्ववाद के नियमों पर चर्चा शुर करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद के नियम

भौतिकवादी द्वंद्ववाद ( materialistic dialectics ) सार्विक संपर्कों और विकास की शिक्षा है और ये इसके नियमों ( laws ) में अत्यंत पूर्णता से अभिव्यक्त होता है।  ‘नियम’ वस्तुओं और घटनाओं का एक वस्तुगत, सार्विक, आवश्यक और सारभूत संपर्क है, जिसकी विशेषता स्थायित्व ( permanency ) और पुनरावृत्ति ( repetition ) है। नियम ऐसा अनिवार्य और आवृत्तिशील संबंध है, जो तब तक निरंतर बना रहता है, जब तक इस नियम से नियंत्रित परिघटनाओं ( phenomenon ) का अस्तित्व रहता है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विशिष्ट विज्ञानों की उपलब्धियों तथा उनके द्वारा अविष्कृत नियमों का, जो वास्तविकता के किन्हीं खास क्षेत्रों तथा पहलुओं पर ही लागू होते हैं, सामान्यीकरण ( generalization ) करके सर्वाधिक सार्विक नियमों ( most universal laws ) को प्रकाश में लाता है। दर्शन द्वारा अध्ययन किये जानेवाले नियम वास्तविक जगत ( real world ) की सारी वस्तुओं और घटनाओं पर लागू होते हैं।

१. विरोधियों की एकता तथा संघर्ष का नियम - पहला भाग
( law of unity and struggle of opposites )

विकास के कारण, स्रोत ( source ) से संबंधित प्रश्न का वैज्ञानिक उत्तर द्वंद्ववादी दर्शन ने दिया, जो विरोधियों की एकता तथा संघर्ष के नियम में व्यक्त हुआ है। यह नियम द्वंद्ववाद का सार, मूलाधार है। यह विकास के आंतरिक कारण को उद्‍घाटित करता है, और दर्शाता है कि उसका स्रोत प्रक्रियाओं तथा घटनाओं के अंतर्विरोधी ( contradictory ) स्वभाव में तथा उनमें अंतर्भूत विरोधियों की अंतर्क्रिया ( interaction ) और संघर्ष ( struggle, conflict ) में निहित है।

इस नियम को समझने के लिए सबसे पहले ‘विरोधियों’ ( opposites ) तथा ‘अंतर्विरोधों' ( contradictions ) के अर्थ को स्पष्ट करना जरूरी है। ‘विरोधी’ किसी वस्तु या घटना के अंदरूनी पहलू, प्रवृत्तियां या शक्तियां हैं, जो एक दूसरी को अपवर्जित ( excluded ) करती हैं और साथ ही साथ एक दूसरी के लिए पूर्व-मान्य ( pre-accepted ) भी होती हैं। किसी भी प्रणाली में इन विरोधियों के बीच, परस्पर विरोधी अंशों, अनुगुणों, उपप्रणालियों, आदि के बीच परस्पर संबंध भी पाए जाते हैं। विरोधियों के बीच का यही अंतर्संबंध ( interrelation ) एक ‘अंतर्विरोध' होता है।

अजैव प्रकृति में विरोधियों का एक उदाहरण चुंबक है। इसका मुख्य विशिष्ट लक्षण उसके विरोधी ध्रुवों ( poles ) जैसे परस्पर अपवर्जक, परंतु साथ ही घनिष्ठता से अंतर्संबंधित पहलुओं की उपस्थिति है। उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से पृथक करने का कैसा भी प्रयत्न क्यों न किया जाये, वे अलग नहीं हो सकते। दो, चार या अधिक हिस्सों में काट दिये जाने पर भी चुंबक में उसके वही दो ध्रुव विद्यमान रहेंगे।

