समय फिर हाज़िर है।
सोचा था प्रेम की चर्चा खत्म करके कुछ नया शुरू करेंगे, परंतु प्रतिक्रियाओं और मेल पर प्राप्त अन्य जिज्ञासाओं ने प्रेरित किया कि अभी प्रेम के मानसिक अंतर्द्वंदों और वास्तविक निगमनों पर और पन्नें काले किये जा सकते हैं। चलिए, बात शुरू की जाए..और यक़ीन मानिए अगर आप अपने पूर्वाग्रहों को थोड़ी देर ताक में रख देंगे तो इस में ज़्यादा मज़ा आएगा।
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मनुष्य अपनी ज़िंदगी समाज के बीचोंबीच शुरू करता है और स्नेह, वात्सल्य एवं दुलार उसे एक सुरक्षाबोध का अहसास कराते रहते हैं। उसकी दुनिया समाज के इस परिचित परिवेश में सिमटी हुई होती है। थोडी उम्र बढ़ती है, लिंगभेदों की पहचान आकार लेती है और इनके प्रति अनुत्तरित जिज्ञासाएं पनपने लगती हैं। कुछ और उम्र गुजरती है, अब विपरीत लिंगियों के बीच इक अनजानी सी शर्म का अहसास फलतः बढ़ती दूरी, और अनुत्तरित जिज्ञासाओं का अंतर्द्वंद उनके बीच स्वाभाविक तौर पर एक आकर्षण पैदा करता है। यह आकर्षण विपरीत लिंगियों के बीच दिलचस्पी का वाइस बनता है, और शर्म एवं झिझक का अहसास उनके बीच असहजता पैदा करता है। यह असहजता, इसके पहले के आपसी व्यवहार के संदर्भ में होती है और वे अपने आपसी संबंधों में कुछ अनोखापन महसूस करने लगते हैं। जाहिर है यह सब निकट के सामाजिक परिवेश के विपरीत लिंगियों के बीच ही घट रहा होता है। मनुष्य का परिवेश उन्हें निकट के रिश्तों की अनुकूलित समझ दे देता है अतएव यह असहजता इनसे थोडा़ अलग परिवेश के विपरीत लिंगियों के बीच पैदा होती है, और जहां ये थोडा़ अलग संभावनाएं आसपास नहीं होती, तो आप सभी जानते हैं कि शुरूआती तौर पर थोडा़ दूर के रिश्तों के विपरीत लिंगियों के बीच ही इस असहजता और आकर्षण को घटता हुआ देखा जा सकता है।
इन अस्पष्ट सी लुंज-पुंज भावनाओं के बीच आगमन होता है, एक नये सिरे से विकसित हो रही समझ का जो उनके बडों के आपसी व्यवहार को नये परिप्रेक्ष्यों में तौलने लगती है, उनके बीच के संबंधों में कुछ नया सूंघने लगती है। उपलब्ध साहित्य, फिल्मों और टीवी में चल रही कहानियों में भी नये अर्थ मिलने लगते हैं, जिन्हें अपनी जिज्ञासाओं के बरअक्स रखकर वे अपनी इन कोमल भावनाओं को नये शब्द, नयी परिभाषाएं, नये आयाम देने लगते हैं।
और फिर शारीरिक बदलावों के साथ किशोरावस्था की शुरूआत होती है, अब तक वे इन कोमल भावनाओं को ‘प्रेम’,‘प्यार’ के शब्द के रूप में एक नया अर्थ दे चुके होते हैं, जो कि इन शब्दों के बाल्यावस्था वाले अर्थों से अलग होता है। यह नया अर्थ यौन-प्रेम का होता है, और उपलब्ध परिवेश से अंतर्क्रियाओं के स्तर के अनुसार वे इस प्रेम की नई-नई परिभाषाएं, व्याख्याएं गढ़ चुके होते हैं।
वे इस प्रेम के भावनात्मक आवेग के जरिए जीवन में पहली बार अपने अस्तित्व का, समाज से विलगित रूप में अहसास करते हैं और समाज के सापेक्ष अपनी एक अलग पहचान, अपनी एक व्यक्तिगतता को महसूस करते हैं। शायद इसीलिए किसी मानव श्रेष्ठ ने कहा है कि प्रेम, मनुष्य का समाज के विरूद्ध पहला विद्रोह है। जाहिर है ये बडी ही विशिष्ट अवस्था है, और परिवेश द्वारा इस अवस्था से किस तरह निपटा जाता है यह उन किशोरों की कई भावी प्रवृतियों को निर्धारित करने वाला होता है।