जीवित अंगियों के अस्तित्व और विकास की भी विशेषता विरोधियों का वज़ूद है। मसलन, उपचयन और अपचयन प्रक्रियाएं परस्पर विरोधी हैं। ( उपचयन शरीर के भीतर सरल पदार्थों से जटिल पदार्थों की रचना है और अपचयन ऐसे जटिल पदार्थों का विखंडन है। इस विखंडन के दौरान जीवन-क्रियाओं के लिए आवश्यक ऊर्जा विसर्जित होती है। इस तरह उपचयन और अपचयन मिलकर शरीर के अंदर पदार्थों के उपापचयी विनिमय ( metabolic exchange ) की रचना करते हैं। ) इनमें से एक के भी ख़त्म हो जाने पर अंगी का मरना अवश्यंभावी हो जाता है। आनुवंशिकता ( heredity ) तथा अनुकूलनशीलता ( adaptability ) भी विरोधी हैं। अंगी में, एक ओर तो, आनुवंशिक लक्षणों को धारण किये रहने की प्रवृत्ति होती है और दूसरी तरफ़, वह बदलती हुई दशाओं के अनुरूप नये लक्षणों के विकास की ओर प्रवृत्त रहता है।

वर्ग आधारित मानव समाजों में भी विरोधी वर्ग ( opposites classes ) होते हैं। मसलन, दासप्रथात्मक समाज में दास और दास-स्वामी, सामंती समाज में किसान और सामंत, पूंजीवादी समाज में बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग। संज्ञान ( cognition ) की प्रक्रिया में, चिंतन की प्रक्रिया में भी अंतर्विरोधी पहलू होते हैं। इस प्रकार, वास्तविकता ( reality ) की सारी घटनाओं और प्रक्रियाओं में विरोधी पहलू होते हैं। प्रकृति में अंतर्विरोधात्मकता सर्वव्यापी है। यहां यह भी समझ लेना महत्त्वपूर्ण है कि विश्व में सारी घटनाएं एक दूसरे के संदर्भ में विरोधियों, प्रतिपक्षों के रूप में नहीं आती, केवल वे ही घटनाएं विरोधी हैं, जो किसी तरह से परस्पर जुड़ी हैं और अपने कार्यों तथा विकास के दौरान एक दूसरे से अंतर्क्रिया करती हैं।

घटनाओं तथा वस्तुओं में निहित विरोधी किस प्रकार से पारस्परिक क्रिया करते हैं? विभिन्न वस्तुओं के विरोधी पहलू महज सहअस्तित्व ( co-existence ) में नहीं होते, बल्कि एक विशेष द्वंद्वात्मक अंतर्क्रिया में भी रहते हैं, जो विरोधियों के पारस्परिक रूपांतरण ( transformation ) या संपरिवर्तन ( conversion ) की प्रक्रिया होती है। इस अंतर्क्रिया में उनकी एकता और उनका संघर्ष, दोनों शामिल होते हैं।

विरोधियों की एकता का मतलब है कि एक दूसरे के बगैर उनका अस्तित्व नहीं हो सकता है और वे परस्पर निर्भर हैं। उनकी एकता की एक अभिव्यक्ति यह है कि वे निश्चित दशाओं में संतुलित होते हैं। ऐसा संतुलन, जिसमें इन दो विरोधियों में से कोई एक अन्य पर हावी नहीं होता, किसी एक चीज़ के विकास में स्थायित्व ( stability ) की अवस्था का द्योतक ( indicator ) होता है। परंतु विरोधियों का ऐसा संतुलन केवल सापेक्ष और अस्थायी होता है। विकास के दौरान संतुलन गड़बड़ा जाता है, जिसके अंतिम परिणामस्वरूप एक चीज़ या अवस्था का विलोपन और विरोधियों की नयी एकता से सज्जित दूसरी चीज़ या अवस्था का आविर्भाव हो जाता है। मिसाल के लिए, जवान हो रहे जंतुओं के शरीरों में उपचयन हावी होता है, परिपक्व शरीर में उपचयन और अपचयन संतुलित होते हैं, और वृद्ध शरीर में अपचयन हावी हो जाता है।