अभी भी अधिकतर रूप में प्रेम की भावना के परिवेशजनित अर्थों में विपरीत लिंगी के प्रति एक आत्मिक लगाव, एक बिलाशर्त समर्पण, और एक गहन जिम्मेदारी और त्याग का भाव निहित रहता है, परंतु कहीं-कहीं जहां परिवेश में पश्चिमी प्रभाव ज्यादा घुलमिल रहा है प्रेम की भावना का अर्थ संकुचित होकर यौनिक आनंद तक सिमट रहा है। खैर इस दूसरे अतिरेक को छोड़ते हैं और पहले वाले अतिरेक पर ही लौटते हैं।
सामान्य भारतीय परिवेश में यौन-प्रेम वर्जित है, क्योंकि यह अपनी उत्पत्ति में किसी भी भाषिक, जातीय, आर्थिक और धार्मिक बंधनों को आड़े नहीं आने देता है जो कि अभी किशोर मन में अपनी जडे़ नहीं जमा पाए होते हैं और कमजो़र होते हैं और साथ ही इस भावना को सामान्यतयाः गलत नज़र से यानि कि व्यस्कों के यौन-अनुभवों की दृष्टी से भी देखा जाता है। जाहिरा तौर पर ये अव्यक्त, चोरी-छिपे की भावनाएं उनके अपरिपक्व मन में उथल-पुथल मचाए रहती हैं और इन वर्जनाओं और यौनिक दृष्टीकोणों के सापेक्ष किशोर मन इनके आत्मिक रूपों को अतिश्योक्तियां देता है, जिनका कि आधार उसे साहित्य और हिंदी सिनेमा से ज्यादा मिलता है।
इस दौर में आकर एक चीज़ और हो सकती है और वो यह कि सहज उपलब्ध विपरीत लिंगी के बजाए किशोर मन, किसी भी पसंद के व्यक्ति को सचेत रूप से अपने प्रेम का लक्षित बना लेता है और उसके मन में भी अपने लिए वैसी ही भावनाएं पैदा कर पाना अपनी तात्कालिक ज़िंदगी का लक्ष्य बना लेता है।
अक्सर सभी मनुष्य प्रेम की इन भावनाओं से दो-चार होते हैं, कहीं ये भावनाएं इकतरफ़ा रूप में दबी रह जाती हैं, कहीं ये अभिव्यक्त होकर थोड़ा सा दबा छिपा प्रेमाचार कर पाती हैं और भुला ली जाती हैं, कहीं ये पुरज़ोर रूप में सामने आती हैं और गंभीरता से अपनी परिणति की लडाई लडती हैं और सामाजिक अवसरवाद या सामाजिक मूल्यों के आगे दम तोड देती हैं और कहीं ये खुला विद्रोह कर अपने अंज़ाम तक पहुंच भी पाती हैं। अक्सर ये देखा जाता है, विरले ही रूप में परिणति तक पहुंचे प्रेम विवाह भी असफल रहते हैं। यह वहीं होता है जहां इन प्रेम-विवाहों के मूल में प्रेम का आत्मिक, प्रबल भावावेगों और मानसिक घटाघोपों वाला रूप होता है और ज़मीनी हक़ीकतों से, ज़िंदगी की ठोस भौतिक परिस्थितियों से अलगाव होता है। जाहिर है, प्रबल आत्मिक भावावेगों का हवाई बुलबुला ठोस ज़मीन पर जल्दी ही फूट जाता है।
अब ये आसानी से समझा जा सकता हैं कि प्रेम की विभिन्न परिभाषाओं और व्याख्याओं के मूल में क्या निहित होता है। जब प्रेम में पगा मन अपनी भावनाओं के वश में अपने प्रेमी या प्रेम के लक्षित के इंतज़ार में ही आनंद पाने को विवश होता है, तो उसे लगता है कि इंतज़ार ही प्रेम है। जब प्रेम का लक्षित सबसे महत्वपूर्ण हो उठता है, जागते-सोते उसके नाम की माला जपना जब सबसे आनंददायक मानसिक शगल हो उठता है, तो उसे लगता है कि प्रेम भगवान है, पूजा है। जब प्रेम में डूबा हुआ मन कोई असामान्य हरकत कर बैठता है, तो शायद उसे लगता है कि प्रेम एक पागलपन है, दीवानगी है। जब इकतरफ़ा प्रेम असफलता या इंकार की संभावना से डरा होता है तो उसे ये सोचना अच्छा लगता है कि प्रेम एक त्याग है और बदले में प्रेम पाने की आंकाक्षा एक दूसरे पर कब्ज़ा करना है जो कि प्रेम का लक्ष्य नहीं है।