विरोधी पहलू एकता के बावजूद एक दूसरे के साथ ‘संघर्ष’ की स्थिति में भी होते हैं, यानि वे एक दूसरे का परस्पर निषेध ( prohibition ) तथा अपवर्जन ( exclusion ) भी करते हैं। जहां विरोधियों की एकता सापेक्ष होती है, वहां उनका संघर्ष, वैसे ही निरपेक्ष तथा स्थायी होता है, जैसे कि गति और विकास। बेशक, अंतर्विरोधों के अस्तित्व का ही अर्थ है कि एक विरोधी पहलू का दूसरे पर क्रिया करना और फलतः पारस्परिक परिवर्तन होना। विरोधियों के पारस्परिक संक्रमण ( transition ) तथा संपरिवर्तन ( conversion ) के दौरान घटनाओं या प्रक्रियाओं के लिए लाक्षणिक अंतर्विरोध उत्पन्न होते हैं और उनका समाधान ( solution ) होता है। अंतर्विरोधों की उत्पत्ति, वृद्धि तथा समाधान की प्रक्रिया के अध्ययन से हमें विकास के वास्तविक स्रोतों की समझ हासिल होती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 8 मार्च 2014

विकास का उसूल

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के बुनियादी उसूलो के अंतर्गत सार्विक संपर्क के उसूल को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम विकास के उसूल पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद के बुनियादी उसूल
विकास का उसूल

द्वंद्ववाद ( dialectics ) का दूसरा बुनियादी उसूल, विकास का उसूल है। इसका सार यह है कि विश्व को पूर्व-निष्पन्न ( ready made ) वस्तुओं के समुच्चय ( set, collection ) के रूप में नहीं, अपितु प्रक्रियाओं ( processes ) के समुच्चय के रूप में ग्रहण करना चाहिए, जिसमें स्थायी ( permanent ) प्रतीत होनेवाली वस्तुएं सतत आविर्भाव तथा अवसान ( continuative emersion and expiration ) के अविरत परिवर्तन क्रम से गुजरती हैं, जिसमें ऊपर से दिखाई देनेवाली सारी आकस्मिकता ( casualness ) के बावजूद अंततोगत्वा एक अग्रगति ( precession ) अपने लिए रास्ता बना लेती है।

विश्व में जारी परिवर्तन अपने स्वभाव व दिशा में भिन्न होते हैं। इनमें से कुछ एक दूसरे के संबंध में पिंडो की गति होते हैं, अन्य किसी एक वस्तु के गुणों, संरचना तथा कार्य में परिवर्तन होते हैं। कुछ परिवर्तन विपर्येय ( reversible ) होते हैं यानि जिन्हें पुनः पहली स्थिति में लौटाया जा सकता है, एक दूसरे में बदला जा सकता है ( पानी - बर्फ़ - पानी ), और दूसरे अविपर्येय ( irreversible ) होते हैं यानि उन्हें पुनः पहली स्थिति में लौटाया नहीं जा सकता ( भ्रूण - जीव शरीर )। कुछ नयी चीज़, जिसका पहले अस्तित्व नहीं था, पृथक परिवर्तनों के दौरान उत्पन्न हो सकती है। कुछ प्रक्रियाओं का आशय निम्न से उच्चतर और सरल से जटिलतर में संक्रमण ( transition ) है, तो अन्य का उच्चतर से निम्नतर में और जटिल से सरलतम में संक्रमण होता है। ‘विकास’, ‘प्रगति’ तथा ‘प्रतिगमन’ जैसी संकल्पनाओं को परिवर्तन के विभिन्न प्रकारों के संज्ञा-पदों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