अधिकतर मनुष्य, किशोरावस्था की इन्हीं अनगढ़ एकांतिक भावनाओं को, दमित आकांक्षाओं को मन में समेटे हुए ही अपनी आगे की ज़िंदगी को परवान चढा़ते हैं। ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों के आभामंड़ल के बीच, इन कोमल भावनाओं की स्मृति और कल्पनाएं उसे एक गहरा मानसिक सुकून देती हैं। किशोरावस्था के प्रेम की ये स्मृतियां कभी उसे गुड जैसा मीठा अहसास देती हैं, कभी एक भुला नहीं सकने वाली तल्ख़ी, कभी वे एक बचकाना दीवानापन लगती हैं और कभी भावों का जलेबी सा उलझा हुआ पर मीठा रसीला आनंद। मनुष्य ताउम्र अपनी कठोर ज़िंदगी से मिले फ़ुर्सत के क्षणों में इन मीठे और कोमल अहसासों की जुगाली करता रहता है।
मनुष्य अपनी बाद की ज़िंदगी में यौन-प्रेम की भौतिक तुष्टि पा चुका होता है, इसीलिए जाहिरा तौर पर अपने मानसिक सुकून के लिए वह अपने शुरूआती यौन-प्रेम की स्मृतियों की, जिनमें अक्सर यौनिक दृष्टिकोण पृष्ठभूमि में होता है, पवित्रता बनाए रखने के लिए उन्हें और भी अधिक आत्मिक परिभाषाओं और व्याख्याओं के नये आयामों तक विस्तार देता रहता है।
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तो हे मानव श्रेष्ठों !!
मुझे लगता है अब प्रेम पर ये काफ़ी सामग्री हो गयी है, जिसमें से आप प्रेम की भावनाओं को समझने के कई इशारे पा सकते हैं, और इस पर अपना अनुसंधान जारी रख सकते हैं।
निरपेक्ष विश्लेषण ही आपको सत्य की राह पर पहुंचा सकता है।
समय
मनुष्य अपनी ज़िंदगी समाज के बीचोंबीच शुरू करता है और स्नेह, वात्सल्य एवं दुलार उसे एक सुरक्षाबोध का अहसास कराते रहते हैं। उसकी दुनिया समाज के इस परिचित परिवेश में सिमटी हुई होती है। थोडी उम्र बढ़ती है, लिंगभेदों की पहचान आकार लेती है और इनके प्रति अनुत्तरित जिज्ञासाएं पनपने लगती हैं। कुछ और उम्र गुजरती है, अब विपरीत लिंगियों के बीच इक अनजानी सी शर्म का अहसास फलतः बढ़ती दूरी, और अनुत्तरित जिज्ञासाओं का अंतर्द्वंद उनके बीच स्वाभाविक तौर पर एक आकर्षण पैदा करता है। यह आकर्षण विपरीत लिंगियों के बीच दिलचस्पी का वाइस बनता है, और शर्म एवं झिझक का अहसास उनके बीच असहजता पैदा करता है। यह असहजता, इसके पहले के आपसी व्यवहार के संदर्भ में होती है और वे अपने आपसी संबंधों में कुछ अनोखापन महसूस करने लगते हैं। जाहिर है यह सब निकट के सामाजिक परिवेश के विपरीत लिंगियों के बीच ही घट रहा होता है। मनुष्य का परिवेश उन्हें निकट के रिश्तों की अनुकूलित समझ दे देता है अतएव यह असहजता इनसे थोडा़ अलग परिवेश के विपरीत लिंगियों के बीच पैदा होती है, और जहां ये थोडा़ अलग संभावनाएं आसपास नहीं होती, तो आप सभी जानते हैं कि शुरूआती तौर पर थोडा़ दूर के रिश्तों के विपरीत लिंगियों के बीच ही इस असहजता और आकर्षण को घटता हुआ देखा जा सकता है।