विकास ( development ) एक प्रकार की गति है, जिसमें किसी किसी वस्तु अथवा प्रक्रिया की आंतरिक संरचना में परिवर्तन सम्मिलित होते हैं। जब हम कहते हैं कि एक प्रणाली विकसित होती है, तो हमारा मतलब उसकी संरचना ( structure ) में एक आंतरिक ( internal ), गुणात्मक रूपातंरण ( qualitative transformation ) से होता है। संरचनात्मक परिवर्तन अविपर्येय होते हैं और उनकी एक सुस्पष्ट दिशा होती है। इस तरह से कहा जा सकता है कि जिन प्रक्रियाओं में अविपर्येय परिवर्तन होते हैं और किसी नयी चीज़ की उत्पत्ति होती है वे आम तौर पर विकास की प्रक्रियाएं कही जाती हैं।


प्रकृति, समाज तथा चिंतन में विकास की तुलना तथा विश्लेषण कर के भौतिकवादी द्वंद्ववाद ( materialistic dialectics ) विकास के उन सबसे सामान्य लक्षणों ( general characteristics ) को प्रकाश में लाता है, जो इसे गति के अन्य रूपों से विभेदित करते हैं। ये लक्षण निम्नांकित हैं: ( १ ) विकास की काल में एक दिशा होती है, अतीत से वर्तमान तथा भविष्य को, ( २ ) विकास एक अविपर्येय प्रक्रिया है, ( ३ ) किसी भी विकास के दौरान ऐसी नयी चीज़ उत्पन्न होती है, जिसका पहले अस्तित्व नहीं था, ( ४ ) विकास की प्रक्रिया नियम-संचालित होती है और विकास के अलग-अलग रूपों और सामान्य विकास दोनों के वस्तुगत नियम होते हैं। ये गुण-विशेषताएं ( attributes ) एक सबसे महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रवर्ग, यानि "विकास" के अर्थ का निर्धारण करते हैं जो प्रकृति, समाज तथा चिंतन की सारी घटनाओं से संबंधित है।

उच्चतर क़िस्म के संगठन की ओर प्रगतिशील विकास को प्रगति ( progress ) कहते हैं और विपरीत दिशा में होनेवाले परिवर्तन प्रतिगमन ( regression ) कहलाते हैं। विकास, प्रगति और प्रतिगमन की जटिल द्वंद्वात्मक अंतर्क्रिया है। विश्व की, उसके विकास की, मनुष्यजाति के विकास की और मनुष्यों के मन में इस विकास के प्रतिबिंब की सच्ची अवधारणा केवल द्वंद्ववाद की पद्धतियों के द्वारा ही की जा सकती है, जो उद्भावना और तिरोभावना के बीच, प्रगतिशील और प्रतिगामी ( progressive and regressive ) परिवर्तनों के बीच असंख्य क्रिया-प्रतिक्रियाओं को निरंतर ध्यान में रखता है।

फलतः, सारे विश्व की गति को एक ही दिशा में होनेवाला - आरोही ( प्रगतिशील ) या अवरोही ( प्रतिगामी ) - विकास नहीं माना जा सकता है। केवल अलग-अलग प्रणालियों और प्रक्रियाओं के संबंध में ही निश्चित दिशा में होनेवाले परिवर्तन की बात कही जा सकती है। प्रगति और प्रतिगमन के बीच सहसंबंध ( correlation ) भौतिक जगत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होता है। अजैव जगत में ‘उदासीन’ प्रक्रियाएं हावी होती हैं ( इनमें प्रगतिशील व प्रतिगामी, दोनों ही तरह के परिवर्तन शामिल होते हैं )। लेकिन जैव प्रकृति में परिवर्तनों की मुख्य प्रवृत्ति प्रगतिशील होती है : जीवित प्राणियों के अधिक जटिल आंतरिक संगठन, संरचना तथा कार्यों की ओर। लेकिन यहां भी प्रगति में प्रतिगमन के तत्वों का मेल पाया जाता है।

यद्यपि समाज प्रगति के रास्ते में चलता है, तथापि प्रगति सीधी-सरल नहीं होती। इतिहास में कई विपर्ययों और तीव्र पुनरावर्तनों का होना ज्ञात है, पर इसके बावजूद इसकी सामान्य दिशा आरोही ( ascending ) और प्रगतिशील है। इतिहास में एक दूसरी का अनुक्रमण ( sequencing ) करनेवाली सभी सामाजिक व्यवस्थाएं मानव-समाज के निम्नावस्था से ऊपर की ओर अंतहीन विकास-क्रम की केवल अल्पकालिक मंज़िलें हैं।

यद्यपि गति और विकास के सार्विक ( universal ) होने का तथ्य अविवादास्पद ( uncontroversial ) है, तथापि जैसा कि हम शुरुआत में ही परिचित हो चुके हैं, विश्व प्रक्रिया को समझने के दो दृष्टिकोण हैं, विकास की दो संकल्पनाएं हैं - अधिभूतवादी और द्वंद्ववादी। विकास की द्वंद्वात्मक संकल्पना ( dialectical concept ), गति व विकास के स्रोत के बारे में, उनके स्वभाव, क्रिया-विधि, रूप तथा दिशा के बारे में वस्तुगत एवं विज्ञानसम्मत विवेचना और व्याख्या करती है। वहीं अधिभूतवादी संकल्पना ( metaphysical concept ) इस संदर्भ में आत्मगत ( subjectively ) रूप से, गति व विकास के स्रोतों को समझने में ग़लती करती है, वह विकास को पहले से ही विद्यमान ( existing ) में सामान्य घटती या बढ़ती ( decrease or increase ) समझती है, स्थायित्व ( stability ) को निरपेक्ष बनाती है तथा गति और विकास के अंतर्विरोधात्मक स्वभाव ( contradictory nature ) को समझने में नाकामयाब हो जाती है।

आज के प्रभुत्व प्राप्त वर्ग द्वारा प्रतिपादित विकास की अधिभूतवादी संकल्पना का एक निश्चित वर्ग उद्देश्य है। वह अपनी वर्ग हितबद्धता को ध्यान में रखते हुए, विकास की संकल्पना को इस तरह से पेश करती है, जिससे सामाजिक प्रगति के विचार को ठुकरा या विरुपित ( deform ) कर दिया जाए, शोषक समाज को शाश्वत, वर्गों के बीच संघर्ष को व्यर्थ और एक शोषणविहीन समतामूलक समाज की ओर अवश्यंभावी संक्रमण को, समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण ( revolutionary transformation ) की आवश्यकता को धूमिल कर दिया जाए।

भौतिकवादी द्वंद्ववाद मूलतः क्रांतिकारी है। यह लोगों को आस-पास के जगत की सारी प्रक्रियाओं और घटनाओं को गति और विकास में देखना सिखलाता है। प्रकृति और समाज में जारी वास्तविक प्रक्रियाओं को अधिक गंभीर और परिपूर्ण रूप से, एकता और संघर्ष की द्वंद्वात्मकता के साथ समझना सिखाता है। यह प्रकृति और समाज के विकास को रेखांकित करते हुए, समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की संभावनाओं को प्रदर्शित करता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 1 मार्च 2014

सार्विक संपर्क का उसूल

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद और संकलनवाद के बीच अंतर को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम द्वंद्ववाद का व्यवस्थित निरूपण शुरू करते हुए इसके बुनियादी उसूलो के अंतर्गत सार्विक संपर्क के उसूल पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



अब हम द्वंद्ववाद के व्यवस्थित विवेचन ( systematic deliberation ) और सटीक निरूपण ( accurate representation ) की ओर आगे बढ़ते हैं। सार्विक ( universal ) संबंधों के एक विज्ञान के रूप में द्वंद्वंवाद, गति और विकास के सामान्य नियमों का विज्ञान है। यह सार्विक संबंध के उसूल और, गति तथा विकास के उसूल को घनिष्ठता के साथ मिलाकर विचार करता है, क्योंकि भौतिक जगत में संबंध का मतलब है अंतर्क्रिया और अंतर्क्रिया ही गति और विकास की रचना करती है। हम यहां इन्हीं सार्विक संबंधों के उसूलों और गति एवं विकास के नियमों को थोड़ा सा विस्तार और व्यवस्थित रूप से समझने की कोशिश करेंगे। शुरुआत करेंगे कुछ बुनियादी उसूलों से।