इन अस्पष्ट सी लुंज-पुंज भावनाओं के बीच आगमन होता है, एक नये सिरे से विकसित हो रही समझ का जो उनके बडों के आपसी व्यवहार को नये परिप्रेक्ष्यों में तौलने लगती है, उनके बीच के संबंधों में कुछ नया सूंघने लगती है। उपलब्ध साहित्य, फिल्मों और टीवी में चल रही कहानियों में भी नये अर्थ मिलने लगते हैं, जिन्हें अपनी जिज्ञासाओं के बरअक्स रखकर वे अपनी इन कोमल भावनाओं को नये शब्द, नयी परिभाषाएं, नये आयाम देने लगते हैं।
और फिर शारीरिक बदलावों के साथ किशोरावस्था की शुरूआत होती है, अब तक वे इन कोमल भावनाओं को ‘प्रेम’,‘प्यार’ के शब्द के रूप में एक नया अर्थ दे चुके होते हैं, जो कि इन शब्दों के बाल्यावस्था वाले अर्थों से अलग होता है। यह नया अर्थ यौन-प्रेम का होता है, और उपलब्ध परिवेश से अंतर्क्रियाओं के स्तर के अनुसार वे इस प्रेम की नई-नई परिभाषाएं, व्याख्याएं गढ़ चुके होते हैं।
वे इस प्रेम के भावनात्मक आवेग के जरिए जीवन में पहली बार अपने अस्तित्व का, समाज से विलगित रूप में अहसास करते हैं और समाज के सापेक्ष अपनी एक अलग पहचान, अपनी एक व्यक्तिगतता को महसूस करते हैं। शायद इसीलिए किसी मानव श्रेष्ठ ने कहा है कि प्रेम, मनुष्य का समाज के विरूद्ध पहला विद्रोह है। जाहिर है ये बडी ही विशिष्ट अवस्था है, और परिवेश द्वारा इस अवस्था से किस तरह निपटा जाता है यह उन किशोरों की कई भावी प्रवृतियों को निर्धारित करने वाला होता है।
अभी भी अधिकतर रूप में प्रेम की भावना के परिवेशजनित अर्थों में विपरीत लिंगी के प्रति एक आत्मिक लगाव, एक बिलाशर्त समर्पण, और एक गहन जिम्मेदारी और त्याग का भाव निहित रहता है, परंतु कहीं-कहीं जहां परिवेश में पश्चिमी प्रभाव ज्यादा घुलमिल रहा है प्रेम की भावना का अर्थ संकुचित होकर यौनिक आनंद तक सिमट रहा है। खैर इस दूसरे अतिरेक को छोड़ते हैं और पहले वाले अतिरेक पर ही लौटते हैं।
सामान्य भारतीय परिवेश में यौन-प्रेम वर्जित है, क्योंकि यह अपनी उत्पत्ति में किसी भी भाषिक, जातीय, आर्थिक और धार्मिक बंधनों को आड़े नहीं आने देता है जो कि अभी किशोर मन में अपनी जडे़ नहीं जमा पाए होते हैं और कमजो़र होते हैं और साथ ही इस भावना को सामान्यतयाः गलत नज़र से यानि कि व्यस्कों के यौन-अनुभवों की दृष्टी से भी देखा जाता है। जाहिरा तौर पर ये अव्यक्त, चोरी-छिपे की भावनाएं उनके अपरिपक्व मन में उथल-पुथल मचाए रहती हैं और इन वर्जनाओं और यौनिक दृष्टीकोणों के सापेक्ष किशोर मन इनके आत्मिक रूपों को अतिश्योक्तियां देता है, जिनका कि आधार उसे साहित्य और हिंदी सिनेमा से ज्यादा मिलता है।
इस दौर में आकर एक चीज़ और हो सकती है और वो यह कि सहज उपलब्ध विपरीत लिंगी के बजाए किशोर मन, किसी भी पसंद के व्यक्ति को सचेत रूप से अपने प्रेम का लक्षित बना लेता है और उसके मन में भी अपने लिए वैसी ही भावनाएं पैदा कर पाना अपनी तात्कालिक ज़िंदगी का लक्ष्य बना लेता है।