द्वंद्ववाद के बुनियादी उसूल
सार्विक संपर्क का उसूल
संपर्क और अंतर्क्रिया

घटनाओं के बीच सार्विक संपर्क ( universal contact ) भौतिक जगत की सर्वाधिक सामान्य नियमितता ( regularity ) है। इसका आधार यह है कि विश्व की सारी वस्तुओं, प्रक्रियाओं तथा घटनाओं में एक सर्वनिष्ठ गुण ( common property ) है, वह है उनकी भौतिक प्रकृति। यहां सार्विक संपर्क का तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु या घटना की उत्पत्ति, परिवर्तन, विकास तथा गुणात्मकतः नई अवस्था में रूपांतरण ( transformation ) अकेले अलग-थलग होना असंभव है। ऐसा केवल दूसरी वस्तुओं, घटनाओं तथा भौतिक प्रणालियों के साथ अंतर्संबंध ( interrelation ) तथा अंतर्निर्भरता ( interdependence ) में ही हो सकता है। कोई भी एक वस्तु या प्रणाली ( object or system ), संबंधों के एक बहु-शाखीय जाल ( multi-branched network ) द्वारा अन्य वस्तुओं या प्रणालियों के साथ जुड़ी है और इनमें से कुछ में परिवर्तन ( change ) होने पर अन्य में भी निश्चित ही परिवर्तन होते हैं

सार्विक संपर्क की संकल्पना ( concept ) में संबंधों के समस्त प्रकार और रूप शामिल हैं। अंतर्क्रिया ( interaction ) उस संपर्क का एक सार्विक लक्षण ( characteristic ) है। अंतर्क्रिया का अर्थ वे सारे प्रकार, विधियां तथा रूप हैं, जिनके द्वारा वस्तुएं और प्रक्रियाएं एक दूसरी को प्रभावित करती हैं। जब वस्तुएं अंतर्क्रिया करती हैं, इसका अवश्यंभावी फल उनका पारस्परिक परिवर्तन तथा गति ( motion ) होता है। वास्तविक वस्तुओं के बीच अनगिनत अंतर्क्रियाओं का जाल ही अपनी समग्रता ( totality ) में, विकास की विश्व प्रक्रिया का आधार होता है।

मसलन, सौरमंडल में ग्रहों के साथ सूर्य की अंतर्क्रिया का अवश्यंभावी परिणाम सूर्य के गिर्द उनका घूमना होता है। जैव और अजैव प्रकृति के बीच अंतर्क्रिया केवल पौधों व जानवरों को ही नहीं, बल्कि उनके पर्यावरण को भी बदल देती है। भौतिक उत्पादन के दौरान मनुष्य प्रकृति के साथ अंतर्क्रिया करते है और इस प्रकार प्रकृति को तथा स्वयं को भी परिवर्तित करते हैं।

वस्तुगत जगत की चीज़ें और घटनाएं केवल अंतर्क्रिया ही नहीं करती, बल्कि परस्पर आश्रित ( mutually dependent ) भी होती हैं। वस्तुओं तथा घटनाओं के ऐसे अन्योन्याश्रय ( interdependence ) का मतलब यह है कि विकास के दौरान वे एक दूसरे को प्रभावित करती हैं, एक दूसरे का निर्धारण करती हैं तथा परस्पर निर्भर होती हैं।

परस्पर निर्भरता प्रकृति, सामाजिक जीवन तथा मानव चेतना में सर्वत्र पाई जाती है। उदाहरणार्थ, आधुनिक भौतिकी ने इलेक्ट्रोन के द्रव्यमान तथा उसकी गति के वेग की परस्पर निर्भरता को साबित कर दिया है। सामाजिक जीवन में, आपसी निर्भरता के भौतिक सामाजिक संबंध व्यक्तियों के मानस में परावर्तित ( reflect ) होते हैं, उनकी विचार-धारा को तद्‍अनुसार अनुकूलित ( conditioned ) बनाते हैं, जो अपनी बारी में ख़ुद सक्रिय प्रतिप्रभाव डालती है। मानव चेतना में संवेदनों ( sensations ) और संकल्पनाओं ( concepts ) के बीच घनिष्ठ अंतर्निर्भरता होती है।

सार्विक संपर्क तथा अंतर्क्रिया के सिद्धांत का, विश्व-दृष्टिकोण ( word-outlook ) यानि मनुष्य के दुनिया को देखने-समझने के नज़रिए के संबंध में बड़ा महत्त्व है। यह विश्व की भौतिक एकता ( materialistic unity ) की गहनतर समझ प्रदान करता है, इसके जरिए हम वस्तुओं तथा घटनाओं को उनके आपसी अंतर्संबंधों, निर्भरताओं और परस्पर अंतर्क्रियाओं के साथ देखने में सक्षम बनते हैं, उनको उनकी वास्तविकताओं ( actualities ) के साथ बेहतरी से जानने-समझने के योग्य बनते हैं।

सार्विक संपर्क और अंतर्क्रिया अपने रूपों में असीम विविधतापूर्ण है। वस्तुगत जगत की एकता और अखंडता ( integrity ) तथा इस जगत की वस्तुओं और घटनाओं की विविधता के द्वारा ही संपर्क के इन रूपों की प्रकृति और विविधता ( diversity ) का निर्धारण होता है। भौतिक जगत की प्रत्येक अलग-अलग वस्तु या घटना के अनेकानेक विविध पहलू तथा गुण होते हैं और फलतः, अन्य वस्तुओं और घटनाओं के साथ तथा शेष सारे विश्व के साथ अनगिनत अंतर्संबंध भी होते हैं। ये संबंध सतत गतिमान, परिवर्तनशील व विकासमान हैं। विकास के दौरान एक दूसरे के साथ तथा शेष विश्व के साथ उनके अंतर्संबंध लगातार बदलते रहते हैं। फलतः, वास्तविकता के सार्विक संपर्कों के रूप अत्यंत गतिशील ( dynamic ) भी हैं और जटिल ( complex ) व विविधतापूर्ण भी

द्वंद्ववाद के सारे प्रवर्ग ( categories ) और नियम ( laws ) किसी ना किसी प्रकार से इस विश्व की वास्तविकता के संपर्कों और संबंधों को अभिव्यक्त करते हैं। इन संपर्कों के विविध रूप अलग-थलग नहीं, बल्कि एक अखंड प्रणाली हैं। अंतर्क्रिया के रूप भी इतने ही विविध हैं। उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण यांत्रिक, भौतिक, जैविक और सामाजिक रूप हैं। इनमें से प्रत्येक में अनगिनत अंतर्क्रियाएं शामिल होती हैं और साथ ही साथ वे अन्य रूपों के साथ जटिल और विविधतापूर्ण अंतर्क्रियाएं करते हैं।

सार्विक संपर्क और अंतर्क्रिया की संकल्पना मानव संज्ञान ( cognition ) और व्यावहारिक कार्यकलाप के लिए असाधारण महत्त्व की है। वास्तव में, मानव द्वारा विश्व के संज्ञान का सारा इतिहास, इन्हीं सार्विक संपर्को और अंतर्क्रियाओं के असीम विविधतापूर्ण रूपों के रहस्यों में गहरे पैठने का, उनके व्यावहारिक उपयोग का ही इतिहास है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय
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