अक्सर सभी मनुष्य प्रेम की इन भावनाओं से दो-चार होते हैं, कहीं ये भावनाएं इकतरफ़ा रूप में दबी रह जाती हैं, कहीं ये अभिव्यक्त होकर थोड़ा सा दबा छिपा प्रेमाचार कर पाती हैं और भुला ली जाती हैं, कहीं ये पुरज़ोर रूप में सामने आती हैं और गंभीरता से अपनी परिणति की लडाई लडती हैं और सामाजिक अवसरवाद या सामाजिक मूल्यों के आगे दम तोड देती हैं और कहीं ये खुला विद्रोह कर अपने अंज़ाम तक पहुंच भी पाती हैं। अक्सर ये देखा जाता है, विरले ही रूप में परिणति तक पहुंचे प्रेम विवाह भी असफल रहते हैं। यह वहीं होता है जहां इन प्रेम-विवाहों के मूल में प्रेम का आत्मिक, प्रबल भावावेगों और मानसिक घटाघोपों वाला रूप होता है और ज़मीनी हक़ीकतों से, ज़िंदगी की ठोस भौतिक परिस्थितियों से अलगाव होता है। जाहिर है, प्रबल आत्मिक भावावेगों का हवाई बुलबुला ठोस ज़मीन पर जल्दी ही फूट जाता है।
अब ये आसानी से समझा जा सकता हैं कि प्रेम की विभिन्न परिभाषाओं और व्याख्याओं के मूल में क्या निहित होता है। जब प्रेम में पगा मन अपनी भावनाओं के वश में अपने प्रेमी या प्रेम के लक्षित के इंतज़ार में ही आनंद पाने को विवश होता है, तो उसे लगता है कि इंतज़ार ही प्रेम है। जब प्रेम का लक्षित सबसे महत्वपूर्ण हो उठता है, जागते-सोते उसके नाम की माला जपना जब सबसे आनंददायक मानसिक शगल हो उठता है, तो उसे लगता है कि प्रेम भगवान है, पूजा है। जब प्रेम में डूबा हुआ मन कोई असामान्य हरकत कर बैठता है, तो शायद उसे लगता है कि प्रेम एक पागलपन है, दीवानगी है। जब इकतरफ़ा प्रेम असफलता या इंकार की संभावना से डरा होता है तो उसे ये सोचना अच्छा लगता है कि प्रेम एक त्याग है और बदले में प्रेम पाने की आंकाक्षा एक दूसरे पर कब्ज़ा करना है जो कि प्रेम का लक्ष्य नहीं है।
अधिकतर मनुष्य, किशोरावस्था की इन्हीं अनगढ़ एकांतिक भावनाओं को, दमित आकांक्षाओं को मन में समेटे हुए ही अपनी आगे की ज़िंदगी को परवान चढा़ते हैं। ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों के आभामंड़ल के बीच, इन कोमल भावनाओं की स्मृति और कल्पनाएं उसे एक गहरा मानसिक सुकून देती हैं। किशोरावस्था के प्रेम की ये स्मृतियां कभी उसे गुड जैसा मीठा अहसास देती हैं, कभी एक भुला नहीं सकने वाली तल्ख़ी, कभी वे एक बचकाना दीवानापन लगती हैं और कभी भावों का जलेबी सा उलझा हुआ पर मीठा रसीला आनंद। मनुष्य ताउम्र अपनी कठोर ज़िंदगी से मिले फ़ुर्सत के क्षणों में इन मीठे और कोमल अहसासों की जुगाली करता रहता है।
मनुष्य अपनी बाद की ज़िंदगी में यौन-प्रेम की भौतिक तुष्टि पा चुका होता है, इसीलिए जाहिरा तौर पर अपने मानसिक सुकून के लिए वह अपने शुरूआती यौन-प्रेम की स्मृतियों की, जिनमें अक्सर यौनिक दृष्टिकोण पृष्ठभूमि में होता है, पवित्रता बनाए रखने के लिए उन्हें और भी अधिक आत्मिक परिभाषाओं और व्याख्याओं के नये आयामों तक विस्तार देता रहता है।
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तो हे मानव श्रेष्ठों !!
मुझे लगता है अब प्रेम पर ये काफ़ी सामग्री हो गयी है, जिसमें से आप प्रेम की भावनाओं को समझने के कई इशारे पा सकते हैं, और इस पर अपना अनुसंधान जारी रख सकते हैं।
निरपेक्ष विश्लेषण ही आपको सत्य की राह पर पहुंचा सकता है।
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